सिद्धेश्वर की नई किताब का स्वागत करें...
मेरे अत्यंत प्रिय मित्र सिद्धेश्वर की नयी किताब आई है...पहला कविता संकलन "कर्मनाशा"...उसका लोकार्पण भी कविता समय के दौरान होना था लेकिन किन्हीं दिक्कतों के कारण वह नहीं आ पाए. किताब के साथ मेरे जुड़ाव का एक सबब यह भी कि इसका ब्लर्ब मैंने लिखा है...मेरा पहला ब्लर्ब...जयपुर से उन्हें पूरे कविता समय की ओर से बधाई. उनकी कुछ कविताएँ आप यहाँ पहले भी पढ चुके हैं.
किताब अंतिका प्रकाशन से आयी है और यह प्रकाशक गौरीनाथ से 09868380797 से मंगाई जा सकती है. |
ब्लर्ब
इस जटिल बाज़ार समय
में कविता के घटते स्पेस और खुद कविता के भीतर इस जटिलता के शिल्पगत और भाषाई विशिष्टता
में घटित होने के बहाने सादगी और साफगोई के स्पेस के लगातार संकुचित होते जाने के
बीच सिद्धेश्वर सिंह की ये कविताएँ विशिष्टता के खिलाफ साधारणता के पक्ष में
मज़बूती से खडी कविताएँ हैं. इस ‘अंधेरी रात की काली स्लेट पर लिखने के लिए वे
‘चन्द्रमा के चॉक’ की तलाश में नहीं, उनके लिए
‘मिट्टी ही काफी’ है. शब्दों से विराट प्रतिसंसार रचने के अपने महास्वप्न के बेकल
प्रयास के बीच उनके कवि की जेनुइन चिंता है कि ‘भाषा के चरखे पर/इतना महीन न कातो/
कि अदृश्य हो जाएँ रेशे. उनकी यह चिंता उन्हें लगातार एक कवि के रूप में खुद को
विशिष्ट समझने से रोकती है. पुरस्कारों, सम्मानों, यात्राओं और समारोही समर्थन से
समारोही विरोधों के बीच कविता के सहारे सत्ता केन्द्र के करीब अभिजनों की मंडली
में शामिल होने को बेकल कवियों की समकालीन भीड़ के बीच उन्हें पता है कि सिर्फ
‘रोजाना रात को/ तीन-तीन बजे तक जागकर/ कविताएँ लिखने से यह तिलिस्म टूटने वाला
नहीं है. उनके इस जानने में शामिल है यह जानना कि ‘वसंत अभी मरा नहीं है’ और उनकी
सारी कविताई की जद्दोजेहद भी इसी वसंत के असली रंग को बचा ले जाने की है, इसीलिए
दुनियावी कारोबार करते हुए ‘उन्हें लगातार यह संशय होता है कि क्या यही है मेरा
काम!’
सिद्धेश्वर अपनी
कविता के लिए कच्चा माल अपने बिल्कुल आस-पास के परिवेश से चुनते हैं. इसीलिए उनकी
कविताओं में पहाड़ बार-बार आता है. ‘लक्कड़ बाज़ार शिमला’, ‘रामगढ़ से हिमालय’,
‘कौसानी में सुबह’ और ‘शिमला’ जैसी कविताओं में पहाड़ के विराट सौंदर्य के सम्मोहन
के बीच उनकी कविताएँ पहाड़ के लोगों के दुःख, संत्रास और शोषण की कथा भी कहते हैं.
बिल्कुल शुरू में ही वह यह साफ़ कर देते हैं कि ‘पहाड़ वैसी कविता भी नहीं होते/
जैसी बताते हैं कविवर पन्त’. इस पहाड़ से अपनी आजीविका की तलाश में दिल्ली आये अपने
दाज्यू को ढूँढने आई ‘दिल्ली में खोई हुई लड़की’ की कहानी कहती कविता में वह देश की
राजधानी और पहाड़ के रिश्तों की जो तस्वीर खींचते हैं वह नई भले न हो लेकिन कविता
में जिस तरह से दर्ज होती है, पहाड़ से आगे निकलकर उदारीकरण के इस दौर में केन्द्र
और हासिये के बीच के विराट अंतर्द्वंद्व को रेखांकित करती है.
बाज़ार के मुनाफे और
सत्ता के लगातार केंद्रीयकृत होते जाने की पहचान और इसका प्रतिकार उनकी कविताओं
में बार-बार आता है. बाज़ार के इस विराट तिलिस्म के बरक्स वह मनुष्य और उसके
इर्द-गिर्द की उन बेहद मामूली चीजों को कविता के केन्द्र में ले आते हैं जिन्हें बाज़ार
ने बहिष्कृत कर दिया है. गधे, कुत्ते, शेर, सियार जैसे जानवर उनकी कविताओं के विषय
हैं तो उनके सपनों में आडू, सेब, काफल और
खुमानी के पेड़ हैं, पेड़ों के नीचे सुस्ताती गायें हैं, सीढ़ीदार खेत हैं, रस्सियों
वाले पुल और उनसे गुजरते हुए बच्चे हैं और ऎसी ही तमाम मामूली चीजें जिन्हें बचा
ले जाना आज पूरी मानवता को बचा ले जाने का पर्याय है. इन सबके साथ मिलकर प्रेम और
प्रकृति सिद्धेश्वर का एक समृद्ध काव्यसंसार रचते हैं जिसे ईंट दर ईंट रचने में
उन्होंने उन्होंने एक ऎसी भाषा और शिल्प का सहारा लिया है जो बाहर से बहुत सादी और
साधारण लगती है लेकिन जिसमें प्रवेश करने पर अर्थों और व्यंजनाओं का एक विराट
मानवीय संसार खुलता है. अपनी शीर्षक कविता ‘कर्मनाशा’ में उनका यह सवाल कि ‘भला
बताओ/फूली हुई सरसों/ और नहाती हुई स्त्रियों के सानिध्य में/ कोई भी नदी/ आखिर
कैसे हो सकती है/ अपवित्र’ उनकी इस ताक़त के साथ उनकी संवेदनाओं के स्रोतों का भी
पता देता है. यही ‘धोखादेह सादगी’ उनकी कविताओं की सबसे बड़ी ताक़त है. लगातार
कृत्रिम होते जा रहे समकालीन कविता-समय में अपने समय-समाज-परम्परा और भूगोल से
समृद्ध इस संकलन का आना निश्चित रूप से एक शुभ घटना है और मैं इसे बड़ी उम्मीद के
साथ देख रहा हूँ.
टिप्पणियाँ
**बाबुषा को किताब और मिठाई एक साथ जल्द ही, डाक से।
किताब का स्वागत है।
पहले ब्लर्ब के लिये भी बधाई।
अब बताया जाये लोकार्पण कब होगा?