लल द्यद : अतिरेक के परे एक परिचय
लल द्यद कश्मीरी इतिहास में एक बेहद महत्त्वपूर्ण शैव योगिनी हैं. उन्हें जाने बिना कश्मीर में इस्लाम के आगमन की कोई सम्यक समझ नहीं बन सकती. यहाँ फ़िलहाल अपनी किताब कश्मीरनामा का एक हिस्सा प्रस्तुत कर रहा हूँ. कोशिश होगी जल्द ही विस्तार से उन पर अलग से लिखूँ.
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इसी दौर कश्मीर के इतिहास में एक और बेहद महत्त्वपूर्ण शख्सियत का पदार्पण हुआ – लल द्यद. हमदानी की समकालीन लल द्यद के जीवन और काम को समझे बिना उस काल को समझना संभव नहीं है. एक तरफ़ यह उस समय की सामाजिक स्थिति को जानने में सहायक होगा, दूसरी तरफ़ उस पृष्ठभूमि को भी समझने में मदद मिलेगी जिसमें कश्मीर में ऋषि सम्प्रदाय फूला-फला और एक ऐसे इस्लाम ने आकार लिया जिसके बारे में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में डी एच लॉरेंस ने लिखा कि “कश्मीर मुसलमान हृदय से हिन्दू हैं.”[i]
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इसी दौर कश्मीर के इतिहास में एक और बेहद महत्त्वपूर्ण शख्सियत का पदार्पण हुआ – लल द्यद. हमदानी की समकालीन लल द्यद के जीवन और काम को समझे बिना उस काल को समझना संभव नहीं है. एक तरफ़ यह उस समय की सामाजिक स्थिति को जानने में सहायक होगा, दूसरी तरफ़ उस पृष्ठभूमि को भी समझने में मदद मिलेगी जिसमें कश्मीर में ऋषि सम्प्रदाय फूला-फला और एक ऐसे इस्लाम ने आकार लिया जिसके बारे में अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में डी एच लॉरेंस ने लिखा कि “कश्मीर मुसलमान हृदय से हिन्दू हैं.”[i]
जयालाल
कौल ने साहित्य अकादमी से प्रकाशित मोनोग्राफ़
में लल द्यद के जन्म सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओं का अध्ययन कर 1317 से 1320
के बीच माना है. प्रेमनाथ बज़ाज़ इसे 1335 बताते हैं.[ii]
उनके जन्मस्थान को लेकर दो मत हैं, पहला पाम्पोर के निकट सिम्पोर और दूसरा श्रीनगर
से 3 मील दूर पान्द्रेठन, जो अब श्रीनगर का ही हिस्सा है.
एक ब्राह्मण परिवार में
जन्मीं लल द्यद की शादी 12 साल की कम उम्र में ही द्रंगबल महल (पाम्पोर) के निक्क
भट्ट से हो गई थी. शादी के बाद कश्मीर की तत्कालीन परम्परा के अनुसार बदलकर
पद्मावती कर दिया गया. जनश्रुति के अनुसार उनकी सास बहुत क्रूर थीं और पति भी उनके
साथ मिलकर लल द्यद पर ज़ुल्म करता था. सास थाली में पत्थर रख उसे चावल से ढँक कर
देती और पद्मावती उस ज़रा से चावल को खाकर दिन भर काम में लगी रहती. एक बार जब उनके
यहाँ ग्रहशांति का अनुष्ठान था तो पानी भरते समय सखियों ने छेड़ा कि आज तो तुझे
पकवान मिलेंगे खाने को, इस पर उन्होंने कहा –हौंड मांरितन किन लठ, ललि नीलवठ चलि न जांह” (घरे में चाहे
भेड़ कटे या बकरा, लला के भाग्य में तो पत्थर ही लिखा है)[1].
