लीलाधर मण्डलोई की कविता "अमूर्त" पर सुमन केशरी
कविताओं में जीने वालीं सुमन जी ने इधर उन्होंने कोई एक कविता चुनकर उस पर विस्तार से लिखना शुरू किया है जो हिन्दी की आत्मग्रस्ति से समीक्षाग्रस्ति तक सिमटी दुनिया में अनूठा सा काम है. चाहूँगा इस आपाधापी और कमेन्ट-लाइक की भागदौड़ से आगे ज़रा ठहर कर पढ़ा जाए.
लेख के साथ लगे सभी चित्र कवि लीलाधर मण्डलोई जी के कैमरे से
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लेख के साथ लगे सभी चित्र कवि लीलाधर मण्डलोई जी के कैमरे से
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अमूर्त- बेहद की हदों के ख्वाब देखने की लालसा तथा हद में बेहद को देखने का प्रयास
(लीलाधर मंडलोई की कविता “ अमूर्त” को पढ़ते हुए)
अमूर्त
जो होता है विसर्जित
मैं लाता हूँ स्मृति में
कोई बड़ा ख्याल नहीं है भीतर
मैं बहुत छोटी चीजों से बनाता हूँ
अपनी इक जुदा दुनिया
जिस पर निगाह जाना कम हो जाता रहा है
मैं देखता हूँ वहाँ और
इक पत्ती में अमूर्त के भीतर भी होता है अमूर्त बहोत
इक पूरा
ब्रह्मांड विस्मय
यह जो अदेखा अद्भुत है
आधार है मेरी कला का
आधा-अधूरा बिन पहचाना
बिखरा आस-पास बिना किसी नाम के
उसे ही अपने सौंदर्य बोध से
देता हूँ इक पहचान और
इक नाम
इक सूखे
-बिखरे फूल को
मुरझाए पौधे को
पेड़ के खोखल में उभर आई आकृति को
जैसे मिल गये मुझे गांधी,
मुक्तिबोध,
शमशेर,
देवताले,
ऋतुराज अपने लिखे से बाहर दरख़्तों में
मिल
गयी माँ की अमूर्त छवि
पिता का बिंब
गांव के कोटवार का खो गया चेहरा
मैसो डुकरिया का झुर्रियों से भरा पोर्टेट
पत्थर-चट्टान में
जंगल से गुजरने से बार-बार चूका मैं
रुका रहा एक परिंदे की खातिर
जो उड़ गया नज़र में आकर
मैं उसके इंतज़ार में रहा
मैं रूका कितनी-कितनी चीज़ों के लिए
और खुलती गयी तिजोरी क़ायनात की
चीज़ों ने ही खोले रहस्य इस अनाड़ी को
अनाम रंगों,त्वचाओं,आकारों,टोन के
अजूबों,बोलती लयों,
संरचनाओं के आश्चर्य और
वे चित्र नसीब में
,जो सिर्फ क़ुदरती थे
मेरी कल्पनाओं को जो उड़ान मिली
वो इस तरह ज़िन्दगी में कभी न थी
मैं न था कोई
कवि, कोई कलाकार
लेकिन कुछ बदलता रहा भीतर
और मैं इक कोई
दूसरे दीवाने
शख़्स में बदलने लगा,
मैं था सूखी मिट्टी का ढेला
मैं भीग रहा था
कुछ और
होने को
जो कुछ भी खो रहा था
मैं जीने लगा अमूर्त से मूर्त और
इसका उलट
देखा जिस किसी जीव को
उससे अधिक अमूर्त कुछ न था
यहां तक मनुष्य
मैंने पंखों को अबेरने का पागलपन
ज़िदा रखा
और रंगों में डूबता गया
उनके स्पर्श ने मुझे कोमल बनाया
मैं जो बदनाम था अपनी बेजा लड़ाईयों
और मार-पीट के लिए
होता गया इतना भावुक कि रोने लगा
देखकर किसी का दुःख
अब मेरा भाव जगत ऐसा हो रहा था
जिसे
लोग मानसिक व्याधि पुकारते थे
यकीनन जो परिवार की परेशानी का सबब था
