कुमार अनुपम की लंबी कविता - विदेशिनी

रवीन्द्रनाथ टैगोर की पेंटिंग - विदेशिनी  
कुमार अनुपम हमारे समय के एक महत्वपूर्ण कवि हैं. न केवल इसलिए कि उनके पास एक ऎसी कवि दृष्टि है जो समकालीन कविता के चालू मुहावरों से आगे जाती है बल्कि इसलिए कि इस कविता विरोधी समय में अपने लिए कोई सुरक्षित खोह चुनने की जगह वे लगातार प्रयोग करने वाले कवि हैं. एक ऎसी बेचैनी को जीने वाले कवि जो अपनी पूरी शिद्दत से कविताओं में आती है. पिछले दिनों प्रतिलिपि में प्रकाशित लंबी कविता हो या उससे पहले वसुधा में प्रकाशित लंबी कविता या फिर आज यहाँ प्रस्तुत कविता...आप देखेंगे कि वह लगातार एक टटके शिल्प के तलाश में हैं. बिम्ब उनकी कविता में सहजता से आकर जम जाते हैं...लदते नहीं. और इस सहजता का प्रभाव इतना मारक होता है कि पढ़ने वाला कहीं गहरे से हिल जाता है. कविता खत्म होने के बाद भी लगातार गूंजती रहती है.


विदेशिनीवीन्द्र नाथ टैगोर की रचना है. अनुपम ने उसी पृष्ठभूमि को लेकर आधुनिक समय की कविता रची है. एक ऎसी लंबी कविता जो न केवल प्रेम के कुछ अनुपम और सघन दृश्य खींचती है बल्कि उसके कहीं आगे जाकर हमारे समय की विसंगतियों को प्रश्नांकित करती है. इसी मायने में यह उन तमाम कविताओं से आगे निकल जाती है जिनमें प्रेम के नाम पर समकालीन या तो मध्यकालीन आख्यानों की तर्ज़ पर नांदी रचे जा रहे हैं या फिर द्वंद्वमुक्त एकालाप. अनुपम ने यह अप्रकाशित कविता असुविधा को उपलब्ध कराई...उनका आभार! 


विदेशिनी 


विदेशिनी
आमी चीन्ही गो चीन्ही तुमारे
ओहो विदेशिनी
               —रवीन्द्रनाथ टैगोर

1.
तुम बोलती हो
तो एक भाषा बोलती है

और जब
तुम बोलती हो
मेरी भाषा में
एक नयी भाषा का जन्म होता है।


2.
वहाँ
तुम्हारा माथा तप रहा है
बुखार में

मैं बस आँसू में
भीगी कुछ पंक्तियाँ भेजता हूँ यहाँ से
इन्हें माथे पर धरना...।


3.
हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
एक किनारा था
नदी हमारे बिल्कुल समीप से
गुज़र गयी थी कई छींटे उछालती
अब वहाँ कई योजन रेत थी

हमें चलना चाहिए
हमने सुना और कहा एक दूसरे से
और प्राक्-स्मृतियों में कहीं चल पड़े

बहुत मद्धिम फाहों वाली ओस
दृश्यों पर कुतूहल की तरह गिरती थी

हमने अपरिचय का खटखटाया एक दरवाज़ा
जो कई सदियों से उढक़ा था धूप और हवा की गुंजाइश भर

हमने वहीं तलाशी एक तितली जिसके पंखों पर
किसी फूल के पराग अभी रौशन थे
(वहीं अधखाया हुआ सेब एक
किसी कथा में सुरक्षित था)
उसका मौन छुआ
जो किसी नदी के कंठ में
जमा हुआ था बर्फ की तरह
पिघल गया धारासार
जैसे सहमी हुई सिसकी
चीख में तब्दील होती है

और इस तरह
साक्षात्कार का निवेदन हमने प्रस्तुत किया

फिर भी
इस तरह देखना
जैसे अभी-अभी सीखा हो देखना
पहचानना बिल्कुल अभी-अभी
किसी आविष्कार की सफलता-सा
था यह
किन्तु बार-बार
साधनी पड़ीं परिकल्पनाएँ
प्रयोग बार-बार हुए