गुमसुम रहने वाली लल पर हज़ार आरोप लगाए जाते, चरित्र लांछित किया जाता. वह सुबह
पानी भरने जल्दी निकलतीं और कहीं एकांत में बैठकर साधना करतीं, लौटने पर सास ताने
देती कि वह प्रेमी से मिलकर आई हैं. ऐसे में ही एक दिन सास के उकसाने पर जब पति ने
उनके घड़े पर लट्ठ से प्रहार किया तो मिट्टी का घड़ा तो टूट गया लेकिन पानी ज्यों का
त्यों रहा. उपयोग का पानी लेकर बाक़ी जो उन्होंने फेंक दिया उससे एक जल-कुंड बन गया
जो ललत्राग के नाम से जाना गया. इस घटना
का प्रचार दूर-दूर तक हो गया और लोग उनके दर्शन के लिए आने लगे. इसी समय उन्होंने
गृह त्याग का निर्णय लिया. वह सन्यासिनी बन गईं और विवस्त्र होकर आनंदातिरेक में
सड़कों पर फिरने लगीं.[iii]
प्रेमनाथ बज़ाज़ मानते हैं कि बाद में उनकी तोंद (कश्मीरी में लल) ऐसे लटक गई कि
उससे उनकी गुप्तेंद्रियाँ ढँकी रहतीं जो उनके नामकरण का आधार है, लेकिन जयालाल कौल
भाषिक विश्लेषण कर इस तथ्य पर पहुँचते हैं कि सन्यासी होने पर उन्होंने ससुराल से
मिला नाम छोड़ दिया और नैहर का दिया नाम अपना लिया. उनके गुरु का नाम श्री कंठ है
जो स्वयं एक मूर्तिपूजक शैव थे. लल द्यद को लेकर तमाम किस्से हैं जिसमें चमत्कार
तो हैं लेकिन उनके सहारे लल द्यद की मान्यताओं के बारे में अंदाज़ा लगाया जा सकता
है. लल की कवितायेँ ‘वाख’ कही जाती हैं. ये
‘वाख’ कश्मीर के जनजीवन में ऐसे घुलमिल गए हैं कि लोकोक्तियों की तरह
व्यवहृत होते हैं.
इन
वाखों और कथाओं में हम तत्कालीन कश्मीरी हिन्दू समाज की विकृतियों और विसंगतियों
का गहरा परिचय पा सकते हैं. पहला तो उस समाज में स्त्री की स्थिति को लेकर ही है.
लल का जीवन अपने आप में एक उदाहरण है. बेहद कम उम्र में शादी और परिवार के भीतर
उत्पीड़न की यह कथा लल की अकेली तो नहीं रही होगी. वह सन्यासी हुईं, एक राह चुनी,
निःसंग हुईं और सड़कों पर फिरती रहीं. दैवी स्त्री
सा सम्मान मिला उन्हें, पर उस दौर की हज़ारों दूसरी औरतें तो उत्पीड़न और
अपमान की उसी नियति के लिए अभिशप्त होंगी. मीरा की तरह उनके पास भी मुक्ति की राह ईश्वर
ही था, एक प्रेमहीन जीवन जहाँ भक्त तो थे लेकिन अपना निजी कोई स्पेस नहीं,
कामनाहीन होने की कोशिश में ही व्यतीत हो सकता था. जब वह लिखती हैं, ‘न ज़ायस त न
प्यायास, न खेयम हंद त न शोंठ’ (न गर्भिणी हुई, न प्रसूता और न प्रसूता का आहार ही
किया) तो यह सिर्फ़ विरक्ति नहीं, एक टीस भी है जिसे देखने के लिए उनके देवी रूप से
पार जाना होगाऔर अगर यह लोकोक्ति बन गई कश्मीर में तो वहाँ की महिलाओं का एक
सामूहिक दुःख ही होगा जिसने इसे ऐसा बनाया. अकादमिक शोध उनकी शिक्षाओं और योगदानों पर तो बहुत विस्तार से बात करते
हैं, लेकिन स्त्री के रूप में वह सिर्फ ‘वितस्ता की महान बेटियों’ में से एक बनकर
रह जाती हैं, वही क्यों तमाम दूसरी स्त्रियाँ भी.
स्त्री पूजक इस देश में स्त्रियों को देवी और दासी के अतिरेक में
ही देखने की परम्परा रही है.
बारह
साल की लड़की जिसकी शादी कर दी जाती है एक अपेक्षाकृत अधिक उम्र के पुरुष से.
