कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं (कहानी)

यह  कहानी  पाखी  के ताज़ा अंक में आई है. अब यहाँ ऑनलाइन पाठकों के लिए
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कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं[1]
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कूलर में पानी ख़त्म हो गया था. गर्म हवा के साथ एक गुम्साइन सी गंध कमरे में भरती जा रही थी. मिताक्षरा ने करवट बदली और उठकर बालकनी तक जाने को हुई कि अचानक कूलर बंद कर दिया और बिस्तर पर पड़ गयी. पूरा बिस्तर जैसे पसीने से भीगा था. हर तरफ एक चिपचिप और वही गुम्साइन गंध. मन ही मन उसने सोचा कल रूम फ्रेशनर ले आऊंगी.फिर मोबाइल टटोला तो जैसे अपने आप ही से बोली अभी तो पाँच ही बजे हैं.और आँखें मींचकर सर तकिये में घुसा दिया. थोड़ी देर तक यों ही पड़े रहने पर भी जब नींद की कोई आहट सुनाई नहीं दी तो वह सपने देखने की कोशिश करने लगी. यह बहुत पुराना नुस्खा था उसका...बचपन का. समय बीता, शहर बदले, सपने भी बदल गए लेकिन यह नुस्खा नहीं बदला. कमरे को बिलकुल अँधेरा कर वह आँखें बंद कर लेती और सपने देखने लगती. सपने जो उसके सबसे क़रीब थे. वह उन सपनों में खो जाती. फिर वे धीमे धीमे धुँधले पड़ने लगते और वह नींद में डूब जाती. ये सपने नींद में कभी नहीं आते. नींद के सपनों से उसे डर लगता था. थोड़ी देर सोचती रही. फिर आँखों में एक तस्वीर बनने लगी. मोबाइल बजा. आप लन्दन से निकलने वाली हिंदी पत्रिका का संपादन करना चाहेंगी? लेडीज नहीं, जनरल मैगजीन है. मेनस्ट्रीम सोशियो-पोलिटिकल. सेलरी पच्चीस हज़ार पाउंड. टू बी एच के फुल्ली फर्निश्ड फ़्लैट. शोफर ड्रिवेन सेडान कार. आप चाहें तो अगले हफ़्ते ही ज्वाइन कर सकती हैं. अभी हम डमी प्लान कर रहे हैं. टिकट हम अरेंज करेंगे.” “लेकिन मेरे पास तो पासपोर्ट भी नहीं है.” “नाट एन इश्यू मैम. कल हमारा आदमी आपसे डाक्यूमेंट्स ले लेगा और तीन दिन में सारे काग़ज़ात तैयार हो जाएँगेअगले दृश्य में वह लन्दन के अपने आफिस में थी. रंजन सर के आफिस से भी बड़ा. सेंट्रली एयरकंडीशंड. 56 इंच की एल ई डी. बड़ी सी कांच की टेबल. बाएं कोने में सोफा सेट और काउच. दाहिनी तरफ बड़ा सा फ़्रिज. टेबल के ठीक सामने एवा गोंजाल्वेस की पेंटिंग. टेबल के उस ओर सारा स्टाफ बैठा है. वह चुपचाप सबको सुन रही है. बीच बीच में कुछ बोलती है. सामने टीवी पर उसका इंटरव्यू चल रहा है. फिर दृश्य बदलता है. गाड़ी एक अपार्टमेन्ट के सामने रुकी है. वह अपने घर का दरवाज़ा खोलती है. एकदम शुभांगी दीदी के घर जैसा. बड़ा सा ड्राइंगरूम जिसकी दीवारों पर हुसैन की पेंटिग्स हैं. वह सोफे पर बैठ गयी. ...तभी...तभी एक दरवाज़ा खुला और तौलिया लपेटे एक मर्द आकर उसके ठीक बगल में बैठ गया...फिर दो बच्चे...पाँच-सात साल के...दोनों चीख़ रहे हैं और फिर अचानक उसे माँ माँ कहते उसके ऊपर लद गए हैं

उसने एकदम से आँखें खोल दीं और बैठ गयी...बेड स्विच जलाया तो एक मद्धम दूधिया रौशनी खिड़की से आ रही पहली किरणों से लिपट कर खो गयी. सिरहाने दराज़ में देखा तो डिब्बी में बस दो सिगरेटें बचीं थीं. यानि पिछले बीसेक घंटों में अठारह सिगरेटें फूँक गयी थी! अचानक याद आई कैसे हिसाब लगाती थी कि विजय ने कितनी सिगरेटें शेयर कीं. याद आई तो एक फीकी सी मुस्कान होठों की दहलीज तक आई...वह अक्सर उसके हिस्से की बढ़ा देती और बोलती, “देखो मैंने तो कित्ती कम कर दी है” वह मुस्कुराता और डिब्बी में से एक और निकाल लेता...सच में दस तक तो आ ही गयी थी तब... फिर... उसने सिगरेट सुलगा ली और मोबाइल पर फेसबुक खोल लिया. लिखा, ‘जब सपनों पर इस क़दर नियंत्रण ख़त्म होने लगे तो डर लगता है. एक धुंधली सुबह आपकी नींद उचट जाती है और पता चलता है कि वह धुंध आपके सपनों तक में चली आई है. एक अनजाने रास्ते पर चलते हुए उस जानी पहचानी जगह पहुँच जाते हैं जिससे भागने के लिए सारा सफ़र शुरू हुआ था और वह जगह कुटिल मुस्कान के साथ बाहें फैला देती है. और सबसे भयावह होती है अपने ही भीतर अँखुआती हुई उन बाहों में सिमट जाने की आकांक्षा.” थोड़ी देर तक स्क्रीन को यों ही निहारने के बाद मोबाइल का फ्लैप बंद कर दिया और तकिये के सहारे तिरछी हो गयी. सिगरेट ख़त्म करके फिर से मोबाइल खोला. आठ लाइक्स थीं. तीन कमेन्ट. वही “सुन्दर”, “आह”...मैसेज बाक्स में एक नया मैसेज आया था. निहाल था. “क्या हुआ मिताक्षरा, परेशान हो?”
सब बदल गए, निहाल नहीं बदला. चालीस की उम्र हो गयी. आधे बाल पक गए. इतना नाम, प्रतिष्ठा, परिवार...पर अब भी वही का वही. वैसे ही बगल में किताबें दबाए दुबला पतला सा वह पापा का बच्चा कामरेड. तब वह आठवीं-नौवीं में पढ़ती थी. कोई जिद पूरी न होने पर उदास होती तो वह सामने पड़ते ही पूछ लेता. सारे शहर के लिए मीतू थी उसने हमेशा मिताक्षरा ही कहा. तब निहाल कालेज में था और वह स्कूल में पर रिश्ता तुम का ही बना. फिर वह शहर छूटा और सब बदलता गया. कितना कुछ पीछे छूट गया. कितने दोस्तों का अब चेहरा भी याद नहीं आता लेकिन निहाल ने संपर्क कभी नहीं टूटने दिया. यों ही कभी उसका फोन आ जाता. कभी जी चैट पर आकर हाल पूछ जाता. कभी फेसबुक पर. आमतौर पर सार्वजनिक कमेंट्स नहीं करता. पर कहीं कोई परेशान करने लगे तो तुरत हस्तक्षेप करता है.

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं”, उसने लिखा

“कुछ तो है”...एक स्माइली के साथ जवाब आया. “नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं. पर जानती हो निज मन की व्यथा...इस पर कोई ढंग का कमेन्ट भी नहीं आयेगा. यहाँ सब तुम्हारे रेडिकल फेमिनिस्ट रूप को देखना चाहते हैं. तो यह पोस्ट सुपरहिट नहीं होने वाली. मस्त रहो. हैव अ नाइस डे (रात गुड होती तो इत्ती सुबह ऍफ़ बी पर दिखाई नहीं देती) शायद अगले हफ्ते आना हो तो मिलूंगा” दो स्माइलीज़ के साथ उसने बात ख़त्म की.

दो स्माइलीज बना के उसने मोबाइल बंद कर दिया और आख़िरी बची सिगरेट लेकर बाथरूम में घुस गयी.


