वह भी कोई दिल्ली है ! - सुजाता
हिन्दी कविता में दिल्ली की उपस्थिति एक रूढ़ प्रतीक सी रही है। छोटे
शहरों, क़स्बों और गाँवों में रहने वाले हिन्दी समाज के लिए
ही नहीं बल्कि वहाँ से आकर बस गए लोगों के लिए भी दिल्ली सत्ता का शहर है, अमानवीय, शोषक और अजनबी। कभी चाँदनी चौक से लाल क़िले
तक था यह शहर दूर से देखने वालों के लिए तो अब अक्सर लुटियन तक। एक ऐसा शहर जहाँ
का लगभग हर बाशिंदा कहीं और का है। कभी बातचीत में नरेश सक्सेना जी ने मुझसे कहा
था कि दिल्ली में बहुत से कवि रहते हैं, लेकिन दिल्ली का कोई
नहीं।
प्रकाशक : ज्ञानपीठ यहाँ उपलब्ध |
सुजाता की
यह कविता इस मानी में उस रूढ़ प्रतीक को पलटती है। वह दिल्ली की हैं, सैंतालीस के जलजले में अपनी जड़ों से उखड़ दिल्ली की निम्नमध्यवर्गीय
रिहाइशों की दलदली ज़मीन में अपनी जड़ें तलाशते परिवार की तीसरी पीढ़ी जिसने उखड़ने के
क़िस्से सुने हैं, बसने की निशानियाँ देखी हैं, जिसने पिछले चार दशकों में इस शहर की तब्दीलियाँ देखी हैं और जिसका अपना
निर्माण इस नए शहर के साथ-साथ हुआ है। जिसके लिए यही शहर है, यही गाँव, जिसके पास लौटने के लिए कोई जगह नहीं
न ही कोई पुकार। यह उसकी निगाहों से देखा शहर है, दिल्ली पर
लिखी बाक़ी कविताओं से अलग बाइस्कोप से देखा गया।
यहाँ एक और ज़रूरी बात यह कि यह स्त्री की निगाहों
से देखा शहर है जिसकी छवियाँ आपके अपने शहर में भी होती ही हैं पर देख पाने की नज़र
अक्सर नहीं मिलती। स्त्री विमर्श केवल स्त्रियों के बारे मे बातचीत नहीं है अपितु
स्त्री दृष्टि से देखी गई दुनिया है। हम पुरुषों की दृष्टि से दिखती दुनिया के
बरक्स एक प्रतिसंसार रचती। इसीलिए शायद यह असुविधा पैदा करती है और समीक्षक ऐसी
कविताओं को नज़रअंदाज़ कर देना बेहतर समझते हैं। इस क्रम में जल्द ही मैं कुछ और
स्त्री कविताएँ असुविधा पर देने की कोशिश करूंगा।
(एक)
पेड़ों
की क़तारें थकी खड़ी भौंचक
सड़कों
पर बहती रात में कोई उदास गीत सुस्ताई पत्तियों पर टंगा
सिमटा
हुआ कोई अपनी रिक्शे की सीट पर
यहीं
फ्लाई ओवर के नीचे
अनगिन
बदन लालकिले से बस अड्डे...पटरियों पर
नि:स्वप्न
ख़्वाबगाह
...
ये पीली
बत्तियों की लड़ी बुझ जाए तो मेरी शर्मिंदगी ज़रा कम हो !
(दो)
मैं क़तार
में हूँ
बेसब्र है पीछे कोई
बेसब्र है पीछे कोई
शोर और बहरापन एक साथ
यहाँ से
कहीं नहीं जाया जा सकता
जितनी
यातना है उतना मोह
अभी रेंगना है कुछ दूर और
अधूरा अधूरा सा भरते हुए आँखों में, बदरंग
शहर की शाम का आसमाँ
(तीन)
इधर शहर
तीन चौथाई से ज़रा कम होगा
एक
पुराने लोहे के पुल वाली नदी बीच में उपेक्षित
मुँह
बिचकाते थे रिश्तेदार उधर के ‘कहाँ जमनापार जा बसे हो,गाँव है एकदम
वह भी
कोई दिल्ली है !’
(चार)
ठहरी
होती है नदी अपलक देखती
पुल सरक
रहा है धीमे धीमे जैसे गुलामों की कतार
सर
झुकाए बेबस
अभी
खेला जाएगा मौत का खेल
याद आती है सहधारा, निश्चल , सोती हुई सी चम्बल
याद आती है सहधारा, निश्चल , सोती हुई सी चम्बल
उसके
बीहड़
एक
सुंदर लैंडस्केप !
(पाँच)
एक
बद्तमीज़ शहर जो नही ही सीखता अपनी नदी को प्यार करना
उसकी
नींद में मरोड़ है, प्यास में चुभन, साँस में अकाल है, उन्माद है भूख में
(छह)
जैसे दिमाग है ख़राब टाइम
मशीन
सेट करती हूँ एक हफ़्ता, ले जाता है तीस साल पीछे
जंगपुरा का मोहल्ला
रिफ्यूज़ियों के लिए बने मक़ान
छत पर दौड़ती लड़की...
आवाज़ लगाती थी नानी –
नी थल्ले आ गुरिया, ढैं पोसे !
अभी ढेर काम हैं गुड़िया
को
नीचे नहीं आएगी अभी
न गिरेगी ...
