हम नालायक बेटे
कोई नहीं आया दरवाज़े पर
पिता की प्रतिष्ठा बढ़ाने
सारे विवाह गीत मां के होठों में दबे रह गये
नहीं मिला बुआ को जड़ाऊ हार
दोस्तों की सारी रात नाचते रहने की तमन्ना अधूरी रह गयी
भाई तरसता रहा सहबाला बनने को
गहनों की आकांक्षा तो शायद उसको भी थी
जिसके दरवाज़े पर नहीं आई घोड़ों वाली बारात
जिसके पिता को नहीं पूजना पड़ा पांव
उसकी भी मां के सीने से लग अहक-अहक रोने की चाह अधूरी रह गयी
सोहर से शुरु हुए सफ़र में
कितनी उम्मीदें थी हमारे कांधों पर सवार
हर अंकपत्र से बलवती होतीं कितनी आकांक्षायें
एक पूरा समाज था
ईर्ष्या और आकांक्षाओं के रथ पर सवार
कितने ही यज्ञों का अश्व बनना था हमें
कितने ही कृष्णों का अर्जुन
कितने ही किस्सों का नायक … सहनायक
हम पुरुष थे अधिकार और गर्व से भरे
कर्तव्यों का उतना बोझ नहीं था कभी
कितनी वैतरणियां थीं हमारी गर्वीले कांधों के इंतज़ार में
कितनी परंपरायें, पूर्वजों के कितने किस्से
कितने ही धनुष थे हमारे इंतज़ार में और कितनी ही चिड़ियां
हमारी उम्र से भारी कितनी ही उम्मीदों का तूणीर…
सब के सब निराश
सब के सब नाराज़
सब के सब निरुपाय
हम तोड़ आये सारे चक्रव्यूह
और ठुकरा दिया गर्भ में मिला ज्ञान
हम नालायक़ पुत्र अपने पिताओं के
पूर्वजों के माथे का कलंक घोर
हम हत्यारे कितनी उम्मीदों के
हम अपराधी कितनी परंपराओं के
कर्तव्यों के मारे हम
छोड़ी अधिकारों की चाह
और चुनी ख़ुद अपनी राह…
टिप्पणियाँ
सत्य
prastuti to jabardast hai
kunwar ji,
छोड़ी अधिकारों की चाह
और चुनी ख़ुद अपनी राह…
बस समय की पुकार यही है...उद्वेलित करती हुई रचना...
पूर्वजों के माथे का कलंक घोर
हम हत्यारे कितनी उम्मीदों के
हम अपराधी कितनी परंपराओं के
कर्तव्यों के मारे हम
छोड़ी अधिकारों की चाह
और चुनी ख़ुद अपनी राह…
सत्य ....
और ठुकरा दिया गर्भ में मिला ज्ञान....
सबसे बड़ी बात इस चक्रव्यूह की सही समझ ही है...
कारा तोड़ने के लिए...
गज़ब के शब्द...जो कभी-कभी की ईमानदार चिलकन को बेहतर अभिव्यक्त कर रहे हैं...और प्रतिबद्धता को भी बखूबी बरअक्स रख रहे हैं....
ये कविता और पहले आनी चाहिए थी !
ये कविता और पहले आनी चाहिए थी !