रंजन सर सुबह से तनाव में थे. उस तनाव की छायाएं पूरे दफ़्तर में पसर गयी थीं. नीरज ले आउट फाइनल करके बैठा था पर अन्दर ले जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था. अमन कोई ब्रेकिंग न्यूज पीस लेकर आया था लेकिन अभी लैपटाप बंद कर इयरफोन कान में लगाए गाने सुन रहा था और मिताक्षरा अपनी केबिन में कम्प्यूटर स्क्रीन में आँखें धंसाये बीच बीच में इधर उधर देख लेती थी. स्टेट्स पर बीसेक लाइक्स और आई थीं. मल्लिका ने पूछा था, “कोई कहानी लिख रही हैं मैम?” और श्रद्धा “शादी कर लो” के बाद एक शैतान वाली स्माइली लगा आई थी. ये लड़कियां जिनसे कभी मुलाक़ात तक न हुई थी, सखियाँ बन गयीं थीं. वह कुछ लिखने ही जा रही थी की नीरज केबिन की तरफ़ आता दिखा. उसने फेसबुक आफ कर दिया और पिछले अंक की फ़ाइल खोल ली. नीरज आफिस में सबसे कम उम्र का था. कालेज से निकलकर सीधे यहाँ आ गया लेकिन अभी कालेज वाले मैनर्स छोड़ नहीं पाया था. उसे देखके मिताक्षरा को ऋषभ की याद आती. कालेज का जूनियर. सीधा सादा पढ़ाकू ऋषभ.  एम ए फाइनल में थी वह जब उसने एक दिन अचानक से प्रपोज किया. उस वक़्त जो मानसिक हालत थी उसकी एक बार तो लगा कि हाँ ही कर दे. पर ना कर दिया...ऋषभ ने अब तक शादी नहीं की और उसकी जिंदगी कहाँ कहाँ से होके गुज़र गयी थी. नीरज सबको भैया-दीदी कहता. रंजन सर पहले ही दिन नाराज़ हो गए थे. उन्हें यह सब सामंती रवैया लगता था. फिर भी मीटिंग में उसके मुंह से निकल ही जाता था. गोरखपुर का था तो मिताक्षरा तो मीतू दीदी बन ही गयी थी. किसी से रिश्ते न बनाने की क़सम खा चुकी मिताक्षरा जाने क्यों नीरज को कभी टोक नहीं पाई. बस हमेशा की तरह सीधे दरवाज़ा खोल के सामने की कुर्सी पर जम गया और शुरू हो गया “यार दीदी, ये सर को क्या हो गया? सारी रात मेहनत करके नया ले आउट बनाया. एक बार देख लेते तो फाइनल कर देता. फिर लास्ट टाइम में चेंज करने को बोलेंगे. उधर ये लोग जान खायेंगे कि मैगजीन लेट हो रही है...आप बात करो न एक बार. या आप ही देख के बता दो कोई चेंजेज हों तो.” “देख नीरज, सर अभी बहुत परेशान हैं. एक तो अभी वो देखेंगे नहीं, और देख भी लिया तो  भी इस मूड में उनको अच्छा भी खराब ही लगेगा. तो तू आराम से बैठ के चिल मार. वो बुलाएंगे तब जाना.” मिताक्षरा ने स्क्रीन पर आँखें गडाए गड़ाए कहा.” “आप जानते हो न, मेरे से बैठा नहीं जाता. कोई काम न हो तो घबड़ाहट होने लगती है” झुंझला रहा था वह. इस बचपने पर वह मुस्कुरा पड़ी “तो एक काम कर, सागरिका को काल लगा ले. लंच हो जाएगा और तेरी घबड़ाहट लौट के नहीं आएगी.”

अभी नीरज की मुस्कराहट ने आकार लिया भी नहीं था कि अचानक रंजन सर की केबिन का दरवाज़ा खुला और देखते ही देखते अस्त व्यस्त रंजन सर तेज़ी से बाहर निकल गए.

न दुआ, न सलाम, न कुछ कहा, न सुना बस एकदम बाहर. ऐसा तो कभी नहीं हुआ था. कुछ नहीं तो जाते जाते एक मिनट रुक कर इतना तो कह ही जाते थे कि फलां काम से निकल रहा हूँ, कोई फोन वगैरह आये तो देख लेना. आखिर ऐसा क्या हो गया अचानक? आशंकाएं रह रह कर उभरने लगीं. जाते हुए रंजन सर से हटी तो सारी निगाहें मिताक्षरा की ओर टिक गयीं. सबको लगता था उसे ज़रूर पता होगा...पर आज तो उसे भी कुछ नहीं पता था.
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तीन साल हो गए थे इस मैगजीन में. आई तो सांस्कृतिक संवाददाता के रूप में थी लेकिन रंजन सर के साथ ऐसी टीम बनी कि साल भर के भीतर ही असिस्टेंट एडिटर बना दी गयी. तनख्वाह ही दुगनी नहीं हुई बल्कि शहर में एक धाक भी बन गयी. बहुत से लोग जो पहले देख के भी कट जाया करते थे, अब मिलने के बहाने ढूंढ़ते. गोरखपुर जाना होता तो घर पर तांता लगा रहता युवा पत्रकारों का. कोई अंकल बेटे की नौकरी की सिफारिश के लिए आते तो कोई दूर फंसे बेटे के ट्रांसफर के लिए. पापा मुस्कुराते, “आदत मत डालना इसकी मिताक्षरा. यह पावर, यह पहुँच शराब से भी गहरा नशा है. शराब न होने पर तड़पते देखा है न लोगों को?” ठीक उसी समय उसका गला सूखने लगता. ठीक उसी समय उँगलियाँ मचलने लगतीं. वह पापा की ओर फीकी मुस्कराहट से देखती और उसे रंजन सर याद आते, देखो मिताक्षरा...”पहुँच पुरानी शराब की तरह होती है. बस तब तक है इसकी कीमत जब तक इस्तेमाल नहीं की गयी. हम पत्रकार हैं, व्यवस्था से हमारी लड़ाई सांप और नेवले की है. कोई किसी को मारता नहीं. पर जिस दिन दोस्त दिखने लगे कोई भरोसा नहीं करेगा. अपनी ठसक बना के रखो. लाख ज़रुरत हो चेहरे पर सिर्फ आत्मविश्वास दिखना चाहिए.”

उफ़ ये शराब!

अजामिल! अजीब सा नाम था उसका. बस अजामिल. न आगे कुछ न पीछे. कोई कहता मुसलमान है तो कोई कहता दलित है...जात छुपाता है. तब वह रिसर्च कर रहा था “रोल आफ ट्राइबल कम्युनिटीज इन एंटी इम्पीरियलिस्ट मूवमेंट्स इन एशिया” और मिताक्षरा बी ए थर्ड इयर में थी. अब तक दूर से ही देखा था उसे. लम्बे बिखरे बाल, आँखों पर मोटा चश्मा, उधड़ी सी जींस और अजीब अजीब कोटेशन वाली टी शर्टों में कभी कालेज गेट के बाहर सिगरेट फूंकता नज़र आता तो कभी लाइब्रेरी में डूबा हुआ. अक्सर अकेला रहता और हाथ में मोटी मोटी किताबें लिए अपने में ही खोया रहता. कालेज में तमाम किस्से थे उसके. कोई कहता कि किसी बहुत अमीर घर का लड़का है, नक्सलाईट मूवमेंट में चला गया था सब छोड़ छाड़ के तो एक दूसरे किस्से के अनुसार पहले बहुत स्मार्ट था लेकिन एक अफेयर टूट जाने के बाद ऐसा हो गया. उस दिन बैनर्जी सर ने अचानक उसे अपने प्रोजेक्ट के लिए अजामिल से मिलने के लिए कहा तो वह एकदम चौंक गयी. अभी किसी तरह इसे टालने के लिए कोई बहाना ढूंढ ही रही थी कि अजामिल सर की केबिन में आ पहुँचा और इस तरह पहला शब्द बोला गया उन दोनों के बीच...”ओके.”

