पाठक का कोना : आत्मारंजन के नए संकलन पर राहुल देव
आज से असुविधा पर हम "पाठक का कोना" नाम से एक नया स्तम्भ शुरू कर रहे हैं. इस स्तम्भ में कोई भी पाठक हाल के दिनों में जो कुछ पढ़ रहा है उस पर एक पाठकीय टिप्पणी भेज सकता है जो हम हर शुक्रवार को पोस्ट करने की कोशिश करेंगे. आप सबका स्वागत है...
समय से संवाद करती कवितायेँ
युवा
कवि आत्मा रंजन का सद्य प्रकाशित कविता संग्रह ‘पगडण्डीयां गवाह हैं’ इन दिनों
मेरे हाथ में है | आत्मा रंजन से मेरा संपर्क फेसबुक के जरिये हुआ था | जहाँ उनसे
आत्मीय संवाद के दौर में मैं उनके कविरूप से भली भांति परिचित हुआ |
इस
कविता संग्रह में कुल 56 कवितायेँ संग्रहीत हैं | संग्रह की शुरुवात ‘कंकड़ छांटती’
शीर्षक कविता से होती है जोकि स्त्री विमर्श पर संतुलित शब्दों में गहरे अर्थबोध
को सामने लाती कविता है | जीवन में स्त्री की उपस्थिति पर कवि का दर्शन घनीभूत भाव
व सौन्दर्य को व्यक्त करता है | आत्मा रंजन अपनी कविता में अन्यान्य कवियों की तरह
स्त्री के दैहिक अथवा स्थूल रूप का चित्रण मात्र नहीं करते न ही पहले से मालूम
समस्याओं को घिसे-पिटे शब्दों में प्रस्तुत करते हैं बल्कि वह हमें एक विज़न देती
हुई पाठक को साथ लेकर चलतीं हैं | संग्रह में उसके आगे की कई कवितायेँ पढ़ते समय
स्वयमेव ही मन-मस्तिष्क पर अपना एक सकारात्मक शब्दचित्र खींच जातीं हैं | आत्मा
रंजन सरल शब्दों में प्रभावी तरह से अपनी बात कहने में सिद्धहस्त हैं | संग्रह की
कविता ‘हांडी’ संवेदना के स्तर पर गहरे तक छूती है | ‘औरत की आंच’ एक स्त्री के
विविध रूपों के प्रति कवि के गहरे भावों को दर्शाती एक महत्त्वपूर्ण कविता है | इस
कविता में वह कहते हैं- “औरत की आंच/पत्थर, मिट्टी, सीमेंट को सेंकती है/ बनाती
है उन्हें एक घर/ उसकी आंच से प्रेरित होकर ही/ चल रहा अनात्म संसार/........../
एक बर्फ़ का गोला है जमा हुआ/ जिसकी जड़ता और कठोरता को/ निरंतर पिघला रही वह/ जीवित
और जीवनदायी/ जल में बदलती हुई !”
‘हंसी
वह’ शीर्षक कविता शब्दार्थ का एक जीवंत चित्र है तो ‘सींचते हुए’ शीर्षक कविता में
कवि के स्त्री-पुरुष विषयक सुलझे हुए एक समान वैचारिक सरोकारों को हमारे सामने
रखती है | आत्मा रंजन की इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठक कभी भी ऊबता नहीं है जैसा कि
आज के दौर की तमाम गद्यात्मक कविताओं का हश्र होता दीखता है, बल्कि वे तो पाठक को
साथ लेकर इस कठिन समय की पड़ताल करते हैं | उनकी कविताओं की आंतरिक लय व शिल्प का
सधापन कविताओं को प्रभावी बनाता है और पाठक को अपने से जोड़ता है, तोड़ता नहीं |
उनकी ‘पृथ्वी पर लेटना’ कविता की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं- “पूरी मौज में
डूबना हो/ तो पृथ्वी का ही कोई हिस्सा/ बना लेना तकिया/.../ जैसे पत्थर/ मुंदी
