अदनान कफ़ील दरवेश की पुरस्कृत कविता 'क़िबला'


इस वर्ष का प्रतिष्ठित भारत भूषण पुरष्कार युवा कवि अदनान कफ़ील दरवेश को वागर्थ के सितम्बर, 2017 के अंक में प्रकाशित कविता 'क़िबला' के लिए मिला है। अनुशंसा में इस बार के निर्णायक प्रो पुरुषोत्तम अग्रवाल ने लिखा है - 
अदनान की यह कविता माँ की दिनचर्या के आत्मीय, सहज चित्र के जरिेए माँ और उसके जैसी तमाम औरतोंके जीवन-वास्तव को रेखांकित करती है। अपने रोजमर्रा के वास्तविक जीवन अनुभव के आधार पर गढ़े गये इस शब्द-चित्र में अदनान आस्था और उसके तंत्र यानी संगठित धर्म के बीच के संबंध की विडंबना को रेखांकित करते हैं।
 ‘क़िबलाइसलामी आस्था में प्रार्थना की दिशा का संकेतक होता है। लेकिन आस्था के तंत्र में ख़ुदा का घर सिर्फ मर्दों की इबादतगाह में बदल जाता है, माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं रसोईघर में सीमित हो कर रह जाता है। स्त्री-सशक्तिकरण की वास्तविकता को नकारे बिना, सच यही है कि स्त्री के श्रम और सभ्यता-निर्माण में उसके योगदान की पूरी पहचान होने की मंजिल अभी बहुत बहुत दूर हैआस्थातंत्र के साथ ही सामाजिक संरचना की इस समस्या पर भी कविता की निगाह बनी हुई है

 अदनान की यह कविता सभ्यता, संस्कृति और धर्म में स्त्री के योगदान को, इसकी उपेक्षा को पुरजोर ढंग से रेखांकित करती है। उनकी अन्य कविताओं में भी आस-पास के जीवन, रोजमर्रा के अनुभवों को प्रभावी शब्द-संयोजन में ढालने की सामर्थ्य दिखती है।
  
तस्वीर यहाँ से 

कवि को बधाई के साथ यह कविता आप सबके लिए 


क़िबला


माँ कभी मस्जिद नहीं गई 
कम से कम जब से मैं जानता हूँ माँ को 
हालाँकि नमाज़ पढ़ने औरतें मस्जिदें नहीं जाया करतीं हमारे यहाँ 
क्यूंकि मस्जिद ख़ुदा का घर है और सिर्फ़ मर्दों की इबादतगाह  
लेकिन औरतें मिन्नतें-मुरादें मांगने और ताखा भरने मस्जिदें जा सकती थीं 
लेकिन माँ कभी नहीं गई 
शायद उसके पास मन्नत माँगने के लिए भी समय न रहा हो 
या उसकी कोई मन्नत रही ही नहीं कभी 
ये कह पाना मेरे लिए बड़ा मुश्किल है 
यूँ तो माँ नइहर भी कम ही जा पाती 
लेकिन रोज़ देखा है मैंने माँ को 
पौ फटने के बाद से ही देर रात तक 
उस अँधेरे-करियाये रसोईघर में काम करते हुए 
सब कुछ करीने से सईंतते-सम्हारते-लीपते-बुहारते हुए 
जहाँ उजाला भी जाने से ख़ासा कतराता था 
माँ का रोज़ रसोईघर में काम करना 
ठीक वैसा ही था जैसे सूरज का रोज़ निकलना 
शायद किसी दिन थका-माँदा सूरज न भी निकलता 
फिर भी माँ रसोईघर में सुबह-सुबह ही हाज़िरी लगाती.

रोज़ धुएँ के बीच अँगीठी-सी दिन-रात जलती थी माँ 
जिसपर पकती थीं गरम रोटियाँ और हमें निवाला नसीब होता
माँ की दुनिया में चिड़ियाँ, पहाड़, नदियाँ 
अख़बार और छुट्टियाँ बिलकुल नहीं थे 
उसकी दुनिया में चौका-बेलन, सूप, खरल, ओखरी और जाँता थे 
जूठन से बजबजाती बाल्टी थी 
जली उँगलियाँ थीं, फटी बिवाई थी 
उसकी दुनिया में फूल और इत्र की ख़ुश्बू लगभग नदारद थे 
बल्कि उसके पास कभी न सूखने वाला टप्-टप् चूता पसीना था
उसकी तेज़ गंध थी 
जिससे मैं माँ को अक्सर पहचानता.
ख़ाली वक़्तों में माँ चावल बीनती 
और गीत गुनगुनाती- 
"..
लेले अईहS बालम बजरिया से चुनरी
और हम, "कुच्छु चाहीं, कुच्छु चाहीं" रटते रहते 
और माँ डिब्बे टटोलती 
कभी खोवा, कभी गुड़, कभी मलीदा
कभी मेथऊरा, कभी तिलवा और कभी जनेरे की दरी लाकर देती.

एक दिन चावल बीनते-बीनते माँ की आँखें पथरा गयीं 
ज़मीन पर देर तक काम करते-करते उसके पाँव में गठिया हो गया  
माँ फिर भी एक टाँग पर खटती रही
बहनों की रोज़ बढ़ती उम्र से हलकान 
दिन में पाँच बार सिर पटकती ख़ुदा के सामने.

माँ के लिए दुनिया में क्यों नहीं लिखा गया अब तक कोई मर्सिया, कोई नौहा ? 
मेरी माँ का ख़ुदा इतना निर्दयी क्यूँ है ? 
माँ के श्रम की क़ीमत कब मिलेगी आख़िर इस दुनिया में ? 
मेरी माँ की उम्र क्या कोई सरकार, किसी मुल्क का आईन वापिस कर सकता है ? 
मेरी माँ के खोये स्वप्न क्या कोई उसकी आँख में
ठीक उसी जगह फिर रख सकता है जहाँ वे थे ? 

माँ यूँ तो कभी मक्का नहीं गई 
वो जाना चाहती थी भी या नहीं 
ये कभी मैं पूछ नहीं सका 
लेकिन मैं इतना भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि 
माँ और उसके जैसी तमाम औरतों का क़िबला मक्के में नहीं 
रसोईघर में था... 

टिप्पणियाँ

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (04-08-2018) को "रोटियाँ हैं खाने और खिलाने की नहीं हैं" (चर्चा अंक-3053) (चर्चा अंक-2968) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Onkar ने कहा…
सार्थक रचना

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