मैं एक सपना देखता हूँ
(कई दिनों से मन बेहद बेचैन था....जब सारी बेचैनी समेटने की कोशिश की तो यह सब प्रलाप दर्ज हुआ...पहला ही ड्राफ्ट आप सबसे शेयर करने को बेचैन हूँ और आपकी बेबाक राय का मुन्तजिर)
मैं एक सपना देखता
हूँ
मैं एक सपना देखता
हूँ
रात के इस तीसरे पहर
जब सपनों को सो जाने के आदेश दिए जा चुके हैं
जब पहरेदारों ने कस
दिए हैं मस्तिष्क के द्वार
जब सारे सपनों के
हकीक़त बन जाने की अंतिम घोषणा की जा चुकी है
उन्माद और गुस्से की
आखिरी खेप के नीलाम हो जाने की खुशी में बह रही है शराबें
शराबों की ज़हरीली महक
से बेपरवाह
मैं एक सपना देखता
हूँ....
मैं एक सपना देखता
हूँ
जिसमें बिल्कुल
सचमुच के इंसान है
खुशी, दुःख और
गुस्से से भरे हुए
जब होठों और
मुसकराहट के बीच फंसा दिए गए हैं तमाम सौंदर्य प्रसाधनों के फच्चर
मैं उन लहूलुहान
होठों से झरते गीतों की रुपहली आवाज़ सुनता हूँ
मैं देखता हूँ इस
निस्सीम विस्तार के उस पार
मैं देखता हूँ इस
भव्य इमारत का झरता हुआ पलस्तर
मैं रास्ते में गिरे
हुए चेहरे देखता हूँ
मैं देखता हूँ लहू
के निशान, पसीने की गंध, आंसूओं के पनीले धब्बे
मैं इस शव सी सफ़ेद सड़क से चुपचाप बहती पीब देखता
हूँ
मेरा देखना एक गुनाह है इन दिनों
मैं सपने में इन गुनाहों की तामीर देखता हूँ
वहाँ दूर उस तरफ एक बागीचा है जिसमें अब तक बचा
हुआ है हरा रंग, वह निशाने पर है
वहाँ एक बावडी है पुरानी जिसमें अब तक बचा हुआ है
नीला पानी, वह निशाने पर है
वहाँ एक पहाड़ है जिसमें अब भी बची हुई है थोड़ी सी
बर्फ, वह निशाने पर है
वहाँ एक नदी है जिसके सीने में अब भी बची हुई हैं
थोड़े सीपियाँ, वह निशाने पर है
वहाँ एक घर है पुराना जिसकी रसोई में बची हुई है
थोड़ी सी आग, वह निशाने पर है
और ऐसे में अपने बचे
हुए सपनों के साथ मैं घूमता हूँ इस बियाबान में अपने डरों के श्वेत अश्व पर सवार
मैं अपराधी हूँ इस
शांत, इकरंगे समय के आक्षितिज फैले विस्तार का
मेरे सपने इस पर
बिखेर देते हैं राई के दानों सी रपटीली असुविधा
क्षितिज पर जाकर
चुपचाप देख आते हैं सीमाओं के पार का धूसर मैदान
रात को रौशन
कर आते
हैं चुपचाप और जलते हुए दिन पर तान देते हैं बादल का एक टुकड़ा
एक लुप्तप्राय शब्द
का अभिषेक कर आते हैं अपनी खामोशियों से
और हजार मील प्रति
घंटा दौडती रेल में बैठे एक मनुष्य के माथों के बलों के बीच खींच देते हैं सुनहरी रेखा
मैं देखता हूँ सपने
और हवाओं में घुले ज़हर में घुलने लगती है आक्सीजन
मैं देखता हूँ सपने
और विकास दरों के रपटीले पर्वतों में दरारें उभरने लगती हैं
गहराने लगता है नदी
का नीला रंग
पर्वतों पर पसरने
लगती है बर्फ
चूल्हों में सुलगने
लगती हैं लुत्तियाँ...
व्हाईट हाउस से जुड़े
संसद भवन के बेतार के तार के बीच
किसी व्यवधान की तरह
घुसती हैं मेरी स्वप्न तरंगें
मैं ठठा कर हंसता
हूँ किसी उन्मादी की तरह और मेरी चोटिल देह से झरते हैं सपने
मैं देखता हूँ उनकी
आँखों में पसरता हुआ डर
और क्या बताऊँ फिर किस उमंग से देखता हूँ कैसे-कैसे सपने
और क्या बताऊँ फिर किस उमंग से देखता हूँ कैसे-कैसे सपने
टिप्पणियाँ
(Santosh Kr. Pandey Ashok Ji:ब्लॉग कमेन्ट नहीं ले रहा है ! इसलिए यहीं कमेन्ट चिपका दिया !)
