अनुराग अनंत की कविताएँ
अनुराग अनंत की कविताओं से मेरा परिचय नया है. इनमें लगभग वह सबकुछ है जिसकी तलाश हम एक युवतर कवि में करते हैं - ऊब, चिढ़, बहुत कुछ या कहिये सब कुछ कह जाने की जल्दबाज़ी, ज़िद, मासूमियत और एक खरा गुस्सा. अपने आस-पास के परिवेश से लेकर देश-दुनिया के तमाम हिस्सों में होने वाली उथल-पुथल तक वह भटकते दीखते हैं और इनके बीच उनके कुछ ऑब्जर्वेशन बेहद मानीखेज़ हैं.
असुविधा पर उनका स्वागत और ढेरों उम्मीदें
भूख के भेष में जिंदगी
और जिंदगी की शक्ल में सपने
चलते रहें हैं हमारे साथ
और हम चलने के नाम पर
ठहरे रहे हैं कहीं
भूख और सपनों के बीच
उजाले के भरम में
अँधेरे को चुना है
हर बार, बार
बार
और एक गीत
जिसका कोई खास मतलब नहीं होता
भूखे और सपनीले लोगों के लिए
हमने खूब गाया है
उलझन को गूंदा है, चिंता
को बेला है
और मजबूरी को सेंक कर खाया है
आजादी के बाद देश ऐसे ही चलते आया है
दर्द का दाग तिलक सा सजाकर
भीतर रो कर बाहर मुस्का कर
खड़े हैं हम फैक्ट्रियों से लेकर खदानों तक
मॉल के स्टालों से लेकर खेतों-खलिहानों तक
हमने जाना है कि दर्द एक जंगल है
जिसमे आग लगी है
हम बाहर निकलने के लिए गीत गा रहे हैं
कविता लिख रहे हैं
और नारे लगा रहे हैं
कभी कभी हम ईश्वर का भी नाम लेते हैं
पर पहले से ज्यादा फंसते जाते हैं
जीना मजबूरी है इसलिए हम जीते हैं
रोटी की ढपली पर जीवन को गाते हैं
चाहने के नाम पर हमने चाहा है
जी भर जीना
पेट भर खाना
और नींद भर सोना
पर बहुत चाहने के बाद भी हम ये कहाँ पाते हैं
पर बहुत चाहने के बाद भी हम ये कहाँ पाते हैं
हम लोग भूख और सपनों के बीच उलझे हैं
समझने के नाम पर बस इतना समझे हैं
क्या
लोकतंत्र में यही होता है ?
इश्तिहारों में छपे चेहरे
जब देश की नियति तय कर रहे हों
और भ्रम की नींव पर खड़े
आज़ादी के किले ढह रहे हों
जब चौराहों पर खड़ी, बैठी और चलती लाशें
जल्लादों को मसीहा बताने पर तुलीं हों
तब उस वक्त रोटी के सवालों पर लड़ता आदमी क्या करेगा ?
क्या कहेगा ?
जब देश की नियति तय कर रहे हों
और भ्रम की नींव पर खड़े
आज़ादी के किले ढह रहे हों
जब चौराहों पर खड़ी, बैठी और चलती लाशें
जल्लादों को मसीहा बताने पर तुलीं हों
तब उस वक्त रोटी के सवालों पर लड़ता आदमी क्या करेगा ?
क्या कहेगा ?
ख़ामोशी के इस महापर्व में
क्या पसीने के साम्मान में खून बहाने वाले भी खामोश हैं
या हमें ही नहीं सुनाई देती
उनकी आवाजें
चीखें, और ललकारें
उनके सवालों का लश्कर न जाने कहाँ है ?
उनके खून में बहती जलन
और सांस में बैठी घुटन का
न जाने क्या बयाँ है ?
या हमें ही नहीं सुनाई देती
उनकी आवाजें
चीखें, और ललकारें
उनके सवालों का लश्कर न जाने कहाँ है ?
उनके खून में बहती जलन
और सांस में बैठी घुटन का
न जाने क्या बयाँ है ?
