शुभम श्री की कविता - बुखार, ब्रेक अप, आइ लव यू
शुभम श्री की इस कविता का पाठ सबसे पहले एक असुविधा पैदा करता है. हिंदी के मुझ जैसे पाठकों का इसे पढ़कर चौंकना बिलकुल सहज है. प्रेम कवितायें जैसी हमने पढ़ीं (और लिखीं भी हैं), उसके बरक्स यह कविता बिलकुल अलग भाषा, अभिव्यक्ति और भाव-बोध वाली है. कहूं कि यह हिंदी के 'जेनरेशन एक्स' की कविता है. उसके सोचने की प्रक्रिया, उसकी भाषा, उसकी समझ और उसके बोल्डनेस से उपजी. इसीलिए यह बहुत ध्यान से पढ़े जाने की मांग करती है, शब्दों से बिदकने की जगह एक नई पीढ़ी के आगमन की धमक की तरह देखे और महसूस किये जाने वाले धीरज भरे पाठ की दरकार है यहाँ. इससे ज़्यादा कुछ कहना एक तरह की 'कंसेंट बिल्डिंग' होगी. तो मैं आपको अब कविता के साथ अकेले छोड़ता हूँ....
बुखार, ब्रेक अप, आइ लव यू
104 डिग्री
अब पुलिस मुझे आइपीसी लगाकर गिरफ़्तार कर ले
तो भी नहीं कहूंगी कि मैंने तुमसे प्रेम किया है
प्रेम नहीं किया यार
प्रेम के लायक लिटरेचर नहीं पढ़ा
देखो, बात बस ये है कि..
..कि तुम्हारे बिना रहा नहीं जा सकता ।
कहो तो स्टांप पेपर पे लिख के दे दूं
नहीं.. नहीं..नहीं..
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मैंने तुम्हारे दिमाग का दही बनाया है
लड़ाई की है, तंग किया है ?
हां किया है
तो लड़ लो
(वैसे तुमने भी लड़ाई की है पर अभी मैं वो याद नहीं दिला रही)
तुम भी तंग कर लो
ब्रेक अप क्यों कर रहे हो ?
ये मानव अधिकारों का कितना बड़ा उल्लंघन है
कि
आधे घंटे तक फ्रेंच किस करने के बाद तुम बोलो-
हम ब्रेक अप कर रहे हैं !
102 डिग्री
अफसोस कि मैं कुछ नहीं कर सकती
तुम्हारा ‘नहीं’ चाहना
इस ‘नहीं’ को हां कैसे करूं, कैसे ?
प्लीज बोलो ना
‘नहीं’ दुनिया का सबसे कमीना शब्द है
उससे भी ज्यादा है ‘ब्रेकअप’
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अब एक प्यारे से लड़के की याद में
होमर बनने का क्या उपाय है दोस्तों ?
चाहती हूं वो लिखूं..वो लिखूं.. कि
आसमान रोए और धरती का सीना छलनी हो
पानी में आग लगे, तूफान आए
पर रोती भी मैं ही हूं, सीना भी मेरा ही छलनी होता है
आग तूफान सब मेरे ही भीतर है
बाहर सब बिंदास नॉर्मल रहता है
काश पता होता
प्यार कर के तकलीफ़ होती है
काश
(हजारों सालों से कहते आ रहे हैं लोग लेकिन अपन ने भाव कहां दिया.. देना चाहिए
था )
99 डिग्री
तुम्हें याद है जब एग्जाम्स के वक़्त मुझे ज़ुकाम हुआ था
कैसे स्टीम दिला दिला कर तुमने पेपर देने भेजा था
और बारिश में भीग कर बुखार हुआ था
तो कितना डांटा था
अब भी बुखार आता है मुझे
आंसू भी आने लगे हैं आजकल साथ में
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कितनी आदतें बदलनी पड़ेंगी
खुद को ही बदल देना पड़ेगा शायद
जैसे कि अब बेफ़िक्र नहीं रहा जा सकता
खुश नहीं हुआ जा सकता कभी
और
सेक्स भी तो नहीं किया जा सकता
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वो सारी किसेज जो पानी पीने और सूसू करने जितनी जरूरी थीं ज़िंदगी में
किसी सपने की मानिंद गायब हो गई हैं..
ओह कितनी यादें हैं, फिल्म है पूरी
कभी खत्म न होने वाली
मेरी सब फालतू बातें जिनसे मम्मी तक इरिटेट हो जाती थी
तुम्हीं तो थे जो सुन कर मुस्कुराया करते थे
और तुम, जिसकी सब आदतें मेरे पापा से मिलती थीं
और वो मैसेज याद हैं
हजारों एसएमएस.. मैसेज बॉक्स भरते ही डिलीट होते गए
उन्हें भरोसा था कि खुद डिलीट होकर भी
उन्होंने एक रिश्ते को ‘सेव’ किया है
दुनिया का सबसे प्यारा रिश्ता..
तुम चिढ़ जाओगे कि ये सब लिखने की बातें नहीं हैं
क्यों नहीं हैं ?