जियालाल कौल से लेकर प्रेमनाथ बज़ाज़ तक उसकी पति की नाराज़गी की वज़ह सेक्स संबंधों
में उसकी अरुचि को तो मानते हैं, लेकिन इस अरुचि की वज़ह उनकी धार्मिक आस्थाओं को
बताकर इतिश्री कर लेते हैं. एक बार ठहर कर सोचा जाए तो उस अमानवीय माहौल में एक
बारह साल की बच्ची के साथ पति का दैहिक सम्बन्ध भी बलात्कार से कम क्या होगा. हमने
अपने समय में ऐसे बेमेल विवाहों में लड़कियों के उत्पीड़न देखे हैं. फूलन देवी पर
बनी फ़िल्म का वह दृश्य याद कीजिए जिसमें उससे दुगनी उम्र का पति उसके साथ दैहिक
सम्बन्ध बनाता है. एक पितृसत्तात्मक समाज में देह पर स्त्री का अधिकार तो बहुत दूर
की बात है, प्रेम भी अत्याचार सा आता है और उससे पैदा अरुचि जब बाक़ी उत्पीड़नो के
साथ जुड़ती है तो लल से लेकर फूलन तक को घर छोड़ना ही मुक्ति लगता है, भले उन्होंने
राह अलग अलग चुनी हो. वह योगिनी हैं, चमत्कारी हैं, समाज सुधारक हैं पर सबके साथ
एक स्त्री हैं. उस उम्र में साज-शृंगार और वस्त्रों के त्याग को सिर्फ़ धार्मिक
आस्था से जोड़कर देखना एकांगी होगा. एक दूसरे वाख में वह कहती हैं – ‘(भाग्य ने
मेरे साथ खिलवाड़ किया) काठ के धनुष के लिए बाण मिला तो वह घास का/ राजमहल के
(निर्माण) के लिए बढ़ई मिला तो वह निपट मूर्ख/ मेरी स्थिति बीच बाज़ार में ताले रहित
दुकान सी हो गई है/ देह मेरी तीर्थ विहीन ही रही/ मेरी यह विवशता भला कौन जान सकता
है!’ ज़ाहिर है ‘देहरूपी मकान की खिड़कियाँ बंद करने’ से पहले और बाद का दर्द सिर्फ़
संन्यास के प्रति समर्पण से व्याख्यायित नहीं हो सकता.
स्केच यहाँ से |
उन्हें पढ़ते कभी मीरा याद
आती हैं तो कभी थेरी गाथाएँ. घरों और संसार के मोह को छोड़ कर निकली स्त्री की अपनी
व्यथाएं होती हैं जिसके लिए इतिहास में अमूमन कोई जगह नहीं होती और कविताओं में
अपार जगह. इन स्त्रियों की रचनाएँ पढ़ते समझ आता है कि कैसे उन्होंने अपने नितांत
निजी दुःख उनमें संजो कर रख दिए हैं आने वाली पीढ़ियों के लिए. लल एक वाख में जब
कहती हैं – ‘एक से हैं मेरे लिए ज़िन्दगी और मौत/ जिंदगी में भी खुश और मौत में भी/
न मुझे किसी का शोक न मेरे लिए कोई शोकग्रस्त’ तो यह निःसंगता दुःख की कड़वी चाशनी
में घुली है.
गौर
से पढ़ने पर लल से सम्बंधित कथाओं में जो दूसरी चीज़ स्पष्ट होती है वह है उस समय
मूर्ति पूजा और पाखंडों का प्रचलन. एक किस्से में वह अपने गुरु की मूर्तिपूजा पर
प्रश्न करती दीखती हैं, दूसरी में पाखण्ड का. पहले किस्से के अनुसार एक बार जब वह
मंदिर में गईं और पूजारत गुरु ने उन्हें एक मूर्ति के सामने एकांत में प्रभु स्मरण
करने को कहा तो उन्होंने वहीँ ज़मीन खोदकर कुछ मूर्तियाँ निकाल दीं. इसी तरह कुछ और
स्थानों से भी मूर्तियाँ निकालीं. आश्चर्यचकित गुरु समझ गए कि देव तो सर्वव्याप्त
है, मूर्तियाँ बनाने का क्या लाभ? मूर्तिपूजा का विरोध उनके अनेक वाखों में आता है
देव
भी पत्थर, देवल भी पत्थर
ऊपर-नीचे
सब एक समान
रे
पंडित! तू किसे पूजता
एकीकृत
कर मन और प्राण
वाह्य
अवलम्बों की जगह भीतर ज्ञान और मुक्ति की तलाश लल के दर्शन के मूल में था. दूसरी
कथा में प्रातःकाल नदी किनारे लल को बर्तन बाहर से मांजते गुरु के फटकारे जाने पर
वह कहती हैं कि आप भी तो आत्मा को छोड़कर देह को मांज रहे हैं, उससे क्या लाभ?
