जीवन-संदेश प्रसारित करता कविता-संग्रह - बारिश मेरा घर है
कविता संकलनों के न बिकने के सतत रुदन के बीच युवा कवि कुमार अनुपम के पहले संकलन का साल भर के भीतर ही दूसरा संस्करण आ जाना एक सुखद ख़बर है. आज असुविधा पर इसकी एक विस्तृत, आत्मीय और तलस्पर्शी समीक्षा सुपरिचित कवि-लेखक उमेश चौहान द्वारा.
· उमेश चौहान
साहित्य अकादमी की नवोदय
योजना के अंतर्गत वर्ष 2012 में प्रकाशित युवा कवि कुमार अनुपम का प्रथम
कविता-संग्रह 'बारिश
मेरा घर है' शिल्प, विषय-वस्तु व बिम्बों की दृष्टि से आकर्षक है. युवा
होने के बावजूद कुमार अनुपम की कविताएँ सधी हुई तथा लक्ष्य पर सीधा निशाना साधती
हुई लगती हैं. इस संग्रह की भूमिका में ज्ञानेंद्रपति ने लिखा है, "किसी संभावना-समृद्ध युवा-कवि का पहला संग्रह
स्वाभाविक रूप से एक प्रीतिकर ताजगी लिए होता है और वह अगर एक स्मृति-सम्पन्न कवि
व्यक्ति हुआ तो उसके अभी-अभी उच्चारित शब्दों में भी कहीं दूर से आती हुई-सी एक
आवाज़ होती है." कुमार अनुपम की कविताओं को पढ़ने वाला हर व्यक्ति
निश्चित रूप से उनके इस वक्तव्य से पूरी तरह से सहमत होगा. 'कविता
नयनतारा डैश डैश डैश' शीर्षक कविता में, "संभावना एक ज़िंदा शब्द है" लिखकर संभावना ही
उनकी कविताओं का प्राण-तत्व है, यह वे स्वयं स्पष्ट कर देते
हैं. भूमिका के अंत में ज्ञानेंद्रपति यह भी कहते हैं, "इस
यात्रा में अनुभूति की सांद्रता बढ़नी है और अभिव्यक्ति को मँजना है - और -
और". संग्रह को पूरा पढ़ने के बाद मुझे लगा कि ज्ञानेन्द्रपति जी ने
ऐसा किसी सामान्य ढंग से ही कह दिया है क्योंकि कुमार अनुपम की कविताओं में
पर्याप्त मात्रा में अनुभूति की सान्द्रता भी है और मँजी हुई अभिव्यक्ति भी. कुमार
अनुपम ने अपनी 'बिम्ब' शीर्षक कविता
में "कला की प्राचीन बहस से नहीं/ एक
किसान से सीखा/ कि सुंदर नहीं सार्थक होना जरूरी है/ अभिरुचि
का लक्ष्य" लिखकर अपनी परिपक्व
दृष्टि का परिचय देते हुए यह उद्घोषणा-सी की है कि वे कविताओं की सार्थकता के
पक्षधर हैं, सौन्दर्य
के नहीं. उनकी कविताओं में
एक नया अवबोध है, जो हमें
कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करता है. इनमें कई जगह निराशा और दु:ख तो है, लेकिन
एक खास किस्म की जिजीविषा भी है. यही जिजीविषा ही संभावनाओं को जन्म देती है और जिनमें
संभावनाएँ निहित होती हैं, वही
कविताएँ सार्थक कही जा सकती हैं. यदि ठीक से पड़ताल
की जाय तो 'बारिश
मेरा घर है' की
कविताएँ हमारे सामाजिक व राजनीतिक विद्रूप का आईना बनी नज़र आती हैं.
