पता नहीं कितनी बची हो तुम मेरे भीतर!
तुम्हारी तरह होना चाहता हूं मैं
तुम्हारी भाषा में तुमसे बात करना चाहता हूं
तुम्हारी तरह स्पर्श करना चाहता हूं तुम्हें
तुम होकर पढ़ना चाहता हूं सारी किताबें
तुम्हें महसूसना चाहता हूं तुम्हारी तरह
वर्षों पहले पढ़ा था कभी
मुझमें भी हो तुम ज़रा सा
उस ज़रा सा तुम को टटोलना चाहता हूं अपने भीतर
बहुत दूर तक गया हूं अक्सर इस तलाश में
जहां मुझे पैरों पर लिटा जाड़े की गुनगुनी धूप में
एक अधेड़ औरत गा रही है
जुग-जुग जियसु ललनवा
भवनवा के भाग जागल हो
और उसकी आंखों से टपक रहा है
किसी भवन का भाग्य न जगा पाने का दुख
उस दुख से अनजान एक दूसरी औरत
रुई के फ़ाहे सी उड़ रही है उल्लास से
सखियों की इर्ष्यालु चुहल से बेपरवाह
हर सवाल का एक ही जवाब है उसके पास
घी क लड्डू टेढ़ों भल
मैं देख रहा हूं तुम्हें अपने भीतर
सहमकर सिमटते हुए
मैं तुम्हें दौड़कर थाम लेता हूं
और निकल जाता हूं
बौराये हुए आम के बग़ीचे तक
वहां मैली जनेऊ पहीने एक स्थूलकाय पुरुष
कुलदेवी की मूर्ति के सम्मुख नतमस्तक है
दान की प्रतीक्षा में उत्सुक विप्र बांच रहे हैं कुण्डली
हो रही है धरती से स्वर्ग तक सीढ़ियों की व्याख्या
पता ही नहीं चला इन सबके बीच
तुम कब भाग गयी छुड़ाकर मेरा हाथ
और मैं अवाक देख रहा हूं
अपने भीतर के मैं को लेता आकार
मै फिर फिर लौटकर आता हूं तुम्हारे पास
चुपचाप हो जाता हूं तुम्हारे खेल में शामिल
छुपम छुपाई खेलता हूं
एक टांग पर दौड़ता हूं – इख्खट-दुख्खट
कि तुम अचानक
अपनी फ्राक से निकालती हो गुड़िया
और सजाते हुए गुड्डे का सेहरा
खींच देती हो उसका घूंघट…
मैं ढूंढ़ता हूं तुम्हें अपने भीतर
लेकिन वहां बिंदी है, चूड़ियां, पायल और सहमा सा घूंघट
मैं बात करना चाहता हूं तुमसे
पर वहां चुप्पी है, शर्म है और अजनबियत हज़ार वर्ष पुरानी
और बाहर गा रहीं हैं औरतें कोरस में
कैसन होईंहें बाबू क दुल्हिन
दूध जैसन उज्जर
पान जैसन पातर
फूल जैसन कोमल
अईसन होईंहे बाबू क दुल्हिन
मैं बेचैन हो भागता हूं तुम्हारी तलाश में
पर बीच में एक पाठशाला है
जहां पिता दफ़्तर जा रहे हैं
मां खाना पका रही है
भैया खेल रहा है क्रिकेट
और मुन्नी पानी ला रही है!
इस लंबी यात्रा में जब-जब आना चाहता हूं तुम्हारे करीब
हज़ारो हांथ आकर थाम लेते हैं मुझे
तुम बस सिमटती चली जाती हो
और मैं किसी जंगली घास की तरह
घेरता ही जाता हूं सारी ज़मीन
लिखा तो अब भी है उस किताब में
पर पता नहीं कितनी बची हो अब तुम मेरे भीतर
कौन जाने जब तुम होकर करुंगा मैं तुमसे बात
तुम पहचान भी पाओगी अपनी आवाज़
डरता हूं कि जब छुउं तुम्हें तुम होकर
तो कहीं चौंक ही न जाओ तुम उस स्पर्श से
सुनो! तुम्हारे भीतर भी तो एक ‘मै’ था
तुम कहो ना कितना बचा है वह अब?
टिप्पणियाँ
गंभीर इशारे करती हुई...
अच्छी लगी भाई जी...
हर स्त्री..पुरुष के भीतर
"तुम" किस तरह जीती हो आत्मा के भीतर...
धूप की कूंची हवा की महक में डूब यहाँ केनवस पर चित्रित है ...
हज़ारो हांथ आकर थाम लेते हैं मुझे
तुम बस सिमटती चली जाती हो
और मैं किसी जंगली घास की तरह
घेरता ही जाता हूं सारी ज़मीन
asardaar kavita hai
jahan bhaav dil ko chhu lete hain ....
लेकिन वहां बिंदी है, चूड़ियां, पायल और सहमा सा घूंघट
मैं बात करना चाहता हूं तुमसे
पर वहां चुप्पी है, शर्म है और अजनबियत हज़ार वर्ष पुरानी
और बाहर गा रहीं हैं औरतें कोरस में
Ashokji Bahut khoob likha hai....masoom bhavnayon ko bahut hi aache dhang se likha hai....
बहुत ही सरस और सुन्दर कविता.
तुम कहो ना कितना बचा है वह अब?
दिखने को सरल किंतु बहुत जटिल सवाल
छुपम-छुपाई का या फिर वो इखट-दुखट का बचपन का दौर और प्रेम की उस पहली अनुभूति का अहसास....न, मेरे शब्दों में इतना सामर्थ्य नहीं कि कुछ और कह सकूं इस अद्वितिय कविता पर।
god bless you sir...you are amazing...hats off to you n your "pen"!
bahut umda.
kaa kahin kucho kah ke kavita ke sahi prasansa na kar payeeb. .
satya.
बहुत सुन्दर सी भाषा और भावो से सराबोर ...