जोशी बोलकर लिखवाता है न! : पुस्तक अंश : पालतू बोहेमियन
हाल ही में आई प्रभात रंजन की किताब "पालतू बोहेमियन" खूब चर्चा में है. प्रभात बहुधन्धी रचनाकार हैं. कहानियों से पहचान बनाई, फिर मार्केज़ पर एक शानदार किताब लिखी, मुजफ्फरपुर की 'कोठागोई' पर रोचक और श्रमसाध्य शोध किया और अब अपने गुरु 'मनोहर श्याम जोशी' का यह संस्मरण. वैसे उनके अनुवादों की बात न करना बेईमानी होगी, लेकिन फिलहाल इतना ही कि वह हिन्दी के सबसे धुनी अनुवादकों में से हैं.
यह संस्मरण निजी और साहित्यिक जीवन के बीच एक बेहद सहज आवाजाही है, व्यक्ति मनोहर श्याम जोशी और लेखक मनोहर श्याम जोशी को थोड़ी श्रद्धा और शरारत से देखता उनका एक युवा प्रतिभाशाली छात्र. यह छात्र होना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इसमें किसी सनसनी के लिए स्कोप बनाने की कोई कोशिश नहीं है. जो लोग प्रभात को निजी तौर पर जानते हैं उन्हें पता है कि ये किस्से प्रभात आपसी बातचीत में सुनाते रहे हैं फिर भी इस किताब को पूरा करने में लगभग दो साल का वक़्त लिया उन्होंने.
खैर, अभी इसीसे एक किस्सा. राजकमल से छपी यह किताब पूरी पढने के लिए यहाँ जाएँ.
जोशी जी बोलकर लिखवाते थे और उनके समकालीन लेखक कमलेश्वर जी फिल्मों, टीवी, साहित्य हर माध्यम में बेहद सफल लेखक रहे लेकिन वे हाथ से ही
लिखते थे। मुझे याद है कि वे अपनी लिखने की उँगलियों में पट्टी बांधकर लिखा करते थे।
जिस दिन मैंने पहली बार उनको उंगली में पट्टी बाँधकर लिखते हुए देखा तो मैं बहुत चकित
हुआ और मैंने उनसे कहा कि सर आप किसी टाइपिस्ट को रखकर बोलकर क्यों नहीं लिखवाते? जोशी जी तो बोलकर ही लिखवाते हैं। डनहिल सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए कमलेश्वर जी
ने कहा, हिंदी के लेखकों को संघर्ष बहुत करना पड़ता है। हाथ से लिखने
में संघर्ष का वह भाव बना रहता है। जानते हो प्रभात, जिस दिन मैं हाथ से लिखना छोड़ दूंगा मैं लेखन ही नहीं कर पाऊँगा। हिंदी का लेखक
कलम का मजदूर ही होता है उसे लेखन का राजा बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
मैं उनसे बहस करने
के मूड में था। मैंने कहा कि सर मनोहर श्याम जोशी जी बोलकर लिखवाते हैं। सुनकर वे कुछ
संजीदा हुए और फिर बोले, ‘देखो
हर लेखक का अपना स्टाइल होता है, अपनी
विचार प्रक्रिया होती है। जैसे अगर मैं बोलकर लिखवाने लगूंगा तो मेरी भाषा,
मेरे
सम्वाद सब विश्रृंखल हो जायेंगे। मैं आज भी जिस तरह से लिखता हूँ खुद मुझे ऐसा महसूस
होता है जैसे मेरे सामने पन्नों पर कोई रहस्य उद्घाटित हो रहा हो। अक्षरों,
शब्दों
के माध्यम से यह रहस्योद्घाटन ही मेरे लिए लेखन का असल आनंद है। इसी कारण से चाहे मैं
फिल्म लिखूँ, सीरियल्स
लिखूँ या कहानी-उपन्यास
लेखन मुझे आनंददायक लगता है। उसके बाद कुछ देर रुकते हुए उन्होंने कहा कहा-
एक
