ऊधौं मोहि ब्रज विसरत नाहीं
युवा कहानीकार और कवि जितेन्द्र विसारिया की उद्धव-प्रसंग को आधार बनाकर लिखी गयीं ये कवितायें उस चिर-परिचित प्रसंग के बहाने गाँव से शहर में विस्थापन की एक दास्ताँ ही नहीं कहतीं बल्कि समकालीन समाज और राजनीति कि तमाम विसंगतियों को परत दर परत उघारते चली जाती हैं. वह मिथकीय आख्यान एक दलित युवा के वर्तमान के आख्यान में तब्दील हो पूरे प्रसंग को एक प्रतिरोध के स्वर में बदल देता है. जितेन्द्र की ये ब्लॉग पर प्रकाशित संभवतः पहली कवितायें हैं. पाठकों की प्रतिक्रियाओं का स्वागत है.
लियेन लार्सन की यह पेंटिंग यहाँ से साभार |
उद्धवः दस कविताएँ
एकऊधौं मोहि ब्रज विसरत नाहीं*
हर एक ब्रज और मथुरा के बीच
होती है एक काली स्याह नदी
ऊँचें-ऊँचे पहाड़ और
सघन करील वन
उद्धव! मैंने भी ब्रज छोड़ा है
वृद्ध पिता, रोगी माँ
अनब्याही बहन और
भूखे भाईयों की खातिर
मुझसे नहीं खिंची वहाँ
मरी गौओं की खाल
सहन नहीं हुयीं
गवाँर गोपों की गालियाँ
और नंद-मेहर की बेगार
तुम भी ब्राह्मण हो उद्धव !
कैसे समझोगे एक दलित की पीर
उसके लिए ब्रज और मथुरा
दोनों ही तपा भाड़ हैं
जिसमें नहीं है शीतलता
सिवाय दाह के
यहाँ कोई नहीं पूछता मेरी जाति
धीरे से पूछ लेता है
गाँव में घर की स्थिति
यहाँ कोई नहीं देखता
मेरे तन की गंदगी
और मन के पाप
जोत लेता है काम में
लगाये रखता है
रक्त की अंतिम बूँद चूसने तक
बहुत दिन हुए यहाँ
पथ-विभाजक पर पड़े
सुनते-रथों की घरघराहट
राजा की युद्ध अभियान घोषणाएँ
और असहमत नागरिकों का कोलाहल
उद्धव!खुद को बचाये रखने की जिजीविषा में
अब नहीं रहता अपने ही होने का भान
सुनाई नहीं देती मन की पुकार
बहुत दिन हुए नहीं देखी
विद्युत मणियों के बीच
शुभ्र चाँदनी और
टूटते तारों की गति
अब नहीं आते रंगों में भींगीं
धमार गाती हुरियारिन के स्वप्न
अमावस का अँधेरा यहाँ
सिमट कर बाहर से
पसर गया है
बहुत भीतर ।
दो
हरि हैं राजनीति पढ़ि आये
उद्धव ! तुम तो जानते हो
कितना हर्ष होता है परदेश में
किसी देशी के मिलने पर
लेकिन कल कृष्ण मिले थे चौराहे पर
देखते ही बोले-तुम, यहाँ भी...?
उनकी आँखों में चिरपरिचित घृणा
और राजसी अंहकार था
मैं जुहार कर उनसे कहना चाहता था।
कान्हा! ब्रज में अकाल पड़ा है
कालिन्दी सूख गई है
भूखे ग्वाले कसाइयों को गाय बेच
दौड़ रहे हैं नगर की ओर
तुम बालपन के सखा
अब समर्थ स्वामी हो
कुछ राहत भेजकर
हर लो उनका आतप
लेकिन मेरे कुछ बोलने से पूर्व
उनके एक इशारे पर
सारथी ने खींच दी अश्व वल्गायें
और धूलि उड़ाता रथ
चला गया राजपथ पर ।
तीनराज धर्म सब भये सूर जहाँ, प्रजा न जाये सताए?
उद्वव! ब्रज नहीं बदला
ब्रज के लोग नहीं बदले
न ब्रज की दशाएँ ही
बदला है तो सिर्फ राजा
जो कभी पराया था
आज अपना है
कंस की जगह कृष्ण भी
अब नहीं रहे ब्रज के हितू
आश्वासन के उपहार
कभी भर नहीं सकते
अपमान के घाव
असमानता की खाई
और पेट के कुँए
प्रलंब-बकासुर पराये थे
कंस और कालिय
सहते रहे अत्याचार
हँसते हुए ये सोचकर
होगा अपना भी राजा
करेगा सब पर शासन
दिलायेगा हमें भी न्याय
पर हूक उठती है-उद्धव!
