अनघ शर्मा की कहानी : एक बालिश्त चाँदनी!!
युवा कथाकार अनघ शर्मा का पहला कहानी संकलन "धूप की मुंडेर" अभी हाल ही में राजकमल प्रकाशन से आया है. उसी संकलन से एक कहानी.
“डाल दिया रे पानी पे बिछौना,किसने किया रे ये पानी पे बिछौना
ससुर हमारे चौधरी,सास बड़ी तेताल,हाय- हाय- हाय दिन रात लड़े है
डाल दिया रे पानी पे बिछौना,किसने किया रे ये पानी पे बिछौना”
वो गाती जा रही थी और बरसते पानी को देख रही थी| कितने दिनों
से लगातार बरसात हो रही थी।फ़रवरी की ऐसी उतार उसनेने आज तक नहीं देखी थी,न ही उसे ऐसा मौसम याद है कि जब फ़रवरी में कभी इतनी बरसात हुई हो। पानी की
पतली पतली लकीरें छत से फूट कर दीवार पर बह निकली थीं। उसने तीसरी बार गद्दा
खिसकाया कि कहीं भीग न जाये। हवा में इतनी नमी थी फिर भी उसकी इन्द्रियां तपिश
महसूस कर रहीं थी। अंधेरे आकाश में धुएं की एक रेखा सच में थी या उसकी आंखें ऐसे
ही देख रहीं थी ये बात वो समझ नहीं पाई। वो सारा दिन
कमरे के अंदर थी बाहर निकली ही नहीं,फिर ये कमरे के भीतर उसकी आंखें क्या देख
रहीं थीं।छत आकाश सरीख़ी हो गयी है उसकी कल्पनाओं में और दीवार पर पानी की लकीरें
धुएं का प्रतीक।हवा में बरसात की गंध के अलावा एक और गंध थी जो बार बार उठ रही थी
जैसे कहीं दूध जल गया हो या शायद बालों के जलने की चिरायंध थी। ये सब सोचते-सोचते
कब उसकी आँख लगी और वो कब तक सोती रही उसे कोई होश नहीं|आँगन में हुई एक धमाकेदार आवाज़ ने उसकी
नींद तोड़ दी| पहले उसे लगा कि जैसे पीपल की कोई डाल टूट के गिरी है पर दूसरे ही पल
किवाड़ पे पड़ती दस्तक ने उसे चैतन्य कर दिया|
“कौन? कौन है?” उसने डरते डरते पूछा|
अकेले होने का डर इस अँधेरे में उसे आज पहली बार लगा था| उसने सोचा कौन होगा जो
शहर के बाहर बने इस उजाड़ घर पे दस्तक दे रहा है? आज तक यहाँ की इक्का-दुक्का आबादी
में कभी किसी ने उसे आँख उठा के भी नहीं देखा तो दरवाज़ा खटखटान तो बड़ी दूर की बात
है, वो भी आँगन में कूद के| रात के बरसते अँधेरे में कौन उसके दरवाज़े पर है| क्या
पता कोई चोर-उचक्का हो, कहीं चाकू वाकू ही मार दे| मारे डर के उसके माथे पर पसीने
की बूँदें आ गयी| दरवाज़े की बाकि कुण्डियाँ बंद कर के उसने खुद को कुछ और सुरक्षित
महसूस किया| वो पलटी ही थी कि दरवाज़े की झिर्री से आती कराह की पुकारउसे जाने कहाँ
ले गयी,जैसे किसी की आवाज़ उसके मनमें चमकी और पलट गयी हो| उसने झट बिना कुछ सोचे
दरवाज़ा खोल दिया|सामने एक तेईस-चौबीस साल का लड़का कांपता सा खड़ा था|
वो अंदर आ कर एक कोने में चुपचाप काँपता हुआ
बैठ गया| बहुत इंतज़ार के बाद उसका डर कुछ कम हुआ तो वो उससे बोली|
रज़ाई तो मेरे घर में एक ही है। हाँ एक मोटा
अबरा है उसे भी ओढ़ लेना कुछ तो ठंड कम लगेगी|"
उसने कोई जवाब नहीं दिया घुटनों पर ठोड़ी रखे वो वैसे ही कांपता रहा।
चम्पा ने दरी बिछाई उस पर अबरा रखा और उससे बोली|
“बिस्तर लगा दिया है मैंने,तुम सो जाओ|”
वह सो गया तो वो कमरे से बाहर निकल आई| पानी ज़रा भी कम नहीं
हुआ था उसी रफ़्तार से बरस रहा था| आँगन की मोरी रुंधी पड़ी थी,पानी पूरे आँगन में
भर गया था| टखनों तक भरे पानी में चल कर उसने कोने में रखी बांस की खपच्ची उठाई और
मोरी खोलने की कोशिश करने लगी| उसे पता ही नहीं चला वो कब से उसके पीछे आ कर खड़ा
था|
“लाईये मैं कर दूं|”
वो उसकी आवाज़ से चौंक कर पलटी|खपच्ची उसके हाथ में पकड़ा के
कमरे की चौखट से टिक कर खड़ी हो गयी|उसकी हथेलियों की तेज़ चोट से पल भर में पानी
खुल के बह निकला| वह जब से यहाँ आया है वो उसका चेहरा नहीं समझ पायी
है,मोमबत्तियों के हल्के उजाले में उसके कन्धों की बनावट तो दिखती है पर चेहरा
नहीं दिखता| सुबह देखूंगी उसने सोचा|
जब वह सुबह सो कर उठा तो वह कहीं नहीं थी| वह कमरे से बाहर
निकल आया और रात के अँधेरे में जहाँ पनाह पायी थी उस जगह को नज़र भर देखना शुरू कर
दिया| लम्बे- लम्बे गलियारे और बरामदे उस घर को यूँ घेरे हुए थे जैसे भंवर के
छल्ले पानी को घेर लेते हैं| दूर गलियारे के अंत में रंग उड़े घड़े और सुराहियाँ ऐसे
रखे हुए थे कि मानो उनके भीतर का पानी सदियों पहले ही सूख चुका हो,और अंदर एक ऐसी
अनजान लिपि छोड़ गया हो जिसे यहाँ पढने वाला कोई नहीं| आँगन का पीपल और बुर्जी एक
दूसरे से होड़ ले रहे थे| उसने देखा बुर्जी के सिरहाने अलग-अलग आकर की इकत्तीस
खूँटियाँ लगी थी और पत्थर पर हर ओर तराशे हुए कमल थे जिन पर अब काई का कब्ज़ा
था|अकेले खड़े खड़े उकता के वह अन्दर गया और वापस उसी सीले गद्दे पे पसर गया जिस पर
रात भर ठिठुरता रहा था| उसने जांघ पर एक गाँठ महसूस की,हाथ से दबा कर देखा तो टीस
की एक झंकार नस में लहक सी गयी|
वोजब वापस आई तो नींद में वह कराह रहा था| चम्पा ने हाथ बढ़ा
कर उसका माथा छूना चाहा पर जाने क्या सोच कर रुक गयी| जिस चेहरे को ठीक से देखने
के लिये वो रात भर बेचैन रही उस चेहरे में दिन के उजाले कुछ ख़ास नहीं पाया| ये एक
कम उमर लड़के सा चेहरा था बस जिसकी लुनाई कहीं खींच कर फेंक दी हो| उसने कराह कर
पाँव झटका तो वो बोली|
“क्या हुआ?”
