दुख की हरियरी फसल
|  | 
| पेंटिंग यहां से साभार | 
दर्द
सिर्फ़ नसों में 
पिन्हां नहीं होता दर्द
आंसुओं की उदास नमी में ही नहीं
हँसी की टटका धूप में भी 
पनप सकती है
दुख की हरियरी फसल
समय को रस्सियों सी बटती
सख़्त हथेलियों की लक़ीरों में बसी कालिख सा
चुपचाप जगह बनाता है दर्द
हम खड़ी करते रहते हैं
पथरीली दीवारें चारों ओर
और एक दिन 
चींटियों सा सिर झुकाये 
चला आता दर्द चुपचाप
दवाईयों से दब जायें जो
दर्द नहीं
महज बीमारियाँ हैं वे!
 
 
 
टिप्पणियाँ
खूबसूरत बहाव, भाव और संवेदनशीलता को देख कर कविता के अंत से कुछः ज्यादा उम्मीदें बंध गई थी...
दर्द नहीं
महज बीमारियां हैं वे...
वाह!
दवाईयों से दब जायें जोदर्द नहींमहज बीमारियाँ हैं वे!
गहन अभिव्यक्ति -
बहुत सुंदर लिखा है .
कविता के माध्यम से ! प्रस्तुतीकरण -अतिसुन्दर !!
हम्म्म्....!!