जवाब दो फरीदा… उस भयावह भूल का हिसाब दो!
( वैसे तो कुछ भी ख़ास नहीं है तेईस दिसंबर को…बस दो साल पहले इस दिन गुजरात में था…मोदी की दुबारा जीत हुई थी और उस दिन के अनुभव के आधार तीन कवितायें लिखी थीं जो आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं)
गुजरात 2007
(एक)
वे अब नहीं बोलते ऊंची आवाज़ में
सिर झुकाये निकलते हैं अपनी बस्तियों से
ईद पर मिलते हैं गले जैसे दे रहें हों दिलासे
शोकगीतों की तरह बुदबुदाते हैं प्रार्थनायें
इतनी कच्ची नींद में सोते हैं
कि जगा देती है अक्सर घड़ी की टिक टिक भी
बदल गये हैं उनके शब्दकोषों में
हक़ और इंसाफ़ के मायनेबदल गये हैं उनके शब्दकोषों में
मौत अब नहीं रही उतनी बड़ी ख़बर
दिल्ली की परिचर्चाओं से अनजान
वे समझ चुके हैं बख़ूबी अल्पसंख्यक होने का मतलबअपनी बस्तियों में अब किसी का नहीं उन्हें इंतज़ार
दांतो के बीच जीभ की तरह रहना सीखते हुए
नहीं बची दांतो के अंत की कोई सांत्वना!
पुलिस की फाईलों में दर्ज़ उनकी अर्जियों से
शब्द झड़ गये हैं सारे
मुक़दमों की भीड़ में गड्डमड्ड हो गईं हैं धारायें
केंचुलों से उतर गये हैं सारे भ्रम
और विश्वास तो भष्म हो ही गया था गुलबर्गा की आग़ में
अब नहीं बचा इस विशाल भूमण्डल में उनका अपना कोई देश
आकाशगंगा के किसी तारे से नहीं बची कोई उम्मीद
कविता की आखि़री पंक्तियों जितनी भी नहीं
कुछ नहीं बचा उनके पास
उदास कांधों पर जनाज़े की तरह ढोते सांसे
ये गुजरात के मुसलमान हैं या लोकतंत्र के प्रेत?(दो)
अब नहीं होंगे यहाँ दंगे
विकास के जगमगाते फ्लाईओवर तले
चुपचाप कुचल दी जायेगी एक बस्ती
धड़धड़ाती हुई आयेंगी मशीने
और मछुआरों से छीन लेंगी समुद्रदरका दी जायेगी नियमो की नींव
और भरभराकर गिर पड़ेंगे मदरसे
हाथ में त्रिशूल लिये आयेंगे न्यायधीश
और सिटपिटा जायेंगे गवाह
बस थोड़ी देर से आयेगा डाक्टर
और कम हो जायेगा एक और मुसलमाननिश्चिंत रहें विद्वतजन
शांति की गारंटी है यह चुनाव परिणाम!
(तीन)
बोलो फरीदा जवाब दो **
नाट्यशाष्त्र के पारंगत अभिजनों के
तीर से तीक्ष्ण प्रश्नों काभयभीत खंजन नयनों की भाषा
सिर्फ़ नाटक मे पहचानते हैं ये
जो पोथियां नहीं पढ़ीं तुमने
जाओ ढ़ूढ़ो उन्हें पुस्तकालयों के घने जंगलों में
राजधानी के नाट्यगृहों में तलाशो सिद्धान्तों के अस्त्र
आंसूओं से नहीं चलेगा काम
बोलो फरीदा - जवाब दोएक दृश्य ही तो था नाटक का
हाथों में तलवार लिये एक शिशु के वध को उद्धत
अद्भुत चपल कलाकार ही तो था वह
मां की भूमिका में बस चीखना था तुम्हें
और ढ़ेर हो जाना था उस शव पर
पटकथा में तो कहीं नहीं था वह दारूण विलाप
कब कहा था निर्देशक ने कि हत्यारे के पैरों पर गिर मांगो दया की भीख
याचना तो थी ही नहीं दृश्य में न विलाप
बस चीख कर हो जाना था ढेर
और गिरते ही यवनिका के शिशु को ले चले आना था नेपथ्य में
और यही तो करती आई थी अभी तक अभ्यास मेंफिर?
