मीडिया ने मोदी को पी एम बना दिया है - शिरीष कुमार मौर्य की दो नई कवितायें


जिन दिनों इस देश में हिटलर के असली वाले अवतार की ताज़पोशी की असली और आभासी तैयारियाँ चल रही हैं, यह संभव नहीं कि प्रगतिशील समाज बनाने के स्वप्न देखने वाला कवि खामोश रह सके. ठीक है कि बहुत से लोग धीरे धीरे प्रेम और प्रकृति की ठण्डी छांह में सुस्ता रहे हैं और मुग्धता के प्रताप पर उठे सवाल को मूर्खता का प्रताप बता रहे हैं, लेकिन इसी के बीच कवियों का एक बड़ा हिस्सा इस आसन्न संकट के ख़िलाफ़ तैयारी में लगा है. शिरीष की ये दो कवितायें उस तैयारी का हिस्सा हैं जो अपनी साहित्यिक दुनिया के भीतर भी सवाल खड़े करती हैं और बाहर भी नाम लेकर सवाल पूछने की हिम्मत करती हैं.   
फोटोग्राफ : ओमेश लखवार 




मीडिया ने मोदी को पी एम बना दिया है

पटाखे फूट रहे हैं
समय से पहले दीवाली आ गई लोगो
लड्डू बंट रहे हैं गुजरात से यू पी तक
मोदी की मां समझ नहीं पा रही हैं क्‍या हो रहा है चैनल वाले उनके पीछे पड़े हैं
आपको कैसा लग रहा है
वो आयुवृद्ध महिला इतना कह पायीं हैं कि नरेन घर छोड़कर भागा
तो फिर सीधे मुख्‍यमंत्री पद की शपथ लेते ही दिखा
महेन्‍द्रभाई दर्जी मोदी के बालसखा मोदी के व्‍यक्ति-निर्माण में
रा.स्‍व.से.सं. और नाटक की भूमिका को रेखांकित करते हैं जो दरअसल तथ्‍यपूर्ण बात है
वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड की गीता हाथ में ले छूंछे नाटकीय हाव-भाव से
कोई इस महादेश का नेता बन सकता है यही ओरिएंटलिज्‍़म है

संघ के जांघों से बेहद ढीले हाफपैंट देख खी-खी करने लगता है मेरा बेटा
जिसे वो रियलिटी में मज़ाक समझता है अपनी अल्‍पायु में वो मेरी आयु में
एक भयावह हाइपर्रियल कंडीशन है

भाजपा पीछे छूट गई है उसने सिर्फ़ पी एम इन वेटिंग का ऐलान किया है
मीडिया ने मोदी को पी एम बना दिया है

हिन्‍दी का कवि अब मोदी का विरोध करे कि मीडिया का
मोदी से डरे
कि मीडिया से

साम्‍प्रदायिकता एक संकट है
उससे बड़ा संकट है एफ आई आई
गुजरात का विकास माडल इसी के ज़रिए आई आवारा पोर्टफालियो विदेशी पूंजी के दम पर खड़ा है
जिसके गिरने के नियतांक पहले से तय हैं
क्‍या आपको पता है नागरिको
देश पर जो विदेशी कर्ज़ बताया जाता है उसका दो तिहाई तो
बेलगाम कारपोरेट घरानों ने लिया और वो देश के खाते में गया है   

और यह भी कोई इत्‍तेफ़ाक नहीं है
कि अभी घोषित हमारे इस एक पी एम इन वेटिंग ने हमेशा ही एफ आई आई का
खुले दिल से स्‍वागत किया है

इसलिए 2014 से पहले सिर्फ़ कविता न लिखें कवि
पाठक सिर्फ़ उनके अंदाज़े-बयां पर वाह-वाह न हो जाएं
अपने हित में कुछ अर्थशास्‍त्र भी बांचे 
इसके पहले कि क़त्‍ल हो जाएं अपनी विकट उम्‍मीदों के साथ
समाज और देश के चलने के कुछ गूढ़ार्थ भी जानें

मीडिया ने तो मोदी को सर्वाधिक लोकप्रिय बता पी एम बना दिया है
नागरिको
सोचो कि मीडिया में कारपोरेट घरानों का कितना पैसा लगा है

जो कुछ यहां मैंने लिखा है
उसे कविता समझना व्‍यर्थ है और अगर इसे कविता समझना है
तो इससे पहले देश के आर्थिक-सामाजिक हालात को समझना
मेरी इकलौती शर्त है।
***

भाषा और जूते

अपने बनने की शुरूआत से ही
धरती और पांव के बीच बाधा नहीं सम्‍बन्‍ध की तरह
विकसित हुए हैं जूते
लेकिन नहाते और सोते वक्‍़त जूते पहनना समझ से परे है