एक नंगा सच है इस समय का कि
रीढ़ की हड्डी वाले लोग
बरदास्त नहीं है इस तिलिस्मी बसंत को
जवाबों के इस उत्सव में
सवालों के माथे पर मौत लिखी जा रही है
और जो लोग जिन्दा रहने की ज़िद में हैं
बन्दूक की नोंक पर
या देशप्रेम की झोंक पर
जंगलों में ठेले जा रहे हैं
विचारधारा के पेट में पलती नययाज़ औलादें
एक साथ पैदा हो गयीं हैं
और आदमी, जिसके पास विचारधारा है
स्वयं नाजायज़ होता जा रहा है
दोपहर की ऊब के वक्त
जब जूठी थाली सा पड़ा हुआ आदमी
खुद की लाश को ये समझाता है
कि यही सब कुछ तो होना था, जो हुआ है
और जो हुआ है, उसमें गलत क्या है ?
उसी वक्त उसके
खून में सना अँधेरा
उसे अधमरे सांप सा डसता है
आधा मारता है, आधा मरता है
उन्हें देखो, वो अब सरताज हैं
रीढ़ की हड्डी वाले लोग
बरदास्त नहीं है इस तिलिस्मी बसंत को
जवाबों के इस उत्सव में
सवालों के माथे पर मौत लिखी जा रही है
और जो लोग जिन्दा रहने की ज़िद में हैं
बन्दूक की नोंक पर
या देशप्रेम की झोंक पर
जंगलों में ठेले जा रहे हैं
विचारधारा के पेट में पलती नययाज़ औलादें
एक साथ पैदा हो गयीं हैं
और आदमी, जिसके पास विचारधारा है
स्वयं नाजायज़ होता जा रहा है
दोपहर की ऊब के वक्त
जब जूठी थाली सा पड़ा हुआ आदमी
खुद की लाश को ये समझाता है
कि यही सब कुछ तो होना था, जो हुआ है
और जो हुआ है, उसमें गलत क्या है ?
उसी वक्त उसके
खून में सना अँधेरा
उसे अधमरे सांप सा डसता है
आधा मारता है, आधा मरता है
उन्हें देखो, वो अब सरताज हैं
वो भूख के मुंह में देशप्रेम के नारे ठूस देना चाहते हैं
शायद उन्हें नहीं मालूम
कि भूखे आदमी के लिए रोटी बड़ी है और देश छोटा
शायद उन्हें नहीं मालूम
कि भूखे आदमी के लिए रोटी बड़ी है और देश छोटा
शरहदों से ज्यादा उन्हें अपने बच्चों की फिकर है
उनका राष्ट्रगान, वो लोरी है जिसे सुनकर भूखा बच्चा सोता है
उनका राष्ट्रगान, वो लोरी है जिसे सुनकर भूखा बच्चा सोता है
उन्होंने एक लहर चलाई है, जिसमे सबकुछ चमकता दीखता है
बच्चों की लोरी, मेहनतकश का देश, उसकी रोटी, जमीन और जंगल पर
कंकरीट की कतारें, कारखानों का सैलाब और दौलत का समंदर
लहराते हुए दीखते हैं
इस बीच
उधर मुझसे और मेरी लाश से दूर खड़ा
मेरा प्यारा देश !
सपनो के जूते कसता है
कभी हँसता है, कभी रोता है
मरे हुए सूरज की लाश
अपने कंधों पर ढोता है
अधमरी रौशनी को जहर पिलाकर
बंजर जमीन पर बोता है
और मैं चीखता हूँ
क्या लोकतंत्र में यही होता है ?
भूख का इतिहास
और दर्द का भूगोल
बदलने पर विदूषक तुले हैं
और मैं सोच रहा हूँ
की हम किस माटी में ढले है ?
बसंत जिस गाँव में मारा गया था
शायद उसी गाँव में पले हैं
जिस रास्ते पर चलते चलते
गांधी एक भूल/ एक भ्रम
एक लचीला शब्द हो गए
अब तक शायद उसी पर चले हैं
और दर्द का भूगोल
बदलने पर विदूषक तुले हैं
और मैं सोच रहा हूँ
की हम किस माटी में ढले है ?