पढ़ाई के लिए छूट गया गांव-जवार
मैं उसे आँसुओं के बीच ले आया साथ
इस दुनिया में नामुराद मैं
बदला नहीं बल्कि बिगड़ता गया और ख़ुश हूँ
हूबहू उसी शक़्ल-ओ-दिल से जुदा,जो हूँ
वो इतना ख़ूबसूरत-ख़राब है
कि बग़ैर उसके कुछ भी नहीं
मैं रोज़ रात और दिन निकलकर देखता हूँ जो
आम नहीं
मैं अजाना-अचीन्हा देखते-पाते
गुज़र जाना चाहता हूं अपनी हदों से
मैं बेहद की हदों के ख़्वाब देखता जीना
चाहता हूँ
लीलाधर मंडलोई की यह कविता-
अमूर्त-
अपने एसेंस में कविता,
कला की रचनाप्रक्रिया को समझने और व्यक्त करने का कवितामय प्रयास है।अमूमन रचनाप्रक्रिया को गद्य में कहने का चलन है,
किंतु कवि ने कविता को इसके माध्यम के तौर पर चुना है,
अथवा यहाँ खुद कविता ही अपने अथवा वृहत्तर अर्थ में कला की अभिव्यक्ति का माध्यम बन रही है।
कोई भी रचना वस्तुतः काल को चुनौती है। वह मृत्यु के खिलाफ़ प्रकृति का उद्घोष है।
विसर्जन का अर्थ ही है-
त्यागना। सदा के लिए किसी वस्तु अथवा पदार्थ का अपने हाथों अंत कर देना। फिर शेष रह जाती हैं स्मृतियाँ। कवि लीलाधर मंडलोई ने अपनी कविता
“अमूर्त”
की आरंभिक दो पंक्तियों मे
“विसर्जित”और “स्मृति” दोनों शब्दों का प्रयोग करके कविता के शीर्षक-
“अमूर्त”
को एक संदर्भ में रख दिया है। विसर्जन कहते ही अस्थि विसर्जन का ध्यान हो आता है। जो व्यक्ति जीवित अवस्था में मूर्त होता है,
वह मृत्यु के उपरांत अस्थि-विसर्जन की प्रक्रिया संपन्न होते ही अमूर्त हो जाता है। अमूर्त को अगर निर्गुण के तौर पर पढ़ा जाए,
तो उसकी व्याप्ति का कोई पारावार नहीं। और यह कविता इसी अमूर्त के मूर्तन और मूर्त के अमूर्तन का उत्सव है।
तो पहली पंक्ति में कवि कहता है-
जिसका विसर्जन हो चुका है,
उसे मैं पुनः स्मृति में लाता हूँ,
यानी उसकी याद दिहानी करता हूँ। कविता या साहित्य अथवा शब्द से रचित किसी भी रचना का लक्ष्य ही है,
किसी विचार या भाव अथवा दोनों को साथ मिलाकर किसी घटना अथवा सामाजिक-राजनैतिक- आर्थिक स्थिति को स्मृति का हिस्सा बना देना। यहाँ पर श्रुति और स्मृति की अनुगूंज सुनें। वेद श्रुति हैं-
कैननाइज्ड-
रूढ़, जबकि स्मृतियों में पुनर्व्याख्या की निरंतर संभावना है। ये प्रवहमान हैं-
ठीक कविता की तरह,
जिसे जितनी बार पढ़ें,
एक भिन्न अर्थ अनुगूंजित होता है। यहीं ध्यान करें,
इस पंक्ति पर-
कोई बड़ा ख्याल नहीं है मन में। इस पंक्ति को पढ़ते ही संगीत के
“ख्याल”
की याद हो आई,
जो कि ध्रुपद की ही एक शैली मानी जाती है और जिसे द्रुत और विलंबित दोनों ही लयों में गाया जाता है। कवि बहुत विनम्रता से कहना चाह रहा है है कि वह विस्मृत हो गए को याद दिला रहा है और बस-
उसका कोई बड़ा मकसद नहीं है-
किंतु वह कविता ही क्या जिसकी अनुगूंज अतीत से निकल कर दूर भविष्य तक न गूंजे?