“कुछ नहीं,शायद जांघ में कोई फोड़ा है| बहुत दर्द हो रहा है
सुबह से|”
“रुको एक पेन किलर ले लो और पुल्टिस बना देती हूँ लगा
लेना,शाम तक फोड़ा फूट जायेगा|
“एक कप चाय और मिलेगी? वह उससे बोला|
.........................
पुस्तक अमेज़न से मंगाई जा सकती है. |
घड़ी का काँटा सरक कर नौ की तरफ़ बढ़ने
लगा था| मरियल सी धूप नीचे उतर कर ज़मीन के एक कोने की तरफ़ बढ़ने लगी थी| बाहर
जाते-जाते वो ठिठक कर रुक गयी| कमरे के एक कोने की तरफ़ चींटियों की एक कतार भूसे
के कुछ कतरे लिए बड़े मनोयोग से बढ़ी चली जा रही थी| उसका मन हुआ की एक मग्गा पानी
डाल कर सब को बहा दे| चींटियों से ज़्यादा उनकी पीठ पर लदे भुस के छोटे-छोटे सुनहरी
टुकड़ों ने उसका ध्यान बाँध लिया था| उसे ऐसा लगने लगा कि जैसे वो खुद इन चींटियों
के साथ चलते-चलते गर्मी की किसी शाम दिलावर मलिक भुस की टाल तक पहुँच गयी है|वही
टाल जहाँ वो और तयूर बचपन में घंटों खेला करते थे,जहाँ से अम्मा उसे उसके धूल भरे
बालों से खींच के लाया करती थीं| चाय के साथ वो आटे की लोई में हल्दी लगा पुल्टिस
तैयार कर लाई थी और दोनों चीज़ उसे थमाते हुए बोली|
“कौन हो तुम? तुम्हारा नाम क्या है?
यहाँ कैसे चले आये?”
“पता है कल शहर में फ़साद हो गया था?,
वो उल्टा उससे पूछ बैठा|
“नहीं तो! वो ज़रा परेशान हो कर बोली|
तुमने बताया नहीं उसने दुबारा पूछा|
“क्या?”
“तुम्हारा नाम?”
“समय, मैं समय हूँ|”
“तुम समय हो, मतलब समय वाले समय?”
“हाँ|”
“काम क्या करते हो?”
“मैं घटनाओं की यात्राओं को दर्ज़ करता
हूँ|”
“अच्छा ट्रेवलॉग लिखते हो?”
“नहीं तो|”
“तो कैसे करते हो?”
“देख कर मन में रख लेता हूँ|”
“मेरे घर कैसे चले आये?”
“तुम्हारे खुले आँगन में गिर पड़ा|”
“पतंग उड़ा रहे थे क्या?”
“नहीं,अन्तरिक्ष से टूट कर गिरा हूँ|”
“ओह!
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“चम्पा| अच्छा पर ऐसे कैसे गिर पड़े?
किसी ने धक्का दे दिया था क्या ?”
“नहीं तो! पर कभी कभी मुझे भी अपना घर
छोड़ना पड़ता है|” कह कर उसने चाय का प्याला होठों से लगा लिया|
उसने उसे देखा पर इस बात पर वो कुछ
बोली नहीं| दूर कहीं कोई गाना बज रहा था या उसके कानों को वहम हो रहा था, उसे लगा
कि हवा में एक धुन तैरती हुई आई और उनके पास बैठ गई|
“मन मेरा प्यार का शिवाला है,आपको देवता बनाना है|”
सारे शिवाले ढहा दिए जाते हैं और सारे देवता अस्थिभंग कर दिए जाते हैं| मन
हमारे इन दिनों अजब से लिज़लिज़ेपन से भर गए हैं जिनमें प्यार के टिकने की कोई सूरत
लगती तो नहीं|उसने एक सिगरेट जलाई और फेफड़ों तक धुआं खींचते हुए सोचा|
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वो उसे सिगरेट पीते ऐसे देख रहा था
जैसे कोई अजूबा देख रहा हो| कुछ देर की चुप्पी के बाद एकदम ही उससे पूछ बैठा|
“आप अकेली रहतीं हैं इस घर में?
“हाँ तो! आधी दुनिया ही रहती है अकेले
| उसने ज़रा तल्खी से उत्तर दिया, जैसे कह रही हो कि इतने व्यक्तिगत सवाल पूछने
लायक पहचान तो नहीं हमारी अभी | फिर दूसरे पल खुद ही उससे पूछ बैठी|
“क्या सच ही में फ़साद हुआ है?”