वह कोई और अजामिल था...अपने कमरे के फर्श पर दीवार के सहारे टिका धाराप्रवाह बोलता. बीच बीच में सिगरेट के कश लगाने के लिए रुकता. आदिवासी इलाकों के संघर्ष के किस्से सुनाता ऐसा लगता था कि वह साक्षी रहा हो उन खून और पसीने में डूबे संघर्षों का. आँखें जैसे किसी असमय बड़े हो गए बच्चे सी गंभीर, पतली पतली लम्बी उँगलियाँ किस्सों के साथ ही गतिमान. सितम्बर का महीना था वह. खिड़की के उस पार रिमझिम बरसते बादल और जुबली हाल की तीसरी मंज़िल पर खिड़की के इस पार सर झुकाए नोट्स लेती मिताक्षरा. वह अचानक रुका, ‘तुम्हारा नाम बहुत अच्छा है. मिताक्षरा. जानती हो आदिवासी समाजों के पास भी सीमित भाषा होती है. उतनी जितने की ज़रुरत है. असल में भाषा ही नहीं सब कुछ बहुत कम. घर में अनाज हो जब तक वे मज़दूरी करने नहीं जाते. मज़दूरी तो वे करते ही नहीं थे. जंगल, पहाड़, ज़मीन, नदियाँ सब तो उन्हीं की हैं. फिर क्यों करें वे मजदूरी? जंगल लकड़ी देता है, फल देता है, नदियाँ जल देती हैं, मछली देती हैं, ज़मीन चावल देती है, महुआ और ताड़ी शराब देते हैं, तेंदू बीड़ी देता है, पत्थर आग देता है..फिर क्यों करे कोई किसी की ग़ुलामी? जब अँगरेज़ रेल की पटरियाँ बिछा रहे थे तो उन्होंने आदिवासियों से मज़दूरी करने को कहा. उन्होंने मना कर दिया. बहुत कोशिश की अंग्रेजों ने. पर जब वे नहीं माने तो एक चाल चली. उन्हें दोस्त बना लिया. शराब पीना सिखा दिया और फांस कर उनसे मज़दूरी करवाई. शराबी नहीं थे आदिवासी. उन्हें बनाया गया. इस सभ्यता ने उन्हें असभ्य बनाया. अच्छा सोचो क्या इम्म्पीरियलिज्म से संघर्ष का अर्थ केवल तीर धनुष या बन्दूक वाला संघर्ष है? ना..इम्पीरियलिज्म दुनिया को ग़ुलाम बनाता है अपनी आदतों से. सभ्य बनने की दौड़ में हम उसकी संस्कृति अपनाते जाते हैं, उसके बाज़ार के ग्राहक बन जाते हैं और इस तरह उनकी चाल में फंसकर उसके ग़ुलाम बन जाते हैं. वह सांस की तरह शामिल हो जाता है जीवन में. तो एक प्रतिरोध उसकी संस्कृति को अपनाने से इनकार कर देना भी तो है? आदिवासियों ने यही किया. उन्होंने सभ्यता के नए मानक ठुकरा दिया. हम उन्हें अपने जैसा बनाकर सभ्य बनाना चाहते हैं.” “लेकिन विकास? क्या यह एक और ज़ुल्म नहीं है उनके ऊपर कि जब ज्ञान-विज्ञान और तकनीक के विकास ने हमारी जिंदगियों को इतना आसान बनाया है तो हम उन्हें जंगलों और पहाड़ों पर सुविधाहीन जीवन जीने के लिए छोड़ दें? क्या इस पर उनका कोई हक नहीं? क्या आप उन्हें एक जिंदा म्यूजियम की तरह नहीं ट्रीट कर रहे?...उस सम्मोहन को तोड़ते हुए सवाल किया मिताक्षरा ने तो वह जैसे झुंझला गया, “ जानती हो जब अमेरिकी कहते हैं कि अरब देश बुर्के और परदे की ग़ुलामी कर रहे हैं तो अरब कहते हैं कि अमेरिकी मैकडोनाल्ड और लेविस की ग़ुलामी कर रहे हैं. यह तो देखने का नज़रिया है बस. आखिर विकास है क्या? यह इस पर निर्भर करता है कि तुम कहाँ खड़ी हो. ऐसा क्यों हो कि सबका नज़रिया वही हो जो हम पश्चिमपरस्त शहरियों का है....

उसकी बातें कभी ख़त्म ही नहीं होती थीं. प्रोजेक्ट ख़त्म हुआ और उसके साथ एक अजीब सा रिश्ता शुरू हो गया. कभी उसके हास्टल के कमरे में, कभी कैंटीन में, कभी यों ही सड़कों पर मीलों पैदल चलते हुए...बातें जो ख़त्म नहीं होती थीं. असहमतियाँ जो दूर नहीं करती थीं. किताबों की एक नई दुनिया खोल दी थी उसने. किताबें  पापा के पास भी बहुत थीं. लाल जिल्दों वाली किताबें. रादुगा और पी पी एच की किताबें. लेकिन यह दुनिया अलग थी. दुनिया भर का साहित्य, नोम चाम्सकी, न्युंगी वा थ्युंगी, हाब्स्बाम, पर्यावरण, अर्थशास्त्र, इतिहास...वह डूबती गयी इस दुनिया में और इस दुनिया के उस अजीब से रहवासी में भी. उसकी सिगरेट का धुंआ अब चुभता नहीं था. उसके अजीब से कपड़े अब अजीब नहीं लगते थे. दिन बरसाती नदी की तरह बहे जा रहे थे. थर्ड इयर में रिकार्ड नंबर आये मिताक्षरा के. सब इतना अच्छा कि अब होश और बेहोशी के सपनों में कोई फर्क ही नहीं रह गया था. लेकिन सपने कैसे भी हों टूटना उनका नसीब होता है. उस दिन बनर्जी सर ने बुलाया तो उसने सोचा कि हम हमेशा की तरह कोई किताब सजेस्ट करने या कुछ बताने के लिए बुलाया होगा. लेकिन वह बहुत परेशान थे. साल भर से अजामिल ने रिसर्च वर्क छोड़ रखा था. उसकी स्कालरशिप ज़ारी रखने के लिए सर को सर्टिफिकेट बनाना था. क्या बताती मिताक्षरा. वह तो जैसे उसके जादू में खोई थी. बोली, “वह कर देंगे सर. इतनी तो मेहनत करते हैं फील्ड में. लिखने की फुर्सत न मिली होगी.” बनर्जी सर ने कुर्सी पर बैठे बैठे पहलू बदला. उनकी आँखें जैसे किसी पीड़ा से भरी हुईं थीं. जब वे सीधे मिताक्षरा की आँखों से टकराईं तो  सिहर गयी वह. सर ने दराज से एक काग़ज़ निकाला और बिना कुछ कहे उसकी ओर बढ़ा दिया. हास्टल के वार्डन का पत्र था. अजामिल की शराबखोरी से परेशान होकर उसके अगल बगल के तमाम लड़कों ने शिकायत की थी. अचानक पूछा बनर्जी सर ने, “कितना जानती हो तुम अजामिल को.” उसके मुंह से बेसाख्ता निकला, “बहुत.” “आर यू इन अ रिलेशन विथ हिम?” “यस सर.”

वह उनके कमरे से निकल आई थी. अजामिल को हास्टल से निकाल दिया गया था. उसने भी हास्टल छोड़ दिया. अजामिल की स्कालरशिप बंद हो गयी थी. उसने ट्यूशन बढ़ा दिए. अजामिल कभी कभी अनुवाद कर लेता. वे एक कमरे में रहने लगे थे. मुखर्जी नगर का वन रूम किचन सेट. वहीँ मिलने आया था एक दिन निहाल. दिल्ली किसी कांफ्रेंस में आया तो उसके हास्टल चला गया था. वहां से खबर मिली तो यहाँ चला आया. अजामिल घर पर नहीं था और वह शाम के खाने के लिए मटर छील रही थी. कोई सवाल नहीं पूछा निहाल ने. समोसे ले आया था और चाय खुद बनाई. देर तक बैठा रहा...घर परिवार की बातें, पढ़ाई लिखाई की बातें. फिर अचानक पूछा, “आगे क्या सोचा है?” वह हडबडा गयी. आगे कहाँ सोचा था उसने कुछ. वह तो अजामिल को सोचना था! जाते जाते दरवाज़े पर रुका था निहाल, “मिताक्षरा जीवन बहुत लंबा है. तुमने एक निर्णय लिया है और मैं उसका सम्मान करता हूँ. पर कभी कोई ज़रुरत पड़े तो बस एक काल कर देना.” जाने कितने दिनों बाद दरवाज़ा बंद करके रोई थी वह इस क़दर. आवाज़ें घोंटते हुए रोना. छोटे चाचा के अचानक एक्सीडेंट में गुज़र जाने के बाद ऐसे ही रोती थीं चाची. निःशब्द. उस रात अजामिल लौटा ही नहीं.

फिर अक्सर ऐसा होने लगा था. वह रात रात भर बाहर रहता. कई बार अचानक दिल्ली से बाहर चला जाता और फिर हफ्ते हफ्ते भर बाद लौटता. परीक्षाएं सर पर थीं और वह चाह कर भी एकाग्र नहीं कर पा रही थी. अजामिल से बात करना चाहती थी पर वह अपने आप में ही खोया था. किताबें नाराज़ पडोसी हो गयीं थीं. पढने की कोशिश करती तो आँखों में पानी भर आता. अपने ही बनाये नोट्स समझ में नहीं आते थे. बहुत दिनों बाद उसने आधी नींद में एक सपना देखा. रिजल्ट आया है. एम ए फ़ाइनल का. उसने पूरी यूनिवर्सिटी में टाप किया है. सारे लोग उसे बधाई दे रहे हैं. बनर्जी सर ने कमरे में बुलाकर देर तक बातें की हैं. कोई लाके उसे अखबार दे गया है. फोटो छपा है उसका. वह अखबार पढने की कोशिश करती है लेकिन सारे अक्षर गोल गोल घूम रहे हैं. फिर अपनी फोटो देखना चाहती है लेकिन उसके चेहरे पर इतने सारे धब्बे कहाँ से आ गए? वह छूकर देखने की कोशिश करती है. फिर धब्बे हटाने की कोशिश. ये तो चिखने का धब्बा है. मसालेदार मूंगफलियों के तेल और मसाले का धब्बा उसके गालों पर. नाक पर छलकी हुई शराब का धब्बा. गर्दन पर शायद सोडे का दाग है.  और आँखों पर जैसे उसने सिगरेट मसल दी है. दो गोल गोल छेद.... तीन दिन बाद लौटा था अजामिल. वह उसे अपने सपने के बारे में बताना चाहती थी...पर नहीं बताया.