बसंत जिस गाँव में मारा गया था
शायद उसी गाँव में पले हैं
जिस रास्ते पर चलते चलते
गांधी एक भूल/ एक भ्रम
एक लचीला शब्द हो गए
अब तक शायद उसी पर चले हैं
रात के आगोश में
षड्यात्रों के आग में कई सूरज जलें है
उनकी लाश पर भी तिरंगा था
कंठों में राष्ट्रगान, और जहन में जवाब था
सवाल उनसे छीन लिए गए थे
या ऊंचाई पर चढ़ने के लिए
बोझ समझ कर उन्होंने ही फेंक दिए गए थे
इस तिलिस्मी बसंत को सवाल पसंद नहीं हैं
इसलिए या तो हमारे सवाल भी छीन लिए जायेंगे
या फिर मजबूरी में हमें उन्हें फेंकना पड़ेगा
सवालों के बिना दोनों ही सूरत में
षड्यात्रों में की आग में सूरजों का जलना तय है
इसीका मुझे भय है
उन्हें जो करना है, वो कर रहे हैं
एक-एक कर के, इस गाँव में भी बसंत मर रहे हैं
अब हम अपने पते के जवाब में कहने वाले हैं
जिस गावों में बसंत मारा था
हम उसी गाँव के रहने वाले हैं !!
भाषा के
अँधेरे कमरे में
कांटो की कोख से
पत्तियां चुरा कर खाने की कला
सिर्फ और सिर्फ बकरियों के पास ही है
इसीलिए काँटों के इस जंगल में वो जिन्दा हैं
तबतक, जबतक किसी को भूख न लगे
जब वो काटीं जाती हैं
तो हिंदी सिनेमा के गाने, देशप्रेम से पाट दिए जाते हैं
और हज़ार चेहरे वाले लोग
गोल गुम्बद के ऊपर मेला सजाते हैं
उनकी आँखों में आंसू
और होंठो पर मुस्कान एक साथ रह सकती है
वो किसी भी समय राष्ट्रगान गा सकते हैं
वो इतने माहिर हैं कि
संविधान उनके सामने
भीड़ में खोये हुए बच्चों की तरह रोता है
और वो भाषा के अँधेरे कमरे में
संविधान का चेहरा चूम कर नीला कर देते हैं
स्कूल जाने वाले बच्चों को
नागरिक शास्त्र की मशीन में झोका जा रहा है
और जब वो बाहर निकलते हैं
तो उनके पाँवों में पहिए जड़े होते हैं
उनके दिमाग में कुछ रंगीन सा हमेशा रेंगता रहता है
वो तेज़ाब को पानी कहते हैं
और आंसूं के चेहरे पर थूक देते हैं
गैर इरादतन ही मारते हैं सैकड़ों तितलियाँ
पक्षियों का पंख उखाड कर हँसते हैं
और जब वो देश का नाम लेते हैं
तो शर्म आती है भूखे लोगों को
उनकी जमीन और सपनों की परिभाषा में
सम्भोग महकता है
जब वो खेलते हैं कोई खेल
तो अश्लीलता हँसती है
और उनकी हथेली पर नाचने लगते हैं, सातों दिन, नंगे ही
चौराहों पर बात करते हुए लोग
अफवाहों को सांस समझ बैठे हैं
अगर अफवाह न हो तो वो खुद को मरा
और देश को उजड़ा हुआ मान बैठेंगे
इसलिए अफवाहों की फैक्ट्री
हर दिमाग में लगाने की परियोजना पर काम तेजी से चल रहा है
हर पढ़ा-लिखा आदमी खुद अफवाह में बदल रहा है
मैं जब उनसे कहता हूँ, भूख
तो वो फसल सुनते है
मैं जब दर्द कहता हूँ
तो वो मुझे देख ही नहीं पाते
मेरे शरीर में भाप और कांच घुलकर बहते हैं
और मैं न चाहते हुए भी पारदर्शी हो जाता हूँ
सब साफ़ दीखता है आरपार
मेरे भीतर का किसी को कुछ नहीं दीखता
जहाँ एक कैंसर दिनरात शतरंज खेलता रहता है
यहाँ जिन लोगों के हांथों में देश है
उन्होंने इसे आड़ा, तिरछा, सीधा, उल्टा
हर तरह से गाया है
गाँधी उनके लिए गाय हैं
और भगत सिंह भात
उन्हें जब भी मौका मिला
या भूख लगी है