“हाँ| आपको नहीं मालूम? बाब-ए-निजात
की तरफ़ बिजली के तार में झम्पर डालने से
शुरू हुई थी, बढ़ते-बढ़ते कट्टे- गोली तक पहुँच गयी बात|”
“शहर दूर पड़ता है| कोई ख़बर पहुँच ही
नहीं पाती यहाँ तक और ये बरसात तो तुम देख ही रहे हो कई दिन से बरस रही है इसलिए
आना जाना सब ठप है|”
अनजाने मेहमान ने उससे नज़र बचा कर घर
का दुबारा जायज़ा लेना शुरू किया| कैसा मनहूस घर है इतनी बरसात के बाद भी
धूल-मिट्टी से अटा पड़ा है| न आला न खिड़की, न चंदा न तारा| इसमें रहने वाले का तो
दम ही घुट जाए| और ये अजूबा लड़की कैसे रहती होगी यहाँ? उसने सोचा|
“नाम क्या बताया था आप ने? भूल गया|”
उसने पूछा|
“चम्पा|”
“ओह ! चम्पा|”
“चम्पा में क्या बुराई है भई| ख़ासा
बढ़िया तो है और नाम रखने में क्या है भला? अच्छा देखो पुल्टिस ने कुछ फ़ायदा किया
या नहीं| अगर पानी रुक गया तो जाते हुए स्टैंड पर छोड़ दूँगी आगे अपने आप मैनेज तो
कर लोगे ?” वो बोली|
“कहाँ जाते हुए?”
“काम पर|”
“क्या काम करती हो?”
“ऑर्क्रेस्ट्रा में डांस|”
“??????”
“अब ऐसे क्या देख रहे हो| चाहोगे तो
रास्ते से दवाई का पत्ता ले लेंगे| सात बजे से शिफ्ट होती है मेरी|
“सुनो क्या आज रात भर रुक जाऊं, कल
वापस चला जाऊँगा और पानी भी कितना पड़ रहा है|”
वो हाँ या ना कहती उससे पहले ही उसने
घुटने मोड़ के पेट की तरफ़ किये और आँखें मींच लीं| बादलों के नए जत्थे ने आ कर
आसमान में आपनी टांगें फैला उतरती दुपहर की हल्की रौशनी को अचानक ही कुछ और कुंद
कर दिया| शाम घिरने को तैयार खड़ी थी और वो ऐसे सो रहा था जैसे सालों बाद कहीं नींद
आई हो| कौन है तुम? जिसके साथ अकेले होने पर भी मुझे डर नहीं लग रहा चम्पा ने
दीवार से सर टिकाये आँखें मूंदते हुए कहा|
“समय हूँ !अच्छा चम्पा तुमने तो अब तक
अपने बारे में मुझे कुछ बताया ही नहीं| वो आँखें बंद किये-किये ही बोला|
“तुम तो समय हो सब का लेखा-जोखा
तुम्हारे मन भीतर है| मेरा भी जानते ही होगे, फिर इतनी बेचैनी क्यूँ है जानने की?”
“जानता तो सब हूँ, पर तुम बताओगी तो
तुम्हारा कुछ बोझ हल्का हो जाए शायद? बताओगी न चम्पा?”
उसने सुन कर भी इस प्रश्न को अनसुना कर दिया| हल्की-हल्की खुमारी और ठण्ड ने चम्पा
को नींद के महल पर ला कर छोड़ दिया| नींद के इस विराट महल की चौखट पर ग्यारह
गुलमोहर अर्ध-चंद्राकार खड़े हैं, जैसे किसी वीथिका का रूप हों| उसने गिने, छोटे से
बड़े के क्रम में बढ़ते सात गुलमोहर तो जैन की बगीची के थे| वहां तो कैसे
उजाड़-निश्चल कोहरा पहने खड़े थे और यहाँ कितने शौक से लहरा रहे हैं|
वो फ़रवरी की तीसरी तारीख़ थी और ये तारीख उसके लिए तीसरी शब का चाँद थी| तीसरी
शब जिसमें चाँद लोटे में फंसा छटपटाता रहता है और लाख चाह कर भी बाहर नहीं निकल
पाता| ऐसी ही एक तीसरी शब थी वह जब उसने जूतों के फीते कस कर बांधे, कंधे पर बैग
टांग बालकॉनी से सटी छोटी छत फांद कर वो गली में आ गयी| धुंध की पतली झिल्ली को
पार कर के हवा उसके नन्हे से दिल में जा उतरी| उसने गली को देखा, सुनसान थी| वो
तेज़ क़दमों से दौड़ती हुई गली के छोर तक आ पहुंची| यहाँ से उसायनी कोई सवा किलोमीटर
होगी और वहां से बगीची लगभग उतनी ही दूर| वहीं वो उसका इंतज़ार कर रहा होगा|
बगीचे में कोई उसका मुन्तज़िर नहीं था| उसने एक-एक कर हर कोने को खंगाल लिया|
उदासी का चोला पहने बस सात गुलमोहर ही खड़े थे| उसने धोखे को और धोखे ने उसे दूर ही
से पहचान लिया था| वो चाहती तो उसी घुप अँधेरे में घर लौट जाती और किसी को
कानोंकान खब़र भी नहीं होती| उसने घंटे भर और इंतज़ार किया पर जिसे आना ही नहीं
था,वो आया ही नहीं| घर तो अब लौटने का सवाल ही नहीं था| ऑर्डिनेंस फैक्ट्री के
दरवाज़े से आगरा की बस मिल जायेगी| उसने तेज़ क़दमों से फैक्ट्री की तरफ़ चलना शुरू कर
दिया|
.............................