दृश्य का पटाक्षेप
और कई डॉयलाग हम अक्सर भूले ही रहे
और शब्द इतने कमज़र्फ
कि
शब्द बस देखते रहे हमको
ऐसी थी दरम्यान की भाषा
और कई बार तो यही
कि हम साथ हैं और बहुत पास
भूले ही रहे

किसी ऐसे सच का झूठ था यह बहुत सम्पूर्ण सरीखा
और जीवित साक्षात्
जैसे संसार
में दो जोड़ी आँख
और उनका स्वप्न

फिर हमने साथ-साथ कुछ चखा
शायद चाँदनी की सिंवइयाँ
और स्वाद पर जमकर बहस की

यह वही समय था
जब बहुत सारा देशकाल स्थगित था
शुभ था हर ओर
तब तक अशुभ जैसा
न तो जन्मा था कोई शब्द न उसकी गूँज ही

हम पत्तियों में हरियाली की तरह दुबके रहे
पोसते हुए अंग-प्रत्यंग
हमसे फूटती रहीं नयी कोपलें
और देखते ही देखते
हम एक पेड़ थे भरपूर
किन्तु फिर भी
हमने फल को अगोरा उमीद भर
और हवा के तमाचे सहे साथ-साथ

हम टूटे
और अपनी धुन पर तैरते हुए
गिरे जहाँ
योजन भर रेत थी वहाँ
हमारे होने के निशान
अभी हैं
और उड़ाएगी हमें जहाँ जिधर हवा
ताज़ा कई निशान बनेंगे वहाँ उधर...

सम्प्रति हम जहाँ खड़े थे साथ-साथ
किन्हीं किनारों की तरह
एक नदी
हमारे बीचोबीच से गुज़र गयी थी

अब वहाँ सन्देह की रेत उड़ती थी योजन भर
जिस पर
हमारी छायाएँ ही
आलिंगन करती थीं और साथ थीं इतना
कि घरेलू लगती थीं।



4.
तुम्हारी स्मृतियों की ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर एक ओर रुका हूँ

आवाजाही बहुत है
यह दूरी भी बहुत दूरी है

लाल बत्ती होने तो दो
पार करूँगा यह सफर।

5.
जहाँ रहती हो
क्या वहाँ भी उगते हैं प्रश्न
क्या वहाँ भी चिन्ताओं के गाँव हैं
क्या वहाँ भी मनुष्य मारे जाते हैं बेमौत
क्या वहाँ भी हत्यारे निर्धारित करते हैं कानून
क्या वहाँ भी राष्ट्राध्यक्ष घोटाले करते हैं

क्या वहाँ भी
एक भाषा दम तोड़ती हुई नाखून में भर जाती है अमीरों के
क्या वहाँ भी आसमान दो छतों की कॉर्निश का नाम है
और हवा उसाँस का अवक्षेप
क्या वहाँ भी एक नदी
बोतलों से मुक्ति की प्रार्थना करती है
एक खेत कंक्रीट का जंगल बन जाता है रातोरात
और किसान, पागल, हिजड़े और आदिवासी
खो देते हैं किसी भी देश की नागरिकता
और व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर दिए जाते हैं

क्या वहाँ भी
एक प्रेमिका
अस्पताल में अनशन करती है इस एक प्रतीक्षा में
कि बदलेगी व्यवस्था और वह
रचा पाएगी ब्याह अस्पताल में देखे गये अपने प्रेमी से कभी न कभी
और जिए जाती है दसियों सालों से
जर्जर होती जाती अपनी जवान कामनाओं के साथ

जहाँ रहती हो
तुम्हारे वहाँ का संविधान
कहो
कैसा है विदेशिनी?