बात बताऊँ जोशी के पहले दो उपन्यास ‘कुरु
कुरु स्वाहा’ और
‘कसप’ बहुत
सुगठित हैं। दोनों उसने हाथ से लिखे थे।‘ कहने के बाद वे फिर से लिखने में लग गए। खैर,
मुझे
ऐसा लगता है कि कमलेश्वर जी की हस्तलिपि इतनी सुन्दर थी कि हो न हो वे उसी मोह में
हाथ से लिखते थे।
अब प्रसंग हाथ से लिखने
बनाम टाइपिस्ट को बोलकर लिखवाने का चल रहा है तो एक और किस्सा याद आ रहा है। उन दिनों
मैं महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की पत्रिका
‘बहुवचन’
का
संपादन कर रहा था। उस पत्रिका के प्रथम संपादक पीयूष दईया ने अचानक पत्रिका का संपादन
छोड़ दिया। तब मैं विश्वविद्यालय की अंग्रेजी पत्रिका
‘हिंदी’ में
सहायक संपादक था। उस समय उस विश्वविद्यालय का नाम-मुकाम
तब ‘बहुवचन’
पत्रिका के प्रकाशन के कारण ही था। विश्वविद्यालय निर्माण काल
से गुजर रहा था। इसलिए वहां प्रकाशन का काम ही अधिक हो रहा था। अचानक एक दिन अशोक वाजपेयी
ने मुझे बुलाकर कहा कि जब तक कोई नया संपादक नहीं मिल जाता है तुम ही इसका एक अंक निकाल
दो। मन ही मन मैं जानता था कि उस एक अंक के माध्यम से मुझे ऐसा प्रभाव छोड़ना था कि
आगे के अंकों के संपादन का भार भी मुझे मिल जाए। उस अंक में मैंने कई नए काम किए। जिनमें एक मनोहर श्याम जोशी
के धारावाहिक संस्मरण का प्रकाशन भी था।
जब अशोक जी ने मुझे
बहुवचन के सम्पादन के बारे में कहा तो उसकी सूचना सबसे पहले देने जोशी जी के घर गया।
वे बहुत खुश हुए। बोले, ‘देखो
अशोक काम तो बहुत अच्छा करना चाहता है लेकिन उसके आसपास भोपाल वालों का ऐसा जमघट है
कि उनके बीच तुम संपादक बने रह जाओ यह किसी कमाल से कम नहीं होगा। लेकिन कोशिश पूरी
करना।‘ मैंने पूछा कि ‘आप क्या देंगे’, तो
बोले कि अभी हाल में ही रघुवीर सहाय रचनावली का प्रकाशन हुआ है। मैं वही पढ़ रहा था।
रचनावली के संपादक सुरेश शर्मा का आग्रह था कि मैं उसकी समीक्षा लिख दूँ। मैंने कहा-
समीक्षा?
मतलब
आप यह कह रहे हैं आप मेरे संपादन में निकलने वाले पहले अंक के लिए एक किताब की समीक्षा
लिखेंगे? मैं
तो सोच रहा था कि आप कुछ ऐसा लिखे जो यादगार बने और मेरी नौकरी भी बच जाए। जवाब में
वे फिर बोले, उसी
रचनावली के बहाने कुछ लिखता हूँ। ‘रघुवीर
सहाय रचनावली के बहाने स्मरण’ शीर्षक
से जब उन्होंने रघुवीर सहाय पर लिखना शुरू किया तो अगले तीन अंकों तक उसका प्रकाशन
हुआ। संभवतः हिंदी की वह सबसे बड़ी समीक्षा है जिसका बाद में पुस्तकाकार प्रकाशन भी
हुआ। खैर, एक
दिन मैं कृष्ण बलदेव वैद के यहाँ उनसे मिलने गया। प्रसंगवश,
बता
दूँ अपने समकालीन लेखकों में जोशी जी जिस लेखक के पढ़े लिखे होने का खौफ सबसे ज्यादा
खाते थे वे वैद साहब ही थे। तो मैंने वैद साहब से पूछा कि सर जोशी जी जो रघुवीर सहाय
पर लिख रहे हैं वह आपको कैसा लग रहा है? जवाब
में वैद साहब ने हँसते हुए कहा- जोशी
बोलकर लिखवाता है न!
