ढोया हुआ सलीब मुझ तक आ गया है !

वन्दना शर्मा की यह कविता मुझे फेसबुक मैसेज पर मिली थी. सिर्फ पढ़ने के लिए...फिर कई बार पढ़ी गयी...हर बार पहले से अधिक उद्वेलित करती. इसका शिल्प छायावाद और छंद से मुक्ति के तुरत बाद वाला अतुकांत छंद का शिल्प है जिसमें एक सहज गीतात्मकता देखी जा सकती है...लेकिन सीता के पारम्परिक आख्यान से टकराते इस कविता के कथ्य साथ उसका प्रभाव बेहद मारक हो गया है. न केवल यह कविता उस पारंपरिक आख्यान में अन्तर्निहित पितृसत्ता की स्थापना के स्रोतों की तलाश करती है बल्कि उसके खिलाफ एक सशक्त प्रतिरोध भी करती है. इस कविता को बहुत गौर, धैर्य और सहानुभूति से पढ़े जाने की ज़रूरत है.






कहो सीते ,

वह अपूर्ण जीवन जीते ...

सो गए क्या स्वप्न सारे जनक गेह में

गले लग विदेह के...


जब सहेजे शब्द सिन्दूरी ...

पति सेवा ही धर्म आज्ञापालन कर्म !



कर गईं तिरोहित हल्दी की थापों में...
शिव धनुष उठा सहज रख देने का भाव ..

आंसू का वह संविधान जिसमे तुम ढाली गईं

मुझ तक आ गया है .....!


नाम तुम्हारा नहीं रहा प्रिय

कभी सुता के हेतु....

रहा शिला सा गति बाधित

बन काले धागों का अन्धकार..

तुम स्वगत कथन सी मौन

उधर थीं आशाएं निस्सीम..

अनामंत्रित दैन्य देय वह ....

अपमानित इतिहास मुझ तक आ गया है !


पराधीन की स्वीकृति सी तुम कठपुतली सा बिम्ब

प्रखर क्षमा का श्राद्ध रही या मिटा आत्म विश्वास

सदियों ने तिल तिल भोगा आश्रम का करुण विलाप

प्रश्न रहा होना न होना कितनी रहीं उदास..

मूक बधिर संवाद तुम्हारा थकी प्राण की चाह

आदर्शो की बलिवेदी पर....

ढोया हुआ सलीब मुझ तक आ गया है !


यह थाती किसने मांगी किसने चाही विवश विरासत

अनचाही सौगात विगत की अच्छा होता..

हम तक न आती ....

जो पैमाना थमा गईं तुम उनके हाथों

साथ धरा में तुम ले जातीं

अच्छा होता ....
चित्र तुम्हारा जबरन थोपा जिन दीवारों

सजा दर्द का मौन...
वे हैं लहूलुहान मुझ तक आ गया है !!!