तुम्हारे प्यारे होठों से भी ज्यादा प्यारे डिंपल
और उनसे भी प्यारी मुस्कुराहट की याद
मुझे सेक्स की इच्छा से कहीं ज्यादा बेचैन करती है
तुम्हारे शरीर की खुशबू जिसके सहारे हमेशा गहरी नींद सोया जा सकता है
वही तुम, जिसे निहारते हुए लगता है-
काश इसे मैंने पैदा किया होता..
जिंदा रहने की चंद बुनियादी शर्तें ही तो हैं न
हवा, पानी, खाना और तुम
तुम..
101 डिग्री
मैं उन तमाम लड़कियों से
जो प्यार में तकिए भिगोती हैं और बेहोश होती हैं
माफी मांगना चाहती हूं
वो सभी लोग जो बीपीएल सूची के राशन की तरह
फोन रीचार्ज होने का इंतजार करते हैं
जो ऑक्सीजन की बजाय सिगरेट से सांस लेते हैं
वोदका के समंदर में तैरते हैं
हमेशा दुखी रहते हैं
उन पर ली गई सारी चुटकियां, तंज, ताने, मजाक
मैं वापस लेती हूं
104 डिग्री
और तुम
तुम तो कभी खुश नहीं रहोगे
रिलेशनशिप..अंडरस्टैंडिंग.. ईगो.. स्पेस..
नहीं जानती थी मैग्जीन्स से बाहर भी
इन शब्दों की एक दुनिया है
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तुम्हारे सारे इल्ज़ाम मैं कबूल करती हूं
हां, मुझमें हजारों कमियां हैं
मैंने तुम्हें जंगलियों की तरह प्यार किया है
कि तुम्हें गले लगाने के पहले
फ्लैट की किस्त और इंश्योरेंस पॉलिसी नहीं जोड़ी
अपना साइकोएनालिसिस नहीं किया
हां, मुझे नहीं समझ आता ‘ब्रेक अप’ का मतलब
नहीं आता !
तुम्हें गुस्सा आता है तो आए
लेकिन
आइ लव यू
जितनी बार तुम्हारा ब्रेक अप, उतनी बार मेरा आइ लव यू..
२३ अप्रैल, १९९१ को जन्मी शुभम श्री जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय में परास्नातक कर रही हैं. उनकी कुछ कवितायें हिन्दी समय में प्रकाशित हो चुकी हैं.
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टिप्पणियाँ
कितनी आदतें बदलनी पड़ेंगी
खुद को ही बदल देना पड़ेगा शायद
जैसे कि अब बेफ़िक्र नहीं रहा जा सकता
खुश नहीं हुआ जा सकता कभी
और
सेक्स भी तो नहीं किया जा सकता
सिर्फ कविता के शब्द या तत्त्व नहीं हैं ये ...प्रेम कि स्थिति से उपजा विकार जिसे बहुत ही आसन से शब्दों में बाँध दिया गया हैं. यहाँ पर परम्परावादी कविता के अंश सूक्ष्मदर्शी से भी तलाशने पर नहीं मिलेंगे और आज आवश्यकता उसी कि हैं. प्रेम के पुराने गढ़े सिधांत इस संचार के युग में, जहाँ सिर्फ एक मैसेज से सम्बन्ध बनते या समाप्त हो जाते हैं के लिए कहीं कोई जगह ही नहीं बची हैं. आप प्रेम कि ऐसी अनियमितताओ के लिए कई कारणों को गिन सकते हैं पर उससे मुक्त नहीं हो सकते. एक और बेहद जरुरी बात ..स्त्री विमर्श पर बात करने वालों के लिए भी. इसे सिर्फ उन्मुक्तता या जेनरेशन एक्स का बोल्डनेस कह कर किनारा नहीं किया जा सकता. हर तरफ से स्त्री मुक्ति कि बात करने वालों के लिए ये समझना भी जरुरी हैं कि बिना सेक्सुवालिटी पर चर्चा किये बात पूरी नहीं होगी.
आभार असुविधा का ऐसे प्रतिभाओ से परिचय करने के लिए.
सादर......
और मुझे इसकी भाषा चौंकाती नहीं है. मुझे आदत है ऐसी बातों की :)
विशेष भाषा-विषय-शैली में प्रस्तुत यह कविता और ऐसी कवितायें स्वीकृति के लिए किसी लिटमस टेस्ट को पास करें तो ही बात हो.. अन्यथा मैं बड़े विश्वास से कह रहा रहा हूँ कि वाकई बुखार में की गयी बकवास ही है यह.. जो थोडा सा मजा मिल रहा है वह इसलिए कि बात सेक्स और फ्रेंच किस की भी हुई है और पढ़ते समय पाठक कवयित्री को कई छवियों में इमेजिन कर रहा होगा. [ यहाँ चेहरे पर एक फूहड़ स्मायल भी ले आइये..] मैं सोचता हूँ कि ऐसी सनसनी वाली कवितायें तभी कविता कही जा सकती हों जब कविता कहीं पहुँच रही हो.. मतलब कि कविता की ग्राह्यता का दायरा कहाँ तक है.. मैसेज क्या मिला..