बहरहाल,
बात
जोशी जी के लखनऊ-दिनों
की हो रही थी तो उन दिनों लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में लखनऊ के तीन
मूर्धन्य लेखक यशपाल, अमृतलाल
नागर और भगवती चरण वर्मा मौजूद रहते थे। उन तीनों की मौजूदगी में उन्होंने अपनी कहानी
‘मैडिरा मैरून’
सुनाई और उस कहानी से उनकी पहचान बन गई। मैं किस्से सुनता रहा
लेकिन किस्सों में मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि इनमें मेरे अच्छे कथाकार बनने
के क्या गुर छिपे हुए थे। शायद मेरे चेहरे पर बेरुखी के भाव या कहिये ऊब के भाव को
उन्होंने लिया होगा इसलिए सारे किस्सों के अंत में उन्होंने सार के रूप में बताना शुरू
किया- ‘हबीबुल्ला
होस्टल में रहते हुए मैंने एक बात यह सीखी कि अच्छा लेखक बनना है तो बहुत पढना चाहिए।
उन दिनों मेरा एक मित्र था सरदार त्रिलोक सिंह,
वह
बहुत पढ़ाकू था। दुनिया भर के लेखकों को पढता रहता था। उसने मुझे कहा कि तुम जिस तरह
से बोलते हो अगर उसी तरह से लिखना शुरू कर दो लेखक बन जाओगे। इसके लिए उसने मुझे सबसे
पहले अमेरिकी लेखक विलियम सारोयाँ की कहानियाँ पढने की सलाह दी। तो तुम्हारे लिए पहली
सलाह यह है कि अमेरिकन सेंटर के पुस्तकालय के मेंबर बन जाओ। वहां एक से एक पुरानी किताबें
भी मिलती हैं और समकालीन पत्र-पत्रिकाएं
भी आती हैं। तुम्हारा दोनों तरह के साहित्य से अच्छा परिचय हो जायेगा।’
कहानी लिखने की दिशा में आखिर में उन्होंने पहली सलाह यह दी- ‘देखो! दो तरह की कहानियाँ होती हैं। एक तो वह जो घटनाओं पर आधारित
होती हैं, जिनमें लेखक वर्णनों, विस्तारों से जीवंत माहौल बना
देता हैं। डिटेल्स के साथ इस तरह की कहानियाँ लिखना मुश्किल काम होता है। तुम्हारी
कहानी को पढ़कर मुझे साफ़ लगा कि अभी इस तरह की कहानियाँ लिखना तुम्हारे बस का नहीं है।
न तो तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई वैसी है न ही लेखक का वह धैर्य जो एक एक कहानी लिखने में
महीनों-सालों का समय लगा दे सकता है। दूसरी तरह की कहानियाँ लिखना कुछ
आसान होता है। एक किरदार उठाओ और उसके ऊपर कॉमिकल, कारुणिक रूप से लिख दो। फिर कुछ देर रूककर बोले, उदय प्रकाश को ही देख लो वह दोनों तरह की कहानियाँ लिखने में महारत रखता है। लेकिन
उसको अधिक लोकप्रियता दूसरी तरह की कहानियाँ लिखने से मिलती है, जिसमें वह अपने आसपास के लोगों
का कॉमिकल खाका खींचता है। मैं यह नहीं कहता कि उस तरह की कहानियाँ लिखनी चाहिए लेकिन
आजकल हिंदी कहानियाँ इस दिशा में भी बड़ी सफलता से दौड़ रही है। उसके बाद उन्होंने हँसते
हुए कहा, और तो और तुम अपनी कहानी में भाषा का रंग भी नहीं जमा पाए। अगर
भाषा होती तो कहता निर्मल वर्मा की तरह लिखो।‘
प्रभात रंजन |
लेकिन फिलहाल तो कुछ
नहीं है। कहानी चर्चा के बाद उन्होंने भाषा चर्चा शुरू कर दी। मनोहर श्याम जोशी कोई
शब्द लिखने से पहले कोश जरूर देखते थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि हिंदी लिखने के लिए
किस कोश का उपयोग करते हो। मैं बगलें झाँकने लगा क्योंकि कोश के नाम पर तब मैं बस फादर
कामिल बुल्के के अंग्रेजी-हिंदी
कोश को ही जानता था। उसकी भी जो प्रति मेरे पास थी वह मैंने खरीदी नहीं थी बल्कि मेरे
चचेरे भाइयों ने करीब दस साल उपयोग के बाद मुझे दे दी थी। हिंदी लिखने के लिए भी कोश