मंच पर सैकड़ों दर्शकों के समक्ष क्यूं किया यह?
बोलो फरीदा - जवाब दोक्या हुआ कि तुम्हारे विलाप के साथ
बह उठे सैकड़ों नेत्रों से विगलित अश्रु
शिशुओं को भींच सिसक उठी मातायें
प्रथम पंक्ति में आसीन आलोचकों की क्रुद्ध भंगिमा नहीं देखी
तुमने नहीं देखा किस तरह विचलित हो उठा तुम्हारा सहकलाकार
दुनिया को बदलने के नाटक कर रहे हमलोग
भावनायें नहीं तर्क समझतें हैं मात्र
और कहीं यह मात्र आत्मप्रदर्शन तो नहीं तुम्हारा?
कहो फरीदा - जवाब दो
23 दिसम्बर की शाम की उस भयावह भूल का
हिसाब दो फरीदा-कहो फरीदा - जवाब दो!
** फरीदा अहमदाबाद की संवेदन संस्था से जुड़ी नाट्यकर्मी है और 2002 की विभीषिका की साक्षी हैं।
टिप्पणियाँ
बेहतर कविताएं...
संवेदनाओं को नये सिरे से मथती हैं...
"ये गुजरात के मुस्लमान हैं या लोकतंत्र के प्रेत?"
कितनी भयावह है ये तस्वीर जो हमारी संवैधानिक व्यवस्था और सर्व-धर्म-समभाव जैसी तथाकथित ऐतिहासिक परंपरा की खिल्ली उड़ाती है. और लोकतंत्र ......... रथ यात्राओं और विकास यात्राओं के पहियों में कब का रौंदा जा चुका है.
भोजशाला विवाद के दौरान कुछ पंक्तियाँ लिखी थी, जो इन कविताओं को पढ़कर फिर से जीवंत हो गई हैं -
"है बाबरी कभी तो भोजशाला कभी है
यही तो तीर सजे हैं उनकी कमान में
कहने के बाद कुछ मतलब कुछ और बताएं
कमाल जादू है देखिये उनकी जुबान में"
मुझे कई बार बड़ा अफ़सोस होता है ये सोचकर कि तमाम कानूनों, विरोध और प्रयासों के बावजूद लोग धर्म कि अफीम बड़ी ख़ुशी से खाते हैं.
तीनों कविताएं इस दर्द को पूरी शिद्दत से बयां करती हैं।
सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा लेकिन आज नहीं
आज इसलिये नहीं कि तुम मन की कर लो
बाकी बचे न एक, खूब तबियत भर लो
आज बहुत अनुकूल ग्रहों की बेला है
चूको मत अपने अरमानों को वर लो
कल की साईत जो आयेगी
सारी कालिख धो जायेगी
इसलिये कि अँधियारे की होती उम्र दराज़ नहीं
सब प्रश्नों के उत्तर दूंगा लेकिन आज नहीं
is tarah sach ko aap hi kah sakate hain Ashok ji ........
बस एक अनुरोध है…अपने परिचय और नाम के साथ आईये मित्र। कुछ और नहीं बस विश्वसनीयता के लिये
और कम हो जायेगा एक और मुसलमान
निश्चिंत रहें विद्वतजन
शांति की गारंटी है यह चुनाव परिणाम!
कितनी निर्भीकता से ये अभिव्यक्ति की है दाद देती हूँ । फरीदा वाली रच्ना तो दिल को छू गयी बहुत सही तस्वीर खींची है आपने आज साम्प्रदायिक ताकतें कैसे हथकन्दे अपना कर मानवता को शर्मसार कर रही हैं । बहुत सुन्दर कवितायें हैं धन्यवाद और शुभकामनायें
aapki kavitayein bahumulya hain!
Jaya Pathak Srinivasan
हरे हो गए जख्म
दूर कहीं बज रहा है
विजय का शंखनाद
बहुत कुछ बाकी है अभी !
dusre gujrat mein kanoon ne apna kaam kiya doshiyon ko saja mili...
1984 par system kyon chup raha, kyon nahin doshiyon ko saja mili.
आखिर में जौन का एक शेर इन कविताओं को नज़र
खून हर रंग में दाद तलब !
खून थूकूं तो वाह वाह कीजे !!