लोग अब भाषा में भी जूते पहनकर चलने लगे हैं
वे कलम की स्‍याही जांचने और काग़ज़ के कोरेपन को महसूस करने की बजाए
जूते चमकाते हैं मनोयोग से
और उन्‍हें पहन भाषा में उतर जाते हैं

कविता की धरती पर पदचिह्न नहीं जूतों की छाप मिलने लगी हैं
अलग-अलग नम्‍बरों की
कुछ लोगों के जूतों का आकार बढ़ता जाता है सम्‍मानों-पुरस्‍कारों के साथ
वे अधिक जगह घेरने और अधिक आवाज़ करने लगते हैं

कुछ लोग अपने आकार से बड़े जूते पहनने लगते हैं उन्‍हें लद्धड़ घसीटते दिख जाते हैं
अधिक बड़ी छाप छोड़ जाने की निर्दयी और मूर्ख आकांक्षा से भरे

अब भाषा कोई मंदिर तो नहीं या फिर दादी की रसोई
कि जूते पहनकर आना मना कर दिया जाए

मैंने देखा एक विकट प्रतिभावान अचानक कविता में स्‍थापित हो गया युवा कवि
कविता की भाषा में पतलून पहनना भूल गया था
पर जूते नहीं
वो चमक रहे थे शानदार उन्‍हें कविता में पोंछकर वह कविता से बाहर निकल गया

और इसका क्‍या करें
कि एक बहुत प्रिय अति-वरिष्‍ठ हमारे बिना फीते के चमरौंधे पहनते हैं
भाषा में झगड़ा कर लेते हैं – क्‍या रक्‍खा है बातों में ले लो जूता हाथों में की तर्ज़ पर
खोल लेते हैं उन्‍हें
उधर वे जूता लहराते हैं
इधर उनके मोज़े गंधाते हैं
दुहरी मार है यह भाषा बेचारी पर

कुछ कवियों के जूते दिल्‍ली के तीन बड़े प्रकाशकों की देहरी पर उतरे हुए पाए जाते हैं
प्रकाशक की देहरी भाषा का मनमर्जी गलियारा नहीं
एक बड़ी और पवित्र जगह है

कवियों के ये जूते कभी आपसी झगड़ों में उतरते हैं
तो कभी अतिशय विनम्रता में
कविता में कभी नहीं उतरते डटे रहते हैं पालिश किए हुए चमचमाते खुर्राट
दूसरों को हीन साबित करते

कुछ कवयित्रियां भी हैं
अल्‍लाह मुआफ़ करे वे वरिष्‍ठ कवियों और आलोचकों के समारोहों में
सालियों की भूमिका निभाती दिख जाती हैं
शरारतन जूता चुराती फिर अपना प्राप्‍य पा पल्‍लू से उन्‍हें और भी चमकाती
लौटा जाती हैं
इस बात पर मुझे ख़ुद जूते पड़ सकते हैं पर कहना तो होगा ही इसे
समझदार कवयित्रियां जानती हैं
कि कविता वरिष्‍ठों के जूतों में नहीं भाषा की धूल में निवास करती है 
ग़नीमत है आज भी स्त्रियां पुरुषों से अधिक जानती हैं

युवतर कवियों में इधर खेल के ब्रांडेड जूते पहनने का चलन बढ़ा है
वे दौड़ में हैं और पीछे छूट जाने का भय है
कुछ गंवार तब भी चले आते हैं नंगे पांव
उनके ज़ख्‍़म सहानुभूति तो जगा सकते हैं पर उन्‍हें जूता नहीं पहना सकते

मैं बहुत संजीदा हूं जूतों से भरती भाषा और कविता के संसार में
मेरी इस कविता को महज खिलंदड़ापन न मान लिया जाए
मैंने ख़ुद तीन बार जूते पहने पर तुरत उतार भी दिए
वे पांव काटते थे मेरा
और मैं पांव की क़ीमत पर जूते बचा लेने का हामी नहीं था

अब मैं भाषा का एक साधारण पदातिक
जूतों के दुकानदारों को कविता का लालच देता घूम रहा हूं
कि किसी तरह बिक्री बंद हो जूतों की
पर मेरा दिया हुआ लालच कम है भाषा में जूतों का व्‍यापार
उदारीकरण के दौर में एक बड़ी सम्‍भावना है

कुछ समय बाद शायद मैं जूताचोर बन जाऊं बल्कि उससे अधिक
भाषा में जूतों का हत्‍यारा
लानत के पत्‍थर बांध फेंकने लगूं अपने चुराए जूते
नदियों और झीलों में 
क्‍योंकि अभी आत्‍मालोचना के एक हठी इलाक़े में प्रवेश किया है मैंने 
और वहां करने लायक बचे कामों में यह भी एक बड़ा काम बचा है।
***  