सुने कवि की मुराद कि वह चाहता है कि भले ही वह माने कि उसका कोई बड़ा मकसद नहीं है,
पर उसके शब्द अमर हो। याद करें जायसी को,
जब वे पद्मावत में कहते हैं कि
“ जो यह पढ़े कहानी हम संवरे दुई बोल!”-
किसी भी रचनाकार की यही ख्वाहिश होती है कि वह रहे न रहे,
उसके बोल बने रहें सदा।
अगली पंक्ति इसी का जैसे विस्तार करती है कि कवि बहुत छोटी चीजों से बनाता है एक जुदा-
इस जुदा शब्द पर पुनः ध्यान दें-
अलग दुनिया बना रहा है कवि,
ऐसी दुनिया जिसपर अमूमन ध्यान नहीं जाता। बनाना-
यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्रिया है-
बनाना माने निर्माण करना-
निर्माण में कुछ नवीनता है-
निर्माता यानी प्रजापति-
यहाँ यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि कवि का एक अर्थ प्रजापति भी है-
अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः ।
यथा वै रोचते विश्वं तथेवं परिवर्त्तते
ध्वन्यालोक में पंडित आनंदवर्धन ने कवि को इस रूप में व्याख्यायित करते हुए,
उसके रचनाकर्म की महत्ता को प्रजापति के समकक्ष माना है,
क्योंकि कवि अथवा लेखक-चिंतक मनुष्य के मानस को बनाकर विश्व के स्वरूप का निर्धारण-निर्माण करने वाले हैं।
कवि का काम ही है,
उन भावों-प्रक्रियाओं की ओर पाठक/
प्रेक्षक का ध्यान आकर्षित करना जिस ओर ध्यान नहीं जाता। कवि एक पत्ती को अपनी रचना में कुछ इस तरह दिखाता है कि उसमें अखिल ब्रह्मांड दृष्टिगत होता है।यह मूर्तन के परे अमूर्तन का खेल है। मूर्त रूप में पत्ती पत्ती है-
किंतु किसी खास कोण से देखने अथवा चित्रित करने अथवा शब्द द्वारा प्रस्तुत किए जाने पर उस पत्ती के अर्थ का,
रूप का विस्तार ऐसा हो जाता है कि वह कई कई अर्थों में खुलने लगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका अपना एक ब्रह्मांड है-
और उसमें जाने कितने-तारामंडल अपने अपने ग्रहों-
उपग्रहों के साथ मौजूद हैं।
ऊपर लिखा गया है कि अमूर्त को निर्गुण की तरह पढ़ें। सगुण रूप गुणों को सीमा में बांधता है,
किंतु निर्गुण में सगुण समाया है,
और उसके परे भी है। यह परे जाना ही अर्थ विस्तार का कारण भी है और उपादान भी।
अगले छंद में कवि ने कला को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। उसके अनुसार जो अदेखा है-
अद्भुत है-
ध्यान करें कि इस अदेखे को अद्भुत ढंग से देखने की आँख कवि के पास है,
अन्यथा वह अदेखा न रह जाता। भला सुंदर फूल या दृश्य कभी अदेखा रहता है?
