गाँव में अफसर
उस तरह नहीं आता गाँव में अफसर
जैसे आती है बिटिया हुलसकर ससुराल से
या नई दुल्हन लाँघते आशंकाओं के पहाड़
उस तरह तो बिल्कुल नहीं
जैसे हाट बाजार से भकुआये हुए
आजकल लौटते हैं काका
और वैसे भी नहीं
जैसे छुटि्टयों में लौटते हैं कमासुत।
न पगलाई नदी की बाढ़ सा उफनता
न इठलाता पुरवा की मदमस्त बयारों सा
जेठ की उन्मत्त लू या सावनी फुहारों सा भी नहीं
अफसर तो बस अफसर सा आता है गाँव में !
सीम पर पड़ते हैं पाँव
और नगाड़े सी गूँज जाती है धमक
धरती की शिराओं में
मुस्कुराता है तो हँसने लगती है चौपाल
और तनते ही भृकुटियों के
सूख जाते हैं हरे भरे ताल
माथे की लकीरों से मुचमुचाये कुरते की
काई सी नीली जमीन
संवारते अगियाए लोटे से
गुनते हैं चौकीदार जुगत
बरसों से ठहरी
पांच सौ की रकम बढ़ाने की सिफारिश की
लाज आती है अब जिसे पगार कहते
मुर्गे के साथ हलाल कर
कई सारे अंखुआते स्वप्न
रोपता है कोई
बंजर होती जा रही उम्र पर
किसी गलीज सी नौकरी की उम्मीद
संदूक की सात परतों से निकालते हुए दहेजू बर्तन
और पुरखों से माँगते हुए क्षमा
जुटाते हैं सरपंच
अगली किस्तों के भुगतान की शर्तें
सन्निपात सा उभर आता है पूरा गाँव
मन में डर और उम्मीदें
आँखों में घिघियाती अर्ज़ियाँ लिये
समय का सवर्ण है अफसर
ढाई कदमों में नाप लेता है
गाँव का ब्रह्माण्ड
कलम की चार बूँद स्याही मे
समेट लेता है
नदी का सारा जल
वायु का सारा सन्दल
मिट्टी की सारी उर्वरा
मनष्य की सारी मेधा !
........................और फिर
इस तरह जाता है गांव से अफसर
जैसे मरूस्थल की भयावह प्यास में
आँखों से मायावी सागर
जैसे आती है बिटिया हुलसकर ससुराल से
या नई दुल्हन लाँघते आशंकाओं के पहाड़
उस तरह तो बिल्कुल नहीं
जैसे हाट बाजार से भकुआये हुए
आजकल लौटते हैं काका
और वैसे भी नहीं
जैसे छुटि्टयों में लौटते हैं कमासुत।
न पगलाई नदी की बाढ़ सा उफनता
न इठलाता पुरवा की मदमस्त बयारों सा
जेठ की उन्मत्त लू या सावनी फुहारों सा भी नहीं
अफसर तो बस अफसर सा आता है गाँव में !
सीम पर पड़ते हैं पाँव
और नगाड़े सी गूँज जाती है धमक
धरती की शिराओं में
मुस्कुराता है तो हँसने लगती है चौपाल
और तनते ही भृकुटियों के
सूख जाते हैं हरे भरे ताल
माथे की लकीरों से मुचमुचाये कुरते की
काई सी नीली जमीन
संवारते अगियाए लोटे से
गुनते हैं चौकीदार जुगत
बरसों से ठहरी
पांच सौ की रकम बढ़ाने की सिफारिश की
लाज आती है अब जिसे पगार कहते
मुर्गे के साथ हलाल कर
कई सारे अंखुआते स्वप्न
रोपता है कोई
बंजर होती जा रही उम्र पर
किसी गलीज सी नौकरी की उम्मीद
संदूक की सात परतों से निकालते हुए दहेजू बर्तन
और पुरखों से माँगते हुए क्षमा
जुटाते हैं सरपंच
अगली किस्तों के भुगतान की शर्तें
सन्निपात सा उभर आता है पूरा गाँव
मन में डर और उम्मीदें
आँखों में घिघियाती अर्ज़ियाँ लिये
समय का सवर्ण है अफसर
ढाई कदमों में नाप लेता है
गाँव का ब्रह्माण्ड
कलम की चार बूँद स्याही मे
समेट लेता है
नदी का सारा जल
वायु का सारा सन्दल
मिट्टी की सारी उर्वरा
मनष्य की सारी मेधा !
........................और फिर
इस तरह जाता है गांव से अफसर
जैसे मरूस्थल की भयावह प्यास में
आँखों से मायावी सागर
टिप्पणियाँ
bahut achchhi kavitayen post kar rahe ho. ganv me afasar tumhari bahut hi satik kavita hai jisame bimbon ka behatarin istemal kiya gaya hai.
उस तरह नहीं आता गाँव में अफसर
जैसे आती है बिटिया हुलसकर ससुराल से
या नई दुल्हन लाँघते आशंकाओं के पहाड़
ab dekhiye kavita ki shuruaat hi mahtvpurn hai. beti ki tarah afasar nahin aata hai. yane yahan yah bhi mahtvpurn hai ki afasar ko beti tarah aana chahiye. is vyvastha ko badalane ki darkar hai. kis-kis tarah se aana chahiye ye bhi agali panktiyon me prabhavi dhang se aata hai.
yane is kavita ek-ek pankti ke gahare arth nikalate hai.
bhasha itani jabardast, prabhavi aur pravahman hai ki kya kahane.
bahut-bahut badhai mere bhai khoob likho.
jitendra ki kavita par tippani dekar lot aaye.achchha laga.
par mere bhai gehoon ki bali par meri kavita pita ki mrityu par beti ka rudan bhi jaroor padha len.
आपको नववषॆ की बधाई । नया आपकी लेखनी में एेसी ऊजाॆ का संचार करे िजसके प्रकाश से संपूणॆ संसार आलोिकत हो जाए ।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
"इस तरह जाता है गांव से अफसर
जैसे मरूस्थल की भयावह प्यास में
आँखों से मायावी सागर"
इस बहुमूल्य कविता के लिये धन्यवाद.
इस तरह जाता है गांव से अफसर
जैसे मरूस्थल की भयावह प्यास में
आँखों से मायावी सागर
Gramin yatharth aur afsarsahi ko samagrata se abhivyakt karti ek jivant rachna.