बस पास हो गयी थी वह. बनर्जी सर मिले थे निकलते हुए. नमस्कार किया तो बस इतना ही बोले, “कंसन्ट्रेट करो पढ़ाई पर मिताक्षरा. वी एक्स्पेक्ट मोर फ्राम यू. अभी एक साल है कवर करने के लिए.” वह कट के रह गयी थी. भाग के घर आई तो अजामिल सामान पैक कर रहा था. पहली बार पूछा उसने,
“कहाँ जा रहे हो?”
एम. पी.
कब लौटोगे?
फिलहाल तो लौटने का कोई प्लान नहीं. वहां सहरिया ट्राइब्स पर कुछ काम करना है.
फिर मुझे भी ले चलो.
क्यों?
क्यों का मतलब क्या? अकेले क्या करुँगी मैं यहाँ? और क्यों रहूँ अकेले? आखिर मैं तुम्हारी...वह कहते कहते रुक गयी और आँखें भर आईं.
ओह कम आन मिताक्षरा. डोंट बिहेव लाइक पूअर वाइव्स. मैंने तुम्हें किसी रिश्ते में नहीं बाँधा है. यू आर फ्री लाइक एवर. अब मुझे वहीँ रहना होगा. तुम हास्टल लौट जाओ. कभी दिल्ली आया तो मिलूँगा. किताबें छोड़े जा रहा हूँ. कभी आया तो ले लूँगा.

और वह चला गया.

एक दरवाज़ा बंद हुआ और सारा रिश्ता ख़त्म. रोना चाहती थी पर आंसुओं ने साथ ही नहीं दिया. अब भी उस कमरे में दो लोगों का बिस्तर था. अब भी रसोई में दो जोड़ी बर्तन थे. अब भी दो लोगों की देहगंध थी. इन सबके बीच वह अकेली थी. कांच के हथटूटे कप में सिगरेट के तमाम अधजले टुकड़े थे. बिस्तर के नीचे पड़ी कई बोतलों की पेंदी में थोड़ी थोड़ी शराब थी...वह अचानक उठी. सारी बोतलें निकालीं और एक गिलास में उड़ेलने लगी. आधी से अधिक भर गयी गिलास. फिर छांट कर निकालीं कई अधजली सिगरेटें.

एक टुकड़ा जलाया और सारा धुंआ भीतर भर लिया...आश्चर्य..कोई ठसका नहीं लगा.

फिर एक के बाद एक कई कश लिए और वह अधभरी गिलास खाली कर दी...आश्चर्य! उसे कोई नशा नहीं हुआ!


रंजन सर के जाने के थोड़ी देर बाद वह भी दफ़्तर से निकल गयी. पहले सोचा कि घर चले जाएँ फिर जाने क्या सोच के काफी हॉउस चली गयी. अगस्त की दोपहर आसमान पर बादलों के हलके हलके धब्बे थे. काफी हाउस अभी गुलजार नहीं हुआ था. दीवाल से लगी टेबलों के इर्द गिर्द कुछ युवा लड़के लडकियाँ बैठे हुए थे. यू सी बी के रोल्स में तम्बाकू भरी जा रही थी. शायद उसके साथ कुछ और भी. भीतर की कुर्सियाँ ख़ाली पड़ी थीं लेकिन वहाँ सिगरेट पीना मुमकिन न होता तो उन्हीं कुर्सियों के थोड़ा और पीछे काउंटर के पास बैठ गयी. एक काली काफी आर्डर की सिगरेट सुलगा ली. पहले सोचा रंजन सर को फोन लगाये. लेकिन वह उन्हें जानती थी. अगर आफिस की कोई ऐसी बात होती जो बताई जा सकती तो अब तक बता चुके होते. शुभांगी दीदी को पता होगा. लेकिन अगर उन्होंने मना किया होगा तो दीदी भी कभी नहीं बताएँगी. फिर भी एक बार पूछने में क्या हर्ज़ है?

तीन बार पूरी पूरी रिंग जा चुकी थी लेकिन कोई रिस्पांस नहीं. अब तक काफी आ चुकी थी. उसने घर का नंबर डायल किया. उस तरफ़ मीना थी...”तबियत ख़राब है दीदी की. दो दिन से अस्पताल में हैं. साहब वहीँ गए हैं...हमें बताया नहीं. लेकिन अच्छा नहीं है सब दीदी...साहब बहुत परेशान हैं. कल देर रात आये थे घर एक घंटे के लिए. अकेले कमरे में रो रहे थे. नीतू बेबी तो हास्टल में ही हैं...मैंने पूछा...पर कुछ बताया नहीं. हास्पीटल का नाम तो नहीं पता...”

शुभांगी दीदी! बीमार! ऐसा कैसे हो सकता है? इतना संभल संभल के खाने वाली शुभांगी दी. रोज़ टहलने वाली शुभांगी दी. नशे के नाम से चिढ़ने वाली शुभांगी दी. हँसतीं तो लगता किसी गिलास में शराब छलक उट्ठी हो. आवाज़ जैसे किसी पहाड़ पर रौशनी बरस पड़े अचानक. खिला रंग. लंबा क़द. जहाँ होतीं वहां छा जातीं. औरतों के हक़ में कहीं कोई आन्दोलन हो वह सबसे अगली पंक्ति में देखी जा सकती थीं, हाँ जब टीवी वाले बाईट लेते या फोटोग्राफर घेरते तो चुपके से निकल जातीं.  पत्रिकाओं और अखबारों में लगातार लेख लिखतीं, सेमिनार्स आयोजित करातीं, कहीं कोई घटना हो तो स्टडी टीम का हिस्सा बन के चल देतीं. इतनी फिट. इतनी ऊर्जावान. उन्हें क्या हो सकता था!

काफ़ी ठंडी हो रही थी. उसने एक झटके में हलक में उड़ेल ली. अचानक ख़याल आया, डा निशा को तो ज़रूर पता होगा. उनकी इतनी अच्छी दोस्त हैं. फोन लगाया...”क्या बताऊँ मिताक्षरा. मैं तो समझ ही नहीं पा रही कि शुभांगी जैसी औरत को किसकी नज़र लग गयी. शी इज डायग्नोस्ड विथ ब्रेस्ट कैंसर. गाँठ थी उसके बाएं ब्रेस्ट पर. मैंने ही सलाह दी थी बायोप्सी की. एंड द वर्स्ट थिंग इस दैट इट हैज़ वर्सेंड आलरेडी....” वह जाने क्या क्या बताती रहीं. मेडिकल के कुछ अबूझ टर्म्स. वह जैसे सुनते हुए भी कुछ नहीं सुन रही थी. जैसे अचानक बादल बहुत गहरे हो गए थे. जैसे अचानक कोई बेआवाज़ बवंडर उठा था. जाने कब तक डा निशा बोलती रहीं और जाने कब फोन बंद हुआ. जैसे सुनने की ताक़त ही ख़त्म हो गयी थी उसकी. सामने बैठे लड़के लड़कियों के ग्रुप ने ठहाका लगाया लेकिन उसे सिर्फ खुलते बंद होते होठ दिखे. बैरा आकर “कुछ और” पूछ गया लेकिन उसे सिर्फ उसका आना और फिर चला जाना दिखा. देखते देखते काफी हाउस नए चेहरों और आवाजों से भर गया. आसमान में धूसर उजाले की जगह मद्धम चांदनी ने ले ली. अचानक जैसे किसी ने कहा “आठ बज गए!” घर जाना था अब. घर. एक सिहरन सी उसकी रीढ़ की हड्डियों से गुज़र गयी. अचानक बाएं सीने में दर्द की एक कमज़ोर सी लहर उठती महसूस हुई...धीरे धीरे वह लहर पूरे शरीर में भर गयी.