बेचैनी को को शब्द देती अद्भुत कविता .
ये एक लम्बी कविता भी बन सकती है .
नीरज
आभार
सस्नेह
गीता पंडित
अशोकजी के ये कविता हमारे सामने कई दृश्य पैदा करती है. कुछ निराशा के तो कुछ ख़ुशी के. कुछ विजय के तो कुछ विचार के. अनव जीवन के कई द्वन्द और उम्मीद का स्वाद देती ये कविता सोचने को मजबूर करती है. जब वो कहते हैं -
मैं एक सपना देखता हूँ.
जिसे सचुच के इंसान हैं.
ख़ुशी दुःख और गुस्से से भरे हुए -------
बहुत बेचैन करने वाली रचना है जो काफी साया तक झकझोरती है.
'मेरा देखना एक गुनाह है इन दिनों
मैं सपने में इन गुनाहों की तामीर देखता हूं '
ये पंक्तियाँ अविस्मरणीय हैं ...और ये जिन बिम्बों के तत्काल बाद आयी हैं ,झरता पलस्तर , बहती पीब...देखने का गुनाह और गुनाहों की तामीर बेहद अर्थपरक हो उठते हैं.'लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे ' हमारे दौर के बड़े कवि ने क्या खूब लिखा था -'तुम्हारी आँखें हैं या दर्द का उमडता हुआ समंदर / इस दुनिया को जितनी जल्दी हो सके बदल देना चाहिए '
कविता का आवेग / तनाव कहीं भी कम नहीं पडता है और कुछ बिम्ब तो इअतने अदभुत हैं जैसे -इकरंगे समय का आक्षितिज फैला विस्तार ' ऐसे बिम्ब 'व्यवस्था' के अमूर्तन को भेदते हैं और कवि के 'सपनों' का आकार प्रकार समझने में मदद करते हैं. ध्यान दें कि इससे पहले 'निशाने पर' जो है- बर्फ, पानी, हरा रंग और सबसे बढ़कर आग , उनके लक्षनार्थ तो जाहिर है, हैं ही पर अभिधा में भी सटीक हैं.
हाँ एक बात है , बावडी , पहाड़ , नदी के साथ स्त्री का होना पुरुष-प्रकृति के परम्परागत प्रतिमान को पुख्ता कर रहा है ( और फिर 'स्त्री की ' रसोई भी ! ) जो ध्यान से देखने पर मुझे असुविधाजनक लगा . दूसरा , भाषाई प्रश्न - क्या सीपी पुर्लिंग होता है ?
मेरा आशुतोष जी से उलटा विचार है ( बुरा हो अन्ना का - आजकल सब उनसे उलटा हो रहा है ! :) ) 'सचमुच के इंसान' के पहले 'बिलकुल' का प्रयोग ही उसे कविता बनाता है . वही तो उसकी जान
और मेरी चोटिल देह से
झरते हैं सपने
मैं देखता हूँ उनकी आँखों में पसरता हुआ डर...
उन्मादी हंसी पर, डर हावी हुआ है...
लगा कि डर पर उन्मादी अट्टहास को भारी पड़ना चाहिए था...
एक बेहतरीन कविता...
वह निशाने पर
सब कुछ निशाने पर
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यह समय ही ऐसा है जो विचलित कर रहा है ...., भीतर से बाहर तक सब कुछ।
यह कविता भी विचलित ही करती है और अगर कुछ विचलित करता है तो वह सार्थक है।
अब रही कविता की बात तो अजेय की बात से सहमत हूँ कि अपराधी वाले हिस्से में कुछ विस्तार सा लगता है।
नमस्कार
बहुत देर से आपकी इस कविता को पढ़ रहा हूँ , ये तो जैसे मेरा ही एक सच है . आजकल मन में जो बैचेनी है , ये कविता उसी का extension है . बहुत दिनों बाद आना हुआ , लेकिन आना व्यर्थ नहीं हुआ. काश कि मैं इस तरह कि कविताये लिख पाता . आपकी लेखनी को सलाम .
बधाई !!
आभार
विजय
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कृपया मेरी नयी कविता " फूल, चाय और बारिश " को पढकर अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . लिंक है : http://poemsofvijay.blogspot.com/2011/07/blog-post_22.html
धन्यवाद
मेरा पता है :
V I J A Y K U M A R S A P P A T T I
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