आँखों पर और माथे पर/ तीखी धूप के ख़िलाफ़/ धर लेना बाँहें/ समेट लेना सारी चेतना/
सिकुड़ी टांगों के खड़े त्रिभुज पर/ ठाठ से टिकी दूसरी टांग/ आदिम अनाम लय में हिलता
|”
कवि
स्वयं गाँव की जड़ों से गहरे तक जुड़ा रहा है | उसकी कविताओं में विषयगत विविधता है,
भाषा का ठेठपन है, नए बिम्ब है यानि कि कहें तो वह सारे तत्व मौजूद हैं जोकि एक
कविता को अच्छी कविता बनाते हैं | इसी कविता की कुछेक पंक्तियाँ और देखें कि- “पिराती
पीठ/ बिछावन दुभाषिया है यहाँ/ मत बात करो/ आलीशान गद्दों वाली चारपाई की” इस
आपाधापी भरे समय में आत्मा रंजन जीवन-जगत की छोटी छोटी बातों से सुकून के कुछ पलों
जैसी कवितारूपी मोती चुन-चुनकर निकाल लाते हैं | यह उनकी निजी विशेषता है | इसी
कविता की कुछ अंतिम पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं- “जानता है जो एक मनमौजी बच्चा/
असीम सुख का असीम स्वाद/ कि क्या है-/ पृथ्वी पर लोटना |” इनकी कविताओं में
बहुत गहरे सरोकार भी निहित हैं | समाज में छोटे-छोटे कलात्मक काम करने वाले मजदूर
वर्ग व अपने जीवन में दैनिक संघर्ष कर जीवनयापन करने वाले निचले तबके के लोगों को भी
आत्मा रंजन ने अपनी कविताओं का विषय बनाया है | ‘पत्थर चिनाई करने वाले’ कविता में
वह लिखते हैं- “खुद बोलता है पत्थर/ कहाँ है उसकी जगह/ बस सुननी पड़ती है उसकी
आवाज़/ खूब समझता है वह/ पत्थर की ज़ुबान” अपनी पूरी तन्मयता से अपने पत्थर
चिनाई के कार्य में मग्न वह कारीगर कवि को उसके पास थोड़ी देर रूककर सोचने पर विवश
कर देता है | पत्थर चिनाई के काम को आदिम कला कहते हुए उसकी अभिव्यक्ति कविता के
रूप में अनायास प्रस्फुटित हो उठती है | इसी तरह ‘रंग पुताई करने वाले’ कविता को
देखें तो, “अपनी प्राथमिकताओं में बंधे/ सुबह के जाड़े के ख़िलाफ़ मुस्तैद/ गलबंद
कसी कनपटियाँ ताने/ ज़र्दा, तम्बाकू मलते, फटकते/ चल पड़े हैं वे काम पर...” इस
प्रकार ये कवितायेँ कवि की जनपक्षधरता को स्पष्ट रूप से दर्शाती हैं | उनकी
कविताओं का मूल स्वर जनवादी है | पूंजीवादी प्रभुत्व के फलस्वरूप ऐसे प्राकृतिक
कलाकारों को आज भी समाज में वह स्थान प्राप्त नहीं हुआ है जोकि उन्हें मिलना चाहिए
था | धन के असमान प्रवाह चक्र के फलस्वरूप उनकी समाजार्थिक स्थिति में आज भी कोई
बड़ा परिवर्तन नहीं दीखता | इस ओर से कवि की चिंताएं वाजिब सवालातों से हमें दो-चार
करतीं हैं- “सुबह से शाम तक/ रंगों से खेलते रहते हैं वे/ अपने पूरे कला कौशल
के साथ/ पर कोई नहीं मानता इन्हें कलाकार/............../ कहाँ समझ सकता है
कोई/खाया अघाया कला समीक्षक/ उनके रंगों का मर्म/........./चटकीले रंगों में फूटती
ये चमक/एशियन पेंट के किसी मंहेंगे फार्मूले की नहीं/ इनके माथे के पसीने पर पड़ती/
दोपहर की धूप की है |” प्रश्न यह है कि सच्चा कलाकार कौन है ? वह जिसकी कला
आर्ट गैलेरियों में सज रही है या वह जिसकी कला जीवन में सज रही है ?