बस इतनी धीमी चल रही थी कि एक बार को
उसका मन हुआ की उतर कर इसके साथ-साथ पैदल ही चल निकले| कोहरे की हल्की बूँदें
कीकर, बबूल की फटी हुई पत्तियों पर सुई की नोक सी चमक रही थीं| फ़िरोज़ाबाद से आगरा
के बीच के इस पूरे इलाके में कोई घना पेड़ नहीं था सिवाय कीकर बबूल के जो मीलों इस
सड़क के किनारे फैले हुए थे| बस जैसे-जैसे शहर को पीछे छोड़ रही थी उसकी सांस में
सांस आ रही थी| ढूंढने वाले जब उसकी तलाश में निकलेंगे तब तक तो वो इस शहर बाहर
निकल चुकी होगी,इस शहर से जहाँ उसने प्यार तो किया पर उसे पाया नहीं| सुबह की
रौशनी आकाश पर तैरने लगी थी| उसने महसूस किया की सीने में कुछ पिघल रहा है| मन
पिघल कर सीने में भर गया है| आन की आन सीने में एक आंच लपट सी उठती और बैठ जाती|
सड़क किनारे क़तार से लगे कारख़ानों में से चूड़ियों से लदे ठेले एक के पीछे एक निकल
रहे थे और चिमनियों से धुआं| ये रंग-बिरंगे कांच के छल्ले शहर भर में घर-घर हिल्ल
चढ़ाने को पहुंचा दिए जायेंगे| बजबजाती नालियों वाले घरों के बरामदों में फट्टों पर
इन चूड़ियों को कस कर चढ़ा कर हिल्ल लगाने के लिए छोड़ दिया जायेगा| कितने हाथ दीख
जायेंगे आपको जिनकी उँगलियों की पोर सुनहरे रंग में रंगी होंगी और चेहरे पर सस्ती
सुनहरी अफ़्शां बिखरी होगी| पांच-सात रुपया मिलता है एक तोड़े की लगाई के फिर भी लोग
कितने प्यार से इस काम को करते हैं| इन के काम में डूबे चेहरे गरीबी के गीले कपड़े
से पुंछ-पुंछ कर पीले पड़ गए हैं फिर भी इन्हें कितना प्यार,इश्क है इस काम से|
उसने गले में पड़ा मफ़लर दुबारा कस कर लपेटा और
सिगरेट निकाल ली और आने वाले दिनों के बारे में सोचना शुरू कर दिया| ज़िन्दगी यूँ
लगती है जैसे कोई लेबनीज़ फैक्ट्री में बनी रोटी| भट्टी के अंदर लाल चमकती और हवा
भरी हुई पर ज्यों ही बाहर निकलेगी तो पिचकी हुई दाग़-दगीली दीखेगी| गोल-गोल सफ़ेद
रोटी सी जिंदगी.........
“अरी! जल्दी-जल्दी हाथ चला.... दो
तोड़े लगाने हैं घंटे भर में|” उसकी नींद के गलियारे में एक आवाज़ गूंजी|
खटाखट-खटाखट उसके हाथ चलने लगे, हिल्ल
लगी चूड़ियाँ रोलर पर गोल-गोल घूमने लगीं| अम्मा बार-बार उससे खीज जाती कि चार बजते
ही उसके हाथ थक जाते हैं, काम रुक जाता है| पर वो कैसे बताती की हाथ नहीं थकते बस
आँखें मलिक साब के मकान की तरफ़ घूम जाती हैं| यही तो वो समय है जब वो फैक्ट्री
जाने के लिए घर से निकलता है और दुआ-सलाम के बहाने रुक दो घड़ी उसे देख कर वापस चला
जाता है| यही छोटे-छोटे बहाने उसके सपनों की ख़ुराक हुआ करते थे| बस जब बिजलीघर
अड्डे पर आ कर रुकी तो उसे होश आया| अब यहाँ से कहाँ जाएगी वो? भाड़ में गया
लेबनान, भाड़ में गयीं रोटियां और भाड़ में गयी चम्पा, उसने मेरठ की बस में चढ़ते हुए
सोचा|
घर से आगरा, फिर आगरा से मेरठ का सफ़र
यूँ तो एक दिन में तय हुआ पर उसकी हिम्मत ऐसे टूटी, मानो बरसों की घायल हो| आगरा
छुप कर रहना इतना आसन नहीं होता| किसी न किसी दिन कोई न कोई उसे पहचान ही लेता,
ढूंढ ही लेता| इस निर्वासन की पहली शर्त ही यही होनी थी कि जितना दूर जा सके उतना
दूर जाया जाये,अब तो मेरठ भी छोड़े सालों होने आये|जब मेरठ में कुछ काम नहीं बना तो
उसने रामपुर का रास्ता किया,यहाँ जिंदगी कुछ पटरी पर है| इनदिनों उसे घर बहुत याद
आता है| घर याद आता है या घर से जुड़ा साथ वाला मकान ये अब भी बड़ा प्रश्न है उसके
लिए| पर अब उन यादों का यहाँ इस नए शहर में कोई काम नहीं| पर यादों की ज़मीन बड़ी
सर-सब्ज़ होती है आप चाहें न चाहें,उस ज़मीन पर अंकुर फूट ही पड़ते हैं|
जैसे वही कि जब उसने पहली बार चौधरी
साब के बगीचे में छुप कर तयूर के साथ जिंदगी की पहली बीड़ी पी थी| उसके मुँह से आती
बीड़ी की खुरदरी गंध ने जाने उसे कितनी ही बार ललचाया था| बीड़ी तो अम्मा भी पीती
थीं पर उनके पास से ऐसी महक तो नहीं आई कभी| तेंदू के पत्ते में लिपटी तम्बाकू की
ज़रा सी मात्रा ने ही उसके हवास को हिला दिया था,सारा दिन कनपटी पर हल्का-हल्का
दर्द रहा| चारों तरफ़ से अमरुद के पेड़ों से उतरती गंध और तम्बाकू की महक ने उसकी
उँगलियों को पकड़ रखा था| बगीचे की हौद से बीसियों बार कुल्ला कर के जब वो घर
पहुंची तो अम्मा अपने आप में बडबडाये जा रहीं थीं,उसे देखते ही बोलीं|
“अब के इन हरामियों को पुलिस से पकड़वा
दूँगी| जाने रात को क्या ठोक-पीट करते रहते हैं?,तू देखियो चम्पा एक दिन इनके घर
से सुरंग निकलेगी|”
अम्मा बडबडाती रहतीं और वो ऊपर-ऊपर से
सब चुप सुनती रहती| पसे-ग़ुबार इतनी लाशें निकलेंगी ऐसा उसने कभी सोचा ही नहीं था|
मिट्टी-सोना सब बराबर हो जायेगा एक दिन| लकड़ी के बड़े-बड़े चौकोर खम्बे जिन मकानों
की नींव में ठुके हुए थे उनकी नींव ऐसे दरक जायेगी इसका उसे रत्ती भर भी भान नहीं
था| चम्पा को लगा मानो किसी ने नींद ही में उसके गले को दबा दिया हो|
...................................
