कुमार अंबुज की नई कविता : हम में से हर दूसरा आदमी अपराधियों का वोटर है

वक़्त बदल गया है और सारी सुन्दर चीज़ें जैसे असुंदर के स्थापन में लगी हैं. हर तरफ़ सब इतना शांत और सहज है कि असुविधा पैदा करता है. देखते ही देखते श्लीलता अश्लीलता में बदलती चली गई और जैसे यह बदलाव किसी मेटामोर्फेसिस की तरह हुआ और सुबह होते ही अँधेरा छा गया. 


कुमार अम्बुज नब्बे के उस दशक के बदलावों के सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों की पहचान करने वाले सबसे पहले कवियों में से थे जो आजके सर्वग्रासी समय में परिणत हुआ है. उनकी यह ताज़ा कविता इस समय की उस विडम्बना को कहने की हिम्मत जुटाती है जिसमें पढ़ा-लिखा सुसंस्कृत समाज हत्यारों के वकील और फिर हत्यारे में तब्दील होता जा रहा है. 


हुसैन की पेंटिंग : अ टेल ऑफ़ थ्री सिटीज़


मुझे शक है, हर एक पर शक है
(पवित्र अश्‍लीलताओं से अश्‍लील पवित्रताओं तक)

मैं कुछ हैरान, कुछ परेशान घर से बाहर निकलता हूँ
सब तरफ तेज़ धूप है, तमाम लोग दिखते हैं अपनी आपाधापी में,
रोशनी की इस चकाचौंध में पहचानने की कोशिश करता हूँ
इनमें कौन हो सकते हैं जिन्‍होंने निसंकोच चुना है
एक एफआईआरशुदा मुजरिम को अपना नुमाइंदा
जबकि चारों तरफ सब जन इतने साधारण, इतने हँसमुख हैं
अपनी सहज दिनचर्या में मशगूल जैसे कुछ हुआ ही नहीं
ज्‍यादातर पढ़े-लिखे, बातचीत में सुशील, नमस्‍कार करते, हाथ मिलाते,
अपरिचित भी निगाह मिलने पर मुसकरा देते हैं,
शायद इनके बारे में ऐसा सोचना ठीक नहीं
लेकिन मुझे हर एक पर शक है यह मेरी बीमारी है
और एक अपराधी विजयी हुआ है यह समाज की बीमारी है

ग़लत चीज़े अकसर पवित्र किस्‍म की अश्‍लीलताओं से शुरू होती हैं

लोग तो हैं इस शहर में ही, पड़ोस में, मेरे आसपास,
मेरे घर में, बाजारों, गलियों, दफ्तरों में, मेरे दोस्तों में, जिन्‍होंने मिलकर
इंसाफ के सामने भी पेश कर दी है इतनी बड़ी शर्मिंदगी
कि कठघरे में खड़े आदमी से कहना पड़ रहा है- हे, मान्‍यवर
और दुंदुभियों के कोलाहल में कोई आवाज ऐसी नहीं उठती जो कहे
हमें दल-विशेष मुक्‍त नहीं, हमें चाहिए अपराधियों से मुक्‍त सरकार

सोचो, हम में से हर दूसरा आदमी अपराधियों का वोटर है

तो क्‍या यह संभव कर दिया है युद्धोन्‍मादियों ने
तानाशाही की इच्‍छा ने, विश्‍वगुरू की कामना, निराशा की ऊँचाई ने,
किसके झूठ, किसकी गर्जना ने, किस प्रचार, किस बदले की भावना ने,
किस भयानक आशा ने, किसके डर, किसके लालच, किसके घमंड ने,
किसकी ज़िद, किसकी नफ़रत, किसकी मूर्खता, किसके पाखण्‍ड ने
किसके मिथक, किसके इतिहास, किसकी व्याख्या ने,
या अपने ही भीतर पल रही अपराधी होने की संचित आकांक्षा ने

मुझे शक है, हर अच्‍छे-बुरे आदमी पर शक़ है
मैं उन्‍हें भी नहीं बख्श पा रहा हूँ जो मेरे साथ खड़े दिखते हैं
कि जब चीजें पवित्र अश्‍लीलताओं से शुरू होती हैं
तो फिर वे चली जाती हैं अश्‍लील पवित्रताओं के सुदूर किनारों तक।

--------------------


जन्म : 13 अप्रैल 1957, गुना (मध्य प्रदेश)
प्रमुख कृतियाँ : कविता संग्रह : किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा
कहानी संग्रह: इच्छाएँ
पुरस्कार/सम्मान : भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, श्रीकांत वर्मा सम्मान, केदार सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार, माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, गिरजाकुमार माथुर सम्मान
संपर्क : एचआईजी सी 10, तृतीय तल, गुलमोहर ब्लॉलक, ग्रीन मीडोज, अरेरा हिल्सम, पुरानी जेल रोड, भोपाल - 462011
मोबाइल : 09424474678
ई-मेल kumarambujbpl@gmail.com
वेबसाइट kumarambuj.blogspot.com

टिप्पणियाँ

मृत्युंजय ने कहा…
जाने क्यों, अच्छी कविता बनते-बनते रह गयी, का बोध हुआ।
Aslam Mirza ने कहा…
Is kavita say mai bohoot prabhavit howa.Kavi ki pida aaj humsub kipida hai.Is girti vyvastha par niyantran kaise rakhajaye.
Aslam Mirza ने कहा…
Is kavita say mai bohoot prabhavit howa.Kavi ki pida aaj humsub kipida hai.Is girti vyvastha par niyantran kaise rakhajaye.

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