उन्होंने गाय का मांस और भात
खूब चाव से खाया है
थप्पड़ खाए हुए किसी आदमी की सूरत से
टपकते चावल के माढ पर
भिनभिनाती हुई मख्खियों की बोली में
मैंने प्रेम गीत सुना है
पर जब जब दुहराना चाह है उसे
लोगों ने कहा कि
मैं पलायन गीत गा रहा हूँ
मैं उस वक्त खुद को
किसी एक्सप्रेस रेल के जनरल डिब्बे में
टॉयलेट के पास गठरी सा पड़ा पाता हूँ
मेरे हांथों में एक पॉलिथीन होती है
जिसमे बाप की चिंताओं की पूरी
और माँ के आंसुओं का आचार होता है
मैं उसे खाता हूँ
और भिनभिनाती हुई मख्खियों की तरह गाता हूँ
छोटे कस्बों और गांवों का प्यार
चेहरों पर आंसुओं का दाग बन कर रह जाता है
महानगरों और शहरों का प्यार
किसी रात बेडशीट पर बहता है
और फिर लॉन्ड्री में धुल कर
फिर से बिछ जाता है
मैं इन सब के बीच
खुद की और अपनी कविता की पहचान तलाशता रहता हूँ
कभी लगता है, मैं और मेरी कविता
किसी महंगी दवा का अजीब ट्रेडमार्क हैं
और कभी लगता है
नंगे पैर बहुत दूर से आ रहे किसी आदमी के पैरों की बवाई
सिर्फ और सिर्फ बकरियों के पास ही है
इसीलिए काँटों के इस जंगल में वो जिन्दा हैं
तबतक, जबतक किसी को भूख न लगे
जब वो काटीं जाती हैं
तो हिंदी सिनेमा के गाने, देशप्रेम से पाट दिए जाते हैं
और हज़ार चेहरे वाले लोग
गोल गुम्बद के ऊपर मेला सजाते हैं
उनकी आँखों में आंसू
और होंठो पर मुस्कान एक साथ रह सकती है
वो किसी भी समय राष्ट्रगान गा सकते हैं
वो इतने माहिर हैं कि
संविधान उनके सामने
भीड़ में खोये हुए बच्चों की तरह रोता है
और वो भाषा के अँधेरे कमरे में
संविधान का चेहरा चूम कर नीला कर देते हैं
स्कूल जाने वाले बच्चों को
नागरिक शास्त्र की मशीन में झोका जा रहा है
और जब वो बाहर निकलते हैं
तो उनके पाँवों में पहिए जड़े होते हैं
उनके दिमाग में कुछ रंगीन सा हमेशा रेंगता रहता है
वो तेज़ाब को पानी कहते हैं
और आंसूं के चेहरे पर थूक देते हैं
गैर इरादतन ही मारते हैं सैकड़ों तितलियाँ
पक्षियों का पंख उखाड कर हँसते हैं
और जब वो देश का नाम लेते हैं
तो शर्म आती है भूखे लोगों को
उनकी जमीन और सपनों की परिभाषा में
सम्भोग महकता है
जब वो खेलते हैं कोई खेल
तो अश्लीलता हँसती है
और उनकी हथेली पर नाचने लगते हैं, सातों दिन, नंगे ही
चौराहों पर बात करते हुए लोग
अफवाहों को सांस समझ बैठे हैं
अगर अफवाह न हो तो वो खुद को मरा
और देश को उजड़ा हुआ मान बैठेंगे
इसलिए अफवाहों की फैक्ट्री
हर दिमाग में लगाने की परियोजना पर काम तेजी से चल रहा है
हर पढ़ा-लिखा आदमी खुद अफवाह में बदल रहा है
मैं जब उनसे कहता हूँ, भूख
तो वो फसल सुनते है
मैं जब दर्द कहता हूँ
तो वो मुझे देख ही नहीं पाते
मेरे शरीर में भाप और कांच घुलकर बहते हैं
और मैं न चाहते हुए भी पारदर्शी हो जाता हूँ
सब साफ़ दीखता है आरपार
मेरे भीतर का किसी को कुछ नहीं दीखता
जहाँ एक कैंसर दिनरात शतरंज खेलता रहता है
यहाँ जिन लोगों के हांथों में देश है
उन्होंने इसे आड़ा, तिरछा, सीधा, उल्टा
हर तरह से गाया है
गाँधी उनके लिए गाय हैं
और भगत सिंह भात
