मैं उन्हीं सबमें हूं जो मेरे भीतर हैं
इस बार प्रस्तुत कर रहा हूँ रंगमंच से जुड़े कवि मृत्युन्जय प्रभाकर की कविताएँ. यह मेरा भी उनकी कविताओं से पहला ही परिचय था. यह देखना सुखद है कि इस युवा कवि का अनुभव संसार व्यापक है जिसके केन्द्र मे मनुष्य है. मृत्युन्जय के पास आपके अकेलेपन और आपके संघर्ष के क्षण, दोनो के लिए कविताएँ हैं. हालांकि उनकी भाषा को अभी और पकना है, शिल्प को अभी और बेहतर आकार लेना है लेकिन उनकी कविताएँ इस सम्भावना का
स्पष्ट पता देती हैं. जल्द ही आप असुविधा पर उनकी कुछ और कविताएँ भी पढ़ेंगे.
मैं हूं
गेहूं की बालियों
मटर के दानों
चावल की बोरियों
आलू के खेतों में
बनमिर्ची के झुरमुटों
आम के दरख्तों
जामुन की टहनियों
अमरूद के पेड़ों में
गांव की गलियों
खेतों की पगडंडियों
सड़कों के किनारों
शहरों की परिधि में
रात की चांदनी
सहर के धुंधलके
शाम की सस्ती चाय
दोपहर के सादे भोजन में
साइबरस्पेस के किसी कोने
ब्रह्मांड के किसी छोर
मित्रों-परिचितों की याद
आत्मीयों के प्यार में
मैं उन्हीं सबमें हूं
जो मेरे भीतर हैं।
कितना कुछ
कितना कुछ छूट जाता है
कितना कुछ याद रह जाता है
कितना कुछ
बौराइ आम और जामुन
अमरूद के बागान
कटहल का कौआ
अब यादों में ही शामिल है
दादा-नाना,
काका-काकी
चाचा-फूआ
यार-दोस्त
ये भी अब याद बनते जा रहे हैं
महानगरों के विशाल वृत में
सिर्फ परिचय और पैसा बचना है
बाकी सब बस याद रह जाना है।
बेमौत
बेमौत मरना एक कहावत है
और कहावतें कोई यूं ही नहीं बनतीं
हम अपनी आंखों के सामने
उसे घटते अक्सर देखते हैं
यूं तो मौत मौत होती है
उसे अच्छी और बुरी कीश्रेणी में नहीं रखा जा सकता
लेकिन फिर भी साफ-साफ
समझने के ख्याल से
बेमौत मरना
आत्महत्या करने से बेहतर है
बेमौत मरने में आपकी लापरवाही हो सकती है
पर आत्महत्या फैसलाकुन होती है
जरूरी नहीं कि स्थितियां दोनो में एक समान हैन
हमारे सामने ऐसा ही एक सच दरम्यान है
एक पार्टी जिससे उम्मीदें थीं
विश्वास जुड़ा था
वह इन द¨नों के बीच झूल रही है
अब देखना है वह बेमौत मरेगी
या आत्महत्या करेगी
या तमाशबीनों को धता बताते हुए
जनता की अमरबेल उसे संजीवनी देगी !
तुम्हारी याद
रात काली है
झांकती है यदा-कदा
कुछ भगजोगनियां!
काजल तो नहीं लगाया न तुमने?
दिन इतनी गोरी
मेम जैसी!
मुस्करा तो नहीं रही न तुम?
उफ! समुद्र को लांघ
पहाड़ों के पीछे से आती
यह मादक हवा!
बांहें तो नहीं फैला रखीं न तुमने?
सूरज के रथ को चीरती
वृक्षों की फुनगियों तक
उतर आया है बादल
बरस ही जाएगा अब जैसे!
आंखें तो नम नहीं न तुम्हारी?
वह देखो मुस्करा रहा है
अपनी चांदनी में लिपटा चांद!
शायद छत पर आए हो तुम?