दरवाज़ा भीतर से बंद किया तो साँसें दूनी गति से चल रही थीं. शर्ट की दो बटन्स खोलीं और खींच कर उतार दिया. ब्रा उतारा और शीशे के सामने खड़ी होकर गौर से देखा. बाएं सीने पर कुछ हलकी नीली धारियाँ दिखीं. फिर ढूंढना शुरू किया. कभी किसी जगह पढ़ा था कुछ. हाथों में लेकर अलग अलग मुद्राओं में देखा. कोई गिल्टी नहीं मिली. लेकिन दर्द बदस्तूर था. फिर दाहिना सीना भी. वहाँ भी कुछ नहीं मिला. थककर बैठ गयी स्टूल पर दोनों हाथों में चेहरा थामें. फिर अचानक शीशे पर नज़र पड़ी. आँखों के नीचे हलके धब्बे आ गए हैं. होठ सूजे हुए से लग रहे थे. सीनों का आकार कितना बेडौल हो गया है. पेट पर कितनी चर्बी फालतू की. दोनों बाहों और सीने के बीच मांस के लोथड़े लटक गये हैं. वह उठकर शीशे के पास पहुंची और जींस उतार दिया. उफ़. कितना अजीब हो गया था पेट का आकार. टांगों से लेकर सीने तक मांस ही मांस. विजय के जाने के बाद उसने शेव भी नहीं की थी. एक अजीब सी मितली उठी गले में. बेड के नीचे से बोतल निकाली और आधा गिलास भर कर गले में धकेल दी. आग की एक धार सी उतरती लगी देह में. स्विच आफ कर दिया और एक चद्दर लपेट कर बिस्तर पर पड़ गयी.    


रंजन सर ने तीन महीने की छुट्टी भेजी थी. मैनेजमेंट ने इन तीन महीनों में उसे सम्पादक की जिम्मेवारी संभालने को कहा था.

स्तन निकाल दिए जाने के बाद भी उनकी दिक्कतें कम नहीं हो रही थीं. दफ़्तर से छूटकर वह सीधे उनके पास जाती. छुट्टियों में पूरे पूरे दिन वहीँ. तमाम नलियों के बीच लेटीं शुभांगी दी. कन्धों तक लहराते बाल अब नहीं थे. मरीजों के नीले गाउन में उनकी बीमार देह देख के सिहरन होती थी. सामने आने पर मुस्कुराने की कोशिश करतीं तो पीड़ा की एक लहर साफ़ दिखाई देती. हाथ उठाने की कोशिश करतीं पर उनमें ताक़त ही नहीं रह गयी थी. बोलतीं तो आवाज़ कहीं दूर से आती लगती. सोने सी दमकती देह राख का ढेर हो गयी थी कुछ ही हफ़्तों में.

डाक्टरों और देखने आने जाने वालों की भीड़, दवाओं और दूसरे इंतजामों के बीच रंजन सर किसी खामोश मशीन में तब्दील हो गए थे. लोग पूछते तो यंत्रवत वही बातें दुहरा देते. पूरे समय उनके सिरहाने चुपचाप खड़े रहते. वह कुछ कहतीं तो धीमे से जवाब देते, कभी हल्का सा मुस्कुरा देते, कभी उनके हाथ थाम लेते..आँखें भर आतीं तो बाहर निकल आते. मिताक्षरा ने मैगजीन के बारे में पूछा तो बस उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा “तुम देख लो मिताक्षरा.” चौबीसों घंटे मैगजीन में जीने मरने वाले रंजन सर के लिए जैसे अब उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था. कभी शुभांगी दी से पूछा था उसने, “रंजन सर दिन रात मैगजीन में लगे रहते हैं. आपको गुस्सा नहीं आता.” मुस्कुरा दीं थीं वह, “उस मैगजीन में स्याही नहीं रंजन का लहू लगा है मीतू. तू नहीं जानती कितना संघर्ष किया है उसने. मेरी नौकरी न होती तो नीतू को ढंग से पढ़ा भी नहीं पाते. यहाँ मिला उसे पहला मौक़ा अपने हिसाब से काम करने का और उसने झोंक दिया खुद को. जब अंक फाइनल करके वह घर लौटता है न तो उसका चेहरा किसी पौराणिक देवता सा लगता है. शांत संतुष्ट. वह नौकरी नहीं, सपना है उसका. एक मुसलसल सपना.”  थोड़ी देर रुकने के बाद बोलीं थीं वह, “जैसे विजय के जीवन का सपना उसकी पेंटिंग्स हैं. वह उन्हें उस क़ीमत लिए नहीं बनाता जो उस दलाल से मिलती हैं उसे. वह बनाता है क्योंकि उसे बनाना है. मत लड़ाकर उससे इतना. न बनाए तो वह कुछ और होगा, विजय नहीं होगा. फिर तू भी उसे प्यार नहीं कर पाएगी.” पता नहीं तब जानतीं भी थीं शुभांगी दी या नहीं कि मैगजीन भले सर का सपना हो उनके जीवन का यथार्थ तो बस वही थीं, लेकिन विजय के लिए उसका सपना और यथार्थ सब उसकी पेंटिंग्स ही थीं. उसकी उँगलियों पर उन रंगों का निशान इतना गहरा था कि उस पर कोई और रंग चढ़ ही नहीं सकता था. वह छूता तो उसकी नहीं रंगों की गंध आती थी. या रंगों की गंध ही उसकी देहगंध थी. अचानक उसके सीने में दर्द की वह लहर फिर से उठी. उस सुबह सी ही तीखी, गहरी... सारी देह अकड़ गयी थी जैसे उस दिन. विजय को किसी एक्जीबिशन में जाना था. बोला रास्ते में किसी डाक्टर के यहाँ ड्राप कर देता हूँ. कट कर रह गयी थी वह. सारा दर्द घोंटकर बोली, “नहीं डाक्टर की कोई ज़रुरत नहीं.” वह चला गया था. शुभांगी दी से झूठ बोला कि विजय शहर से बाहर गया है.  टेस्ट कराया तो बी पी, कोलेस्ट्राल, यूरिक एसिड सब बढ़े हुए थे. दो दिन अस्पताल में रही. लौटी तो वह अपने इजेल से उलझा हुआ था. एकदम निस्पृह पेंटिंग बनाता हुआ. आज लौटेगी तो घर पर कोई नहीं होगा. इस होने और न होने में क्या फ़र्क है? 

क्या चाहा था उसने? वह माँ की तरह नहीं होना चाहती थी कि सारी इच्छाएँ पापा की ज़िदों की ग़ुलाम हो जाएँ. वह अपनी उन सहेलियों जैसा नहीं होना चाहती थी जिन्होंने शादियाँ कीं तो अपने उल्लास पिता के घर ही छोड़ गयीं. वह आज़ाद होना चाहती थी. अपनी शर्तों पर रहना चाहती थी. अजामिल के जाने के बाद महीनों इसी उधेड़बुन में बीते थे कि उसे करना क्या है. एम ए के बाद पत्रकारिता में आने का उसका निर्णय मज़बूरी था तो आज़ादी से जीने की राह पर रखा पहला क़दम भी. वह नाचना नहीं जानती थी, लेकिन इजाडोरा डंकन बनना चाहती थी. वह गाना नहीं जानती थी लेकिन माया एंजेलो बनना चाहती थी. वह लेखक नहीं थी लेकिन सिमोन बनना चाहती थी. पर चाहती थी कोई एक हो जिससे वह प्रेम करे और जो उसे प्रेम करे. अजामिल के जाने के बाद के एक छोटे से दौर के अलावा उसने कभी रिश्तों को अराजक तौर पर नहीं जिया. लेकिन किसी एक को प्रेम करने की यह जिद भी एक ग़ुलामी नहीं?