उन्हें जब भी मौका मिला
या भूख लगी है
उन्होंने गाय का मांस और भात
खूब चाव से खाया है
थप्पड़ खाए हुए किसी आदमी की सूरत से
टपकते चावल के माढ पर
भिनभिनाती हुई मख्खियों की बोली में
मैंने प्रेम गीत सुना है
पर जब जब दुहराना चाह है उसे
लोगों ने कहा कि
मैं पलायन गीत गा रहा हूँ
मैं उस वक्त खुद को
किसी एक्सप्रेस रेल के जनरल डिब्बे में
टॉयलेट के पास गठरी सा पड़ा पाता हूँ
मेरे हांथों में एक पॉलिथीन होती है
जिसमे बाप की चिंताओं की पूरी
और माँ के आंसुओं का आचार होता है
मैं उसे खाता हूँ
और भिनभिनाती हुई मख्खियों की तरह गाता हूँ
छोटे कस्बों और गांवों का प्यार
चेहरों पर आंसुओं का दाग बन कर रह जाता है
महानगरों और शहरों का प्यार
किसी रात बेडशीट पर बहता है
और फिर लॉन्ड्री में धुल कर
फिर से बिछ जाता है
मैं इन सब के बीच
खुद की और अपनी कविता की पहचान तलाशता रहता हूँ
कभी लगता है, मैं और मेरी कविता
किसी महंगी दवा का अजीब ट्रेडमार्क हैं
और कभी लगता है
नंगे पैर बहुत दूर से आ रहे किसी आदमी के पैरों की बवाई
फलीस्तीन
के किसी बच्चे के नाम
एक प्यास का जंगल है
जो पानी के रेगिस्तान पर उग आया है
फिदाइन मन गुजर रहा है
ठहरे हुए समय की तरह
एक रास्ता है
जो माँ के दुलार से बम की आवाज़ तक फैला हुआ है
एक और रास्ता है
जो खुद शुरू हो कर खुद पर खतम हो जाता है
मैं फलीस्तीन के किसी बच्चे की तरह
सपनों की अलमारी में
खिलौने और गुब्बारे रख कर आता हूँ
पर न जाने वो कैसे
बन्दूक, बारूद
और धुआँ हो जाते हैं
मुझे अफ़सोस होता है
जब मुझे मालूम पड़ता है
कि चेतना भिखारी की जूठन
वैश्या की नींद
मुर्दे के शरीर से उतरा हुआ कपड़ा हो चुकी है
और अब लोगों को उसके नाम से उलटी आती है
सब डरा हुआ चेहरा लिए हँस रहे है
उड़ते हुए जहाज़ को देख कर
भाप हुए जा रहे है
और मैं खून की नदी में
अपने बाप की लाश पर तैर रहा हूँ
माँ की चीखों के साज़ पर
भाई बहनों के आंसूं के गीत गा रहा हूँ
मुझे साफ़ दिखाई दे रही है
लाशों के पहाड़ के उस पार
मेरी वो ज़मीन
जहाँ मैं बोऊंगा
अपने बाप के सपने
आपनी माँ की चीखें
भाई बहनों के आंसूओं के बीज
और काटूँगा आज़ादी की फसल
तब सारे प्यास के पेड़ गिरा दिए जायेंगे
पानी के रेगिस्तानों को जला दिया जायेगा
और बमों की आवाज़ के मुंह पर
एक ढीठ बच्चे की हंसी लिख दी जायेगी
मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ
जब कैदी परिंदों के पंख तलवार हो जायेंगे
और परवाज़ क़यामत
मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ
जब बच्चों के सपनों की अलमारी में
बन्दूक, बारूद
और धुएं की जगह
खिलौने और गुबारे होंगे
जब उनकी नींद में
तेज़ाब नहीं बरसेगा
मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ
जब आजादी लिखने-पढ़ने की चीज़ नहीं
बल्कि जीने और महसूस करने की चीज़ होगी
खून में
कांच बह रहा है
दुनिया जब दिल की बात करती है
उस वक्त मुझे सिर्फ सन्नाटा सुनाई देता है
और मैं रोना चाहता हूँ
पर हँस पड़ता हूँ
चुप रहने की फ़िराक में कुछ कह पड़ता हूँ
पर क्या ?