वर्तमान
समय में आत्मा रंजन जैसे कुछेक कवि महज कविता लिख लेने भर की कविताई नहीं करते वरन
अपनी कविता के माध्यम से जीवन जगत के युगबोध को सीते हुए विसंगतियों को उघाड़ते हुए
हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं | उनकी कविता ‘मरा हुआ आदमी’ दिनोंदिन मरती जा रही
मनुष्य की मनुष्यता का खुला ऐलान हैं | उनकी कविता में प्रतिरोध हमें मात्र
प्रताड़ित नहीं करता, हममें जुगुप्सा नहीं जगाता | इन्हें पढ़कर हम क्रोध में सिर्फ
अपनी कुंठा नहीं निकालते हैं बल्कि कविता के माध्यम से समस्याओं के हल भी ढूँढने
का प्रयास करते हैं | उनकी कवितायेँ शांति से अपना प्रतिरोध दर्ज कराती हैं जिनका
स्वर संयत होते हुए भी बेहद सशक्त व दूर तक ध्वनित होता है | इस ओर से अपने
समकालीन कवियों के बरक्स आत्मा रंजन अपने कविकर्म के उद्देश्य की पूर्ति में
सर्वथा सफ़ल कहे जायेंगें |
इस
संग्रह की अन्य छोटी-छोटी कवितायेँ भी बहुत सशक्त हैं | यह कवितायेँ हमें भाव और
विचार दोनों स्तरों पर उद्वेलित करतीं हैं | उनमें प्रश्न भी हैं और जिनके उत्तरों
की तलाश अभी भी जारी है | ये कवितायेँ पढ़ते हुए ऐसा भी लगा कि मानो कवि ने अपने
आस-पास के परिवेश का निरीक्षण किया, कविमन तरंगायित हुआ, प्रेरणा उठी और उस
प्रेरणा को उसी क्षण ज्यों का त्यों शब्द दे दिए गये हों | संग्रह की ‘रास्ते’
जैसी छोटी कविता कम शब्दों में अपने कथ्य के प्रति कवि की अतिरिक्त सजगता को
दर्शाती है | ‘आधुनिक घर’ शीर्षक से एक और छोटी कविता मानो हमसे पूछती है कि
आधुनिकता की यह दौड़ आखिर कब तक चलेगी ? यह कविता हमें विवश करती है, झकझोरती है यह
सोचने पर पर कि इस अंधी दौड़ की अंतिम परिणति क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि सुखों
की खोज करते-करते हम दुखों के अंतहीन शिखर की ओर बढ़ रहे हैं | अगर हम अभी नहीं
चेते तो शायद एक दिन वह भी आएगा जब हमारे पास पछताने का मौका भी नहीं बचेगा |
संग्रह की कुछ कवितायेँ कवि के लोकजीवन के प्रति लगाव का परिचायक हैं | ‘एक लोक
वृक्ष के बारे में’ शीर्षक कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें तो- “...उपेक्षित
बावड़ियों के/ वीरान किनारों पर/ बिल्कुल वैसे ही खड़े हो/ तुम आज भी/ इस बात की
गवाही देते/ कि जो पूजा नहीं जाता/ नहीं होता इतिहास के गौरवमयी पन्नों में दर्ज़/
वह भी अच्छा हो सकता है |” यह कविता कवि के संवेदनशील हृदय का पर्याप्त परिचय
दे देती है | ‘देवदोष’ नामक संग्रह की छोटी कविता अंधविश्वास/ रूढ़ियों का वीभत्स
चेहरा दिखलाती हुई उनपर भरसक प्रहार करती है | इस संग्रह की कई कविताओं में पहाड़
के लोकजीवन के दर्शन सहज ही हो जाते हैं | कविताओं में अधिकांशतः आने वाले बर्फ़,
पहाड़, पेड़ जैसे शब्द पहाड़ी जनजीवन को देखने की कवि की मौलिक दृष्टि का उदाहरण हैं
| कविताओं को पढ़ चुकने के बाद उनके अर्थ पाठक के मन में देर तक गूंजते हैं | यह एक
अच्छी कविता की सार्थकता है |
कवि
अपने आसपास के वातावरण का ऑब्जरवेशन भी करता है | शिमला की माल रोड पर आते-जाते
हुए वह लोगों के चेहरे पढ़ता है | ‘माल रोड पर टहलते हुए’ शीर्षक से इसमें बैक टू
बैक चार कवितायेँ हैं | कुछ पंक्तियाँ देखें तो, “यहाँ खड़े/ हर किसी को लगता
है/ चर्चित मुद्दे पर जानता है वह/ दूसरे से अधिक/ सनसनीखेज़ और नया”
आत्मा
रंजन की कविताओं की एक और बड़ी खासियत यह है कि ये कवितायेँ किसी वाद विशेष में
बंधी हुई नहीं हैं | कविता की धारा स्वच्छंद रूप से बही है, कृत्रिम रूप से बहाई
नहीं गयी है | इनमें भारतीय लोकजीवन की महक स्वाभाविक रूप से बसी हुई मालूम होती
है |
एक
और छोटी कविता ‘सपना’ बहुत अन्दर तक उतर जाने वाली कविता बन पड़ी है | सच में प्रेम
का असली मज़ा तो दूरियों में ही है | वहीं ‘हादसे’ कविता तथाकथित सभ्य समाज के
विकृत रूप को हमारे समक्ष उघारती हुई कहती है- “व्यस्त भीड़ में अक्सर/ अमीरों
से होती गलतियाँ/ गरीबों से अपराध !” ‘खेलते हैं बच्चे’ शीर्षक से दो कवितायेँ
भी बहुत मार्मिक बन पड़ी हैं | कविताओं के कुछ अंश दृष्टव्य हैं- “खेलते हैं बच्चे/
वे भी, जिनके पास नहीं होते खिलौने/ नहीं होती खिलौने के लिए एक मासूम जिद/ नहीं
होते जिनके पास/ जिद करने के लिए पापा ही |” या फिर यह पंक्तियाँ हों, “वे
लगते हैं बहुत अच्छे/ जब उनके बच्चा होने के ख़िलाफ़/ बड़ों की तमाम साजिशों की/
खिल्ली उड़ाते हुए/ खेलते हैं बच्चे !”