बड़े-बड़े लकड़ी के खम्बे उस घर की नींव
में अन्दर तक धंसे हुए थे| घर के पहले तल्ले को जो संकरी सी सीढ़ियाँ जाती थी उन पर
महीन नक्काशी हो रखी थी| उन सीढ़ियों की लकड़ी कमज़ोर थी या नक्काशी के लिए इतनी छील
दी गयी थी कि अगर दो लोग एक साथ ज़रा तेज-तेज उन पर चढ़े या उतरे तो ऐसा लगता है कि
मानो भरभरा के पाँव के नीचे से ख़िसक जायेंगी| इसी घर से लग कर थी दिलावर मलिक की
भूसे की टाल जिससे उडती धूल गली के हर घर को कम-ज़-कम तीन-तीन बार साफ़ करने को
बाध्य कर देती थी| और इसी घर में रहता था वो| इसी घर में जिसमें से आधी रात को आती
खट-खट की आवाज़ पर अम्मा कहती थी कि “तू देखियो चम्पा एक दिन इनके घर से सुरंग
निकलेगी|”
घर में सुरंग जाने थी भी या नहीं ये
तो वही लोग जाने पर हाँ एक सुरंग उसके दिल में बन गयी थी जिसका एक मुहाना तयूर के
दिल पर खुलता था और दूसरा उसके|
वो जाने किस सपने की चिलम को आँख से
फूँक बैठा था| ये सपना करवट-करवट उसे सोने नहीं देता है| कभी यहाँ,कभी वहाँ सरसराते
धुएँ सा कहाँ-कहाँ नहीं घुमाये फिर रहा है| किसी झील के तल के मोती सा,किसी धूप की
छाया सा,एक उनींदी सी पलक पर अटकी हुई किसी नींद के क़तरे सा| ये सपना प्रेम था| उसके दिन अब ऐसे थे जैसे
उनसे किसी ने रातें गायब कर दी हों| दिन बीतें तो रातें ख़ाली, शाम के बाद सीधे
अगली सुबह|एक रेशम के तार सा बटा हुआ दुःख धीरे-धीरे उसकी बाँह से उतर कर उसके
गहरे में पैठ गया था|अनजाना डर उसके कमरे के रंग-बिरंगे पर्दों की सलवटों में झपकियाँ
लेने लगा था| दुःख मन के कोरे कपड़े पर पानी के छींट सा है, जिसे बहरहाल जज़्ब तो
होना ही है| जितनी देरी,जितने अंतराल पर ये भीतर पैठता है वही देरी वही अंतराल सुख
है| जैसे उसने चम्पा से एक बार कहा था|
“झीलें जितनी उदास होंगी उनके पानी
उतने ही शांत और उनके पेड़ उतने ही घने होंगे चम्पा ....... इसीलिये उदासी अक्सर
बड़े कमाल की चीज़ होती है, कुछ भी रोपिये इसमें लहलहा कर खिल ही जायेगा ख़ासकर
अकेलापन और तन्हाई |”
शहर की हदों से दूर उजाड़-निर्जन में
जमना बहती थी,रेत के छोटे-छोटे ढूह जिनकी चिकनी पीठ पर पानी की कमी से असंख्य
दरारें उभर आयी थीं| वहीं उसी जगह एक रोज़
उसने तयूर का हाथ पकड़ कर कहा था|
“देखना एक रोज़ हमारे सपने भी सूख-साख
के बंजर हो जायेंगे| मैं तब यहीं इसी स्वर्गाश्रम में जमना की इन थकी हुई लहरों के
सामनेइन सपनों को रख जाऊँगी|”
“तब मैं रोज़ इन सपनों को देखने आया
करूँगा| मैं अन्दर कैसे जाऊँगा,ये लोग मुझे अन्दर जाने देंगे? मेरा नाम सब भेद
नहीं खोल देगा |”
“तुम किसी को बताना ही नहीं अपना नाम|
झूठ नहीं बोल सकते ज़रा सा|”
“झूठ मैंने कभी बोला ही नहीं चम्पा| पर
मैं एक रोज़ चुपके से आऊंगा और इन सपनों को उठा कर भाग जाऊँगा|” उसने सिगरेट
सुलगाते हुए कहा|
सपने बड़ी बारीक़ डोर में टंके रहते
हैं, इन्हें आँख से उतार दिल में पहनने से पहले डोर की मजबूती जांच लेनी चाहिए,वो
ये बात मानती थी पर इत्मिनान नहीं कर पाई| मानती तो वो ये भी थी कि वो हमेशा सच ही कहेगा उससे पर ऐसा
हुआ तो नहीं| “परसों तड़के बगीची में मिलना” जिस पर्ची के दम पर वो सपने सजाये छत
फांद भाग आई थी उसकी लिखाई तो उसके वहां पहुंचने से पहले ही मिट गयी थी|
अम्मा ने उसे झंकझोर के उठा दिया|
चम्पा ने देखा गाड़ियों की एक कतार उस घर के सामने आ रुकी थी| पुलिस के जूतों की
आवाजें उन सीढ़ियों से नहीं चम्पा को अपने दिल से आती सुनाई पड़ी| हवा की सांस बाद
में रुकी उससे पहले चम्पा ने अपना दम घुटता देखा|एक गंदे से रस्से में उसकी दोनों
कलाईयाँ जकड़ी हुई थीं| तीन पुलिस वालों के पीछे वो सर झुकाये हुए सीढ़ियों से उतरा|
एक सिवाय उसके मोहल्ले में सब की गर्दनें तांक-झाँक को उठी हुई थी| अम्मा उसके
कानों में फुसफुसा रहीं थीं|
“देख ले,तुझे विश्वास ही नहीं था
नक़्शे पकडे हैं पुलिस ने गड्डी के गड्डी| इस लड़के के बिस्तर के नीचे से धर निकाले|
चौके में से कट्टे भी निकले हैं तीन| अब जा रहे हैं दिलावर को भी टाल पर ले कर,
वहां भी तलाशी लेंगे| जब आधी-आधी रात को आवाजें आती थी तब तू ही कहती थी न अम्मा
अदरक कुट रही है| बेचारा कारख़ाने से आया है अम्मा तो चाय बन रही है| बन गयी चाय|
किसी ने फ़ोन कर के ख़बर दी पुलिस को इसके बारे में| बड़ी छ्पैटी में कल किसी की
कनपट्टी पे कट्टा रख दिया था इसने, सुधा की बहू बता रही थी मुझे|”
वो जानती थी पुलिस को किसी और ने नहीं
अम्मा ने ही फ़ोन कराया है पर बोल नहीं पायी| अम्मा ने कभी ज़ाहिर नहीं होने दिया पर
वो जान गयी थी कि अम्मा कोउसके और तयूर के बारे में सब पता है| चौधराइन ने सब बता
दिया था अम्मा को और अगली सुबह अम्मा चौधराइन के बेटों के साथ उसकी टाल पर पहुँच
गयी थीं| बाद में ये सारा किया धरा इसी प्रपंच का हिस्सा था| उसके बाद हफ़्तों उस
घर से उसने कोई आवाज़ नहीं सुनी| न ही कोई सीढ़ियों से उतरा न चढ़ा, न ही टाल का लोहे
का दरवाज़ा खुला और न ही मोहल्ले भर को ढ़कने वाली धूल ही उड़ी,न ऊंटों पे बंधे महमिल
आये न बड़ी बड़ी आँखों वाले बैलों की बुग्गियां ही उसगली में दिखीं| एक दिन वो लौट आया वज़न एक चौथाई और रंग राख़ सा
ले कर| चम्पा ने उसे देखा पर वो सीधा दनदनाता हुआ घर में घुस गया| उस रात चम्पा ने
गले में पहनी सपनों की माला उसी स्वर्गाश्रम की चौखट पर रख छोड़ी जिसके सामने उदास
जमना बहती थी| फिर एक दिन उसे अपनी बालकॉनी में एक पर्ची मिली और उसने अपने जूतों
की तस्में बाँध ली|
..........................................