'शहर के बारे में' शीर्षक कविता में आज की
सामाजिक विषमता व बेशर्मी भरी स्थिति को बड़ी बेबाकी से उघाड़ते हुए कुमार अनुपम ने
लिखा है, “शहर में ऊँची-ऊँची इमारतें/
इमारतों की फुनगी पर बैठा हुआ कौआ/ देखता है नीचे और करता है अट्टहास/ कि
देखो-देखो कितने तुच्छ दिख रहे हैं/ जमीन पर बैठे हुए आदमी”. इसी कविता
में आगे जाकर वे शहरों में व्याप्त होते जा रहे बाज़ारवाद की बखिया उधेड़ते हैं, “शहर
में जीवन की नई आचारसंहिता/ उपलब्ध है हर शॉपिंग माल में/ किफ़ायती मूल्य पर ऑफर के
साथ”. शहरों में पनपती अपसंस्कृति जिस तरह से हमारे जीवन को खोखला करती जा
रही है, उसी को बेपरदा किया है उन्होंने ‘हिट होने के कुछ हिट फंडे’ शीर्षक कविता
में, “गाने के लिखने के … कूल्हे के मटकाने के … मस्त होने के … रब्त होने
के … / कई संध थे बेक़रार कि ‘सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें/ का सहमत नारा
लगवाने को कुछ ऐसा/ कि नसों की तड़प सुनी जा सके सात समुंदर पार” जैसी
पंक्तियाँ लिखकर। ऐसे सांस्कृतिक विद्रूप के बीच सामान्यजन का क्या हाल हो रहा है,
इसी को उजागर करती हैं उनकी ये पंक्तियाँ, “मिलेनियम सभ्यता की आरती के
अंतरे/ बीच जिनके मुझ जैसा टुटपुँजिया गँवार/ भला हाँफने के सिवा क्या कर सकता है.”
कुमार अनुपम की तीक्ष्ण दृष्टि मीडिया की बढ़ती जा रही सनसनीख़ेज़, बाज़ारपरक व
संवेदना-शून्य होने की प्रवृत्ति पर तीव्र प्रहार करने से भी नहीं चूकती, “सनसनीख़ेज़
ख़ुलासों में मुस्तैद मीडिया की नज़र/ से शायद ही बची हो कोई ख़बर/ इसी सांत्वना और
सूचना-समृद्ध होने की आश्वस्ति से भर/ टूथब्रश पर लगाया पेप्सोडेन्ट और/ सूचनाओं
के झाग में लथपथ अचानक/ कुछ ऐसा लगा कि ख़बरों में नहीं बची है/ पिपरमिंट भर भी
सनसनी” (‘सूचना विस्फोट की पृष्ठभूमि में’ शीर्षक कविता से).
शोषण और अन्याय को समाज में
पनपने का मौका तभी मिलता है, जब वहाँ विचार-शून्यता होती है या विचारों को कहीं
गिरवी रखकर एक वैक्यूम पैदा किया जाता है। जब ‘तानाशाह’ शीर्षक कविता में कुमार अनुपम, “
हमने खुरच खुरच कर छुड़ा डाले/ अपने मस्तिष्क से चिपके एक एक विचार/ सिवा इस ख़्याल
के कि अब/ हमें सोचना ही नहीं है कुछ/ कि हमारे लिए सोचने वाला/ ले चुका है इस
धराधाम पर अवतार" लिखते हैं तो वे इसी प्रकार के स्वयंसृजित वैचारिक
दीवालिएपन की बात करते हैं. शोषक प्रतिरोध को प्रलोभनों के सहारे रास्ते से ही
भटका देता है, उसे कमज़ोर कर देता है और पूरी ताक़त से उसे
कुचलने का उपक्रम करता है. इसे पहचानकर ही कुमार अनुपम 'वे' शीर्षक कविता में लिखते हैं, "वे गर्म
माहौल में/ बाँट देते हैं पहले/ वादों की फ़्रिज़/ और ढाल देते हैं/ विचारों को/
बर्फ़ की शक्ल में/ क्योंकि/ उन्हें बख़ूबी मालूम है/ कि बर्फ़ तोड़ना आसान है/ पानी
चीरने की अपेक्षा." कई बार स्वार्थ में अंधा हुआ शोषण का शिकार व्यक्ति
अपने आप भी उल्टी दिशा में चलने लगता है, जैसा कि 'ऑफ़िस-तंत्र' कविता में बॉस को खुश करने में जुटे
रहने वाले एक कर्मी का बिम्ब खींचते हुए कुमार अनुपम ने इन पंक्तियों में दरशाया
है, "लेकिन यह सोचकर/ कि बॉस को जँचा उसका सोचना/
कि बॉस की देह की सर्वोच्च कुर्सी पर/ विराजमान है उसका ही सोचा हुआ इस वक़्त/ मन
ही मन गर्व से कुप्पा होता है." इसी कविता में बॉस का उस कर्मी के
प्रति जो चालाकी भरा उद्गार है, वह भी उल्लेखनीय है, "तुम्हारे फ़ादर ही थे न जो आए थे उस रोज़/ घुटने तक धोती वाले/
मैं तो देखते ही पहचान गया था भले कभी मिला नहीं था तो क्या/ उस किसान ने बोई है
कड़ी धूप में तपकर तुममें अपनी उम्मीद/ उसके सपनों को तुम्हें ही सच करना है."