वह तो स्वतः अपनी ओर ध्यान आकर्षित करता है। तभी तो सुंदर का एक गुण आकर्षक भी माना जाता है। इसी के उल्टे विकर्षक भी ध्यान खींचता है,
भले ही देखते ही आप आँख फेर लें,
किंतु उसमें भी गुण है,
ध्यान खींचने का। तो कवि अपने आसपास बिखरे
- आधे-अधूरे, बिना नाम अथवा पहचान के तत्त्वों को
“अपने सौन्दर्यबोध”-
बहुत महत्त्वपूर्ण है यह पदबंध-
सौन्दर्यबोध—
इसे अदेखा करना-
कला की रचना प्रक्रिया को न समझने देगा। दुहराती हूँ इसे कि कवि “अपने सौन्दर्यबोध”
का उपयोग करके अनाम-
अपहचान वाले तत्त्व को एक नाम और पहचान देता है।आपने कई बार सुना या महसूस किया होगा कि
“ऐसा ही तो मैं सोचती या समझती थी किंतु शब्द नहीं दे पाती थी।” यही है वह बात जिसके लिए आनंदवर्धन कहते हैं कि कवि जैसा चाहता है,
विश्व को उसी रूप में प्रस्तुत करता है। तो जो अदेखा छूट गया,
क्यों कि उसमें कोई खास बात साधारण देखने वाले को न लगी,
उसे कवि लीलाधर मंडलोई अपने सौन्दर्यबोध के माध्यम से एक नाम और रूप दे देते हैं। उसकी पहचान को रेखांकित कर देते हैं। वे जानते हैं कि अब उस पर ध्यान जाएगा,
अब वह अदेखा न रह जाएगा।
अगला पैरा इसे विस्तार देता है। कवि बताते हैं कि किसी सूखे-बिखरे फूल को,
मुरझाए पौधे को,
पेड़ के खोखल में उभर आई किसी अकृति को जब उन्होंने अपने सौन्दर्यबोध से देखा तो उनमें उन्हें गांधी,
मुक्तिबोध,
शमशेर,
देवताले,
ऋतुराज अपने लिखे से बाहर दिखे।यहाँ ध्यान दे कि कवि ने
“को” धातु का प्रयोग किया है-
“में” का नहीं। माने यह कि को कहते ही उसमें कवि-रचनाकार का हस्तक्षेप दिखाई पड़ने लगता है। कोई खोखल गांधी नहीं है,
बल्कि रचनाकार ने खोखल को इस रूप में सामने रखा है कि देखने वाला चौंककर गांधी को उसमें देखता है। इनमें हम इन लोगों की रचनाओं को पढ़ सकते हैं या उनकी आकृति को भी देख सकते हैं।
‘अंधेरे में”
की ये पंक्तियाँ मंडलोई की कविता से किस तरह मेल खा रही हैं,
यह देखने की बात है-
“इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलस्तर,
गिरती है चूने-भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह--
ख़ुद-ब-ख़ुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट है,
दृढ़ हनु
कोई अनजानी अनपहचानी आकृति..”
अगली ही पंक्तियों में कवि अपनों की छवि को देखता है-
माँ की अमूर्त छवि-
यहाँ अमूर्त शब्द बहुत मानीखेज है। और इसी तरह से पिता के लिए बिंब का प्रयोग। यह माँ और पिता को शब्द के विस्तृत अर्थ में देखने वाली बात है। उन्हें उनके व्यक्तित्व व चरित्र के सीमित दायरे से बाहर निकालने का प्रयास। लार्जर देन लाइफ़ जैसा कुछ। माँ और पिता के प्रति कृतज्ञ प्रेम का सूचक। कुछ उऋण होने की कोशिश। क्योंकि वैसे तो पिता का चेहरा कोटवार में खो गया है। गाँव के प्रशासन का हिस्सा होकर दूर होते गए पिता को कविपुत्र द्वारा आत्मीय रूप से याद किए जाने को पढ़िए।पढ़िए कामकाज में सदा लगी रहने वाली माँ जो जितनी पास होती है,
