इसे बढ़ना था कितनी दिशाओं में मैत्री के लिये
इस बार प्रस्तुत हैं महेश वर्मा की कवितायें…अम्बिकापुर में रहने वाले महेश परस्पर पत्रिका से जुड़े रहे … उनकी कवितायें हिन्दी की प्रतिबद्ध परंपरा से गहरे जुड़ती हैं और एक बेहतर दुनिया के स्वप्न को हक़ीक़त में बदलने के लिये ज़रूरी हस्तक्षेप करती हैं...उन्हें अंतरजाल पर पहली बात पेश करते हुए असुविधा की ओर से शुभकामनाएं
चढ़ आया है पानी
देह के भीतर चढ़ता जा रहा है पानी
बाहर आईने में रोज परख रहा हूं मैं
अपनी त्वचा का आश्वासन,
एक पुराने चेहरे के लिये
मेरे पास है मुस्कान का समकालीन चेहरा.
कल जो कमर तक था पानी आज
चढ़ आया है सीने तक
सुनाई देने लगी है कानों में हहराते पानी की आवाज़
दिखाई देते हैं फुनगी के थोड़े से पत्तो
डूब जो चुकी है पगली झाड़ी.
किसी पर्व की रात सिराए दीपक सी
अब भी डगमग उतराती हो आत्मा
इसी बढ़ते जल में!
रहस्य
कितने बल से धकेला जाये दरवाजा दाहिने हाथ से
और उसके कोन से पल चढ़ाई जा सकेगी बाएँ हाथ से चिटखनी
इसी संयोजन में छुपा हुआ है-
मुश्किल से लग पाने वाली चिटखनी का रहस्य.
इस चिटखनी के लगन से जो बंद होता दरवाजा
उसके बाहर और भीतर सिर झुकाए खड़ी है लज्जा
कि जीवन भर समझ नहीं पाया पुरूष
इसे बंद करने की विशेषज्ञता को सीखने में
स्त्री की अरूचि का रहस्य.
एक विशिष्ट आवाज़ है इस चिटखनी के खुलने बंद होने की
धीरे-धीरे हुई यह दरवाजे क़ी आवाज़ और अब
यह प्रतिनिधि आवाज़ है इस घर की.
इसी से बन सका है घर का हवाओं से एक मौलिक और निजी रिश्ता
खोलते बंद करते छू जातीं उंगलियाँ जहां नियम से
छूट गया है वहां पर दरवाजे क़ा थोड़ा सा रंग
झांक रहा है नीचे से लकड़ी का प्राचीन रहस्य
सेब
जब इतनी बारिश लगातार हुई
कि डूब सकता था कुछ भी
मैं भागकर कमरे में आया और
उठाकर बाहर आ गया-यह अधखाया सेब.
मुझे याद आया जब लगी थी आग पिछली गर्मियों में
तब भी मैंने बचाया था-
एक अधखाया सेब.
जाड़े में धीमे सड़ती है चीजें लेकिन
पाले में उंगलियाँ गलने से पहले भी
मैंने ज़मीन से उठाकर रख लिया था जूठा सेब.
इससे पहले कि इसमें ढूंढ़ लिया जाये कोई संदर्भ
इस बेकार की चीज़ को-
मैं उछालता हूँ आपकी ओर
हाथ
अभी इस पर धूल की पतली परत है लेकिन
यह मेरा हाथ है जिसे देखता हूँ बार बार
डूबकर जीवन में.
यहीं कहीं हैं भाग्य और यश की पुरातन नदियाँ
कोई त्रिभुज घेरे हुए भविष्य का वैभव,
समुद्र यात्राओं के अनाम विवरण,
किसी चाँद का अपरिचित पठार, कोई रेखा
जिसमें छिपाकर रखे गये हैं आयु और स्वास्थ्य के रहस्य,
गोपन की प्रेम की छोटी-छोटी पगडंडियाँ,
कोई सुरक्षित दांपत्य का पर्वत
भूत भविष्य की कोई दुर्घटना-किसी पांडुलिपि की अबूझ लिखावटें-
इसे देखता हूँ एक अधूरे सपने की तरह-समय के आखिरी छोर से.
प्रेम कविताओं की तरह के स्पंदित शब्द
जो लिखे जाने थे इससे, इसे बनाना था कोई चित्रा-
अभी बाकि हो प्रेम का कोई अछूता स्पर्श.
इसे बढ़ना था कितनी दिशाओं में मैत्री के लिये
अभी दबाई जानी थी बंदूक की लिबलिबि,
अभी देना था हृदय का उष्म संदेश.
मेरी देह से जुड़ा यह हाथ है मेरा
मेरा प्रिय, कितना अपरिचित
टिप्पणियाँ
परिपक्वता से मिलकर बनी
आपकी रचनाओं ने आकर्षित किया....
अच्छा लगा आपको पढना...
महेश जी बहुत बहुत बधाई...
आभार अशोक जी का..
.गीता
aapki sabhi rachnaen naye bimbon se saji hain aur shaj hi paathak ka man moh leti hain.
sadhuwad
मेरा प्रिय, कितना अपरिचित "
कमाल की कविताएँ हैं.....मन को झकझोर कर रख देने वाली...बिलकुल निशब्द कर देती हैं..
आभार पढवाने का
मेरा प्रिय, कितना अपरिचित "
कमाल की कविताएँ हैं.....मन को झकझोर कर रख देने वाली...बिलकुल निशब्द कर देती हैं..
आभार पढवाने का
फिलहाल एक तो यह कि मैंने देखा है इस आकार की कविताएँ अक्सर उतना बता नहीं पातीं जितना उनसे उम्मीद होती है पर ये कविताएँ कम शब्दों काफी कुछ कह रही हैं...हर स्तर पर....इनकी आतंरिक लय और बुनावट भी शानदार है...बेहद सधी हुई......
कवि को बधाई....
सुन्दर विम्ब!
अभिव्यक्ति का यह संघर्ष हर सच्चे कवि का आत्म संघर्ष है !
वर्मा जी की कवितायें भी इसी संघर्ष से जूझती और भाषा के संकरे पथरीले रास्ते पर ,
अपने छिले और लहूलुहान बदन के साथ आगे बढ़ती प्रतीत होती हैं !
आपका 'साहित्यकार'आपके ’कलाकार’ से बाजी मार गया..(कम से कम इस बार).
अशोकजी को भी बहुत-बहुत धन्यवाद.
Poems are excellent... Dont have words to express... I think we could have a very gud discussions on these poems... U r man of "CHHIPE RAHSYA" of words and feelings... Really Nic...