6.
छतें दहल जाती हैं
हिल जाती है ज़मीन
भीत देर तक थरथराती रहती है
कपड़े पसारने के लिए ताने गये
तार की तरह झनझनाती हुई

जब गुज़रते हैं उनके
उजड्ड अतृप्तियों के विमान
हमारे ऊपर से
हमारी हड्डियों में भर जाती है आँधी
सीटियाँ बजने लगती हैं

उन्हें नक्काशियाँ पसन्द हैं
उन्हें फूल पसन्द हैं
वो दुबली-पतली चक्करदार गलियाँ
जिनमें
कस्बे के बहुत से घरों की
भरी रहती हैं साँसें और राज़
जिनके बीचोबीच से होकर गुज़रती हैं
स्कार्फ बाँधे नन्हीं-नन्हीं बच्चियाँ
खिलखिलाती स्कूल जाती हुई
उन्हें ये सब बेहद पसन्द हैं

जिन्हें वे पसन्द करते हैं
उन सब पर
वे बम बरसा देते हैं
वे उन्हें नष्ट कर देना चाहते हैं
कि उन सबको
कोई और पसन्द न कर सके
उन्हें ऐसा डर लगा ही रहता है

आखिर 
उनकी पसन्द का एक मतलब जो है

विदेशिनी,
इस तरह तो
मुझे मत पसन्द करना!


7.
मेरी पसन्द का एक मतलब है
तुम्हारी पसन्द का एक मतलब है

अपनी पसन्द की हिफाज़त के लिए
विदेशिनी,
हमें उनकी पसन्द का मतलब जानना
बहुत ज़रूरी है।



समकालीन कविता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर. लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ  प्रकाशित. कविता-समय युवा सम्मान-२०१० से सम्मानित. कई महत्वपूर्ण कविताओं का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद. कुछ किताबों का संपादन भी. चन्द्रकांत देवताले और उन पर एकाग्र "कविता-समय १" नाम से हाल में प्रकाशित.               कविता संग्रह "बारिश मेरा घर है" साहित्य अकादमी से शीघ्र प्रकाश्य.     
संपर्क- सी-3/231, लोदी कॉलोनी, नयी दिल्ली-3
मो. : 9873372181
e mail - artistanupam@gmail.com