“दरअसल
हमारा बड़ा हो जाना/ बच्चा होने के ख़िलाफ़/ एक समझौता है/ बाहर बढ़ते/ अन्दर बौना
होते जाने को/ दृढ़ता से अनदेखाकर/ जो जितनी कुशलता से इसे ढोता है/ दुनिया में
उतना ही सफल होता है |” आदि रेखांकित की
जाने वाली लाइनें साबित हुई हैं |
संग्रह
की कविता ‘उम्र से पहले’ एक महत्त्वपूर्ण कविता है | आज अपनी प्राकृतिक उम्र से
पहले बड़े हो रहे बच्चे चिंता का विषय है | हमारे बच्चों में बचपन का ख़त्म होते
जाना भयानक भविष्य का संकेत है | ‘नई सदी में टहलते हुए’ शीर्षक कविता कई विचारणीय
प्रश्नों को हमारे सामने रखती हुई पाठक से कुछ अपेक्षाएं सुनिश्चित करने की मांग
करती है | जहाँ ‘जो नहीं हैं खेल’ कविता आत्मीयता से परिपूर्ण कविता है वहीँ ‘इस
बाज़ार समय में’ शीर्षक कविता बाज़ारवाद की फैलती चकाचौंध पर अपने व्यंग्य के करारी
चोट करती हुई कविता है | वह कहते हैं- “कमाल ही कमाल/ इस बाज़ार समय में/ सब
लाजवाब/ चकाचक, झकाझक !” ‘स्मार्ट लोग’ शीर्षक कविता में कवि लिखता है, “स्मार्ट
लोग/ स्मार्ट कंपनियों में करते हैं स्मार्ट जॉब/ और कमाते हैं स्मार्ट मनी” मतलब
इतनी सीधी सरल कवितायेँ जहाँ हर वर्ग के पाठक के लिए सब कुछ है और स्वतः स्पष्ट है
| समीक्षक या स्वयं कवि पाठक को कविताओं पर किसी किस्म का स्पष्टीकरण दे, ऐसा कोई
स्पेस ही नहीं है इनके यहाँ और वह उचित भी नहीं होगा |
अगली
कविता ‘दूकानदार : सन्दर्भ एक’ भी एक अच्छी कविता है | आज के भूमंडलीकृत घोर
बाजारवादी चक्रव्यूह की व्याख्या करती हुई ‘मोहक छलिया अय्यार : सन्दर्भ दो’ शीर्षक
कविता इस विषय पर एक सार्थक रचना कही जा सकती है | इस कविता में बाज़ार की असलियत
सामने आती है जिसके सामने आज लगभग हर व्यक्ति मात्र उपभोक्ता बन चुका है | बाज़ार
कब, कहाँ, कैसे, किस रूप में हमारे निजी जीवन तक में हर एक जगह जाने-अनजाने प्रविष्ट
कर चुका है | आत्मा रंजन ने अपनी इस कविता में इसके सूक्ष्म रेशों के सूत्र को
पकड़ने की कोशिश की है | वह लिखते हैं- “अत्यंत डरावने रूप में होता है वह/ जब
प्रेम के निर्मल जल को/ बिना दिखे करने लगता है गन्दला”
आत्मा
रंजन दैनिक जीवन में बहुत सामान्य सी दिखने वाली चीज़ें जैसे ‘गमला’, ‘पुराना
डिब्बा’ आदि चीज़ों में से भी कविता निकाल लाते हैं जिन पर आमजन का ध्यान अमूमन
नहीं ही जाता | वहीं ‘कटता हुआ बूढ़ा पेड़’ कविता में आत्मा रंजन प्रकृति में
उपस्थित संवेदना के तत्व खोज कर लाते हैं | आज कैसे चल रहा है जीवन इसकी बानगी
प्रस्तुत करती हुई एक कविता है ‘ऐसे चल रहा है जीवन’ | इस कविता में वह लिखते हैं-
“व्यवस्था की कालिमा को गाली देते/ अपना रंग छिपाते/ बदलते गिरगिट सा/ समूहों
में चीख रहे भद्रजन-/ भारत माता की जय !/ सुबह उठते ही हिंसा और अनाचार के/ बर्बर
भयावने दृश्यों/ औरतों, बच्चों के जिस्म चीथड़ों की/ कमेंटरी के बाद/ बुलेटिन
समाप्त करती/ मुस्कुराते हुए कहती है समाचार वाचिका-/ हैव ए नाइस डे !” सचमुच
ऐसी स्थिति हो गयी है कि मानो चल नहीं रहा बल्कि घिसट रहा है जीवन, कैसी विडंबना
है?