अभिप्राय मन की शुद्धि का है. ऐसी तमाम कथाएं हैं, किवदंतियाँ हैं और वाख हैं जो
तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों का पता देती हैं और उनसे लल द्यद की टकराहट
का भी. लल की एक बड़ी ख़ूबी यह थी कि उन्होंने अपनी रचनाएँ संस्कृत की जगह लोकभाषा
कश्मीरी में लिखीं जिनकी वज़ह से आम जन में उसे अपार सफलता मिली. यह अलग बात है कि
जोनाराजा के इतिहास में उन्हें कहीं जगह नहीं मिली. शायद इसका एक कारण ब्राह्मणवाद
का उनका खुला विरोध हो.
शैव योगिनी लल का मूर्तिपूजा, आडम्बर और जाति
प्रथा का विरोध और तमाम ब्राह्मणवादी कुरीतिओं पर यह हमला वहाँ के हमदानी के साथ
आये सूफ़ी आन्दोलन और इस्लामीकरण के लिए पूर्वपीठिका बना. इसे समझने के लिए उस दौर
के धर्म परिवर्तनों को हमें एक भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखना होगा. धर्म का
परिवर्तन वस्तुतः सांस्कृतिक श्रेष्ठता की स्थापना और वर्चस्व का सवाल था, एक नए
धर्म के रूप में इस्लाम के माननेवालों में एक मिशनरी जज़्बा तो था ही अधिक से अधिक
लोगों को मुसलमान बना लेने का साथ ही अपने तांत्रिक तरीक़ों और ब्राह्मणवादी आचारों
से हिन्दू धर्म उस समय ऐसी स्थिति में पहुँच चुका था कि ‘हिन्दू समाज भ्रष्ट हो
गया था. पुरुष असहिष्णु, अय्याश और पतित थे और स्त्रियाँ उससे बेहतर नहीं थीं जैसा
उन्होंने उन्हें बनाया था. जादू टोने और चमत्कारों की भरमार थी.[iv]
हमने पिछले अध्यायों में राजाओं के किस्सों में समाज के पतन की इन्तेहा देखी हैं.
उस दौर में स्त्रियों की दशा बेहद ख़राब थी और वैश्यावृत्ति, नैतिक भ्रष्टाचार,
देवदासी प्रथा और सती प्रथा जैसी व्यवस्थाएं उनके जीवन को नर्क बना रही थीं. कल्हण
ने ऐसे तमाम हृदयविदारक किस्से राजतरंगिणी में
बयान किये हैं. ऐसे में जब लल द्यद मूर्तिपूजा के खंडन,
एकेश्वरवाद और योग के तीन सरल आधारों पर धर्म की स्थापना करती हैं तो यह सूफ़ी
संतों के लिए बहुत सुविधाजनक हो जाता है. पहली दो चीज़ें तो थी हीं इस्लाम में, योग
के समकक्ष था सूफ़ी समाज में प्रचलित “ज़िक्र” जो श्वास नियन्त्रण का अभ्यास है. इस
तरह लल की शिक्षाएँ परोक्ष रूप से इस्लाम के लिए अनुकूल माहौल बनाने में सहायक
हुईं. आम भाषा में मूर्तिपूजा और
ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता का उनका विरोध भ्रष्ट ब्राह्मण समाज को सुधारने की इस्लाम
के प्रसार में सहायक सिद्ध हुआ.[v]
यही वज़ह है कि आज भी उनकी रचनाएं कश्मीर के मुसलमानों की जुबान पर हैं और वे
उन्हें उसी आदर और श्रद्धा के साथ लल आरिफ़ा और राबिया[2]
सानी के नाम से याद करते हैं. ब्राह्मणवादी प्रपंचों से त्रस्त ग़ैर-सवर्ण हिन्दू
समाज के लिए जाति-पांति का भेद न करने वाला इस्लाम मुक्तिदाता की तरह भी था. उसने
धीरे धीरे लोगों को नैतिक और सामाजिक बल दिया. उनमें एक नए धर्म के साथ शक्ति का
संचार हुआ जो साधारण था, बोधगम्य था और व्यवहारिक था. इसने सदियों पुराने
विभाजनकारी सामाजिक ढांचों को ध्वस्त कर दिया. [vi],
जैसा कि रतन लाल हंगलू कहते हैं कि ऐसे माहौल में ब्राह्मणवादी व्यवस्था के
पीड़ितों ने किसी सीधे विरोध की जगह इस्लाम अपनाने को मूक अहिंसक विद्रोह की तरह