“क्या सच ही उसके घर से नक्शे मिले
थे?” उसने चम्पा से पूछा|
“मेरे ख्याल से नहीं|”
“तो फिर|”
“जब समाज का तारतम्य बिगड़ने लगता है
तो जो घर कमज़ोर हदों में आता है उसकी नीवों पर लोग हमला कर देते हैं| उसका घर
मोहल्ले भर में गिने-चुने घरों में से एक था| आगे पीछे सात गलियों में एक ही जैसे
हरसिंगार के बीच मौलसिरी|”
“तुमने अपनी माँ से कभी कुछ पूछा
नहीं?”
“पूछने की कोई ज़रूरत ही नहीं होती जब
सब पता हो, और फिर पूछने लायक वक़्त ही नहीं था मेरे पास| उन दिनों इतना होश ही
कहाँ था| चीज़ें बहुत बाद में ठहर कर देखने में समझ आती हैं|
“कैसे?
“जिन चौधराइन की ठार पर, अमरुद के बाग़
के बीच मंदिर से हो के तलैया वाले रास्ते में हम मिलते थे, वहीं चौधराइन ने देख
लिया था| चौधराइन के चौड़े हाथ की धमक अभी भी मेरे कान में कभी-कभी दर्द कर जाती
है|
“जात का मुसल्ला, इससे मिलना जुलना है
तेरा| तेरी अम्मा को नहीं बता रही अभी| पर
अगली बार इसके साथ दिखी तो घौंटू तोड़ दूंगी तेरे|” चौधराइन ने मुझसे तो
इतना ही कहा पर अम्मा को सब बता दिया था शायद| चौधराइन के लम्बे-चौड़े व्यक्तित्व के सामने पूरा मोहल्ला
ही चुप रहता था,रहता भी क्यूँ नहीं सारा मोहल्ला उन्हीं की ज़मीन पर जो था|
“इस धोखेबाज़ी ने तुमको कोई चोट नहीं
दी चम्पा? यहाँ वहाँ भटकती रहीं| कभी रुक कर सोचा नहीं|”
“चोट क्यूँ नहीं दी| चोट नहीं दी होती
तो आज मैं तुमको यहाँ इस घर में कैसे मिलती?”
“ये घर?”
“कहते हैं कभी रामपुर रियासत की पहाड़ी
इलाकों में फैली हुई कई इमारतों में से एक इमारत ये भी है| अब देख लो रियासत गयी,
इस हवेलीनुमा नक़्शे के आन बान गयी|
और तयूर? उसका नक्शा,उसकी आन-बान,याद
नहीं किया उसका चेहरा| ”
“स्पंदन की गति,धड़कन की चाल ये लगातार
आपको बताती है कि हर चलने वाली चीज़ को एक दिन एक पल सहसा ठिठक के रुक जाना है| इसलिए
अब प्रेम, परिवार, लम्बे रिश्तों की धारणा में मुझे बिलकुल विश्वास नहीं है| ये बार-बार
घड़ी-घड़ीआपके मन में वहामे डालेंगे, एक दूसरे को ले कर मन भी मैला होगा कई दफ़ा| सो
इन अजब सी उलझनों से बचने का रास्ता खोजना चाहिए| दिल जैसी एक दिन रुकने वाली चीज़
की रफ़्तार बार-बार क्यूँ घटाई जाए| ख़ुसूसियत,दोस्ती,गहरे सम्बन्ध,प्यार ये सब
हवा-हवाई बातें हैं| सो आप ये न समझिये कि मेरे साथ इस टूटे फूटे घर में, मेरे
कमरे में हैं तो मेरे दिल में भी हैं| अब मेरा दिल बहुत रूखा और तंग है| इसमें
संबंधों की गुंजाईश बिलकुल ही नहीं| मेरी अपने घर वालों से ही नहीं बनी तो किसी और
से क्या बनेगी| जैसे कल को मुझे ये याद भी नहीं रहेगा कि तुमजाने कहाँ से कट
कर,टूट के इस आँगन में आ पड़े और मेरे साथ रहे| तुम कुछ भी नहीं एक बेचेहरा मुखौटा
हो बस|”
“तुमने कहा कि तुम नाच करती हो|” उसने पूछा|
“हाँ ..... क्यूँ पूछ रहे हो?”
“बस ऐसे ही| तुम्हारे घर में कोई
तस्वीर, मूर्ति नहीं दिखाई दी न शारदा की इसलिए|”
“कौन शारदा?
“सरस्वती, ज्ञान की देवी|”
“ह्न्नन्न्न्नन्न्न्न, तुम अफीम रखते
हो क्या अंटी में?”
“क्यों?”