पता नहीं
शायद अपना आधा नाम
और तुम्हारा पूरा पता
हर शाम काँच से सारे शब्द टूट जाते है
और मैं उन्हें खून के घूँट के साथ पी जाता हूँ
दूर रेडियो पर कोई प्यार का गीत बज रहा होता है
और मैं कुछ याद करने की कोशिश में सब कुछ भूल जाता हूँ
एक बात तुम्हे बताता हूँ, तुम सबको बता देना
मेरी आत्मा तक सबकुछ छिल जाता है
जब प्यार जैसा कोई शब्द मेरे भीतर जाता है
मैं रोना चाहता हूँ
पर हँस पड़ता हूँ
जैसे मानो मेरे भीतर बहता हुआ लहू
किसी का किया कोई बेहद भद्दा मज़ाक हो
जो हवा मेरे आस-पास है
वो मुझसे धीरे से कहती है
कि मेरा दिल एक बंद बक्सा है
जिसमें कुछ नहीं है
सिवाय एक ज़ख़्मी सूरज
और बहुत सारे अँधेरे के
यादों की परछाइयाँ भी हैं वहाँ
पर उनका होना
न होने को ज्यादा प्रभावित नहीं करता
वहाँ कोई आदमी नहीं हैं
पर आदमियों के नामों की आहटें हैं
जो रह रह कर धड़कतीं हैं
मेरे सीने की धडकनों की लय पर
आईने में कुछ साफ़ नहीं दीखता
मैं हूँ या तुम
या फिर कोई तीसरा
जिसकी शक्ल हम दोनों से मिलती है
आईना मुझे तोड़ देता है
और मैं बिखर जाता हूँ
जैसे किसी ने बेर खा कर
गिठलियां बिखेर दीं हों फर्श पर
हर गिठली में मैं हूँ
और मेरा दर्द है
जिसके सिरहाने बैठ कर रात, रात भर रुदाली गाती है
और मैं उसे देखता रहता हूँ
जैसे कोई बच्चा इन्द्रधनुष देखता है
दिल की दिवार पर एक बरगद उग आया है
जिसकी जड़ें तुम्हारी आँखों में समाईं हैं
तुम जब आँखे बंद करती हो
बरगद की शाख पर टंगी
मेरी तस्वीर का दम घुटने लगता है
दुनिया और तुम
दो परस्पर दूर जाते हुए बिंदु हो
और मैं
दुनिया और तुम्हारे बीच खिचता हुआ बिजली का तार
मैं ठहरा खड़ा हूँ
और मेरे भीतर से बिजलियाँ दौड रहीं हैं
मेरे आँखों में अँधेरा भरा हुआ है
और खून में कांच के टुकड़े बह रहे हैं
मैं किसी ज़ख़्मी कविता की तरह हो गया हूँ
और प्यास में लिथड़ा हुआ
खुद से कहीं दूर पड़ा हूँ
मैं
कपास नहीं बनना चाहता
मेरी माँ लोरी
सुनाते वक्त
रोटी खिलाते वक्त
मेरे कपड़े पछीटते वक्त
और मुझे पीटते वक्त
चाहती है कि मैं कपास बन जाऊं
मुझे दीपक की बाती बनना है
और कुल को उजाला करना है
कुल एक अँधेरा कमरा है
जहाँ कितने भी दीपक जला दो
अँधेरा बना ही रहता है
और बनी रहती है
इस कमरे को रोशन करने की फ़िकर
जो मुसलसल रेंगती चली जाती है
पहली पीढ़ी से अंतिम पीढ़ी तक
मैं कैसे समझाऊं कि ये वक्त
माचिस की तीलियों का वक्त है
लोहे का वक्त है
दलदल और चौराहों का वक्त है
कपास जीते जी मार दिया जायेगा
या मारते-मारते जिलाया जायेगा
इसलिए मेरे भीतर का कपास
माचिस की तीली या लोहा बन जाना चाहिए
ये उतना ही जरूरी है
जितना कोई भी गैरजरूरी काम जरूरी होता है
वो मुझमें दिल्ली देखना चाहती है
पर मुझमे दंतेवाडा, झारखण्ड और देश भर के जंगल उग आये है
वो चाहती है कि मैं सागर बन जाऊं
और सारी नदियों की नियति हो जाऊं
पर मैं नदियों को विद्रोह सिखाने में लगा हुआ हूँ
वो चाहती है कि मैं जो चाहूँ वो मुझे मिल जाये