लिया.[vii]
बहुत बाद में सुदूर दक्षिण में दलित आन्दोलन के प्रणेता रामस्वामी पेरियार ने भी
इस्लाम के बारे में ऐसी ही बातें कीं, वह कहते हैं –
हमारा शूद्र होना एक भयंकर रोग है, यह कैंसर जैसा है। यह अत्यंत
पुरानी शिकायत है। इसकी केवल एक ही दवा है, और वह है इस्लाम।
इसकी कोई दूसरी दवा नहीं है। अन्यथा हम इसे झेलेंगे, इसे
भूलने के लिए नींद की गोलियाँ लेंगे या इसे दबा कर एक बदबूदार लाश की तरह ढोते
रहेंगे। इस रोग को दूर करने के लिए उठ खड़े हों और इन्सानों की तरह सम्मानपूर्वक
आगे बढ़ें कि केवल इस्लाम ही एक रास्ता है…।
‘‘…अरबी भाषा में इस्लाम का अर्थ
है शान्ति, आत्म-समर्पण या निष्ठापूर्ण भक्ति। इस्लाम का
मतलब है सार्वजनिक भाईचारा, बस यही इस्लाम है। सौ या दो सौ
वर्ष पुराना तमिल शब्द-कोष देखें। तमिल भाषा में कदावुल देवता का अर्थ है एक ईश्वर,
निराकार, शान्ति, एकता,
आध्यात्मिक समर्पण एवं भक्ति। ‘कदावुल’
द्रविड़ शब्द है। अंग्रेज़ी भाषा का शब्द गॉड अरबी भाषा में ‘अल्लाह’ है। ….भारतीय मुस्लिम
इस्लाम की स्थापना करने वाले नहीं बल्कि उसका एक अंश हैं।
‘‘…मलायाली मोपले, मिस्री,
जापानी, और जर्मन मुस्लिम भी इस्लाम का अंश
हैं। मुसलमान एक बड़ा गिरोह है। इन में अफ़्रीक़ी, हब्शी और
नेग्रो मुस्लिम भी है। इन सारे लोगों के लिए अल्लाह एक ही है, जिसका न कोई आकार है, न उस जैसा कोई और है, उसके न पत्नी है और न बच्चे, और न ही उसे खाने-पीने
की आवश्यकता है।
‘‘…जन्मजात समानता, समान अधिकार, अनुशासन इस्लाम के गुण हैं। अन्तर के
कारण यदि हैं तो वे वातावरण, प्रजातियाँ और समय हैं। यही
कारण है कि संसार में बसने वाले लगभग साठ करोड़ मुस्लिम एक-दूसरे के लिए जन्मजात
भाईचारे की भावना रखते हैं। अतः जगत इस्लाम का विचार आते ही थरथरा उठता है…।
‘‘…इस्लाम की स्थापना क्यों हुई?
इसकी स्थापना अनेकेश्वरवाद और जन्मजात असमानताओं को मिटाने के लिए
और ‘एक ईश्वर, एक इन्सान’ के सिद्धांत को लागू करने के लिए हुई, जिसमें किसी
अंधविश्वास या मूर्ति-पूजा की गुंजाइश नहीं है। इस्लाम इन्सान को विवेकपूर्ण जीवन
व्यतीत करने का मार्ग दिखाता है…।
‘‘…इस्लाम की स्थापना बहुदेववाद
और जन्म के आधार पर विषमता को समाप्त करने के लिए हुई थी। ‘एक
ईश्वर और एक मानवजाति’ के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए
हुई थी; सारे अंधविश्वासों और मूर्ति पूजा को ख़त्म करने के
लिए और युक्ति-संगत, बुद्धिपूर्ण जीवन जीने के लिए नेतृत्व
प्रदान करने के लिए इसकी स्थापना हुई थी…। [viii]
इस्लाम की
भारत में सफलता को सिर्फ ताक़त से जोड़कर देखना या इस्लामीकरण को सिर्फ़ एक साजिश की
तरह देखना इतिहास के प्रति एकांगी दृष्टिकोण होगा. जातिवाद का जो विषबेल हमने बोया
था उसने समाज के बड़े हिस्से को इस तरह वंचित तबके में बदल दिया था कि उनके लिए
हिन्दू धर्म का हिस्सा होना निरंतर अपमान और भेदभाव का हिस्सा होना था. उसने इस नए
धर्म के साथ जुड़ने में अपनी मुक्ति देखी जो आडम्बरमुक्त समानता का आश्वासन देता
था. हालाँकि देखना यह भी होगा कि कालान्तर में उसने कितनी समानताएं वास्तव में
दीं.
