उधार माँगने वाले लोग

छोटी हो चादर
तो पांव न होना ही बेहतर
झुका ही रहता है हमेशा
मांगने वाले का सर
रहिमन वे नर मर चुके …
सब याद था
उन पसरी हुई हथेलियों को

सुन रखे थे उन्होंने भी
अपमान और बरबादियों के तमाम किस्से
संतोष एक पवित्र शब्द था उनके भी शब्दकोष का
लालच से नफ़रत करना ही सीखा था
पूरी हिम्मत से बांध कर रखी थी मुट्ठियां


चुपचाप नज़रें झुकाये गुज़र जाते थे बाज़ार से
आ ही जाये दरवाज़े पर तो कस देते थे सिटकनियां

दूर ही रखा जीभ को स्वाद से
पैरों को पंख से
आंखों को ख़्वाब से
फिर भी
पसर ही गईं हथेलियां एक दिन…

दरवाजों के दरारों से
पता नहीं कब सरक आईं ज़रूरतें
पता नहीं कौन से रोग
जाते ही नहीं जो चूरन और काढों से
पता नहीं कौन सी भूख
मिटती ही नहीं जो मेहनत से
सपनों को तो ख़ैर
हर बार कर दिया परे
पर इनका क्या करें?


जान ही न हो शरीर में
तो कब तक तना रहे सिर ?
भूख के आगे
बिसात ही क्या कहानियों की ?

और पसरीं वे हथेलियां यहां-वहां
मरे वे नर मरने के पहले बार-बार
झुका उनका सिर
और मुंह को लग गई आदत छुपने की
लजाईं उनकी आंखें और इतना लजाईं
कि ढीठ हो गईं

वो मुहावरे अब भी याद हैं उन्हें
हंसते हैं तो कभी सुबकते हैं अकेले में
तो कभी गरियाते हुए मुहावरे की मां को
पसार देते हैं हथेलियों फिर भी

टिप्पणियाँ

Mishra Pankaj ने कहा…
संतोष एक पवित्र शब्द था उनके भी शब्दकोष का
लालच से नफ़रत करना ही सीखा था

सही बात कही है आपने
कविता यथार्थ को अभिव्यक्त करती है। लेकिन इस में विवशता और निराशा है। विवशता की सीमा होती है फिर वह बंधन तोड़ने लगती है। इस निराशा और विवशता को तोड़ने वाली कविता की जरूरत हैं।
राजीव तनेजा ने कहा…
मजबूरी...जो कराए...कम है
varsha ने कहा…
भूख के आगे
बिसात ही क्या कहानियों की ?
neera ने कहा…
दूर ही रखा जीभ को स्वाद से
पैरों को पंख से
आंखों को ख़्वाब से
फिर भी
पसर ही गईं हथेलियां एक दिन…

दरवाजों के दरारों से
पता नहीं कब सरक आईं ज़रूरतें
पता नहीं कौन से रोग
जाते ही नहीं जो चूरन और काढों से
पता नहीं कौन सी भूख
मिटती ही नहीं जो मेहनत से
सपनों को तो ख़ैर
हर बार कर दिया परे

मजबूरियों की जान और आत्मा नज़र आती है शब्दों में... चुप रहना ज्यादा बेहतर होगा...
शरद कोकास ने कहा…
अच्छी कविता है अशोक । यकीनन उधार माँगने वालों के पक्ष में है और ज़रूरत पर दयनीयता भी हावी नहें है । यहाँ उपदेश नहीं है यह अच्छी बात है । मैने भी बहुत पहले उधार शीर्षक से एक कविता लिखी थी , अपने आर्काईव में ढूँढता हूँ ।
एक उम्दा कविता...
शीर्षक बदल दें, यह इस कविता के विस्तृत फ़लक को सिर्फ़ उधार शब्द की मध्यमवर्गीय मानसिकता के सोपानों में सीमित कर रहा है...

क्षमा की सुविधा के साथ असुविधा का शुक्रिया...
Ashok Kumar pandey ने कहा…
अरे रवि भाई हक़ है आपको
नाम सुझाईये ना!
प्रदीप कांत ने कहा…
अशोक भाई,

पापी पेट का सवाल इसी को कहते हैं.
गौतम राजऋषि ने कहा…
आप हैरान करते हैं हर बार मुझे अपनी कविताओं से, पंक्तियों की बुनावट से, उनमें छुपी चोट से...

देखते, महसूसते हम सब हैं...आपका देखना, महसूसना प्रभावित करता है।

ईद की मुबारक बाद!
सुरेश यादव ने कहा…
प्रिय अशोक पांडेय जी,आप की कविता मार्मिक है और सार्थक भी .आप को हार्दि बकधाi {badhai}
09818032913
यह कविता एक अनूठे अंदाज़ में सामने आई है! रचनाकार को बधाई!

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