अपर्णा मनोज की कवितायें
(अपर्णा मनोज से मेरा परिचय फेसबुक पर हुआ…वहां उनकी कवितायें कविता सृजन के इस महाविस्फोटक काल में अलग से चमकतीं लगीं…विषय की गहराई तक उतरने का माद्दा, विषयों की विविधता, शिल्प में भटकन का आनंद और एक गहन संवेदनशीलता से पगी उनकी कवितायें देर तक सोचने को विवश करती हैं। ये कवितायें धैर्य से पढ़े जाने की मांग करती हैं…)
बाहर बहुत बर्फ है
तुम्हारे देश के उम्र की है
अपने चेहरे की सलवटों को तह कर
इत्मीनान से बैठी है
पश्मीना बालों में उलझी
समय की गर्मी
तभी सूरज गोलियां दागता है
और पहाड़ आतंक बन जाते हैं
तुम्हारी नींद बारूद पर सुलग रही है
पर तुम घर में
कितनी मासूमियत से ढूंढ़ रही हो
कांगड़ी और कुछ कोयले जीवन के
तुम्हारी आँखों की सुइयां
बुन रही हैं
रेशमी शालू
कसीदे
फुलकारियाँ
दरियां ..
और तुम्हारी रोयें वाली भेड़
अभी-अभी देख आई है
कि चीड और देवदार के नीचे
झीलों में खून का गंधक है
और पी आई है वह
पानी के धोखे में सारी झेलम
अजीब सी बू में
मिमियाती ...
किसी अंदेशे को सूंघती
कानों में फुसफुसाना चाहती है
पर हलक में पड़े शब्द
चीत्कार में कैद
सिर्फ बिफरन बन
रिरियाते हैं ...
तुम हठात
अपनी झुर्रियों में
कस लेती हो उसे
लगता है बाहर बहुत बर्फ है !
मीत से
मैं जानती हूँ
कठिन होगा तुम्हारे लिए
पर असाध्य नहींI
तुम्हारे भीतर
मैं सिर्फ मिट्टी हूँ
एक सौंधापन लिए
तुम जड़ बनकर
मेरी परतों में
किसी नमी को
सोखते रहे-
हरे हुए
भूरे कठिन टहनियों पर
कितने तूफानों को टेक कर
मुदित हुए थे
सामर्थ्य पर ..
मैंने कुछ और कोंपलें सौंपी
और हहराकर तुम देने योग्य बन सके
मैं दीमक बीनती रही
कहीं संशय की कोई बांबी
कुरेद न दे तुमको
तुम्हारी विजय की शाखाएँ
किस कदर फैलती रहीं
गर्वोन्नत
मैं वहीँ तुम्हारी छाया को संभाले थी
पकड़कर अपनी नमी के भीतर भीतर भीतरतर
अब इस मिट्टी के विसर्जन का वक्त है
किसी और नमी में बहने का
घुलने का
जमने का
अंतहीन नदी की धारा संग ..
पर मेरे मीत
तुम मत करना विसर्जन
रोक लेना
वहीँ अपनी भीत में
आँगन में
अंगीठी की आंच में
सृजन की माटी को
नश्वर
मैं कहीं दबी रहूंगी
चुप तुम्हारी जड़ों में..
मिनौती
मेरे बांस
पहचानते हो मिनौती( एक बाला का नाम ) को
तुम्हारी और मेरी आत्मा एक सरीखी है-
इस खोखल से
सर्रसर्र करती हवाओं ने बजना सीखा है
छिल-छिल कर सरकंडों में गुंथी
जीवन की टोकरियाँ
जिनमें वे भर सके
आराम ..
आज भी तुम्हारी बांसुरी से
गुज़र जाते हैं
बरई, न्यिओगा(अरुणाचल के लोकगीत )
मेरी सलवटों में उलझे
कितनी तहों के भीतर
छलकते आंसुओं की तलौंछ के नीचे
दबे-दबे से स्वर
मेरे सीतापुष्प (ऑर्किड )
तुम्हे याद होगा मेरा स्पर्श-
अपने कौमार्य को
सुबनसिरी (अरुणाचल की नदी ) में धोकर
मलमल किया था
और घने बालों में तुम
टंक गए थे
तब मेरी आत्मा का प्रसार उस सुरभि के साथ
बह चला था
एक वसंत जिया था दोनों ने
मिट्टी तुम क्यों घूर रही हो -
इन झुर्रियों के नीचे
अभी भी सूरज जलता है (अरुणाचल में सूरज स्त्री रूप है और चाँद पुरुष )
जिसके दाह से
तुम प्रसव करती रही हो
क्षिप्र सफ़ेद धान का
जैसे धूप सफ़ेद होती है
तुम्हारे बीज से
मेरी प्रसव पीड़ा से
धैर्य पाया था सृजन का
चीड़-चीनार में खोये पहाड़
तुम्हारी हरी पटरियों पर
मेरे चुप पैर आहट देते रहे हैं
ताकि तुम्हारा खोयापन
अकेला न रह जाए
इस विशाल समृद्धि में
तुम्हारा विस्तार मेरी सीमाओं में बंधता रहा है
अपने होने की मीमांसा करोगे ?