ज़ाहिर
है आरंभिक दौर में इस्लाम का प्रभाव बढ़ने के पीछे कश्मीर में तत्कालीन हिन्दू समाज
में व्याप्त विकृतियाँ ज़िम्मेदार थीं. हमदानी का मिशन इसके बिना क़ामयाब होना संभव
नहीं था. लेकिन सिर्फ इतना मान लेना भी एक ख़ास तरह का सरलीकरण होगा. हमदानी का मिशन
स्पष्ट था- कश्मीर में इस्लाम का वर्चस्व स्थापित करना. शासक अगर पूरी तरह समर्थक
नहीं था तो कम से कम उनका विरोधी तो नहीं ही था. उसका सहयोग आवश्यक था और वह मिला.
हालाँकि इस दौर में जबरन धर्म परिवर्तन नहीं कराया गया लेकिन शासन का सहयोग
महत्त्वपूर्ण था. हरबंस मुखिया इसे सबसे उचित तरीक़े से बताते हैं. ‘हालाँकि
ब्राह्मणवाद से इस्लाम में इन धर्मांतरणों ने प्राथमिक रूप से राज्य की मदद की
लेकिन यह कहना ग़लत होगा कि इसके लिए पूरी तरह से राज्य ज़िम्मेदार थे.”[ix]
राज्य की भूमिका बढ़ी सुलतान सिकंदर के काल में जब सैयद हमदानी के पुत्र मीर हमदानी
की अगुवाई में कश्मीर को पूरी तरह से इस्लामिक राज्य में बदल दिया गया और शासन
इसका संरक्षक बना.
लल द्यद और नुन्द ऋषि का क़िस्सा
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हर मध्यकालीन या प्राचीन संत की ही तरह शेख़
नुरूद्दीन उर्फ़ नुन्द ऋषि (रेश) के जन्मस्थान, जन्मतिथि और वंशावली को लेकर तमाम मत हैं[i],
लेकिन सुविधा और संक्षेप के लिए मैंने यहाँ साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित उनके
मोनोग्राफ़ के निष्कर्षों को ही स्वीकार किया है जिसके अनुसार उनका जन्म
खेईजोगीपुरा गाँव में 1377 को हुआ था.
ज़ाहिर है इससे तमाम किस्से जोड़े गए. चमत्कार
के, दैवी आशीर्वाद के. इनमें सबसे व्यंजनात्मक क़िस्सा है लल द्यद का. कहा जाता है
कि नुरूद्दीन, जिनका घर का नाम माँ-बाप ने नुन्द (सुन्दर और योग्य)[ii]
रखा था, जन्म के तीन दिनों बाद भी अपनी माँ का दूध नहीं पी रहे थे, तब लल द्यद आईं
और बालक को गोद में उठाकर कहा – तुम जन्म लेने से नहीं शर्माए/ तो संसार के सुख
आनंद लेने से कों शर्माते हो? उसके बाद बालक नुन्द ने लल द्यद के स्तनों से दूध की
पहली बूँदों के साथ संसार के पहले सुख का आनंद लिया. नवजात शिशु जब तृप्त हुआ तो
ललद्यद ने उसकी माँ को यह कहते हुए लौटाया – “लो! मेरे उत्तराधिकारी का लालन-पोषण
करो.”
यह क़िस्सा लगभग हर किताब में लगभग इसी रूप में दर्ज़ है. इस किस्से की
प्रमाणिकता पर संदेह के पर्याप्त कारण हैं लेकिन इसकी व्यंजना को समझे जाने की
ज़रूरत है. जैसा कि हमने देखा शैव योगिनी लल द्यद ब्राह्मणवादी
कर्मकाण्डों पर तीख़े सवाल खड़े कर इस्लाम की भावी सफलता के लिए माहौल बना चुकी थीं.