अपनी व्यस्तता के चलते उससे कहीं दूर, उसको याद करने का प्रयास जिसमें उसका चेहरा उतना मूर्तिमान नहीं होता..किंतु उसकी व्याप्ति बहुत अधिक होती है। कवि केवल अपने माता-पिता की छवि ही नहीं देखता बल्कि गाँव की मेसो डुकरिया(बुढ़िया) का झुर्रियों भरा पोर्ट्रेट नुमा चेहरा भी पा जाता है किसी पत्थर-चट्टान में। इसे पढ़ कर जाने क्यों मुझे माइकेल एंजेलो द्वारा किशोरावस्था में बनाया किसी वृद्ध का चेहरा याद आ जाता है। यह पाठ मैंने स्कूल की किसी छोटी कक्षा में पढ़ा था। इसे पढ़ाया था मेरे पिता ने। यह मेरे मन में अमिट भाव से अंकित हो गया है। माइकेल ने चेहरे के गाल के निचले हिस्से को अपनी छेनी-हथौड़े से थोड़ा पिचका दिया। जब उनसे पूछा गया कि ऐसा उन्होंने क्यों किया तो उनका जबाब था कि बुढ़ापे में जब दाढ़ गिर जाती है तो गाल पिचके से लगते हैं। बूढ़े का चेहरा गढ़ते समय वहाँ का उभार कम करना जरूरी है।यहाँ कवि चट्टान में झुर्रियों भरा चेहरा देखता है। चट्टान हवा-पानी से कैसे कटी होगी कि वह डुकरिया के चेहरे से मेल खाने लगी। रचनाकार की कल्पना तो देखें। देखें कि किसी पोर्ट्रेट को कैसे कविता में तब्दील किया जाता है। अमूर्तन से मूर्तन और पुनः शब्दों द्वारा-मूर्तन। मूर्तन-अमूर्तन का सतत खेल-
कल्पना की लंबी उड़ान को न्योतते शब्द-चित्र।
अगला छंद जंगल के अकूत आकर्षण का बयान है,
जहाँ एक चिड़िया की झलक एक बार फिर से देखने के लिए कवि जंगल को पार करना भूल जाता है। शब्द है
“चूका”
- “जंगल से गुजरने से बार बार चूका मैं।”
असफल हुआ कवि। जंगल उसके भीतर बसा रह गया। वह जंगल से बाहर आ ही नहीं पाया। यह बात वही कवि कह सकता है,
जिसका बचपन घने जंगलों में बीता और जो जंगल का ही सदा बना रहा। जिसने न जाने कितनों को
“जलावतन”
होते देखा और कितनों को खत्म होते।
“काला पानी”
भी तो नष्ट हो रही जनजातियों की स्मृति को जीवित रखने का प्रयास है। लौट लौट कर वापस मूल की ओर जाने की लालसा। कविता के शब्दों में उड़ गई चिड़िया को पुनः देखने की लालसा। भले ही वह इंतजार फलीभूत न हुई हो,
किंतु ऐसे प्रयास कभी विफल नहीं होते और कवि कहता है कि प्रकृति ने सारे कायनात खोल दिए और ऐसे ऐसे रहस्य दिखाए
, जिसमें रंगों,
त्वचाओं,
टोन के अजूबों,
बोलती लयों,
संरचनाओं के आश्चर्य सभी कुछ था। यह प्रकृति की भेंट थी अपने अनथक यात्री के लिए। यह जो प्रकृति को देखना है,
उसकी समग्रता में,
यह मंडलोई की अपनी प्रकृति के सर्वथा अनुरूप है। प्रकृति की यह छवि मुझे भवानी प्रसाद मिश्र की कविता
“सतपुड़ा के घने जंगल”
की अंतिम पंक्तियों की याद दिला देती है-
धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर
और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा
के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।
कवि जिन चित्रों को देखता है,
वे कुदरती थे,
और कवि के नसीब से ही दिखे ते। नसीब
- महत्त्वपूर्ण प्रयोग है,
जो कविता की,
रचनाशीलता की रहस्यमयता को उजागर करता है।
प्रकृति के इस सान्निध्य से कल्पना प्रदेश को तो उर्वर होना ही था। यह कवि की विनम्रता है कि वह स्वयं को कवि कलाकार नहीं मान रहा बल्कि अपनी रचनाशीलता का श्रेय प्रकृति को दे रहा है।
“गॉड गिफ़्टेड”
की तरह पढ़ें। यही कवि प्रकृति भी है।
अगली पंक्तियाँ बरबस कबीर की याद दिला देती हैं-
मैं था सूखी मिट्टी का ढेला
मैं भीग रहा था
कुछ और होने को-
पत्थर भीगने के बाद भी पत्थर ही रहता है,
भले ही वह भीगते भीगते घिस जाए। किंतु मिट्टी भीग कर कोमल हो जाती है,
उसमें कुछ और बनने की,
किसी अन्य रूप में ढलने की क्षमता आ जाती है। कवि ह़दय में यही नमनीयता है जो उसे कल्पना के पंख देती है और कुछ भी निर्भीक होकर रचने की प्रेरणा भी। यहाँ कवि को रचनाकार के व्यापक अर्थ में देखने की जरूरत है।
यहाँ कवि पुनः खो जाने वाले जीवों-
तत्त्वों की बात ले आता है। जो कुछ भी खो रहा था उसे स्मृति में बांधने की प्रक्रिया है रचनाशीलता। कहीं भूल न जाएँ इसीलिए उसे लिख लिया जाए,
उसके चित्र अंकित किए जाएँ,
फोटो खींच ली जाए यानी कि उसकी पुनः पुनः रचना की जाए।ताकी बचा रहे वह अगली पीढ़ियों के लिए। यह मनुष्य होने का प्रमाण है कि हम विरासत छोड़ते हैं। शब्दों,
रचनाओं,
अर्थों सबकी विरासत। जब कोई कलाकार के तौर पर किसी जीव को देखता है तो वह थ्री डाइमेंशन वाली अनुकृति भर नहीं होता,
बल्कि उसमें वे कई कई अर्थ समाविष्ट हो जाते हैं,
जो कवि-रचनाकार दिखाना-बताना चाहता है। और वे मूर्त होकर भी अमूर्त यानी कि व्यापक अर्थसंदर्भ पूर्ण हो जाते हैं। कवि अपने विषयों को कुछ इसी तरह देखता है,
और पाठक को भी इसी तरह उन्हें देखने को कहता है। दरअसल यह कविता एक तरह से कवि का कथन है अपनी रचना प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए।
अगली पंक्ति पंखों को अबेरने यानी कि समेटने की बात करती है। पंख समेटना-
क्या तूलिका बनाने के लिए,
कलम बनाने के लिए या फिर पंख माने अनेक रंग अनेक संभावनाएँ!
या फिर पंख समेट कर ऊंची उड़ान भरने की तैयारी के लिए। चिड़िया उड़ने से पहले पंख समेटती है,
हवा में ऊँची छलांग लगाने के बाद ही वह उन्हें फैलाती है। उड़ना,
समेटने और फैलाने की क्रमवार क्रिया है। यहाँ कवि इस अर्थ में भी इसका प्रयोग कर रहा है। लेकिन इस अर्थ में भी जिसका संकेत ऊपर की पंक्ति में है,
पंख समेट कर तूलिका वत् उन्हें रंगों में डुबो कर कृति की रचना करना। पंख अबेरती चिड़िया का यह बिंब जे.