उस दिन फेसबुक पर लिखा था उसने “ शादी क्या है? ग़ुलामी का सामाजिक और क़ानूनी अहद. वह कमा के लाएगा. तुम बदले में उसका घर संभालोगी. उसके गंधाते मोज़े धोवोगी, उसके बद्तमीज रिश्तेदारों को मटर पनीर बना के खिलाओगी. वह बाप कहलायेगा, तुम उसके बच्चों का हगा मूता साफ़ करोगी. अगर नौकरी में हो तो तुम महीने भर खटोगी और वह ए टी एम कार्ड सम्भालेगा. और हाँ...चाहे उसे पायरिया हो, चाहे उसकी देह में तुम्हें सम्भालने भर की ताक़त न हो, लेकिन जब वह चाहेगा तुम उसके लिए बिस्तर पर बिछ जाओगी.” शुभांगी दी का फोन आया था देर रात “क्या फर्क है मीतू मेरे और रंजन के रिश्ते और तेरे और विजय के रिश्ते में? हम घर लौटते हैं तो जो कम थका रहता है वह काफी बना देता है. तेरे साथ भी यही होता है. हमारे यहाँ भी खाना बाई बनाती है, तेरे यहाँ भी. हम साथ निकलते हैं तो ड्राइव अक्सर रंजन करते हैं, तुम साथ होते हो तो भी विजय ही बाइक चलाता है. हम भी एक घर में रहते हुए एक बिस्तर शेयर करते हुए अपनी अपनी ज़िंदगियाँ जीते हैं, तुम दोनों भी...फ़र्क सिर्फ इतना है कि हम एक दूसरे के प्रति जिम्मेदार हैं और इस ज़िम्मेदारी का अहद क़ानूनी है. कोई दूसरे से अलग होना चाहे तो यों ही झोला उठा कर नहीं जा पाएगा. तुम जा सकते हो. इसीलिए हमारी एक बेटी है. तुम उसे ज़रूरी नहीं समझते...सचमुच? क्या यह सच नहीं कि तुम्हें भरोसा नहीं कि होने वाले बच्चे को तुम मिलकर पाल पाओगे? सच कहूँ तो मुझे यह ज़िम्मेदारियों से भागना लगता है. आज़ादी का मतलब कमज़ोरी नहीं होता मीतू. कभी कभी हम जो चाहते हैं उसके न मिल पाने पर उससे नफ़रत का बड़े ज़ोरों शोरों से एलान करते हैं. एक ग़ुलाम समाज में आज़ादी कहीं नहीं है. एक वैश्या तक अपना ग्राहक चुनने के लिए आज़ाद नहीं है. मैं मानती हूँ शादी पितृसत्ता का एक मज़बूत उपकरण है. लेकिन फिलहाल इसका विकल्प क्या है? जब तक समाज बच्चे पालने की ज़िम्मेवारी नहीं ले लेता मीतू, शादी के भीतर ही जितना लोकतंत्र मिल सकता है, उसे लेने की कोशिश सबसे बेहतर रास्ता है. हम किस्मत वाले हैं कि कम से कम पार्टनर चुनने का हक मिला है हमें. जो पुरुष हमारे साथ हैं वे चेतना के स्तर पर औरत की आज़ादी को मान्यता देते हैं. तो हमारा फ़र्ज़ बनता है कि जिन्हें इतना भी नहीं मिला उनकी मदद करें. यह जो तूने लिखा है न, यह अपराधबोध भले भरे कुछ औरतों में, कोई रास्ता नहीं दिखाता. ” 

“लेकिन मैंने तो ऐसे ही रिश्ते देखे हैं दी. पापा कामरेड थे दुनिया के लिए. जेब का आखिरी पैसा तक साथियों के लिए खर्च कर देने वाले. फिर घर का चूल्हा तो माँ को ही जलाना पड़ता था न. कभी बनिए से उधारी के लिए मिन्नत करके, कभी बचाए हुए पैसों से तो कभी कोई पायल, कोई कड़ा या कोई अंगूठी गिरवी रख के. पापा तो जब लौटते तो उन्हें लगी हुई थाली मिलती. कभी जब साथ में कई लोगों को लिए लौटते तो माँ अपने हिस्से का भी खिला देतीं. कभी पूछा उन्होंने कि माँ ने खाया या नहीं? वह नास्तिक थे, माँ तो नहीं थीं. अडोस पड़ोस तो नहीं था. त्यौहारों पर वह तो खादी का कुर्ता डाले निकल जाते थे, लेकिन हम जो नए कपड़ों में दमकते पड़ोसियों के बीच अकेले रह जाते थे, कभी सोचा उन्होंने क्या गुज़रती थी माँ के सीने पर? चाची जो रोज़ पिटती थीं शराबी चाचा से. न उनके रहने पर खुल के रो पाई कभी, न उनके जाने के बाद. मेरे साथ पढ़ती थी शालिनी. कितने प्यार से बुलाया था उसने. उसे क्या पता था कि उस दिन जल्दी आ जायेंगे पतिदेव. मैं कोई जानवर तो नहीं थी. अन्दर ऐसा शोर मचाया उस आदमी ने कि शालिनी से बोले बिना चली आई. इसी आदमी के दोस्त और रिश्तेदार जब आते होंगे तो पकवान बनाती होगी शालिनी.

और मैं...एक अजामिल के लिए सब छोड़ के चली गयी थी सब कुछ. क्या उम्र थी तब? कुछ न सोचा. पागलों की तरह उसके नखरे उठाती रही. ट्यूशन कर कर के खर्च चलाया. वह बैठा शराब पीता रहता और मैं खाना बनाती. सिगरेट के धुंए से भरा रहता घर. एक बार देखा कि बीड़ी पी रहा है तो विल्स का पूरा क्रेट ला के रख दिया. क्या माँगा था बदले में? एक यह रिश्ता ही न? लम्बे लम्बे भाषण देता था स्त्री मुक्ति के. न जाने कहाँ कहाँ से किताबें ला कर देता पढने को. पर वह रिश्ता नहीं दे सकता था. जानती हैं न आप एम पी नहीं गया था वह. बिहार लौट गया था अपने रईस बाप के पास. उनकी एक ही शर्त थी कि शादी उनकी पसंद से करे. सारा सिद्धांत धरा रह गया. मंत्री की बेटी के साथ कैलिफोर्निया के उस फ़्लैट में कभी याद आती होगी उसको मेरी? एक बार कभी पूछा ज़िंदा हूँ कि मर गयी? एक्सेप्शन हैं रंजन सर. वह भी शायद आप माने बैठी हैं. नौकरी न होती आपके पास तो पता नहीं यह सब होता कि नहीं. आई हेट दीज मेन दी. मुझे नफरत है मर्दों से.” वह फट पड़ी थी.

“नहीं मीतू...तू एक अच्छे मर्द की तलाश में है. जाने दे..सो जा अभी. गुड नाईट” हमेशा की तरह शांत थीं शुभांगी दी.
कहाँ से सोती वह? जो पढ़ चुकी थी उसके बाद नींद कहाँ से आती. अपना लैपटाप डिस्चार्ज था तो जल्दी जल्दी में उसका डेस्कटाप खोल लिया था. ग़लती से लाग इन छोड़ गया था और वहाँ चैट्स थीं किसी राधिका की. उसने पूछा था, “कैसे रह लेते हो उस मोटी के साथ” और जवाब में विजय की स्माइलीज थीं...फिर वे चार शब्द “ बस थोड़े दिन और.”



पत्रिका का सर्कुलेशन लगातार कम होता जा रहा था. विज्ञापनों में भी कमी आ गयी थी. मैनेजमेंट के साथ दो मीटिंग्स हो चुकी थीं और उनका रुख बेहद कड़ा था. इन दिनों वह बारह बारह घंटे दफ़्तर में बिताती. पूरा ले आउट बदल दिया गया. कई नई स्कीम्स ज़ारी कीं. एक एक आर्टिकल के लिए घंटों माथापच्ची करती. लेकिन कुछ था जो मिसिंग था. पत्रकारिता की दुनिया में पैर रखने के बाद से ही उसका या किसी भी पत्रकार का सपना होता है सम्पादक बनना. रंजन सर के साथ काम करते हुए उसे हमेशा लगता कि एक बार मौक़ा मिले तो वह इससे बेहतर कर के दिखा सकती है. पहले अंक का जब सम्पादकीय लिख कर ख़त्म किया तो आँखें भर आईं थीं. मन किया था फोन करे किसी को...लेकिन किसे? माँ को करती तो वह असीसने के सिवा और क्या करतीं? पापा कुछ लम्बे उपदेश सुना देते. फेसबुक पर शेयर कर नहीं सकती थी छपने से पहले. फिर निहाल को मैसेज कर दिया. थोड़ी देर बाद उसकी स्माइलीज आईं...”पहले तो बधाई तुम्हारे पहले सम्पादकीय की. एक हादसे के चलते ही सही, लेकिन एक मौक़ा मिला है तुम्हें और इसे चूकना नहीं है. लेकिन यह सम्पादकीय पढ़कर ऐसा क्यों लग रहा है जैसे यह किसी विशाल पत्थर के नीचे दबे दबे निकली आवाज़ है? कितनी गंभीरता ओढ़ ली है तुमने? माना संपादन जिम्मेदारी का काम है लेकिन इसे सहजता से करोगी तभी सफल होगी. जैसे फेसबुक पर अपने स्टेट्स लिखती हो, जैसे महफिलों में मुंह पर खरी खरी कह देती हो वैसे लिख क्यों नहीं सकती? संभव हो तो इसे फिर से लिखो, वरना अगली बार ख़याल रखना.” उसने दो स्माइलीज बनाई और फेसबुक से लाग आउट कर दिया. अजीब चीज़ है यह निहाल. पता नहीं क्या समझता है खुद को. आज इतनी खुश थी तो दो लाइन में प्रसंशा करके ख़त्म नहीं कर सकता था? ठीक है सीनियर है, लेकिन यह क्या कि जब मौक़ा मिले एक उपदेश दे डालो. हद होती है किसी चीज़ की...उसका दिमाग भन्ना गया.