कश्मीर में बेहद मक़बूल लल की परम्परा को नुन्द ऋषि से जोड़ना सहज ही था. दोनों के
बीच एक और बड़ी समानता सरल और प्रचलित कश्मीरी भाषा में काव्य रचना कीं जिन्होंने
कश्मीरी जन को गहरे प्रभावित किया. वैसे, भारत में ऐसी परम्पराएं अगर सामान्य नहीं
थीं तो एकदम से अनुपस्थित भी नहीं. शहाबुद्दीन इराक़ी ने 2009 में प्रकाशित अपनी
किताब "भक्ति मूवमेंट इन मेडिवल इंडिया : सोशल एंड पोलिटिकल पर्सपेक्टिव" (मनोहर
पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रिब्यूटर्स) ने पूर्वोत्तर भारत में सूफ़ी संतों और बाउल
परम्परा के वैष्णवों के अंतर्संबंध को रेखांकित किया है जहाँ वैष्णव मानते हैं कि
उनके पहले गुरु को ज्ञान एक मुस्लिम महिला माधवा बीबी से मिला था.[iii]
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लल द्यद के जीवन और काव्य पर सबसे प्रामाणिक काम जयालाल कौल का माना जाता है जिसे साहित्य अकादमी ने छापा था. इसका हिंदी अनुवाद शिबेन रैना ने किया है जिसे यहाँ से डाउनलोड किया जा सकता है.
लल द्यद
---
रिफ्रेंसेज
[i]विस्तार के लिए देखें, पेज 9-12, नुन्द ऋषि :
यूनिटी इन डायवर्सिटी, प्रोफ़ेसर बी एन परिमू, जम्मू एंड कश्मीर एकेडमी ऑफ़ आर्ट,
कल्चर एंड लेंग्वेज, श्रीनगर 2007
[ii]देखें, वही, पेज 7,
[iii]देखें, पेज़ 94, अ स्टॉर्म ऑफ़ सांग्स : इंडिया एंड
द आइडिया ऑफ़ भक्ति मूवमेंट, जॉन स्टार्टन हाली, हावर्ड यूनिवर्सिटी
प्रेस,लन्दन-2015
[1]यह
इस बात की भी पुष्टि करता है कि इस्लाम का प्रभाव स्थापित होने के पहले ही कश्मीरी
ब्राह्मणों के यहाँ मांसाहार का प्रचलन था.
[2]राबिया बसरा की अत्यंत प्रतिष्ठित सूफ़ी संत थीं.
[i]देखें,
पेज़ 286, द वैली ऑफ़ कश्मीर, डी एच लॉरेंस, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, लन्दन,
1895
[ii]देखें,
पेज़ 126, डॉटर ऑफ़ वितस्ता, प्रेम नाथ बज़ाज़,पाम्पोश पब्लिकेशन,दिल्ली-1959
[iii]देखें,
पेज़ 10, लल द्यद, जयालाल कौल, साहित्य अकादमी, दिल्ली-2012 (दूसरा अनुदित संस्करण)
[iv]देखें,
पेज 108, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग
हाउस, दिल्ली, 1969
[v]देखें,
पेज़ 12, पर्सपेक्टिव ऑन कश्मीर, मोहम्मद इशाक खान, गुलशन पब्लिशर्स, श्रीनगर,
कश्मीर, 1983
[vi]देखें,
पेज़ 432, ए हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन कश्मीर, आर के परमू, पीपुल्स पब्लिशिंग
हाउस, दिल्ली, 1969
[viii]देखें, पेज़ 13-21, द वे ऑफ़ साल्वेशन, पेरियार ई
वी रामास्वामी, अमन पब्लिकेशन, दिल्ली -1995
[ix]देखें,पेज़
49, हरबंस मुखिया, कम्युनलिज्म : अ स्टडी इन इट्स सोशियो हिस्टारिकल पर्सपेक्टिव,
सोशल साइंटिस्ट,अगस्त 1972
टिप्पणियाँ
'कश्मीरनामा' के माध्यम से एक सराहनीय प्रयास किया है आपने कार्य अशोक भैया।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'