मैं चाहता हूँ जो चाह कर भी कुछ नहीं चाह पाता
उसका चाहा उसे मिल जाये
वो किसी भगवान से मेरे लिए सद्बुद्धि माँगती है
मैं एक लिजलिजे डर से भर जाता हूँ
और सपने में एक गर्भवती महिला को जंगलों में छोड़ने चला जाता हूँ
उठता हूँ तो पाता हूँ कि मैं भगवान बन चुका हूँ
और मेरे कुल का कमरा उजाले से भर गया है
दीवारों पर मेरे नाम के नारे हैं
और लोगों के दिल में मेरे नाम का भ्रम
मैं माँ की आँखों में एक सुकून देखता हूँ
उसकी इच्छाओं, कुंठाओं, प्रेमों और पूर्वाग्रहों में लिथड़ा हुआ कपास मुस्कुराता है
जिसकी शक्ल मुझसे हूबहू मिलती है
यकीन मानिये मैं चीख उठता हूँ
मैं कपास नहीं बनना चाहता
-------------------
रोटी खिलाते वक्त
मेरे कपड़े पछीटते वक्त
और मुझे पीटते वक्त
चाहती है कि मैं कपास बन जाऊं
मुझे दीपक की बाती बनना है
और कुल को उजाला करना है
कुल एक अँधेरा कमरा है
जहाँ कितने भी दीपक जला दो
अँधेरा बना ही रहता है
और बनी रहती है
इस कमरे को रोशन करने की फ़िकर
जो मुसलसल रेंगती चली जाती है
पहली पीढ़ी से अंतिम पीढ़ी तक
मैं कैसे समझाऊं कि ये वक्त
माचिस की तीलियों का वक्त है
लोहे का वक्त है
दलदल और चौराहों का वक्त है
कपास जीते जी मार दिया जायेगा
या मारते-मारते जिलाया जायेगा
इसलिए मेरे भीतर का कपास
माचिस की तीली या लोहा बन जाना चाहिए
ये उतना ही जरूरी है
जितना कोई भी गैरजरूरी काम जरूरी होता है
वो मुझमें दिल्ली देखना चाहती है
पर मुझमे दंतेवाडा, झारखण्ड और देश भर के जंगल उग आये है
वो चाहती है कि मैं सागर बन जाऊं
और सारी नदियों की नियति हो जाऊं
पर मैं नदियों को विद्रोह सिखाने में लगा हुआ हूँ
वो चाहती है कि मैं जो चाहूँ वो मुझे मिल जाये
मैं चाहता हूँ जो चाह कर भी कुछ नहीं चाह पाता
उसका चाहा उसे मिल जाये
वो किसी भगवान से मेरे लिए सद्बुद्धि माँगती है
मैं एक लिजलिजे डर से भर जाता हूँ
और सपने में एक गर्भवती महिला को जंगलों में छोड़ने चला जाता हूँ
उठता हूँ तो पाता हूँ कि मैं भगवान बन चुका हूँ
और मेरे कुल का कमरा उजाले से भर गया है
दीवारों पर मेरे नाम के नारे हैं
और लोगों के दिल में मेरे नाम का भ्रम
मैं माँ की आँखों में एक सुकून देखता हूँ
उसकी इच्छाओं, कुंठाओं, प्रेमों और पूर्वाग्रहों में लिथड़ा हुआ कपास मुस्कुराता है
जिसकी शक्ल मुझसे हूबहू मिलती है
यकीन मानिये मैं चीख उठता हूँ
मैं कपास नहीं बनना चाहता
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परिचय : अनुराग अनंत, बाबा साहेब भीमराव अम्बेकर केंद्रीय विश्ववद्यालय, लखनऊ से पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीएचडी कर रहे हैं। इलाहाबाद के रहने वाले हैं। शुक्रवार पत्रिका, बुद्धू बक्सा, सदानीरा आदि में कविताएं प्रकाशित हुईं हैं। साहित्य आजतक में आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरूस्कार मिला है। दैनिक जागरण, अमर उजाला, जनसत्ता, आदि में लेख प्रकाशित हैं।
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