देखती
हूँ घर के सपने तो नहीं बदलता सरकारी क्वार्टर सपने में भी ...
वे
कितने अलग थे हमसे जिनके गाँव थे। उनके यहाँ सपनों में गाँव ही आता होगा और सब कुछ
बदलने के बावजूद नही बदलता होगा गाँव उनके भी सपनों में ।
(सात)
बच्चों के शोर से झल्लाया
बूढ़ा दौड़ता है लाठी लिए जैसे
कमबख़्त दोपहर में सोने भी
नहीं देते
ऐसे चलती है झींकती हुई
डीटीसी की बस पुरानी वाली
मुश्किल से रुकती है, खिंचता है कलेजा उसका दूर तक
कई दिन रही थी मैं दीवानी
- बड़े होकर कण्डक्टर
बनूंगी पापा
लौटते थे जब उनसे
ढेर सारी जमा कर ली थीं
मैंने टिकटें बस की 2,3,5 रुपए वाली
पास बनवा लिया था कॉलेज
में ,अकसर
भूलती थी जिसे घर पर
बेटिकट पकड़ा गया है , गैंग है एक पूरा
स्टाफ चलाता है हर बार, मुझे पता है
वक़्त पर नहीं मिलेगी मेरी
टिकट
घड़ी के पट्टे में उसकी
बत्ती बनाके खोंस लेती हूँ
परिचय-अपरिचय के बीच भी
एक बड़ा संसार बसता रहा...
दफ़्तर से लौटती अधेड़
महिला बस में सवार होते रोज़ नज़र घुमाती
-एडजस्ट कर लेना प्लीज़
पीछे खड़ी लड़की कहती हुई-
मुझे अपनी सीट के बीच खड़े होने दीजिए
बीच की गली में गहरी है
भीड़
अभी एक लड़की गहरी साँस
लेते उतर गई अपने स्टॉप पे
शुक्र है खत्म हुआ नर्क
का सफ़र
स्वेटर चल रहे हैं धड़ाधड़
सबसे पीछे...
मूँगफलियों के छिलकों से
उछल रहे हैं बातों के छिलके आधे खिड़की से बाहर
आधे सीट के नीचे सरका दिए
हैं पाँव से अगले बैठने वाले ने
बच्चा उचक रहा है खिड़की
से बाहर – सम्भालो
बहनजी !
कोई कहता है बगल से गुज़रता---------
आपका दुपट्टा कार के दरवाज़े में फंसा है ...
(आठ)
नींद की गलियों में
दूर तक सीटी बजाता भागता
है स्वप्न
........... मुझे दिन
दहाड़े रात की याद आती है.........
दिखाती हूँ बॉस को फाइल
कल देर रात तक किया है
काम
वह पीठ निहारते कहता है - मुझे तुम पर नाज़
है !
सपने ज़्यादा नही देखना
और रीढ़ को ज़रा कम करने की
कोशिश करो ।
(हर वाक्य में एक शब्द कहता है संदर्भ
से परे उसकी आदत है,
रीढ़ कह गया है नींद को शायद )
आज देर हुई है इतनी
पहचान ग़लती से दराज़ में
भूल आई हूँ
दुपट्टे में किसी की टेढ़ी
हँसी अटक के साथ आ गई है छुड़ाने में फट न जाए
यहाँ दिन भर एक गुम सड़क
पड़ी रहती है
सो जाते हैं सब तो ख़रामा ख़रामा
चलते इस गुब्बारेवाले के पांव के नीचे ज़मीन आ गई है
कितनी शांति है इस वक़्त
मेट्रो के जनाना डब्बे
में बच्चों की चिल्ल पों नही होगी
महिला सुरक्षा के पोस्टर
चिपके हैं
एक अकेली अधेड़ स्त्री ने
उनपर नज़र उछाली तो जैसे कहा हो
ये सारे नम्बर बच्चियों
को बाँट दो टाफियों की जगह स्कूल की पहली क्लास में
फिर उड़ती नज़र मुझ पर
मैं उसे पगली लगी हूँगी
ज़रूर
बिजली के खम्भों पर बेताल
से लटक गए हैं
सच के कईं चेहरे
कतई रोशनी नही है अगर चाँद
न हो इस वक़्त
हाथ बढाना चाहती हूँ ,लेकिन उन्मत्त, गाती हुई निकल जाती है कोई लड़की, निर्भय
- चाँद प्रेमी है भागना चाहती हूँ उसके साथ कहना
चाहती हूँ उसे रुक जाओ आज की रात मेरे लिए
पाना चाहती हूँ धरती आसमान के बीच तुम्हे
(नौ)
शहर
बूढ़ा
बाबा है
उदास
हों तो पकड़ता है उंगली
घुमाता
है रस्ते सिखाता है सब्र
जो हो जाती हूँ यहाँ
नहीं हो सकती थी कहीं
लौटती
हूँ यहीं...
यहीं तो
लौटती हूँ ...स्मृतियों में भी...
इसे श्राप न देना कवि !
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कवि तथा स्त्रीवादी लेखक
एक कविता संकलन "अनन्तिम मौन के बीच" प्रकाशित।
एक उपन्यास और स्त्रीवाद पर एक किताब शीघ्र प्रकाश्य
संपर्क : chokherbali78@gmail.com
(सभी तस्वीरें गूगल सर्च से साभार)
टिप्पणियाँ
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बधाई