मृत्युंजय प्रभाकर की कविताएँ
मसला
मसला तो यूँ कुछ भी न था
पर कुछ ज़िन्दगी की कसक
और कुछ बजबजाती हकीक़तों ने इसे
अच्छा-खासा मसाला बना दिया!
अज्ञात
पता नहीं वे कौन सी ताकतें हैं
जो जीवन को रेगिस्तान में बदल देना चाहती हैं
जबकि आदमी घिसटता है
लहूलुहान टखनों के साथ
एक पोर दूब और दो बूँद पानी के लिए!
जो जीवन को रेगिस्तान में बदल देना चाहती हैं
जबकि आदमी घिसटता है
लहूलुहान टखनों के साथ
एक पोर दूब और दो बूँद पानी के लिए!
सचअजीब विडम्बना है
अपनी आहत भावना लेकर
यहाँ हर कोई आखेट पर निकला है!
ज़िन्दगी
जब तक रहूँगा, परेशान करेगी
कदम-कदम पे, जीना हराम करेगी
रोते-हँसते सुबह से शाम करेगी
ऐ ज़िन्दगी बता, तू बला क्या है
कदम-कदम पे, जीना हराम करेगी
रोते-हँसते सुबह से शाम करेगी
ऐ ज़िन्दगी बता, तू बला क्या है
हिंदी
हिंदी का खाता हूँ
हिंदी का पीता हूँ
हिंदी में पढ़ता हूँ
हिंदी में लिखता हूँ
हिंदी ही सोता हूँ
हिंदी ही ओढ़ता हूँ
हिंदी में गाता हूँ
हिंदी में रोता हूँ
हिंदी में जीता हूँ
हिंदी में कुढ़ता हूँ।
हिंदी का पीता हूँ
हिंदी में पढ़ता हूँ
हिंदी में लिखता हूँ
हिंदी ही सोता हूँ
हिंदी ही ओढ़ता हूँ
हिंदी में गाता हूँ
हिंदी में रोता हूँ
हिंदी में जीता हूँ
हिंदी में कुढ़ता हूँ।
समय रे समय!(ह्यूगो चावेज़ को समर्पित)
समय की खूंटी पर
नंगी लाश टंगी है
खून पसरा है फर्श पर
दीवालों पर छीटें बिखरे हैं
जलते लोथड़े फैले हैं इधर-उधर
जबकि टेबल पर बोतल खुली है
और पलंग पर जांघें
कहते हैं यहाँ सभ्यता बसती है।
बदलाव(ह्यूगो चावेज़ को समर्पित)
या तो तुम सुनते नहीं
या बात समझ में आती नहीं
कब तक पिसते रहोगे
इस व्यवस्था रूपी दुष्चक्र में
फ़ौरन से पेश्तर इसे बदल डालो
लोकतंत्र
मेरे हाथ में होता
तो इस लोकतंत्र पर
कालिख पोत देता
जिसका ईमान दोगला है
त्रासदी
अजीब अहमक हूँ
लोगों से भागता फिरता हूँ
और अकेलेपन को कोसता हूँ।
कबूतर
मेरी खिड़की के बाहर
एक जोड़ा कबूतर
देखता हूँ इन्हें
अपने होने की तरह
एक जोड़ा कबूतर
देखता हूँ इन्हें
अपने होने की तरह
टिप्पणियाँ
नंगी लाश टंगी है
खून पसरा है फर्श पर
दीवालों पर छीटें बिखरे हैं
जलते लोथड़े फैले हैं इधर-उधर
जबकि टेबल पर बोतल खुली है
और पलंग पर जांघें
कहते हैं यहाँ सभ्यता बसती है।
लाजवाब कवितायें मर्मभरी
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