शुभांगी दी घर तो आ गयीं थीं लेकिन रेडियेशन और कीमो अभी महीनों और होने थे. डाक्टरों का कहना था कि अगले कुछ महीनों तक कुछ भी कहना मुश्किल था. वह हर दूसरे तीसरे दिन उनसे मिलने जाती. बीच में एकाध बार फोन किया तो लगा कि अब उन्हें बोलने में भी दिक्कत हो रही है. आवाज़ बीच बीच से टूट जाती थी. जैसे बेहद थकी हों. रंजन सर से बात करने की कोशिश की तो वह बस हाँ हूँ करके रह जाते थे. वह पूछना चाहती थी कि वह कब लौट रहे हैं. एक बार वह लौट आते तो सब ठीक हो जाता. उस दिन भी वह उन्हें ही फोन मिला रही थी कि अमन ने बताया रंजन सर ने इस्तीफ़ा भेज दिया था और मैनेजमेंट ने नए सम्पादक के लिए विज्ञापन तैयार करवा लिए थे.



उस रात उसने बहुत सारे सपने देखे...एक सपने में मैनेजमेंट उससे कह रहा था, “विज्ञापन देना तो मज़बूरी थी. लेकिन निश्चिन्त रहिये, सम्पादक का पद आपके पास ही रहेगा.” दूसरे सपने में उसकी प्रतिद्वंद्वी पत्रिका के मालिक जैन साहब उसके घर पर बैठे उससे अपने यहाँ सम्पादक की कुर्सी संभालने का निहोरा कर रहे थे. तीसरे सपने में फोर्ड फाउन्डेशन के इंटरनेशनल चेयरमैन आई आई सी में उसका पैग बनाते हुए अपना एशिया हेड बनने की विनती कर रहे थे. जाने क्या था कि सारे सपने आधे से टूट जाते. वह बार बार कोशिश करती पर सपने पूरे ही नहीं होते. फिर धीरे धीरे मैनेजमेंट, चेयरमैन, संपादक...तमाम चेहरे शब्दों की तरह एक दूसरे में घुलने लगे और वह एक अजीब से नशे में डूब गयी.

फिर उस रात नींद में एक सपना आया. बहुत गहरा अन्धेरा है. जगह भी पहचान में नहीं आ रही. वह भाग रही है. बेतहाशा. पीछे कई पांवों की आवाज़ें हैं. लगातार बढती हुई. अचानक किसी गड्ढे में उसका पाँव पड़ जाता है. वह चीख पड़ती है. वे आवाजें बिलकुल पास आ गयी हैं. ऐसा लगता है उन्होंने उसे घेर लिया है. वह चारों ओर देखती है पर कोई नज़र नहीं आता. अचानक उसकी नज़र नीचे की ओर पड़ती है और अँधेरे में चमकती हुई लाल लाल आँखें दिखती हैं. दसियों जोड़ी आँखें. लाल लाल. वह भागना चाहती है पर पाँव में बहुत दर्द है. उसकी चीखें तेज़ हो जाती हैं. तभी थोड़ी दूर पर एक कार रुकती है. अरे! अजामिल! वह रो पड़ती है...”अजामिल प्लीज़ हेल्प मी” वह उसकी ओर बढ़ता है लेकिन तभी उसका मोबाइल बज पड़ता है...काल काट के वह कहता है, “सारी मिताक्षरा मुझे अभी वाइफ को लेकर डेंटिस्ट के पास जाना है. मैं किसी और को भेजता हूँ. उसने विजय को काल लगाई है...”सारी यार विजय की पेंटिंग एक्झिबिशन है आज” ...अली, सुदेश...सब बिजी हैं. तुम निहाल को फोन लगा लेना. मुझे लेट हो रहा है..सारी” कार निकलती है तो पीछे जैसे बवंडर सा उठ आया है. धूल का बवंडर और उसमें सब कुछ उड़ने लगा है. वह एक बार फिर जोर लगा कर भागती है. तेज़..बहुत तेज़. भागते भागते अपने दफ़्तर के दरवाज़े पर पहुँच गयी. दरवाज़े पर अमन खड़ा है. वह कहता है पहले रंजन सर को ले के आओ वरना दरवाज़ा खोलने की इजाज़त नहीं है. वह रंजन सर के घर की ओर भागती है. वह दरवाज़ा खोलते ही चीख़ पड़ते हैं “तुम इन्हें यहाँ क्यों ले आई?” वह बचाने के लिए गुहार लगाती है. रंजन सर फिर चीख पड़ते हैं, “मैं किसी की मदद नहीं करूँगा. किसी ने शुभांगी की मदद नहीं की.” वह गिडगिडाती है, “ प्लीज़ सर. मैं आपके सारे काम करुँगी. मुझे बचा लो प्लीज़. मुझे अपने घर में रख लो.” वह धीमे से बोलते हैं, “मैं खुद जा रहा हूँ यहाँ से. अब तुम्हीं रहो इन कीड़ों के साथ.” वह थककर बैठ गयी उनके सोफे पर. कमरे में भी अन्धेरा है. जहाँ शुभांगी दी बैठती हैं वहां एक प्लेट में राख रखी है. वे आँखे उसकी पूरी देह पर भर गयी हैं. वह गौर से देखती है तो वे आँखे नहीं हैं. छोटे छोटे चेहरों से निकली जीभे हैं और चमकते हुए दांत...तीख़े..नुकीले...अजामिल...विजय...अली...सुदेश... वे कुतर रहे हैं उसकी देह. पैरों के तलवे, जांघ, योनि, नाभि, स्तन, गर्दन, होंठ....वह चीखना चाहती है पर आवाज़ नहीं निकलती. फिर टेलीफोन की घंटी बजने लगी. पहले धीमे ..फिर तेज़..फिर और तेज़...

नीरज था फोन पर, आवाज़ भरी हुई थी..टूटी हुई... “दी...सागरिका...”

क्या हुआ नीरज? ठीक से बता

सागरिका ने सुसाइड...इसके आगे की आवाज़ सिसकियों में डूब गयी.

पूरा फेसबुक सागरिका की तस्वीरों से भरा हुआ था. उसका सुसाइड नोट नेट पर वायरल हो गया था. उसने अपनी पत्रिका के सम्पादक और मैनेजमेंट पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था. सुसाइड नोट पोस्ट करने के बाद रात को कोई दो बजे उसने ढेर सारी नींद की गोलियाँ खा ली थीं. सुबह जब उसके दोस्तों ने उसकी पोस्ट देखी तो दरवाज़ा तोड़कर उसे अस्पताल में भर्ती करवाया. सम्पादक के ख़िलाफ़ एक केस दर्ज़ हुआ था. लेकिन किसी टी वी चैनल पर कोई ख़बर नहीं थी. अभी तक सम्पादक के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही भी नहीं हुई थी. लोग बेहद गुस्से में थे.

मिताक्षरा ने घड़ी देखी तो नौ बज रहे थे. अक्टूबर की सुबह सर्दियों ने धीमी दस्तक देना शुरू कर दिया था. उसने नीरज को फोन करने के लिए लाग खोला तो जैन साहब का सुबह सात बजे का एस एम एस पड़ा हुआ था, “काल व्हेन यू आर फ्री.” थोड़ी देर सोचने के बाद उसने नंबर मिलाया. सोचा था कि खूब सुनाएगी. सागरिका जैसी लड़की के साथ ऐसा करने की हिम्मत कैसे हुई इन लोगों की!  जैन साहब जैसे उसके फोन का इंतज़ार कर रहे थे.

हाऊ आर यू डूइंग मिताक्षरा?

आई एम फाइन सर. थैंक्स

लुक रिषभ इज ज्वाइनिंग योर मैगजीन एज अ चीफ एडिटर. आई डोंट थिंक यू विल लाइक टू वर्क अंडर ए जूनियर. सो यू
आर वेलकम इन माई मैगजीन. ज्वाइन द डे यू फील कम्फर्टेबल. सेलरी इज नाट एन इश्यू. इट विल बी डबल देन व्हाट यू आर गेटिंग देयर.

ओह! थैंक्स सर. आई विल रिप्लाई यू सून.

इस बीच नीरज की कई काल्स मिस हो गयीं थीं. वह कुछ देर सोचती रही फिर उसने मोबाइल आफ कर दिया. लैपटाप पर फेसबुक लागिन किया तो चैट आफ कर दी. बीसियों लोगों ने उसे टैग किया था. कई मैसेजेज़ थे. निहाल ने लिखा था, “तुम वहाँ हो. एक महिला पत्रकार के साथ यह जो हुआ है वह पत्रकारिता जगत में पैसे और पावर के साथ आ रही विकृतियों का सबसे बड़ा सबूत है. लोग बेहद गुस्से में हैं. एक स्त्रीवादी के रूप में तुमने बहुत सम्मान अर्जित किया है और अब तुम्हें ही इस केस में नेतृत्वकारी भूमिका निभानी पड़ेगी. फेसबुक पर भी और बाहर भी.”