देखते रहना चाहिए यह बात मुझे पहली बार तब पता चली जब मैं हिंदी में पीएचडी कर रहा
था। मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी। हिंदी के कुछ मूर्धन्यों से शिक्षा
पाई थी लेकिन किसी ने मुझे या किसी को भी भाषा के बारे में कोई ज्ञान नहीं दिया था।
हिंदी भाषा के अलग-अलग
रूपों के बारे में पहला ज्ञान मुझे हिंदी के एक ऐसे लेखक से मिला जिन्होंने ग्रेजुएशन
से आगे पढ़ाई भी नहीं की और ग्रेजुएशन तक उन्होंने जिन विषयों की पढ़ाई की थी उनमें हिंदी
नहीं थी।
उन्होंने बड़ा मौलिक
सवाल उस दिन मुझसे किया। तुम हिन्दी पट्टी वाले अपनी अँग्रेजी ठीक करने के लिए तो डिक्शनरी
देखते हो लेकिन कभी यह नहीं सोचते कि हिन्दी भाषा को भी ठीक करने के लिए कोश देखना
चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि जोशी जी ने अपने जीवन काल में उन्होने एक भी उपन्यास या
रचनात्मक साहित्य ऐसा नहीं लिखा जो तथाकथित शुद्ध खड़ी बोली हिन्दी में हो। लेकिन आउटलुक,
दैनिक
हिंदुस्तान में उनके जो स्तम्भ प्रकाशित होते थे और उनमें अगर एक शब्द भी गलत छप जाता
था तो वे संपादक से जरूर लड़ते थे। मुझे याद है कि आउटलुक में उन्होंने एक बार अपने
स्तम्भ में वह लिखा जिसे उस पृष्ठ के संपादक ने वो कर दिया। बस इतनी सी बात पर उन्होंने
तत्कालीन संपादक आलोक मेहता को इतनी बड़ी शिकायती चिट्ठी लिखी थी कि मैं हैरान रह गया
था। भला इतनी छोटी सी बात पर भी कोई इतना नाराज हो सकता है।
भाषा को लेकर उनका
मत स्पष्ट था। उनका मानना था कि साहित्यिक कृति तो लोग अपनी रुचि से पढ़ते हैं लेकिन
पत्र-पत्रिकाओं
को लोग भाषा सीखने के लिए पढ़ते हैं इसलिए उनको भाषा की शुद्धता के ऊपर पूरा ध्यान देना
चाहिए। लेकिन जब भी भाषा की शुद्धता को ध्यान में रखकर रचनात्मक साहित्य लिखा जाता
है तो वह लद्धड़ साहित्य हो जाता है। उस दिन उन्होंने कई उदाहरण दिए लद्धड़ साहित्य के
लेखक के रूप में। वे कहते थे कि भाषा से ही तो साहित्य जीवंत हो उठता है। उदाहरणस्वरूप
वे अपने पहले गुरु अमृतलाल नागर का नाम लिया। उन्होंने कहा कि भाषा की उनको इतनी
जबर्दस्त पकड़ थी कि कानपुर शहर के दो मोहल्लों के बोलचाल के फर्क को भी अपनी भाषा में
दिखा देते थे। जो भाषा की भंगिमाओं को नहीं जानते वे साहित्य में भाषा की शुद्धता को
लेकर अड़े रहते हैं। जबकि हिन्दी का मूल स्वभाव इसका बाँकपन है। यह कभी भी एलीट समाज
की भाषा नहीं बन सकती। यह अभी भी मूल रूप से उन लोगों की भाषा है जो एक भाषा ही जानते
हैं अर्थात एकभाषी हैं। मुझे याद है कि अब लखनऊ से अखिलेश के संपादन में
‘तद्भव’ नामक
पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ तो उसमें मनोहर श्याम जोशी जी ने धारावाहिक रूप से
‘लखनऊ मेरा लखनऊ’
संस्मरण
श्रृंखला लिखना शुरू किया। ‘तद्भव’
के
हर अंक में प्रूफ की गलतियाँ बहुत रहती थीं। इसको लेकर उन्होंने एक पत्र
‘तद्भव’ संपादक
को लिखा जो पत्रिका में प्रकाशित भी हुआ। उस पत्र में उन्होंने अशुद्धियों को भाषा
का ‘डिठौना’
कहा था, जो न हों तो भाषा को नजर लग
जा सकती है। उस दिन उन्होंने कहा कि हिंदी जिस दिन पूर्ण रूप से शुद्ध भाषा हो जाएगी, अपने मूल यानी लोक से कट जाएगी और मर जाएगी!
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टिप्पणियाँ
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'