“अजी हमारे लिए ज्ञान की देवियाँ अलग
हैं| हेलन,कुमकुम,पद्मा और विदेश की जिस देवी के पोस्टर हम लोगों के कमरे में पाये
जाते हैं वो मर्लिन है| हम किसी शारदा-वारदा को नहीं जानते| हम लोग दूसरे तरीके के
नाच करते हैं, जिससे तुम्हारी शारदा का कोई वास्ता नहीं|”
रात उसकी चौखट लांघ कर आज पहले ही
अंदर आ गयी थी| इंतज़ार उकताया हुआ दरवाज़े के नज़दीक ठिठका हुआ खड़ा था| दरवाज़ा
बार-बार हवा के झोंकों से खुलता और भिड जाता| इंतज़ार लगाव को,उन्स को कई बार ख़त्म
कर देता है और कई बार ज़िन्दा बनाये भी रहता है| विस्मृति में खोये राही दुबारा
लौटते ज़रूर हैं पर एक इंतज़ार करा के| कई बार बड़ा इंतज़ार दे कर लौटते हैं और कई बार
ऐसे जैसे रात को देखा सपना भोर का दरवाज़ा खटखटा कर भीतर चला आये| इस अनजान मेहमान
के संग कोई और भी मन के झाड़-झंखडो में से धूल झाड़ता साथ-साथ चला आया था|अनमनी सी
चम्पा ने देखा वो उसके पायंते बैठा हुआ था,उसके घुटनों पर हाथ रख कर|
“क्या सोच रही हो?” उसने पूछा|
“यही कि तुमने समय बन कर बड़े ज़ुल्म
किये हैं हम पर| तुमने हमारी हर उस आस को जो उपजाऊ है ख़त्म कर दिया| हमारे सीने
में दरारें भर दीं और ज़मीन की छातियों में तारों की बाड़ डाल दी| बुलबुलें सब ईरान
को दे दीं और हमारे राजा को अफ़ीम| बारिशें तब दीं जब हमारे चेहरों पर आंधियां मली
गयीं| दिल जैसी चीज़ जिसे हरा होना था उसे तुमने खूनमखून लाल रंग डाला|” वो एक सांस
में सब कह गयी|
वो एकटक उसे देखता रहा और फिर ज़रा
मुस्कुरा कर बोला|
“सुनो दिल को दिल ही रहने दो इसे
दरख़्त न बनाओ| जिस दिन ये दरख़्त बना तुम इसमें
कोंपलें ढूंढोगी और बाद में परिंदों के घोंसले| एक दिन इसी दरख़्त की जडें
रेशा-रेशा तुम्हारा दम चूस लेंगी| तुम ज़मीन के लोगों की यही मुश्किल है कि दिल से
खून बढ़ाने के सिवाय सारे काम लेना चाहते हो|
“कुछ खाने को दोगी, भूख़ लग आई|” वो बोला|
वो उठी और चुपचाप चौके में चली गयी|
.....................................
“सुनो क्या उसकी याद नहीं आती
तुम्हें? क्या तुम भूल गयी हो उसे?’
“हम पड़ोसी थे| आमने-सामने केमकान थे |
कांच के कारख़ाने में काम करता था वो| उसने ही पहली बार बाताया था मुझे कि छाती से हवा खींच कर
कैसे कांच में फूंकी जाती है| कैसे हवा के कतरे कांच में अंदर बिखर जाते हैं| कैसे
हवा का एक क़तरा काँपता हुआ होंठो से उतर दिल में भर जाता है| कैसे ज़रा सी आंच से
हीरे सा कांच मोम सा पिघल जाता है| कितना सामान बनता था उसके कारख़ाने में| हमारे
घर भी चूड़ियाँ उसी के कारख़ाने से आती थीं हिल्ल के लिए| सालों की पहचान,दोस्तीप्यार
में कब बदली मुझे पता ही नहीं चला| हमने कई बार घर से भागना चाहा पर हिम्मत न जुटा
सके| ”
“फिर उस दिन कैसे हिम्मत जुटा ली
तुमने?”
“उसकी एक चिट्ठी मिली थी साथ चलने की,
मुझे लगा नाराज़गी दूर हुई उसकी| फिर कभी–कभी भूल से हुए गुनाह का मोल भी चुकाना
पड़ता है| उन दिनों शहर के हाल ठीक नहीं थे| गली बोहरान (चूड़ी बाज़ार) में चूड़ी की
टोकरी रखने को हुए झगड़े ने शाम भर ही में शहर को अपनी लपेट में ले लिया| गलियाँ
जली,थाने फूंक दिए| शहर के सारे राहे-दोराहे,तिराहे-चौराहे मिनटों में जल उठे थे| इसी की आड़ में अम्मा एक
दिन अपना काम कर गयी|”
“कैसा काम ?”
“वही पुलिस को फ़ोन| शायद ये कहा था कि
बवाल में शामिल एक लड़का यहाँ छुपा हुआ है|”
“उसके बाद?”
“उसके बाद मैंने उसका इंतज़ार किया और वो
आया ही नहीं वहां| शायद उसने सोचा होगा ऐसे करकेसबके सामने मुझे भागी हुई लड़की
साबित करके मेरे घरवालों पे बट्टा लगा के वो अपना और अपने घरवालों की तकलीफ़ों ,उन
सब जलालतों का हिसाब चुका सकता है जो मेरे घरवालों से उन्हें मिले थे| एक भागी हुई
लड़की लाख सलाहियतों के बाद भी सबसे नीची सीढी पर होती है तुम्हारे समाज में|
“क्या पता वो वहां आया हो?”
“कौन जाने? वैसे उस दिन के बाद ये
झूठी उम्मीद मैंने कभी पनपने नहीं दी|
“कहाँ?”
“अपने घर|”
“आह! एक न एक दिन तो उन्हें पता चल ही
जाता कि मैंने कहीं भागने की कोशिश की थी वो भी उसके संग उसके बाद वो लोग मुझे मार
देते| चौधराइन के बेटे अपने ही बाग़ में कहीं दफ्ना भी देते और किसी को पता भी नहीं
चलता| दिन के पांच तोड़े सात रूपये के
हिसाब से लगातीथी तब पैंतीस रुपया रोज़ की कमाई थी| ऐसे ही फुटकर पैसे मेरा भाई,माँ
और पिता कमाते थे| वो मुझे सूखे टिक्कर तो खिला सकते थे पर दूसरी जात में दो ढंग
की रोटी खाने के लिए बियाह नहीं सकते थे|मैंने घर सब सोच कर जान-बूझकर छोड़ा था|जिंदा
रहने की ललक और चाह हर प्यार हर सम्बन्ध से बड़ी होती जिसे मैं दुबार उस घर में जा
कर दांव पर नहीं लगा सकती थी|”
“तुम बहुत केल्क्युलेटिव हो?”
