क्या होगा जब खनिजों में बदल जायेंगे हम : अहमद फ़हीम की कविताएँ
असुविधा हमेशा से युवा साथियों का मंच रहा है. हमारी कोशिश रही है कि एकदम ताज़ा स्वरों को यहाँ प्रस्तुत किया जाए. अहमद फ़हीम की कविताएँ मुझे कुछेक दिन पहले मेल पर मिलीं. ये एकदम से चौंकाने वाली कविताएँ नहीं हैं, बल्कि उन कविताओं में से हैं जो धीरे-धीरे असर करती हैं. रंग छवियाँ इन्हें मानीखेज़ बनाती हैं और पाठक के समक्ष विजुअलाइज करने की सुविधा और चुनौती दोनों प्रस्तुत करती हैं.
असुविधा पर उनका स्वागत और बेहतर कविताओं के लिए शुभकामनाएँ
कुछ
शीर्षकविहीन कविताएँ
( 1 )
और
तुम इस धरती के
इकलौते
शिकारी रह जाओगे
धरती
के जिस ओर देखोगे
हर
किनारा तुम्हारा होगा
धरती
के सारे मेहनतकशो की रोटी तुम्हारी होगी
धरती
की सारी खुशबू तुम्हारी होगी
धरती
के सारे झंडे-तिरंगे शान में तुम्हारी
धरती
के सारे अस्त्र-शस्त्र, बम-बारूद,
तोप-वोप
सब तुम्हारी पिंडनाली की नोंक पर
" सा
रे गा मा पा धा नि सा " की जुगलबंदी कर रहे होंगे
मगर
मीरु-वीरू-धीरू
जो
जो नाम होंगे तुम्हारे
दुनिया
भर की टकसालों पर अंकित
क्या
होगा जब खनिजों में बदल जायेंगे हम
जब
म्यूज़िमों में अवशेष बनकर रह जाएंगे हम
जब
रिपोर्ट ही बताएगी हमारी निशानदेही के चिराग
अखंड
और शुद्ध आने वाली तुम्हारी नस्लों को
तब..?
खून,
पियोगे
किसका ?
गुलाम,
बनाओगे
किसे ?
युद्ध,
करेगा
कौन ?
( 2 )
मेरी
जान
वक़्त
को अपने ख़यालो की मेड़ मत होने दो,
मत
कहो कि ठहर जाए वक़्त नियति में तुम्हारी
पहुँचने
दो उसे जहाँ पहुँचना है।
यह
वक़्त है
इसे
अपनी दुआ में मत लाओ
इसे
अपने होंठो पर मत गुनगुनाओ
और
मानलो कि
वक़्त
से ज़्यादा उदास क्रिया इस दुनिया में कोई नहीं,
हाथों
की रेखाओं में ही हमारी दुनिया का इंतेखाब नहीं।
हम
परे है दुनियावी मरहलो से मेरी जान
जो
चाहे हम वो कर जाए
कि
चाहे तो
अंधेरें
की नम मुस्कुराहट के साथ
जिस्म
के हर पोर में प्रेम लिख दे,
सूरज
पर नकेल डालकर
चाँद
को धरती के और करीब कर दे,
सारे
दुत्कार दिए गए पत्थरों को चुनकर
प्रेम-सीपियों
में मड़ दे,
सारी
दबी हुई आवाज़ों को उनकी आत्मा के
बीज-शब्द
लौटा दे कि
शान्ति
का ख़्वाब रूक न पाए
चाहे
छिन-भिन होती रहे दुनिया
चाहे
सींचे जाते रहे दुनिया के अंत तक फूलों की खुशबू मगर
मौसम
के विरूद्ध खड़े हो सकने का हुनर
उनकी
जड़ो में भर दे
ताकि
वे मधुमक्खियों को प्यार कर सके
ताकि
वे
तितलियों की उड़ान में शोखियाँ बरक़रार रख सके
ताकि
मेरी जान
वक़्त
और हाथ की रेखाओं से मारी
आँखें
प्यार कर सके।
हँसने
के लिए
किन्ही
ठोस बातों की
नहीं
होती जरूरत,
हँसा
जा सकता है
किसी
दृश्य- अदृश्य को देखकर।
अब
मैं आकाश देखता हूँँ
हँसने
लगता हूँ ।
सड़के
देखता हूँ,
हँस
जाता हूँ।
मूर्ति, इमारतें पानी को देखकर भी
हँसने
लगता हूँ।
सच
मानिए
यह
सब मैंने
नहीं
सीखा हँसोड़ चलचित्रो से
अश्वमेघी
ग्रंथों से ।
मैंने
तो बस
शहर
के फकीरों को
शहर
की सबसे मुफीद इमारतों पर
लहरा
रहे तिरंगे पर हँसते देखा है।
(4)
यकीन
करो
सूरज
ने प्रार्थना की होगी
चाँद
जैसा होने की
चाँद
ने सोचा होगा
तारों
सा होने की
तारों
ने जताई होगी इच्छा
मनुष्य
जैसा जीवन जीने की ।
इसलिए
यकीन करो कि एक दिन
अचानक
थम जाएगी दुनिया
आसमान
की ओर एक बच्चा
उछाले
का गुल्लक और
बिखेर
देगा दुनिया का सारा प्रेम
इस
सदी के उन प्रेमियों की देह में
जो
सोचते हैं प्रेम
एक
लोकतंत्रीय पहाड़ा है।
कि
यकीन करो
यकीन
पर ही जिंदा है
धरती,
चाँद, सूरज, तारे और
पानी
और हवा पहाड़
यकीन
पर ही जिंदा है कि
एक
दिन इन्हें भी
दी
जाएगी ज़बाने।
( 5 )
हवा
होती इस दुनिया में
पानी
और पेड़ो के बाद
इंसानो
के हवा होने की
एक
धुंध छन रही है।
बावजूद
इसके...
यह
सब देख रही हमारी आँखें,
यह
सब सुन रहे हमारे कान,
और
हम इस सदीं के मछवारें
और
हम इस सदीं के चरवाहें
आभासी-भीड़
के अभिनय में मस्त है।
हमसे
कहते ," नाच
! "
हम
नाचते है,
हमसे
कहते ," मर
! "
हम
मर जाते है।
बावजूद
इसके
लोक
चुप है तंत्र में,
इस
समय की औफनाक क्रिया के साथ ।
( 6 )
सिगरेट
का हर कश
जब
भी बुनने लगता है तुम्हारे संताप को
मेरे
अंदर सुनहरी सरगम की तरह
सुलगता
प्रेम मिम्याने लगता है
उस
वक़्त
तुम
और तुम्हारे हाथ
तुम
और तुम्हारे होंठ
तुम
और तुम्हारे बाल
तुम
और तुम्हारी बाँहे
इस
दुनिया की सबसे
दहकती
मशाल नज़र आती हो।
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