इला जोशी की कविताएं
इला जोशी इधर लगातार कविताएं लिख रही हैं, बम्बई में साहित्यिक आयोजनों में भागीदारी कर रही हैं और हिन्दी कहानियों के पाठ को एक विधा के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रही हैं। प्रेम उनकी कविताओं का स्थाई भाव है। लेकिन स्त्री कविता में प्रेम का पाठ करते हुए हमें बहुत चेतन स्तर पर इसे प्रेम के कथित मुख्यधाराई पाठ से विलग करके देखना आना चाहिए। एक पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री के लिए प्रेम के मानी वे कतई नहीं हो सकते हैं जो आमतौर पर पुरुष के लिए होते हैं। उसके मैं को निजी अनुभवों तक सीमित करके देखना अक्सर पितृसत्ता की राजनीति के असर और उसके प्रतिकार, दोनों को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश होती है, अक्सर जानबूझकर और कभी कभी अनजाने। असल में, स्त्री कविता पाठ के लिए ज़रूरी औज़ार अभी हिन्दी आलोचना में विकसित ही नहीं हो पाये हैं।
इला की कविताएं एक प्रश्नाकुल मन और जाग्रत मस्तिष्क की कविताएं हैं जो अपनी अंतर्वस्तु में आधुनिक है और महत्त्वकांक्षी। इन्हें पढ़ते हुए आप उन सवालात से ही रू ब रू नहीं होते जो प्रत्यक्ष हैं बल्कि उन सपनों की छायाएं भी देख पाते हैं जो अक्सर अनकहे रह जाते हैं।
8 फरवरी से 8 मार्च तक असुविधा के स्त्री कविता माह में इस बार पढ़िये इला की कुछ कविताएं
गूगल से साभार |
प्याले में भरे इंद्रधनुष
मेरी ज़िल्द के अंदर
उसने उड़ेल दिया
रंगों से भरा एक प्याला
कि भीतर के
तमाम इंद्रधनुष
सतह पर आ गए
बारिश के आसमान में
सूरज संग बिखर गए
अरमानों से रंगे
कई इंद्रधनुष
प्रेम और क़ानून
कई कई बार
मैं हथेली में समेटती रही
तुम्हारा स्पर्श और
माथे से टपके
नमक भरे दो कतरे
मैं अक्सर चुरा लेती हूँ
आसमान से चांद
और किसी को कानोकान
ख़बर तक नहीं होती
वो मानते हैं कि
अमावस की रात का क़ानून
सच्चा है
तुमसे जुड़ा
ऐसा कोई क़ानून क्यों नहीं
कि मैं चुरा लूं तुम्हें
या समेट लूं हथेलियों में
और कहीं कोई गुमशुदगी की
रिपोर्ट भी दर्ज न हो
विकल्प और चुनाव
मैंने चुनी
एक खुरदुरी काली स्लेट
जिस पर लिखने वाली चॉक
थी उसके बरक्स
झक सफ़ेद
और बेहद चिकनी
विकल्पों के इस बाज़ार में
ये चुनाव मेरा था, सिर्फ़ मेरा
वैसे ही
जैसे तमाम अंधेरों के बीच
एक मोमबत्ती की रौशनी
सैंकड़ों खुले छातों के बीच
उसके भीगे हुए बाल
और असंख्य तर्कों के बीच
अधर पर धरा गया एकमात्र चुम्बन
हां, ये सब चुनाव ही हैं
और दुनिया भी इन्हीं से बदलेगी
विकल्प से सिर्फ़ बाज़ार बनता है
इश्क़ और इंतज़ार सर्दियों का
मेरे शहर की सर्दियां
इश्क़ का मौसम होती हैं
जहां कुहरे की चादर में
लिपटे हुए जोड़े
सांसों में भरे आग
सुलगते हैं अंगीठी के कोयले से
एक हरारत हमेशा
जकड़े रहती है उन्हें
और इश्क़ का ज्वर
थर्मामीटर कहां माप पाता है
जहां पहाड़ों पर बिछे जंगल
समेट लेते हैं ढेर सारी ओस
ताकि हर सुबह बुझती रहे
पिछली रात की प्यास
मेरे शहर में सर्दियों में
अक्सर होती है बारिश
कोहरा थोड़ा और गाढ़ा हो जाता है
सांसें कुछ और गर्म
ओस में भीगे होंठ बेहद नर्म
कि आलिंगन,
और अधरों पर धरे कुछ चुम्बन
कोयलों को थोड़ा और सुलगा सकें
बढ़ा सकें हरारत को
क्योंकि सर्दियां
बस कुछ महीनों की मेहमान हैं
और इश्क़ को आख़िर
इंतज़ार कब भाता है
बगावत
एक घने बरसाती जंगल में
पत्तों के झरोखों से
छन के आती धूप से हो तुम
और मैं उगने लगती हूं
किसी उबड़ खाबड़ तने में छिपे
कुकुरमुत्तों की तरह
मेरी ज़िंदगी के मौसम की नमी
सूखने नहीं पाती, और
दरख़्तों के झुरमुट
हमारे बीच तने होने के बावजूद
रोक नहीं पाते तुम्हारी तपिश
किसी रोज़ मैंने
कहते सुना था तुम्हें
कि सांवला रंग बहुत भाता है
बस उसी रोज़ दरख़्तों से
बगावत कर, मैंने शामिल किया
सभी पत्तों को और
दे दी चुनौती
बरसाती जंगल के क़ानून को
बारिश, अज़ान और तुम
खिड़की से छन कर आती
बारिश की बूंदों
और अज़ान की
ख़ूबसूरत आवाज़ के बीच
तुम में तुमको ढूंढती मैं
जैसे, पानी की ठंडक
और
वो सारे शब्द
जिनके अर्थ
नामालूम रहे मुझे
अचानक, किसी एक पहेली के
अलहदा, लेकिन ज़रूरी टुकड़ों से
जुड़ गए हों
और इबादत में फैले मेरे हाथों में
पानी संग लिख दी
तुमने, एक नई इबारत
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मुंबई मे रह रहीं इला से mailjoshiila@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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