स्वामीनाथन की चित्रकृतियों की चिड़ियों की याद दिलाता है। याद करें कि उन चित्रों में भी चिड़ियाँ पंख अबेरे हुए हैं,
लेकिन वे तिरती प्रतीत होती हैं। रचनाकार की इस साधना ने उसके क्रोध का भी शमन किया और उसे भावुक बनाया। परकाया प्रवेश किसी भी रचना के सहृदय पाठ के लिए आवश्यक है। इसीलिए कहा जाता है कि साहित्य पाठक को अधिक मनुष्य बनाता है,
क्योंकि तब पढ़ने वाला दूसरों की स्थितियों और भावनाओं को बेहतर ढंग से समझने में समर्थ होता है। आज जब साहित्य-कला की पढ़ाई सिरे से गायब है तो हम मनुष्य को मशीन व रोबो में बदलते देख रहे हैं। उसकी भावनाओं को केवल अपने या अपनों तक सिमटते देख रहे हैं। यह मनुष्यता के लोप के दिन हैं। ऐसे में लीलाधर मंडलोई की यह कविता और अधिक प्रासंगिक हो उठती है,
जिसमें कवि यह स्पष्ट कहता है कि रचनाशीलता ने उसके भीतर के मनुष्य को पुनर्जीवित कर दिया है। वह लड़ने की बजाय दूसरों के दुख में भावुक होने लगा है। उसकी आत्मा का विस्तार स्व से पर की ओर सहज ही हो रहा है।
किंतु ऐसे भावुक मनुष्य को आज का समाज मानसिक तौर पर बीमार मानता है। कैसी विडम्बना है। जो मनुष्य है वही आज के समाज में पागल कहलाता है। किंतु कवि इसे नजरअंदाज करते हुए हमें सूचित करता है कि जो गांव-जवार पढ़ाई यानी कि आधुनिक सभ्यता को साधने के चक्कर में छूट गया उसे आँसू वापस ले आए। स्मृति की यही भूमिका है कि वह पुनर्सर्जना के लिए मनुष्य को प्रेरित करती है।
अगली पंक्तियों में कवि स्वयं को नामुराद कहता है-
वह जिसकी कामना कोई नहीं करता। किंतु कवि अपने इस बिगड़े हुए रूप में
, जिसमें वह जो विसर्जित है,
उसे स्मृति में लाने के काम में डूबा है,
को बहुत खुशी से कबूल करता है। उसका रूपरंग तो वही है,
किंतु उसके मानस में,
दिल में बदलाव या कहें कि विस्तार आ गया है। वह उसे खूबसूरत और खराब साथ साथ कहता है। खूबसूरत साथी सहृदयों के लिए और खराब जमाने के लिए। जो जमाना है,
वह आम को ही महत्तव देता है। सब मशीन से निकले एक तरह के कलपुर्जे,
जिनके लिए दिमाग खपाना न पड़े। एक ही चाबुक से जिन्हें हांका जा सके। यह बाजारवाद ऐसे ही तो मशीनी मानव बनाना चाहता है,
जो एक तरह से सोचें,
खुश हों और रोएँ। कवि इसी से अलग होना चाहता है और अजाना-अनचीन्हा देखना और पाना चाहता है। यहाँ हम कविता की उस दृष्टि के बारे में बात कर सकते हैं,
जिसे फर्डिनेंड डि सिस्योर
“ओस्त्रानेनी”
के नाम से अभिहित करते हैं। यानी कि किसी भी चीज को यूँ देखना मानो पहली बार देखा हो। बालक की दृष्टि,
जिसमें वह चीन्हता-बूझता है-
पहली पहली बार और जो उसके दिमाग में सदा के लिए अंकित हो जाता है। कवि ऐसे ही देखना चाहता है,
अपने परिवेश को,
मनुष्य को भी । और इस तरह देखने वाला क्या हदों में बंधा रह सकता है-
जो मूर्तत में अमूर्त और अमूर्त में मूर्त गढ़ता हो,
वह हद से गुजरता ही है।
अंतिम पंक्ति पढ़ें-
“मैं बेहद की हदों के ख्वाब देखता जीना चाहता हूँ।”
यहाँ मडलोई हद के बेहद की बात नहीं कर रहे,
बल्कि बेहद के हद की बात कर रहे हैं यानी कि अनंत को साध कर प्रत्यक्ष करने,
उसे हस्तामलकवत् बनाने की बात कर रहे हैं। यही कविता के आध्यात्मिक क्षण हैं,
जहाँ कवि एक विराट अनुभव से गुजरना चाहता है,
रोज रोज के चिक-चिक से परे,