टिप्पणियाँ

kailash ने कहा…
‎.................अपमानित इतिहास मुझ तक आ गया ..............''पंक्ति दर पंक्ति से टकराती हुई तीखे सवाल खड़े करती है कविता .
Arvind Mishra ने कहा…
शिल्प और कथ्य में दम तो है मगर बहुत कुछ अमूर्त सा भी है इस कविता में ...
सुनील अमर ने कहा…
'' जो पैमाना थमा गयी तुम उनके हाथों,
साथ धरा में तुम ले जाती,
अच्छा होता..........''
--------------------------
क्या विवशता है नारी की भी ! वह शोषित हुई तो पैमाने बन गए. वह उत्पीड़ित हुई, तो पैमाने बन गए और उसने रोज-रोज की अग्नि-परीक्षा से आजिज़ आकर ख़ुद को मिटा दिया तो भी पैमाने बन गए !! ये हैं पुरुष शिकारी के जाल, वंदना जी !
............. बहुत सुंदर कविता है और उतनी ही सुन्दरता के साथ अपना असर भी छोडती है मन पर, कुछ सोचने को मजबूर करती हुई.
बाबुषा ने कहा…
क्यूँ न सभी स्त्रियाँ इसे पढ़ें और कोरस में चीखें ! नहीं क्या ?
बेहतरीन !
आभार !
मनोज कुमार ने कहा…
स्त्री पर स्तरीय कविताएं, कम ही मिलती हैं। जो उसकी समस्या तक पहुंचने का राह बताती हुई हो।
इस कविता में घिसते जाने के बीच अपने को सिरजने की स्त्री की मौन जद्दोजहद मुखर हुई है। इस रचना की संवेदना और शिल्पगत सौंदर्य मन को भाव विह्वल कर गए हैं।
वर्तमान को परंपरा से जोड़ती...
छटपटाहट को बखूबी पाठक में छोड़ती एक बेहतर कविता...
विचारणीय ..अच्छी प्रस्तुति
Santosh ने कहा…
"......मुझ तक आ गया !"....बहुत सार्थक शब्द ! वंदना जी को बधाई और अशोक जी को शुक्रिया !
ashutosh ने कहा…
इतनी बेहतरीन कविता, हमलोगों तक पहुंचाने के लिए बहुत-बहुत आभार अशोकजी..
क्या कविता है...हर लाइन बेहतरीन, सोचने पर मजबूर कर देती है... जो पैमाना थमा गयी तुम उनके हाथों,
साथ धरा में तुम ले जाती,
अद्भुत..
prerna argal ने कहा…
bahut achche tark deti hui anoothi rachanaa.badhaai aapko.



please visit my blog.thanks.
Amrendra Nath Tripathi ने कहा…
सुंदर कविता ! एक सिलसिला रखने की कोशिश जो अनिवार्यतः परंपरा से जुड़ता/जुड़ा हुआ है, उसे रखने की सुंदर कोशिश! मिथकों से ऐसे काव्यात्मक संवाद थोड़े और ‘काफिडेंस’ के साथ किये जाँय तो कविता में और रवानी आये, पाठक-चेतना और भी संग-संग बहे!!
Kunwar Kusumesh ने कहा…
क्या बात है. भावों के अद्भुत उद्गार.
अरुण अवध ने कहा…
सशक्त और उद्वेलित करने वाली काव्य रचना ! बहुत बधाई !
गीता पंडित ने कहा…
हृदय की गहराईयों से निकले वो उदगार हैं जो शब्दों में ढलकर चीख के रूप में उद्वेलित कर रहे हैं....

बधाई वन्दना जी ..
ऐसे ही लिखती रहें...


सस्नेह
गीता
Anupama Tripathi ने कहा…
बन काले धागों का अन्धकार..

तुम स्वगत कथन सी मौन

उधर थीं आशाएं निस्सीम..

अनामंत्रित दैन्य देय वह ....

अपमानित इतिहास मुझ तक आ गया है !


मन वेदना की सशक्त अभिव्यक्ति ....
बहुत सुंदर रचना |इसके लिए बहुत लोग बधाई के पात्र हैं ...सर्वप्रथम ..
बधाई वंदना जी .
बधाई अशोक जी .
और बधाई मनोज जी .
Unknown ने कहा…
बिलकुल निराला की काव्य भाषा की याद दिलाती कविता... अशोक भाई, इतनी अच्छी कविता के लिए ह्रदय से आभार.
Unknown ने कहा…
बिलकुल निराला की काव्य भाषा की याद दिलाती कविता... अशोक भाई, इतनी अच्छी कविता के लिए ह्रदय से आभार.
neera ने कहा…
बहुत ही सटीक कविता... गहरा प्रभाव छोड़ती है..कितना प्रखर सत्य उजागर करती है आज की अपनी दशा का सीता को उत्तरदायी ठहराते हुए .. बेहतरीन!
अप्रतिम रचना ! शुभकामनाएँ !!

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