टिप्पणियाँ

अरुण अवध ने कहा…
पहली कविता देश में फासीवादी खतरे से जहाँ सावधान करती वहीं दूसरी कविता साहित्यिक क्षेत्र में जूते चमकने की बढ़ती प्रवत्ति पर करारा प्रहार करती है | कवितायेँ महत्वपूर्ण हैं और जरूरी भी | शिरीष जी को बधाई |
Kumar Ambuj ने कहा…
दोनों कविताएं एकाधिक मायनों में अच्‍छी हैं। अपने समय में कवि की अनिवार्य उपस्थिति दर्शाती ये कविताएं इधर प्रकाश में आईं ढेरों कविताओं के बीच विचार, कला और यथार्थ को बेधक निगाह से देखती ये कविताएं आशवस्ति हैं। यहां कल्‍पनाशीलता और दूरनिगाही भी गायब नहीं हो गई है। एक पाठक के तौर पर इन्‍हें पढ़कर संतोष और प्रसन्‍नता है।
Prem Chand Sahajwala ने कहा…
मोदी की दान्वाकृति सी शख्सियत को आकाशीय बनता देख धीरे धीरे समझ आता जा रहा है कि समय कैसी खतरनाक करवट बदल रहा है. जश्न तो ऐसा हो चला है जैसे वे पी.एम बन गए हों. शर्म की बात कि कतिपय अंग्रेज़ी के पत्रकार यथा तवलीन सिंह आदि भी कई दिन से मोदी उपासना में सिर्फ इसलिए लगे हैं कि उनकी नेहरू परिवार से अनबन है. मैं कोई कांग्रेस या नेहरू परिवार भक्त नहीं हूँ लेकिन मोदी की सीढी पक्षधरता उसकी किसी योग्यता के करण नहीं बल्कि कांग्रेस द्वारा लताड़े जाने के कारण है. दो बातें और. इस देश को सन 1989 - 92 में मोहम्मद अली जिन्ना मिला जिसने रथ यात्रा की और देश को निर्मम तरीके से बाँट दिया. और कि हिटलर की बात आपने भली कही. राष्ट्रीय स्वयंसेवक के द्वितीय कर्ता धर्ता गुरु गोलवलकर पूरी तरह हिटलर भक्त थे पर उन्होंने हिटलर की भूरी भूरी प्रशंसा के बाद एक समय उनकी कटु आलोचना इसलिए भी की कि हिटलर ने सत्ता को क्यों अपनाया. आप कितनी शर्मनाक बात है कि रा.स्व.सं खुद सत्ता के गलियारों में अपनी चहलकदमी के रास्ते बना रहा है और कि खाकी नेक्रें पहन कर बड़ा हुआ हिंदुस्तानी हिटलर सत्ता की ओर भेड़ियों जैसी लपलपाती जीभ से देख कर गर्जना कर रहा है जो अटल जी की अति आकर्षक सिंह गर्जना के आगे एक बुरे समय के आने की घोषणा कर रही है...
सुभाष गाताड़े ने कहा…
इत्तेफाक से थोडी देर पहले ही यह कविता पढ़ा था.
शिरीष जी को बधाई दें खरी बात कहने के लिए
Dr. Amar Jyoti ने कहा…
बेहतरीन कथ्य! हालांकि इन्हें कविता कहूं या कवितानुमा सार्थक सशक्त बयान -यह तय नहीं कर पा रहा हूं।
Dr. Amar Jyoti ने कहा…
बेहतरीन कथ्य! हालांकि इन्हें कविता कहूं या कवितानुमा सार्थक सशक्त बयान -यह तय नहीं कर पा रहा हूं।
कृष्‍णप्रताप सिंह ने कहा…
दोनों कविताएं बहुत अच्‍छी लगीं। पहली कविता राजनीति में सावधान करती है और पहली बार दिख रहा है कि कविता के भीतर कोई साम्‍प्रदायिकता के ख़तरे के अलावा मोदी के आर्थिक उदारीकरण के प्रेम को भी उजागर कर रहा है। दूसरी कविता कविता में सावधान करती है और मुझे कहीं ऐसा नहीं लगा कि सिर्फ दूसरों को सावधान करती है, खुद कवि को भी करती है, अंत में आत्‍मालोचन इसीलिए आता है। वाकई इन जूतों को फेंक देने का समय आ गया है। कवि खुद ही उतार फेंके तो अच्‍छा रहेगा वरना पाठक ऐसा करने लगे तो मियां की जूती मियां सर वाली कहावत भी चरितार्थ हो सकती है।
कविताएं दुराग्रहपूर्ण लगीं । प्रगतिशील कवि होने का अर्थ यह नही कि हर बात में सिर्फ विसंगतियाँ ही देखे ।


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