तुम्हारे लिए
कितना अच्छा हो
जिन्दगी एक रात हो
आसमान का बिस्तर हो
और मेरे चांद का आगोश
मजा यूं भी आए
ख्बाव ही जिन्दगी हो जाए
मेरा होना तेरे होने
तेरा होना मेरे होने का
सबब हो जाए
तेरी जुल्फों में
मेरी नफ़स हो
मेरी सांसों में
तेरी खुशबू
हरेक शाम ऐसी हो
जिन्दगी एक दरिया हो
और हम
इठलाती-बलखाती
तैरती मछलियां
यूं पहाड़ होना भी मजेदार है
जमे रहे हम
एक-दूसरे के सामने
हजारों पीढ़ियों तक
या दो पेड़
घने जंगल के बीच
डालियां उलझाए
जिनपे दर्ज़ हो
प्यार की इबारत
बर्फ की तरह ठोस
सर्द रात में
तुम्हारा नर्म स्पर्श भी
नेक ख्याल है
यही रात है
जब यह कविता रची जा रही है
और आवाम के खिलाफ
पुरजोर साजिशें भी।
यादें
छोटी-छोटी बातें याद रह जाती हैं
जबकि भूल जाते हैं हम
बड़े से बड़ा सच
जिनका नहीं है
मिट्टी जितना भी मोल
या दखल
आपके वर्तमान में
वह याद भी कितना सालती है
कई बार
याद है अभी भी
गाली में बीता बचपन
और खाई हुई मार
पिता, भाई या दोस्त के हाथों
मां और झाड़ू की स्मृतियां
आज भी दर्ज हैं
मेरी पसलियों में
कितना दर्द सहेजा होगा
मेरी आत्मा ने
इस सत्य के साक्षात्कार से
कि मां की झाड़ू
पीटने के काम भी आती है
यादों में
असंख्य संकरी गलियां
निकलती हैं
गंदी बजबजाती नालियों
और उपलों की दीवारों के बीच
गली के कोने पर
दो माह के लिए खिला गुलाब भी
अक्सर कचोट जाता है मेरा मन
अनगिन दबी इच्छाओं
व विकलांग सपनों की हूक
अभी भी ताजी है
एक अधूरे राष्ट्रनिर्माण परियोजना की
अधूरे संतान हैं हम
जिन्हें कुछ भी पूरा नहीं हासिल
यह सत्य भी उतना नहीं सालता
जितनी की बचपन में भींगी यादें।
विज्ञापन युग
पुरखे कहा करते थे
‘सच में बड़ी ताकत होती है’
पीढ़ियों तक चलती रही यह बात
कानों-कान
‘झूठी बात और कागज़ की नाव में कोई फ़र्क नहीं होता’
सुनती रही अनगिनत पीढ़ियां
कानों-कान चलती यह तान
एक रात मेरे कान में भी गूंजी
अलसुबह आंख खुलते ही
मेरे सामने पसरा था
विज्ञापन का सुनहरा संसार
‘दूध सी सफ़ेदी’
‘अब और भी सफ़ेद’
‘और भी झागदार’
की चिल्ल-पों
‘अब और भी सफ़ेद’
नकार रहा था
पुरानी सफ़ेदी को
जो उसी कंपनी का प्रोडक्ट था
विज्ञापनों में हर चीज़
पहले से अच्छी और बेहतर होती है
कभी-कभी सोचता हूं
कितना अच्छा होता
अगर यह दुनिया भी
एक विज्ञापन होती।
वो दिन वो बातें
वो काजल सरीखी काली रात
याद है सखे
और उसमें ढेर सारे टिमटिमाते तारे
चांद जैसे गुरुत्वाकर्षण का सारा बल समेटे
मुस्करा रहा थी अपने आकर्षण पर
उस रोज मद्धिम रोशनी वाले लैंपपोस्टों
के नीचे से गुजरते हुए
उसकी ओर उंगली दिखाकर कहा था मैंने
उस शुभ्र चांदनी का सारा सौंदर्य
सारी शीतलता
सब तुम्हारे लिए
तुमने पूछा था, सच!
मैंने कहा था कोई शक!
फिर लाल सुर्ख, गहरे गुलाबी,
हल्के पीले और झक सफेद
बोगनबेलिया की कतारों की ओर इशारा कर
तुमने कहा था
यह सारे फूल तुम्हारे लिए
मैंने पूछा था, सच!
तुमने कहा था कोई शक !
वह सबसे बड़ा अवकाश हमारा
दीन-दुनिया से परे
एक-दूसरे के लिए न्योछावर
सोचता हूं तो सपना लगता है
वह देखो! उसी हाल में
भटकते ये जोड़े
अपने आस-पास से बेखबर
अब सोचता हूं
इस जालिम दुनिया में
कोई इतना अबोध
कैसे हो सकता है!
जेएनयू
बस रह गया है
एक जला हुआ राख
जिसके अंदर पड़ी हैं
चंद सुलगती लकड़ियां
धुआंती रहती हैं जो रह-रहकर
तेरे आसमान के ऊपर
क्रांतिकारी रुमानियत की सिगरेट से निकला हुआ
एक भारी छल्ला है
खतरा है जो सीआईए की ओजोन परत के लिए
बउ यह दंभ रह गया है
लाल ईटों के तहखाने में बसी है
गांजे और बोतलों की गंध
फैली है जो कमरों से पार्थसारथी राॅक तक
ढाबे गुलजार हैं अभी भी
बढ़ती ही जा रही है उनकी तादाद
पर बहस कम हो रही है
मुंह में खाने या गाली का निवाला है
शोधपत्रों से ज्यादा
सिविल सर्विस की तादाद
चाट सम्मेलन की गमक
प्रेसिडेंट डिबेट की खनक
गूंजती है मीडिया में
तेरी धार भी देखी और धार की चमक भी
कल तक मल्टीनेश्नल को जमकर कोसने वाला
जमा लेता है अपनी दुकान मल्टीनेश्नल में
बिना किसी अंतद्र्वंद्व या आत्मसंघर्ष के
ंतेरे अध्यापकों को नशा है
नाम, दौलत और सत्ता का
पढ़ाई से ज्यादा प्रोजेक्ट लुभाते हैं उन्हें
या दलाली सत्ता और उसके सेफगार्ड एनजीओ की
माफ करना
अमीरों की ऐशगाह बनने में
बहुत दिन नहीं रह गया है
या शायद वही रहा हमेशा से
हमीं गलत समझ बैठे थे।
टिप्पणियाँ
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घने जंगल के बीच
डालियां उलझाए
जिनपे दर्ज़ हो
प्यार की इबारत aasaani se kahi hui baaton me gahan bhavnaaye jhalakti hain. sundar..
घने जंगल के बीच
डालियां उलझाए
जिनपे दर्ज़ हो
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