ख़त्म नही होती बात...
(हालिया प्रकाशित कुछ महत्वपूर्ण कविता संकलनों से असुविधा पर आपको रु ब रु कराने के वायदे के तहत हम इस बार प्रस्तुत कर रहे हैं ख्यात युवा कवि बोधिसत्व का ताज़ा संकलन 'ख़त्म नहीं होती बात'। राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस संकलन का मूल्य है २०० रु। १९९१ में प्रकाशित अपने पहले संकलन 'सिर्फ़ कवि नहीं' से पहचान बनाने वाले बोधि भाई के अन्य संकलन हैं -' हम जो नदियों के संगम हैं '(२०००) और 'दुख तंत्र '(२००४)। यहां प्रस्तुत है उनके संकलन का ब्लर्ब और तीन कवितायें)
जीने का सहजबोध और उसको सहारती-सँभालतीदुधमुँही कोंपलों-सी कुछ यादें, कुछ कचोटें, कुछ लालसाएँऔर कुछ शिकायतें। बोधिसत्व की ये कविताएँसमष्टि-मानस की इन्हीं साझी जमीनों से शुरू होतीहैं, और बहुत शोर न मचाते हुए, बेकली का एकमासूम-सा बीज हमारे भीतर अँकुराने के लिए छोड़ जातीहैं। इन कविताओं की हरकतों से जो दुनिया बनतीहै, वह समाज के उस छोटे आदमी की दुनिया है जिसकेबारे में ये पंक्तियाँ हैं: ‘‘माफी माँगने पर भी/माफनहीं कर पाता हूँ/छोटे-छोटे दुखों से/उबर नहीं पाताहूँ/पावभर दूध बिगड़ने पर/कई दिन फटा रहता हैमन/कमीज पर नन्ही-सी खरोंच/देह के घाव से ज्यादादेती है दुख।’’ (छोटा आदमी)छोटे आदमी की यह दुनिया जिस पर आज किस्म-किस्मकी बड़ी चीजें और दुनियाएँ निशाना साध रही हैं, अगरसुरक्षित है, और रहेगी, तो उन्हीं कुछ छोटी चीजों केसहारे जिन्हें बोधिसत्व की ये कविताएँ रेखांकित कररही हैं। मसलन साथ पढ़ी मुहल्ले की उन लड़कियों कीयाद जिनके बारे में अब कोई खबर नहीं (हाल-चाल);गाँव के वे बेनाम-बेचेहरा लोग जिनके सुरक्षित साये मेंबचपन बीता, और आज महानगर की भूल-भुलैया मेंजिनकी फिर से जरूरत है (मैं खो गया हूँ); अपने घावोंमें सबको पनाह देनेवाली उस आवारा लड़की का प्यारजिसके अपने पास कोई जगह कहीं नहीं (कोई जगह)।और ऐसी ही अन्य तमाम चीजें जो हम साधारण जनोंके संसार को हरा-भरा रखती हैं, इन कविताओं के माध्यमसे हम तक पहुँच रही हैं।‘लालच’ शीर्षक कविता में व्यक्त इस छोटे आदमीकी नग्न लालसा हिन्दी कविता को एक नया प्रस्थानबिन्दु देती प्रतीत होती है। लग रहा है कि थोड़ी हिचकके साथ ही, लेकिन अब वह उन सुखों में अपनी भीहिस्सेदारी चाहता है, जिनका उपभोग बाकी पूरा समाजइतने निर्लज्ज अधिकारबोध के साथ कर रहा है।‘खत्म नहीं होती बात’ के रूप में कविता-प्रेमियों केसम्मुख यह ऐसी कविता-पुस्तक है जो काव्य-प्रयोगोंके लिए नहीं अपने भाव-सातत्य और वैचारिक नैरंतर्यके लिए महत्त्वपूर्ण है।
दाना
दाना
गेहूं का वह दाना
खेत में छूट गया था,बोझ उठाते वक्त बालियों से
छिटक कर
पड़ा रहा कई दिनों धूप झेलता।
रात के अन्धकार में चुप चुप सा।
उसे एक गौरैया ने बड़ी मुश्किल से उबारा
और वह दाना ख़तम हो गया
चुप चुप सा
उस दाने को क्या मिला
लोगों का कहना है गौरैया
की आँखों मंे जो चमक थी
उसे देख कर दाना दमक उठा था।
दाना चुग कर गौरैया उड़ गई
यहीं से दाने की कथा दूसरों
की चमक से जुड़ गई।
लालच
कुछ भी अच्छा देख कर ललच
उठता है मन
अच्छे घर अच्छे कपड़े
अच्छी टोपियाँ
कितनों चीजों के नाम लूँ
जो भी अच्छा देखता हूँ
पाने को मचल उठता हूँ।
यह अच्छी बात नहीं है जानता हूँ
यह बड़ी घटिया बात है मानता हूँ
लेकिन कितनी बार मन में आता है
छीन लूँ
सब अच्छी चीजें पा लूँ कैसे भी।
अच्छी चीजें लुभाती हैं
सदा मुझे
मैं आपकी बात नहीं करता
शायद
आपका मन मर चुका है
शायद
आप का मन भर चुका है।