उसने फेसबुक से लाग आउट किया. बीमारी का हवाला देते हुए आफिस से छुट्टी के लिए एक मेल कर दिया. थोड़ी देर यों ही पड़ी रही तो रह रह के सागरिका का चेहरा उसके सामने आने लगा. 24-25 साल की आई आई एम सी पासआउट सागरिका. खनखनाती हुई आवाज़. पहली बार नीरज मिलवाने के लिए वर्ल्ड बुक फेयर में लेकर आया तो उसे देखकर आह्लाद से भर गयी थी सागरिका, “कितना पढ़ा है दी आपको. फेसबुक पर सबसे पहले आपकी वाल देखती हूँ. क्या आग है आपकी कलम में. मैं तो फालोवर हूँ आपकी सबसे बड़ी वाली. आप जैसा लिखना चाहती हूँ. आप जैसा बनना चाहती हूँ” उसके बाद भी कई बार नीरज के साथ और कई बार अकेले में मिली थी. एक बार शाम को आई तो रात में यहीं रुक गयी. देर रात तक बातें करती रही, योजनायें बनाती रही. वह फ्रीलांस करना चाहती थी. महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लगातार लिखना चाहती थी. मिताक्षरा ने उसे कई सारे आइडियाज दिए थे. जबसे शुभांगी दी की तबियत खराब हुई थी उससे मिलना जुलना नहीं हो पाया था लेकिन फेसबुक और मोबाइल पर वह लगातार मैसेज किया करती थी. जाने क्या सोचकर मिताक्षरा ने मोबाइल फिर से आन किया. नीरज ने मैसेज किया था. वह अस्पताल में था और सागरिका को खून की ज़रुरत थी. मिताक्षरा ने रिप्लाई किया, “आ रही हूँ;”

अस्पताल के बाहर भी लोगों की भीड़ लगी थी. उसने स्कूटी पार्क की तो कई लोगों ने घेर लिया. एक ने पूछा कि “आपने इस इश्यू पर कुछ लिखा क्यों नहीं?” मिताक्षरा ने घूर कर देखा उसे, “इस वक़्त फेसबुक स्टेट्स लिखना ज़रूरी है या सागरिका की जान बचाना.” वह सहम गया. नीरज से बात करके उसने तमाम लोगों को फोन लगाए. खून का इंतज़ाम हो गया था. शाम होते होते सागरिका को हल्का होश आने लगा था. उसके माँ पापा भी आ गए तो मिताक्षरा घर लौट आई.

घर आकर उसने लैपटाप खोला. तीन नई मेल्स थीं. पहली दफ़्तर से. उससे सम्पादकीय प्रभार ले लिया गया था. दूसरी जैन साहब की उन्होंने प्रपोजल लेटर भेजा था और तीन दिन बाद अपने यहाँ ज्वाइन करने का न्यौता दिया था.  तीसरी मेल डा निशा की थी. इस बार भी कोलेस्ट्राल काफ़ी हाई था, सिगरेट छोड़ने की सख्त ताक़ीद की थी और वजन कम करने की भी. फेसबुक खोला तो दो दिन बाद सागरिका के समर्थन में उसकी पत्रिका के दफ्तर के घेराव के लिए बने इवेंट का आमंत्रण था. उसने दो मिनट यों ही देखा और फिर “मे बी” पर क्लिक कर दिया. निहाल का एक और मैसेज था. उसने पढ़ा ही नहीं और फेसबुक लागआउट कर दिया.

मोबाइल खंगाला तो पता चला अब उसके पास ऋषभ का नंबर था. सोचा काल कर ले. पूछे...फिर नहीं किया. फोनबुक पर यों ही नम्बर्स आगे बढ़ाने लगी तो उँगलियाँ अचानक शुभांगी दी के नंबर पर रुकीं. वह होतीं अगर तो फेसबुक पर सबसे तीखा स्टेट्स उन्हीं का होता. वह उस प्रदर्शन में जाने के लिए तमाम लोगों से बात कर रहीं होतीं. फिर अचानक ख्याल आया, मान लो यह मेरे साथ होता. रंजन सर ने कभी ऐसा किया होता तो? तो शुभांगी दी कर पातीं ऐसा? मान लो उसने कभी फोन करके उन्हें ही सबसे पहले बताया होता तो? तो क्या कहतीं वह? रहने दो. कुछ नहीं कहतीं. समझातीं. पर स्टेट्स कभी नहीं लिखतीं. स्टेट्स लिखते ही वह रिश्ता हमेशा के लिए ख़त्म हो जाता. तब उनकी तीमारदारी में नहीं जुटे होते रंजन सर. और आज अगर वह अकेले होतीं? अस्पताल से घर तक? तो? तो क्या ये लोग जाते वहाँ उनकी सेवा करने? रहने दो..कोई नहीं जाता. बातें हैं बातों का क्या!  उसके सीने में एक बार फिर दर्द की लहर उठी. उसने जोर से भींचा उन्हें और फिर सिगरेट सुलगा ली.

अगले दो दिन भी वह दफ़्तर नहीं गयी. ऋषभ ने ज्वाइन कर लिया था. सागरिका को अब होश आ गया था. पुलिस ने उस पर आत्महत्या के प्रयास का मामला दर्ज कर लिया था. सम्पादक को निकाल दिया गया था लेकिन मैनेजमेंट पर अब तक कोई केस नहीं हुआ था. जैन साहब के दो और मेल आये थे. फेसबुक धधक रहा था. नीरज ने कई काल किये थे इस बीच. वह प्रदर्शन की तैयारियों में लगा था. निहाल ने कई मैसेज किये थे. उसने पढ़े ही नहीं. माँ का फोन आया था. छोटी बहन की फ़ीस जमा करनी थी और बाबूजी कहीं दौरे पर निकल गए थे. उसने आनलाइन ट्रांसफर किया तो याद आया कि मकान मालिक को किराया भी देना है. अकेले के लिए घर बड़ा था. किराया अधिक. लेकिन शिफ्ट करने के लिए एजेंट की फीस और एडवांस सहित जो रक़म चाहिए थी उसका इंतजाम मुश्किल था. काश कोई और होता साथ में..सिगरेट भी मंहगी हो गयी थी. इधर जो बन्दा आर्मी कैंटीन से समान सप्लाई करता था उसका भी ट्रांसफर हो गया था...

और दो दिन बीत गए!

बारह बजे घेराव था. वह घर से निकली थी घेराव के लिए ही. मेट्रो से उतर के उधर चली तो रास्ते में जैन साहब मिल गए और उनकी गाड़ी में बैठ गयी. काले शीशे के उस पार लोग बैनर-पोस्टर लिये खड़े थे, नारों की तेज़ आवाजें शीशे से टकरा के लौट जा रही थीं...जैन साहब की सिक्योरिटी तैनात थी और साथ में ढेरों पुलिसवाले भी...कार तेज़ी से आफिस के गेट की तरफ बढ़ी. उसने फेसबुक खोला..थोड़ी देर तक देखती रही...फिर डीएक्टिवेट कर दिया.  


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[1] फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं 
मगर क़रार से दिन कट रहे हों यूँ भी नहीं (अहमद फ़राज़ )

टिप्पणियाँ

खान शकील ने कहा…
अशोक जी पढ़ लिया दो बार पढ़ा हर बार ऐसा लगा जैसे जैसे जैसे हम इस कहानी की यात्रा में आगे बढ़ते हैं गति बढ़ती जाती है और आगे का रास्ता तेज़ी से संकरा होता जता है इन दो डायमेंशन के बीच दम घुटने का एहसास बयां नही कर सकता
और अंत में एक बन्द गली आखिरी सिरे से आप टकरा जाते हैं घुप्प अँधेरा
आज का परिवेश .....
मनोरमा सिंह ने कहा…
पढ़ ली, बिलकूल आस पास की कहानी लगी बल्कि कुछ प्रसंग तो ऐसे हैं जिन्हें करीब से घटते देखा भी है ! बहुत अच्छी लगी सच में !
अनघ शर्मा ने कहा…
पढ़ लिये बस अब क्या कहूँ कि ये समझिये आज छुट्टी का दिन बन गया और महीनों से शिथिल पड़ी कहानी को लिखने के लिए ज़रूरी हिम्मत भी मिल गयी।।। बेहद अच्छी कहानी।
बेनामी ने कहा…
बेहतरीन अभिव्यक्ति है भावनाओ की.... ����
neera ने कहा…
पत्रकारिता की दुनिया की तहे खोलती कहानी स्त्रीवाद की विवशताओं बखूबी दर्शाती है

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