सरल और आसान शब्दों में शोषक व शोषित के व्यवहार एवं व्यापार का इतना सटीक चित्रण
अन्यत्र दिखना मुश्किल है. शोषण की प्रक्रिया का और भी ज्यादा सूक्ष्म विश्लेषण
मिलता है संग्रह की 'विरुद्धों के सामंजस्य का पराभौतिक
अंतिम दस्तावेज़' शीर्षक कविता में,
जहाँ कुमार अनुपम लिखते हैं, "किश्तों में भरी जाती
है हींग आत्मघाती/ सूखती है धीरे धीरे भीतर की नमी/ मंद पड़ता है कोशिकाओं का
व्यवहार/ धराशाई होता है तब एक चीड़ का छतनार/ धीरे धीरे लुप्त होती है एक
संस्कृति/ एक प्रजाति/ षड्यंत्र के गर्भ में बिला जाती है."
पिछले
दो दशकों की आर्थिक नीतियों के फलस्वरूप देश में विस्थापन एक गंभीर समस्या बनकर
उभरा है. कुमार अनुपम ने इसे बख़ूबी पहचाना है और विस्थापित के दर्द को अपनी 'भानियावाला विस्थापित' शीर्षक कविता की
इन पंक्तियों में बड़ी तीखी पीड़ा के साथ व्यक्त किया है, "भाईजी/
इधर फिर आई है ख़बर/ पड़ोस की हवाई-पट्टी है यह/ आएगी आँगन तक/ फिर खदेड़ा जाएगा हमें
कहीं और/ फिर जारी है/ हमारी सृष्टि से हमें बेदखल करने की तैयारी." सामुदायिकता
के भयावह चेहरे को कुमार अनुपम ने 'डर'
कविता की इन पंक्तियों में क्या ख़ूब चित्रांकित किया है, "हमारी
अम्मा बनाई लज़ीज़ बड़ियाँ/ रसीदन चच्ची की रसोई तक जाने से कतराने लगीं/ घबराने लगीं
हमारी गली तक आने से उनकी बकरियाँ भी." राजनीति के विकृत चेहरे को
उजागर करतीं उनकी 'विदेशिनी' कविता की
ये पंक्तियाँ तो अद्भुत हैं, "जहाँ रहती हो/ क्या
वहाँ भी उगते हैं प्रश्न/ क्या वहाँ भी चिन्ताओं के गाँव हैं/ क्या वहाँ भी मनुष्य
मारे जाते हैं बेमौत/ क्या वहाँ भी हत्यारे निर्धारित करते हैं कानून/ क्या वहाँ
भी राष्टाध्यक्ष घोटाले करते हैं/ क्या वहाँ भी/ एक भाषा दम तोड़ती हुई नाख़ून में
भर जाती है अमीरों के/ क्या वहाँ भी आसमान दो छतों की कॉर्निश का नाम है/ और हवा
उसाँस का अवक्षेप/ क्या वहाँ भी एक नदी/ बोतलों से मुक्ति की प्रार्थना करती है/
एक खेत कंक्रीट का जंगल बन जाता है रातोंरात/ और किसान, पागल, हिजड़े और आदिवासी/
खो देते हैं किसी भी देश की नागरिकता/ और व्यवस्था के किए ख़तरा घोषित कर दिए जाते
हैं."