मेरा चुप रहना ही ठीक I
(हर नारी मिनौती है .. यहाँ दृश्य अरुणाचल का है , इसलिए बांस, धान , सूरज , सीतापुष्प , पहाड़ के बिम्ब भी उसी प्रदेश के हैं. बरई, न्यिओगा वहाँ के लोक जीवन से जुड़े गीत हैं - जैसे हम बन्ना- बन्नी , आला , बिरहा से जुड़े हैं ... इस संगीत को बांसों से जोड़ा है .. जैसे बांस के खोखल से निसृत होकर ये मिनौती की आत्मा में पैठ गए हैं ... नारी के मन और आत्म को समझाते हुए पुरुष से अंतिम प्रश्न पर कविता समाप्त होती है ...)
सलीब
जब भी सलीब देखती हूँ
पूछती हूँ
कुछ दुखता है क्या ?
वह चुप रहती है
ओठ काटकर
बस अपनी पीठ पर देखने देती है
मसीहा ...
तब जी करता है
उसे झिंझोड़कर पूछूं
क्यों तेरी औरत
हर बार चुप रह जाती है सलीब ?
तब मूक वह
मेरी निगाहें पकड़ घुमा देती है
और कीलों का स्पर्श
दहला देता है मेरा वजूद
कुछ ठुक जाता है भीतर .
मेरी आँखें सहसा मिल जाती हैं
मसीहा से ..
वह मेरे गर्भ में रिसता है
और पूरी सलीब जन्म लेती है
मैं उसका बदन टटोलती हूँ
हाथ पैर
मुंह - माथा ..
अभी चूमना शेष है
कि ममता पर रख देता है कोई
कंटीला ताज
और मसीहा मुसकराता है ..
सलीब की बाहें
मेरा स्पर्श करती हैं
मैं सिहरकर ठोस हो गयी हूँ -
एक सूली
जिस पर छह बार अभियोग चलता है
और एक शरीर सौंप दिया जाता है
जिसने थक्का जमे खून के
बैंगनी कपड़े पहने हैं
कुछ मुझमें भी जम जाता है
ठंडा , बरफ , निस्पंद
फिर मैं सुनती हूँ
प्रेक्षागृह में
नेपथ्य से
वह चीखता है - "पिता मेरी आत्मा स्वीकार कर "
आकाश तीन घंटे तक मौन है
अँधेरी गुफा में कैद
दिशाएँ निस्तब्ध
कोई मुझे कुचल रहा है ..
कुचल रहा है
क्षरण... क्षरण ..
आह ! मेरे प्रेम का मसीहा
सलीब पर टंगा है .
और मेरी कातरता चुप !
परिचय : 6 अगस्त 1964 को जयपुर (राजस्थान) में जन्मी अपर्णा ने अंग्रेजी तथा हिंदी में एम.ए. किया है। 2009 तक दिल्ली पब्लिक स्कूल , अहमदाबाद में हिंदी विभाग के प्राध्यापक एवं कोऑर्डिनेटर पद पर कार्यरत रहीं। "मेरे क्षण" (कविता-संग्रह) प्रकाशित है।
टिप्पणियाँ
बेहतरीन कवितायेँ..
http://hindisongssmusic.blogspot.com/
यहाँ आप द्वारा दी गयी कविताओं में एक बार से गुजरना हुआ ! अच्छी कविताओं का पुनः पाठ नया सा ही लगता है ! ऐसा लगा ! इन कविताओं में रचनात्मक-वैविध्य सर्वाधिक पसंद है मुझे ! आपने नीचे जो परिचय दिया है वह भी मेरे लिए नया ही है ! आभार !
नमस्कार !
अच्छी कविताओं के लिए बधाई , आप कि कविताए पढ़ अच्छा लगा ..
साधुवाद
--
अपर्णा जी और अशोक जी आप दोनों को बधाई! अपर्णा जी को मार्मिक कविताओं के लिए और अशोक जी को उनसे हमारा परिचय करवाने के लिए.. ब्लॉग पर किन्ही कारणों से कमेन्ट नहीं जा प् रहा था... वाकई अच्छी कवितायेँ.."
आपका आभार पढ़वाने का!
अच्छा लग रहा है ....
नमस्कार !
अच्छी कविताओं के लिए बधाई , आप कि कविताए पढ़ अच्छा लगा ..
अनूठी शैली ,और सजग प्रतीकों से भावों को आकार देती
सफल कृतियाँ हैं ये ! बधाई !