“कुछ बुराई तो नहीं इसमें|मरने से दस
तरह बेहतर है कि आदमी अपना ठिया बदल दे|”कहकर वो चुप हो गयी|
बहुत देर चुप रहने के बाद वो ही बोली,
जैसे किसी बुख़ार की चपेट में आने के बाद कभी मरीज़ बडबडाने लगता है वैसे ही अचानक
उसने बोलना शुरू कर दिया|
“मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरा मन कोई
नमीदार जगह है| इस जगह किन्हीं दीवारों में से किसी एक पर एक गोल घड़ी टंगी
है,जिसकी तलहटी में कोई पहाड़ी कम बहाव की नदी और पीले छींट के पंखों वाली ख़ूब सारी
तितलियाँ हैं| नदी के कई हिस्सों में गोल चिकने सफ़ेद पत्थर बिखरे हुए हैं| कई बार
मुझे लगा है कि इन पत्थरों को कोई चुपचाप रात के अंधेरों में उठा कर ले जायेगा और
किसी मुरझाये हुए पौधे की गोद में रख देगा| कैसी मानता है जो पत्थर में सोये शिव
को ठंडी नदी के पास से उठा कर कहीं दूर किसी अनजान के पास रख आती है| कई बार जब
अतीत की कोई याद तपती हुई इस कमरे में इन तितलियों से मिलने चली आती है तो मेरा
सारा ध्यान बजाय उसका चेहरा देखने के उसके गर्म तलवों के गीले फ़र्श पर पड़ने से
निकलने वाले धुएँ पर चला जाता है| अब बहुत गौर करने पर भी कुछ चेहरानुमा चीज़ याद
नहीं आती| भूलना मेरे लिए सदा ही मुसीबत का बायस रहा है, भूलने से पहले मुझे घंटों
यहाँ तक की कई कई दिनों तक ये याद करना पड़ता है कि मन भूलना क्या चाह रहा है| मेरे अतीत के पास याद जैसी कोई चीज़ नहीं कि
जिसका चेहरा-मोहरा मेरे अन्दर कहीं बसा हो| चूँकि मेरा अतीत यादों के नाम पर बस
खाली हवा का पर्दा है, जो हिलता तो है पर उस पर कोई सिलवट नज़र नहीं आती| इसलिए
मुझे ऐसा लगता है की कभी आने वाले दिनों में भी मेरे पास कुछ ऐसा नहीं होगा जिसे
भूलने का उपक्रम करना पड़े| हाँ, जब भी कभी रात-बिरात मन के भीतर धुआं उठता है और उठ
कर बूँद-बूँद पहले से गीली दीवारों की सतह पर जम जाता है|तब एक हूक सी हड़बड़ा के उठ
खड़ी होती है| उस वक़्त भी मेरी आँखों के पास कोई ऐसा सरोकार नहीं होता जो मेरे मन
से कहे कि लो मैं जब चुपचाप आड़ से एक दरवाज़ा खोलूँ तो तुम उमड़ता-घुमड़ता हुआ ये
पानी कनपटियों की तरफ़ बहा देना| ऐसे मौकों पर मैंने महसूस किया है कि मेरी आँखें
नींद का बहाना कर पलकें झपका लेती हैं और मन ख़ामोशी से धुएँ में से पानी जमता
देखता रहता है| आँख को अगर कोई याद का चेहरा न मिले तो मन को कोई ऐसा पत्थर ज़रूर
मिलना चाहिए जिसे वो चुपचाप शिव मान कर किसी कोने में रख ले| मैंने तुम्हारा कितना
इंतज़ार किया कि तुम आओगे यूँ सामने बैठोगे और मुझ से बात करोगे| कितने ही बरस हुए
अब मुझे याद भी नहीं ...... मैंने झीलों जैसे नर्म सीले पाँव पर धूप बाँधी थी| पर
अब तलक न मन तक हरारत ही पहुंची है और न ही इसकी उदासी की नमी ख़त्म हुई है|
तुम्हारे होने न होने के बीच जो ख़ाली जगह है उसी की मिट्टी में मेरे अतीत का पेड़
अपनी जडें रोपना चाहता है,हरा होना चाहता है| तुम जाने कितने देशकाल,कितनी
शताब्दियाँ कहाँ-कहाँ भटक कर इस खंडहर से घर में आ गिरे| इस घर में जिसके रंग-रोगन
में मेरे अकेलेपन और उदासियों की सियाही की छींटे यहाँ-वहाँ बिखरे पड़े हैं|इस घर
का इस जगह का पानी भी सूख चुका है, यहाँ से लौट जाओ|
“क्या सच ही लौट जाऊं?”उसने एक अजब
लगावट से पूछा जिसे वो पल भर में ही पहचान गयी|
“मुझे लगावटों, स्नेह,अफ़ेकशन से
घबराहट,झिझक होती है| प्यार की गुंजाईश नहीं बची अब| मेरी जिदें ऐसे हरे ठूंठ हैं
जिन्हें तुम्हारी किसी भी चाहत का पानी मुफ़ीद नहीं| तुमको मुझसे कुछ हासिल भी नहीं
होना| सुबह तड़के निकल जाना|” कह कर उसने अपने घुटनों पर रखे उसके हाथ हटा दिए|
अगली सुबह वो लौट गया जैसे बरसात में टूट
कर सरसराता हुआ उसके आँगन में आ गिरा था,वैसे ही फुहार में चुपचाप उसकी देहरी से
उतर गया| गली के मुहाने तक पहुँचने में उसे कितने साल लगे उसे याद ही नहीं| इतना
ही याद है जब मोड़ से गर्दन घुमा कर देखा तो दरवाज़े की सलाखों पर उसकी उँगलियाँ लिपटी
हुई पाईं|घनी बदली में पल भर को एक बालिश्त चाँदनी छिटक कर बिखरी और चुपचाप आसमान
में खो गयी|
“चम्पा अपने दिल को दरख़्त होने से
बचाए रखना|”
जाने वो सुन भी पायी या नहीं पर वो
इतना कहते-कहते गली से बाहर निकल गया|
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अनघ शर्मा
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