टिप्पणियाँ

विजय गौड़ ने कहा…
SUNDAR KAVITA HAI ASHOK. KUMAR KO BAHUT BAHUT BADHAI.
बहुत अच्छी कवितायेँ ..धन्यवाद
manoj chhabra ने कहा…
अशोक भाई, 'असुविधा' के खजाने में कुमार अनुपम की यह कविता कुछ ख़ास है... 'विदेशिनी' को टैगोर के आँगन से यहाँ बहुत अच्छे से उलीचा है ... कुमार अनुपम को बधाई...
manoj chhabra ने कहा…
अशोक भाई, 'असुविधा' के खजाने में कुमार अनुपम की यह कविता कुछ ख़ास है... 'विदेशिनी' को टैगोर के आँगन से यहाँ बहुत अच्छे से उलीचा है ... कुमार अनुपम को बधाई...
kumar anupam ने कहा…
manoj ji k sabd 'uleecha' ka arth pane ki koshishein kr rha hun. asfal hi ho rha hun.
बहुत अच्छी कविता. बधाई अनुपम को. इतनी उद्धृत किए जाने योग्य पंक्तियों से भरी है यह कविता, कि वहां से उठा कर पंक्तियां यहां ला-रखने के लोभ का संवरण करना ही उचित लगा. फिर से बधाई, इस कवि को जो किसी भी दिन हिंदी कविता का नक्षत्र बन सकता है.
kumar anupam ने कहा…
manoj ji k sabd 'uleecha' ka arth pane ki koshishein kr rha hun. asfal hi ho rha hun.
kumar anupam ने कहा…
mohan sir aap ko kavita pasand aai, yh mere liye khushi ki baat hai. dhanyawad.
sudha tiwari ने कहा…
achhi kavita hai.shubhkamnayen...
Unknown ने कहा…
भाई अनुपम तुम्हारी कविता भी तुम्हारी ही तरह अनुपम है . बधाई स्वीकार करें.
vandana gupta ने कहा…
अनुपम जी की ये कविता एक यथार्थ बोध तो कराती ही है साथ ही एक संवेदनशील मन से भी परिचय कराती है………अनुपम जी को बधाई।
Umesh ने कहा…
अनुपम! वाकई में यह एक अनुपम कविता है। भाई 'उलीचा' अवध क्षेत्र का एक देशज शब्द है, जिसका मतलब है - अँजुली या पात्र में कुछ एकत्र कर बाहर की ओर उड़ेल देना। आपने विदेशिनी को टैगोर की कविता से अपने शब्दों की अँजुली में समेटकर पाठकों की ओर उलीच दिया है, यह मनोज छाबड़ा जी का एक बहुत सटीक कथन है।
सिद्धान्त ने कहा…
अनुपम भाई, सुन्दर कविता दी आपने. यहाँ पर अशोक जी की टिप्पणी बिलकुल सही है कि बिम्ब उनकी कविता में सहजता से आकर जम जाते हैं...लदते नहीं. स्मृतियों की जेब्रा क्रासिंग पर लाल बत्ती, ऐसा साफ़ और सचेत बिम्ब कुमार अनुपम के ही मुमकिन होना साबित हो रहा है. शुभकामनाएं.
arun dev ने कहा…
इसमें एक ख़ास बात यह है कि बांग्ला की संवेदना से ये कविताएँ कोमल हो उठी हैं. अलग अलग भी ये पूरी हैं. लम्बी कविता की जगह इन्हें सीरीज मे लिखी कविताएँ भी कहा जा सकता है. दोनों को बधाई.
पसंद आई...अनुपम जी को हार्दिक बधाई ..
अतीत से संवाद या पुरातन की नवीन व्‍याख्‍या कुछ भी कहो। अनुपम जी की इस कविता से एक नया मुहावरा पैदा होता है।
*
उलीचा अवध का देशज भी होगा,लेकिन वह पूरे मध्‍य हिन्‍दी क्षेत्र में बहुत उपयोग किया जाता है। उसका क्रिया शब्‍द उलीचना है।
बेनामी ने कहा…
प्रभावशाली और उम्दा.. अनुपम को पढ़ना अच्छा लगता है ... प्रदीप जिलवाने
kumar anupam ने कहा…
"आमी चीन्ही गो चीन्ही तोमारे
ओगो बिदेशिनी"
- रबींद्रनाथ टैगोर
arun aditya ने कहा…
अनुपम!अनुपम!
neera ने कहा…
सही कहा पढ़ने के बाद में लगातार गूंजती हैं यह कवितायें...विदेशनी पर लिखी कवितायें और उससे पूछे सभी प्रश्न अनुपम जी की संवेदनशीलता का परिचय देते हैं और स्वदेश के यथार्थ के नजदीक ले जाते हैं बहुत करीबी लगी सभी रचनाएँ.... अनुपमजी को बधाई और अशोकजी का शुक्रिया...
Pratibha Katiyar ने कहा…
अनुपम तुम सचमुच अनुपम हो. बेहद खूबसूरत कविता. इसे संभाल के रख रही हूँ अपने पास. बार बार पढने के लिए. लिखते रहो ऐसे ही...
neelesh ने कहा…
anupaam ki ye kavitayen anupm ki pidhi ke kaviyon ko jrur padhna chahiye.kuch bilkul tatke bimbon ka prayog aur kahan ki samanay shali me apne smay aur smaj ko njdik se dekte chalte hain. bdhai...
neelesh ने कहा…
anupaam ki ye kavitayen anupm ki pidhi ke kaviyon ko jrur padhna chahiye.kuch bilkul tatke bimbon ka prayog aur kahan ki samanay shali me apne smay aur smaj ko njdik se dekte chalte hain. bdhai...
ravikant ने कहा…
kavi ho paya hai prakash... badhai aur shubhkamnayen !
neeraj shukla ने कहा…
बहुत अच्छी कवितायेँ हैं .इनमे चित्र है ,दृश्य हैं और एक गजब का आत्मसंवाद .......जिसमे एक निजी दुःख एक सार्वजनिक पीड़ा में तब्दील हो जाता है
जहाँ रहती हो
तुम्हारे वहाँ का संविधान
कहो
कैसा है विदेशिनी?

बहुत खूबसूरत, कई करवटों से गुज़रती ये विदेशिनी.
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" शनिवार 02 जनवरी 2021 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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