ब्रज ने जिन कृष्ण को
मुरलीधर से गिरधर बनाया
सड़क से सिंहासन पर बैठाया
चाटुकारों से घिरे वे ही माधव
आज नहीं जानते
कैसे हैं ब्रजवासी
क्या बीत रही है
उन पर ।
चारभये हरि मधुपुरी राजा, बड़े बंस कहाय
उद्धव! कृष्ण अब ब्रज नहीं जाएँगे
नागरी सुविधाएँ और श्रेष्ठता बोध
सहज नहीं रहने देगा उन्हें
जन आकर्षण के लिए उन्होंने
भले ही किया हो कुब्जा से विवाह
दर्जी और मालियों से स्नेह
लेकिन कभी नहीं लायेगें ब्रज से
प्रीति कर बदनाम हुयी-राधा
यहाँ भलें ही करे वह
धूर्त विप्रों का पाद प्रक्षालन
दंभी क्षत्रियों का सारथ्य
और निरीह दासों के घर भोजन
पर नहीं रखेगें मैत्री-भाव
अपने ही सजातीय ग्वालों से
ब्रज रक्षार्थ कभी उठाया होगा गोवर्धन
रहा होगा आर्य परंपराओं से विरोध
किया होगा इन्द्र और ब्रह्मा का मान मर्दन
पर अब उनका अनुबन्ध अमरावती से है।
पांचअब क्यों कान्ह रहत गोकुल बिनु जोग के सिखयें
उद्धव ! ब्रज पराया हो चुका है
भूल चुके हैं कान्ह!
अपना अतीत
नहीं भाती उन्हें
छछिया भर छाछ
रास की लय और
ध्रुपद की तानें
मुरली देखकर
उनका लाजाना
शर्माना मोरचंद बाँधे
तुम्हीं कहो उद्धव
क्यों सकुचाते हैं देख
सभा-भित्ति के
सुरभि-चित्र?
ब्रजराज सुनकर
पीठ फेर लेना
और विहँसना
यदुनाथ सुन कर
संकेत हैं
किस बात का
ब्रज-उत्थान नहीं रहा
अब उनकी कार्यसूची में
महल पाकर
दिगंबरी उपदेश
ब्रज के लिए
नए तो नहीं हैं।
छहबेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ, जुबतिन जोग कहूँ धौं?
उद्धव! ठगा गया है
तुम और तुम्हारा निगुर्ण
समझ नहीं पाए राज चातुरी
चले गए ब्रज संदेसा लेकर
पर कभी सोचा है
कृष्ण का वह संदेश
क्यों नहीं था
भोली गोपियों की जगह
गँवार गोपों के लिए
क्यों नहीं कहलवा भेजा उनसे
अब वह प्रभू और परात्पर हैं
रहा होगा ग्वाला
किसी अहीर घर का
की होगी मिताई
किन्हीं नीच-गँवारों से?
क्योंकि वे पुरूश थे
मानते नहीं उपदेष
कर सकते थे विद्रोह
अपने बाल सखा से
जबकि जन्म से सतायीं स्त्रियाँ
अंततः मान लेती हैं अनुशासन
कर ही लेती हैं सहज विश्वास
दुष्ट पिता, छली मित्र
और विसासी पति का
सात
अधिक अवज्ञा होत देह दुख, मर्यादा न गहत है।
निगुर्ण उनकी परंपरा नहीं है उद्धव!
फिर क्यों चले गये थे जोग सिखाने
सच कहूँ उन्होंने तुम पर ही नहीं
तुम्हारी जाति पर भी शक किया होगा
वे नहीं मानेगीं तुम्हारी सीख
उनके लिए जगत के ठाकुर
और गाँव के ठाकुर में
कोई भेद नहीं
वे नहाते हुए नग्न देखें
या राह चलते छेड़ें
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
तुम जिसे छल कहते हो उद्धव!
वह उनके लिए आत्मगौरव है
तुम्हारे पूछने पर वे
रोई या सिसकी नहीं
फिरक लेकर गा उठी होंगी
‘मोहि पनघट पे.....!’