नवोत्थान
एवं पुनर्जागरण का संदेश देती 'बालू: कुछ चित्र' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ भी गहरा प्रभाव छोड़ने वाली हैं, "नदियाँ छोड़ती जाती हैं बालू/ धीरे धीरे/ इकट्ठा होती रहती
है/ अपने बंधु-बांधवों के साथ/ धारा से कटती हुई बालू/ सुनाते हैं बंधु-बांधव अपनी
अपनी व्यथा-कथा/ सबकी कथा में एक अदृश्य सामंजस्य होता है/ अस्तित्व की याद है यही
सामंजस्य/ जो बना देता है बालू को पत्थर/ और एक दिन/ बदल देता है/ नदी का अंधा
रास्ता." विद्रोह की भावना की गूँज कुमार अनुपम की 'तानाशाह' शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में बड़ी
सांद्रता से सुनाई पड़ती है, "अब सिरफ़िरों का क्या
किया जाए/ सिरफ़िरे तो सिरफ़िरे/ जाने किस सिरफ़िरे ने फेंककर मार दिया उसे जूता/ जो
खेत की मिट्टी से बुरी तरह लिथड़ा हुआ था/ और जिससे/ नकार भरे क़दमों की एक प्राचीन
गंध आती थी." इसी प्रकार 'बेरोज़गारी: कुछ और
कविताएँ' शीर्षक कविता की ये पंक्तियाँ भी प्रतिरोध के इसी
मिज़ाज़ को प्रकट करती हैँ, "शक्ति विस्तार की
परंपरा में/ जबकि हो रहे थे समझौते/ वार्ताएँ हो रही थीं/ हाथ मिल रहे थे/ हो रहे
थे दस्तख़त और गठबंधन लगातार/ इस परंपरा पर/ कुछ सिरफ़िरों ने एक बार/ फिर थूका/
खखार खखार." आत्माभिमान के साथ मेहनतकश ज़िंदगी जीने की प्रेरणा देती 'अदृश्य दृश्य' कविता कि ये पंक्तियाँ भी क्या खूब
हैं, "संचित इन पुरखा-पहचानों/ के साथ का ध्यान
धर हमने जाना है इतना/ कि जिया जा सकता है/ इस अत्याचारी समय की आँखों में आँखें
डाल/ एक उसी खेतिहर गर्व के साथ सीना तान/ एक पुराने गमछे और स्वाभिमान से पोंछते
हुए/ माथे की बढ़ती जाती सलवटों को/ और पसीने को बदला जा सकता है अब भी/ पौधों के
लिए ज़रूरी जीवन-जल में." 'सिरा' शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में कुमार यथार्थ के अंवेषण के प्रति अपने
भीतर छिपी हुई प्रतिबद्धता को सामने रखते हैं, "समुद्र
एक गाँठ है/ जिसमें/ धागे का सिरा खोज रहा हूँ/ मिला/ तो नदी नदी/ अलग कर दूँगा
समुद्र." 'किनकू महराज'
शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में वे प्रतिबद्धता के रास्ते से विचलित हो रहे
वामपंथियों को भी एक तीखा संदेश देने से नहीं चूकते, "बाबू, तुम तो कमनिष्ट नहीं समझोगे यह भेद/ मगर गाँठ बाँध लो यह सूत्र/ कि
कमनिष्ट रहो तो रहो/ कम-निष्ठ नहीं होना कभी/ यही अधर्म है."
कुमार
अनुपम ने संग्रह की तमाम कविताओं में अपनी युवा परिपक्वता के साथ-साथ किसी प्रौढ़
के जैसी अनुभव-समृद्धता का भी परिचय देते हुए विविध प्रकार के जीवन-संदेश प्रसारित
किए हैं, जैसे - "कि चलने से ही नहीं तय
होती हैं दूरियाँ", “जहाँ लिखा है जीरो
किलोमीटर, वहीं से ही नहीं शुरू होती राह", "जूड़े में खुभा बैंगनी फूल-भर नहीं हैं स्मृतियाँ", "भोपाल, अफगानिस्तान,
नंदीग्राम भी हैं खोई हुई सरस्वती के सुराग़", "यह
दुनिया सुकवि की चिकनी मेज़ की तरह समतल नहीं",
"सिर्फ़ कॉपी-किताब और आँकड़ों का शो-केश होते हैं बस्ते,
साग-सब्ज़ी और सामान थोड़े न ढोते हैं", "बीज, पत्ती, फूल, फल, बनने के लिए जीवन यंत्रणा की लंबी झेल से जूझता गुज़रता है एक पूरी की
पूरी उम्र", "दृश्य में जो चमक रहीं हैं ज्यादा,
वे रोशनियाँ कृत्रिम हैं निरी नकली", "कुछ
पंक्तियों से छिटककर छूट जाते हैं अर्थ", "कई शब्द
सहमकर रह जाते हैं जेब में ही पुराने सिक्कों की तरह" आदि-आदि. कुमार अनुपम के इस संग्रह में और भी बहुत
कुछ है.
-------------------------------------
सुपरिचित कवि एवं लेखक. चार कविता संकलन. समीक्षाएं भी नियमित रूप से प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित
टिप्पणियाँ