आत्मा
रंजन मनुष्य का मनुष्य होना सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं | ‘बहुत जरूरी’ शीर्षक
कविता में वह कहते भी हैं- “बहुत जरूरी होता है/ हमारा/ मानवीय होना...” इस
मनुष्यता के क्षरण में सुविधाओं का भी बहुत बड़ा हाथ है | ‘सुविधा’ शीर्षक कविता
में, “दरअसल जब भी हम सुविधा में होते हैं/ सुविधा को ही हो जाते हैं समर्पित” यानि
निष्कर्षतः कहें तो अपनी इन स्थितियों के जिम्मेदार हम खुद हैं | अतः इन समस्याओं
के हल भी हमें ही ढूँढने होंगें | संग्रह की ‘रावणदाह’ कविता पढ़ते हुए ‘अब हर घर
में रावण बैठा, इतने राम कहाँ से लाऊँ’ नामक प्रसिद्द गीत की उक्त पंक्तियाँ
अनायास ही ध्यान हो आतीं हैं | आपसी विश्वास हमारे सामाजिक जीवन का बेहद
महत्त्वपूर्ण तत्व है | ‘विश्वास एक’ व ‘विश्वास दो’ शीर्षक कवितायेँ इस बात को
पुष्ट करती हैं | ‘विश्वास दो’ शीर्षक कविता की अंतिम कुछ पंक्तियाँ कवि की
आशावादिता को भी दर्शाती हैं- “उदास मत हो मेरे दोस्त/ बहेलियों की कुटिल
कालिमा के ख़िलाफ़/ यूँ ही झिलमिलाते रहो/ यूँ ही टिमटिमाते/ कि बची रहे बनी रहे/
बहती रहे यह सृष्टि/ अविरत, अविरल” यहाँ पर कवि पूरी सृष्टि के लिए सोच रहा
है, कवि का दृष्टिकोण किसी क्षेत्र विशेष के लिए संकुचित नहीं है बल्कि विस्तृत
है, विशद है |
संकलन
की ‘रिश्ते’ शीर्षक कविता कुछ भावुक क्षणों की कविता है तो ‘कारण’ नामक कविता में
कवि का अव्यक्त प्रेम कविताओं में रूप में व्यक्त हुआ है | ‘सिगरेट होता हुआ
प्रेम’ कविता में कवि का प्रगतिशील दृष्टिकोण सामने आता है | वहीं कवि का अपने
मित्र रजनीश शर्मा के प्रति लिखी गयी इस संग्रह की अंतिम कविता ‘तुम्हारे ख़िलाफ़’
कवि के अपने मित्र के प्रति प्रेम व बेहद उदात्त भावनाओं की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति
बन कर मुखर हुई है |
कुल
मिलाकर संक्षेपतः कहूँ तो इस संग्रह की समस्त कवितायेँ हमारे समय से सीधा संवाद
करती कवितायेँ हैं | युवा कवि आत्मा रंजन का यह पहला संग्रह है जिसका स्वागत किया
जाना चाहिए | कथ्य, शिल्प, भाव, लय, बोध, विचार, भाषा आदि हरेक काव्य निकष पर खरी
उतरती ये कवितायेँ समकालीन हिंदी कविता के उज्ज्वल भविष्य की ओर से हमें आश्वस्त
करती हैं, साथ ही आगे कवि से और उम्मीदें भी बांधती हैं |
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9/48 साहित्य सदन, कोतवाली
मार्ग, महमूदाबाद (अवध)
सीतापुर (उ.प्र.) 261203
सीतापुर (उ.प्र.) 261203
rahuldev.bly@gmail.com
टिप्पणियाँ
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-07-2014) को "मैं भी जागा, तुम भी जागो" {चर्चामंच - 1666} पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'