अजनबी मुस्कराहटों और अभेद्य चुप्पियों के बीच
( यह कविता सबसे पहले अनुनाद पर छपी थी…फिर तय हुआ कि संकलन का शीर्षक यही हो…अब संकलन आया है तो इस कविता की दुबारा याद आई, संकलन शिल्पायन से आया है…मित्र 011-22326078 से संपर्क कर मंगा सकते हैं)
लगभग अनामन्त्रित
उपस्थित तो रहे हम हर समारोह में
अजनबी मुस्कराहटों और अभेद्य चुप्पियों के बीच
अधूरे पते और गलत नंबरों के बावजूद
पहुंच ही गये हम तक आमंत्रण पत्र हर बार
हम अपने समय में थे अपने होने के पूरे एहसास के साथ
कपड़ों से ज्यादा शब्दों की सफेदियों से सावधान
हम उन रास्तों पर चले जिनके हर मोड़ पर खतरे के निशान थे
हमने ढ़ूंढ़ी वे पगडंडियां जिन्हें बड़े जतन से मिटाया गया था
भरी जवानी में घोषित हुए पुरातन
और हम नूतन की तलाश में चलते रहे...
पहले तो ठुकरा दिया गया हमारा होना ही
चुप्पियों की तेज धार से भी जब नहीं कटी हमारी जबान
कहा गया बड़े करीने से - अब तक नहीं पहचानी गयी है यह भाषा
हम फिर भी कहते ही गये और तब कहा गया एक शब्द- 'खूबसूरत'
जबकि हम खिलाफ थे उन सबके जिन्हें खूबसूरत कहा जाता था
जरूरी था खूबसूरती के उस बाजार से गुजरते हुए खरीदार होना
हमारे पास कुछ स्मृतियां थी और उनसे उपजी सावधानियां
और उनके लिये स्मृति का अर्थ गौरव प्राचीन
एक असुविधा थी कविता हमारे हिस्से
और उनके लिये सीढ़ियां स्वर्ग की
हमें दिखता था घुटनों तक खून और वे गले तक प्रेम में डूबे थे
प्रेम हमारे लिये वजह थी लड़ते रहने की
और उनके लिये समझौतों की...
हम एक ही समय में थे अलग-अलग अक्षांशों में
समकालीनता का बस इतना ही भ्रमसेतु था हमारे बीच
हम सबके भीतर दरक चुका था कोई रूस
और अब कोई संभावना नहीं बची थी युद्ध में शीतलता की
ये युद्ध के ठीक पहले के समारोह थे
समझौतों की आखिरी उम्मीद जैसी कोई चीज नहीं बची थी वहां
फिर भी समकालीनता का कोई आखिरी प्रोटोकाल
कि उन महफिलों में हम भी हुए आमन्त्रित
जहां बननी थी योजनायें हमारी हत्याओं की!
टिप्पणियाँ
संकलन मुबारक हो।
समकालीनता का बस इतना ही भ्रमसेतु था हमारे बीच
हम सबके भीतर दरक चुका था कोई रूस
और अब कोई संभावना नहीं बची थी युद्ध में शीतलता की
kya kahne hain, bahut khub!!
aur mere aur se bhi bahut bahut badhai...apke naye sankalan ke prakashan ke liye..:)
संकलन की बधाई
और अब कोई संभावना नहीं बची थी युद्ध में शीतलता की
क्या बात है?
और उनके लिए सीढिया स्वर्ग की.....
यथार्थ और सत्यता लिए हुए कविता की ये पंक्तियाँ
अंतर दर्शा रही हैं मनोभावों में ......
हम सबके भीतर दरक चुका था कोई रूस ......
स्वपन का टूटना और उसका दंश
बहुत बढ़िया कविता और संकलन के हार्दिक बधाई