एक आनंद की प्रतीती,
जहाँ रंग हैं,
आकार हैं,
लय और संरचाएं हैं और भाव जगत का अप्रतिम विस्तार है।
क्या यहाँ हमें कबीर यह गाते सुनाई नहीं पड़ रहे-
हद्द छाड़ि बेहद गया,
किया सुन्नि असनान।
या फिर यह कि
""हद छाड़ि बेहद गया,
रह्या निरंतर होय।
बेहद के मैदान में,
रह्या कबीरा सोय।।''
कवि मंडलोई इन दिनों फोटोग्राफ़ी कला की साधना में रत हैं। उनकी यह कविता दरअसल काव्य और फोटोग्राफ़ी को नए सिरे से समझने का प्रस्ताव करती कविता है। इसमें प्रयुक्त शब्दों को देखिए,
वे देशज,
अरबी, फारसी, तत्सम-तद्भव सभी का सहज प्रयोग करते हैं। यहाँ विसर्जित और स्मृति भी है और निगाह,
जुदा और दरख्त भी हैं।एक पूरी पंक्ति देखें-
इस दुनिया में नामुराद मैं
बदला नहीं बल्कि बिगड़ता गया और ख़ुश हूँ
हूबहू उसी शक़्ल-ओ-दिल से जुदा,जो हूँ
वो इतना ख़ूबसूरत-ख़राब है
कि बग़ैर उसके कुछ भी नहीं
कविता छंद-मुक्त है पर एक लयात्मकता सहज अनुस्युत है। अपने में एक भरी-पूरी कविता-
रचना-कलाकृति!
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जन्म : 15 जुलाई, मुजफ्फरपुर, बिहार ।
सुमन केशरी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नईं दिल्ली से सूरदास पर शोघ किया है तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया, पर्थ से एम बी. ए. ।
सुमन केशरी लम्बे समय तक भारत सरकार में प्रशासन सम्बन्धी कार्य करती रही हैं | लेखन एवं अध्यापन में गहरी रुचि के कारण सन 2013 में ही उन्होंने भारत सरकार से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर आई.टी.एम. ग्वालियर में मैनेजमेंट का अध्यापन किया । प्रशासन से शोघ एवं अध्यापन तक के गहन व व्यापक अनुभवों के फलस्वरूप सुमन की कविताओं का फलक अत्यन्त विस्तृत है । इन कविताओं की भावसघन और विचारोत्तेजक सृजनात्मकता न केवल रूपविधान में, बल्कि मिथकों के आधुनिक अर्थान्वेषण में भी व्यक्त होसी है | उनकी कविताएँ शब्द की शाश्वतता और निरन्तरता में कवि की आस्था को रेखांकित करती कविताएँ हैं ।
उनके दो काव्य संग्रह प्रकाशित है –याज्ञवल्क्य से बहस (2008) और मोनालिसा की आँखे ( 2013) । तीसरा संकलन शब्द और सपने (2015) ई-बुक के रूप में प्रकाशित हैं । मोनालिसा की आँखे संग्रह का अनुवाद मराठी एवं राजस्थानी भाषाओं में हुआ है और उनकी अनेक कविताओं का अनुवाद अग्रेजी फ्रेंच, नेपाली एवं मराठी भाषाओं मेँ हुआ है ।
इस नए संकलन का कविताओं में, हम कवि को लोकतांत्रिक मिजाज और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सामने आए संकटों से टकराते हुए तो देखते ही है, साथ ही प्रकृति की उस उपस्थिति से संवाद करते भी देखते है, जो दिनो दिन छीजती चली जा रही है ।
टिप्पणियाँ
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खूब-खूब बढ़िया...
फ़िरोज खान को ऐन अकरेंस ऐट आउल क्रीक ब्रिज़ की याद हो आई। साहित्य का काम ही है मन के उस कोने में आपको ले जाना, जो अदृश्य हो जाता है। कवि लीलाधर उसी को तो अबेरने में लगे हैं। इस स्मृतिविहीनता के दौर में हम रचनाकारों के लिए बहुत जरूरी हो गया है, संस्कृति के उन पहलुओं को बचाए रखना, जो उस दौर में काम आएँगी, जब इनकी बहुत जरूरत होगी। दरअसल हम genes बचाने में लगे कलाकार हैं। बहुत शुक्रिया फ़िरोज