आप पा चुके वह सब जो पाना चाहते थे
नहीं रही अच्छी चीजों के लिए आपके मन में कोई जगह
कोई तड़प
कोई लालसा आपकी बाकी नहीं नही
लेकिन मेरी तृष्णा बुझी नहीं है अब तक
भुक्कड़ हूँ दरिद्र हूँ मैं जन्म का
हूक सी उठती है अच्छी चीजों को देख कर
हमेशा काम चलाऊ चीजें मिलीं
न अच्छा पहनान अच्छा खाया
बस काम चलाया
तो अहक जाती नहीं
अच्छे को पाने के लिए सदा बेकल रहता हूँ
।हजार पीढ़ियाँ लार टपकाती मिट गई मेरी
इस धरती से
निकृष्ट चीजों से चलता रहा काम
अच्छी चीजें रहीं उनकी हथेलियों के बाहर
पकड़ से दूर रहा वह सब कुछ जो था बेहतर
वे दूर से निहारते सिधार गए
मैं नहीं जाना चाहता उनकी तरह अतृप्त छछाया
मैं खत्म करना चाहता हूँ लालच और अतृप्ति का यह खेल
इसीलिए मैं जो कुछ भी अच्छा है
उसे कैसे भी पाना चाहता हूँ
जिसे बुरा मानना हो माने
मैं लालची हूँ और सचमुच
सारी अच्छी चीजें हथियाना चाहता हूँ ।
कुछ भी अच्छा देख कर ललच
उठता है मन
अच्छे घर अच्छे कपड़े
अच्छी टोपियाँ
कितनों चीजों के नाम लूँ
जो भी अच्छा देखता हूँ
पाने को मचल उठता हूँ।
यह अच्छी बात नहीं है जानता हूँ
यह बड़ी घटिया बात है मानता हूँ
लेकिन कितनी बार मन में आता है
छीन लूँ
सब अच्छी चीजें पा लूँ कैसे भी।
अच्छी चीजें लुभाती हैं
सदा मुझे
मैं आपकी बात नहीं करता
शायद
आपका मन मर चुका है
शायद
आप का मन भर चुका है।
आप पा चुके वह सब जो पाना चाहते थे
नहीं रही अच्छी चीजों के लिए आपके मन में कोई जगह
कोई तड़प
कोई लालसा आपकी बाकी नहीं नही
लेकिन मेरी तृष्णा बुझी नहीं है अब तक
भुक्कड़ हूँ दरिद्र हूँ मैं जन्म का
हूक सी उठती है अच्छी चीजों को देख कर
हमेशा काम चलाऊ चीजें मिलीं
न अच्छा पहनान अच्छा खाया
बस काम चलाया
तो अहक जाती नहीं
अच्छे को पाने के लिए सदा बेकल रहता हूँ
।हजार पीढ़ियाँ लार टपकाती मिट गई मेरी
इस धरती से
निकृष्ट चीजों से चलता रहा काम
अच्छी चीजें रहीं उनकी हथेलियों के बाहर
पकड़ से दूर रहा वह सब कुछ जो था बेहतर
वे दूर से निहारते सिधार गए
मैं नहीं जाना चाहता उनकी तरह अतृप्त छछाया
मैं खत्म करना चाहता हूँ लालच और अतृप्ति का यह खेल
इसीलिए मैं जो कुछ भी अच्छा है
उसे कैसे भी पाना चाहता हूँ
जिसे बुरा मानना हो माने
मैं लालची हूँ और सचमुच
सारी अच्छी चीजें हथियाना चाहता हूँ ।
मन्द्र सम
सारी रात
ज़ोर-ज़ोर से बरसा पानी
हम सोते थे...
सुनाई पड़ती रही
आवाज़ बरसने की जानी पहचानी...
बूंदों के गिरने से
बजते थे पत्ते पेड़ों के
पत्तों के बजने से पूरा पेड़
बजा करता था...
पंछी सब...भीगे होंगे या उड़ गए होंगे कहीं...
बजती रही रात भर धरती...
बूंदों की झमझम से...
व्याप्त रही हर ओर वृष्टि-ध्वनि
कभी मन्द्र या सम से।
टिप्पणियाँ
आपने इन्हें एक साथ प्रस्तुत किया...यह और भी बेहतर...
दो अंतर्विरोधी भावों का द्वंद और समेकन संभव हो पा रहा है...
अच्छा लग रहा है खत्म नहीं होती बात को आपके यहाँ देख कर. पढ़ने और टीप देने के लिए मैं भी मैं सबका आभारी हूँ। आपको धन्यवाद .......नहीं दे रहा हूँ।
वैसे आपकी टीप में भी नया क्या है? वही परदे में छुपा शैतानी चेहरा और वही खुन्नस में डूबा आर्तनाद… कुछ मौलिक आलोचना ढूंढिये फिर गरियाईये तो मज़ा आयेगा…
मैं खत्म करना चाहता हूँ लालच और अतृप्ति का यह खेल
इसीलिए मैं जो कुछ भी अच्छा है
उसे कैसे भी पाना चाहता हूँ
जिसे बुरा मानना हो माने
मैं लालची हूँ और सचमुच
सारी अच्छी चीजें हथियाना चाहता हूँ ।
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बोधि भाई को बधाई.