आठचुभि जु रही नवनीति चोर छवि
क्यों भूलति सो ज्ञान गहे।
उद्धव! ब्रजवनिताओं के प्रति
तुम स्वयं नहीं थे निरापद
सत्य कहलवाने से रह गया।
तुमसे राजदण्ड का भय
स्वयं संशयग्रस्त हो गए थे
देख गोपियों की राजभक्ति
नहीं समझ पाये--वे
व्यग्योंक्तियाँ और उपालंभ
जिनमें छिपी थी कटुता
अपने चोर राजा के प्रति
आस्तिकों में नास्तिक सी
वह मेरे गाँव की गोपी
जरूर रही होगी सयानी
जिसने नकार कर प्रभुता
अपने सखा राजा की
दो टूक कहा था तुम से
‘‘उर में माखन चोर गढ़े...।’’
नौसूर श्याम कैसे निबहैगी अंधधुंध सरकार
उद्धव! ब्रज निर्धन सही
पर निराभिमानी नहीं
बचाये रखेगा स्वाभिमान
एक नदी कुछ कोस दूरी
पर नहीं आती ग्वालें
लेकर अब दूध- दधि
प्रेम में ही मिलता है
मन के साथ माखन
ब्रज कीर्ति दास नहीं
खरीद लें कंस या कृष्ण
गहरी हैं उसकी जड़ें
वह फिर सम्हलेगा
उठेगा अपने दम पर
लेकिन फिर नहीं रूपता
अपनी जड़ से कटा वृक्ष
और रिश्तों से कटा मानव
भटकता रहता देश-द्वीप
या मरता है अनाथों सा
चक्रवर्ती की जिजीविषा में
कान्ह! भूल चुके हैं ब्रज
लेकिन ब्रज नहीं भूला
मर्यादाबद्ध प्रेम और
अंतरंग क्षणों का रस
उद्धव! तुम्हीं कहो
ये छूटती गाँठ
वे ना टूटती डोरी...।
दसकहँ वे गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
उद्धव! बहुत कठिन है!
उनके पनघट की डगर
आत्मसम्मान खोये मनुश्य सी
वे अंतःभीता ब्रजबालाएँ
नहीं सहेज पायीं कभी
पति-परिजनों का स्नेह
मनोमष्तिष्क पर
छाये रहे सदैव
बरजोरी करते श्याम
और कुटिल सँघाती
वे अभी उन्हें पूजेंगीं
उनके ही गुण गाएँगीं
उन्हें तुम्हारा जोग
समझ नहीं आएगा
जब तक जान नहीं जातीं
कितनी छली गईं हैं वे
प्रेम के नाम पर
धर्म के नाम पर
मर्यादा के नाम पर
तुम एक बार ही जाकर
हार मान गए-उद्धव!
ब्रज और मथुरा की राहें
बड़ी दुर्गम हैं
बहुत देर लगेगी
उनके सपाट होने में
तुम उस पर चलते रहना।
* कविताओं के समस्त शीर्षक आचार्य रामचंद्र शुक्ल सम्पादित महाकवि सूरदास कृत ‘भ्रमर गीत सार’ से साभार।
जितेन्द्र विसारिया की कवितायें, कहानियां, समीक्षाएं तथा आलेख अनेक महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. प्रलेसं तथा दखल विचार मंच से गहरे सम्बद्ध जितेन्द्र ने दलित आत्मकथाओं पर शोध किया है और संस्कृति मंत्रालय की एक फेलोशिप के तहत आल्हाखंड पर भी काम किया है.
सम्पर्क : 16 गौतम नगर साठ फीट रोड थाटीपुर ग्वालियर-474011(म.प्र.)मोबाईलः 9893375309
टिप्पणियाँ
हार मान गए-उद्धव!
ब्रज और मथुरा की राहें
बड़ी दुर्गम हैं
बहुत देर लगेगी
उनके सपाट होने में
तुम उस पर चलते रहना।
बेहद सटीक और सशक्त अभिव्यक्ति
कथ्य और कला, दोनों ही मामले में उत्कृष्ट. धन्यवाद.
दिगम्बर
नास्तिक माने जाने वाले राजेन्द्र यादव ने हंस के सम्पादकीय में कभी अपूर्ण और पूर्ण कला-अवतार (राम में बारह कला और कृष्ण में सोलहों का निवेश)की बकवास की धार्मिक मान्यता को सहलाते हुए राम पर कृष्ण को अधिमानता दी थी.राम के प्रभाव-क्षेत्र को कम और कृष्ण को ज्यादा आँका. यह सब भी प्रगतिशीलता के फेंटे में ही था.जबकि यादवी अजेंडा यहाँ स्पष्ट ही उभर आया था!
राम की शक्ति पूजा से खैर ये कवितायेँ अच्छी हैं जहाँ राम के शौर्य-मिथक की वंदना में निराला कमल को आँख मानने जैसी फालतू की अंधधर्म कथा तक को शिरोधार्य करते चले जाते हैं.
यहाँ भी 'असुविधा' को तनिक प्रगतिहीनता को पचा लेने से परहेज नहीं तो इसमें बुरा क्या है?