अब आईये.. मेरी एक तल्ख़ टिप्पणी भी .. कविता पर सिर्फ कहने के लिए कुछ नहीं कहा जाय ..जैसा अमूमन यहाँ इस कविता के नीचे होना संभावित है.. अगर विपिन कहती हैं कि यह आवाज़ सुनी जाए तो उन्हें इस कविता के बहाने कारण भी बताना चाहिए कि क्यों सुनी जाए..क्या ख़ास पाया उन्होंने इसमें जिसके आधार पर सुने जाने की पैरोकारी.
आपने कविता के साथ अकेले छोड़ा है अशोक सर.. इसलिए मेरी इतनी बात.. उम्मीद है कि संवाद सकारात्मकता में आगे बढेगा.. मेरी कविता 'मस्टरबेशन ' और रक्षित की कविता 'पोल्का डोट वाली लड़की' भी यहाँ मौजूद इन्ही उदार/ प्रोग्रेसिव पाठकों से द्वारा पढ़े जाने की मांग करती है.
शुक्रिया अशोक भाई इन अनूठी कविताओं से मुलाक़ात करवाने के लिए| अनर्गल-सी कविताओं के हुजूम में शुभम की ये कवितायें जायका तो बदलती ही हैं, हिन्दी कविता के नए स्कोप को भी और और एक्सटेंशन देती हैं|
शुभम की कविताओं के संकलन का अब बेसब्री से इनतजार...!
बहुत कमाल की कवितायेँ है शुभम जी की....आज कल वैसे भी सपाटबयानी बहुत अच्छी लगती है और नई कविता का ट्रेंड भी है
"ये मानव अधिकारों का कितना बड़ा उल्लंघन है
कि
आधे घंटे तक फ्रेंच किस करने के बाद तुम बोलो-
हम ब्रेक अप कर रहे हैं !"
...
शुभम जी को बहुत बहुत बधाई हलचल मचा देने के लिये !
शुभम को पहली बार हिंदी समय पर पढ़ा था और बहुत प्रभावित होकर कई दोस्तों को भी पढवाया था. बहुत उम्मीद बंधती है जब मेरे आलस को और आराम मिलता है कि कोई वही बात किसी ना किसी तरह से कह देता है.
लेकिन यहाँ बात बिलकुल जुदा है. ये कवितायेँ तो मुझे 'बेहद' स्तरहीन लगीं. किसी नौसिखिये हॉस्टल स्टुडेंट कि डायरी में अटके कुछ कोंसेप्ट और आइदिआज़ बसेड जिसकी बीच कि लाइन बस चौंकाती भर हैं बांकी पूरा कथ्य और शिल्प अपने संशय में डोलता नज़र आता है. जहाँ तक प्रयोग कि बात है मुझे ये भी नहीं लगता. ये कोई प्रयोग नहीं है.
इस मुकाबले सेनिटरी नैपकिन और हिंदी समय पर कि अन्य कवितायेँ बेहद सधी हुई, विचारणीय और उद्वेलित करने वाली है.
ये अजीब ही है :-
"काश पता होता
प्यार कर के तकलीफ़ होती है
काश
(हजारों सालों से कहते आ रहे हैं लोग लेकिन अपन ने भाव कहां दिया.. देना चाहिए था )
99 डिग्री
तुम्हें याद है जब एग्जाम्स के वक़्त मुझे ज़ुकाम हुआ था
कैसे स्टीम दिला दिला कर तुमने पेपर देने भेजा था
और बारिश में भीग कर बुखार हुआ था
तो कितना डांटा था
अब भी बुखार आता है मुझे
आंसू भी आने लगे हैं आजकल साथ में"
बेहद कमजोर, एक आम सी कविता.
कुछेक लाइन बहुत चौंकाती है लेकिन चौंकाना भर कब से कविता हो गयी कैसे ?
असुविधा का बड़ा आदर है और मुझे ये मंच बहुत बड़ा लगता भीहै. आज असुविधा हुई.
विरोधाभासों का सम्मिश्रण कई बार एक साफ तस्वीर को भी धुंधला कर देता है। निर्माण की प्रक्रिया में टूटना-बिखरना मुमकिन है, लेकिन अगर वह उलटी दिशा में चल पड़ता है तो यह गोता लगाना व्यापक भ्रम पैदा करेगा। शब्द और भाषा के स्तर पर "विद्रोह" हर गली में मिल जाएगा जहां हर दूसरा-तीसरा आदमी मां-बहन की वीभत्स गालियों के बिना बात नहीं करता है। लेकिन क्या वह विद्रोह है? यथास्थितिवाद की वकालत के लिए या उस दिशा में जाते हुए भी कई बार इस तरह की "विद्रोही" भाषा का इस्तेमाल किया जाता है या उसकी वकालत की जाती है। इसलिए भाषा का विद्रोह अगर एक ठोस वैचारिक धरातल पर खड़ा नहीं है तो वह एक "व्यवस्थागत" भ्रम के बरक्स नए भ्रम की व्यवस्था रचेगा।
" ‘नहीं’ दुनिया का सबसे कमीना शब्द है/ उससे भी ज्यादा है ‘ब्रेकअप’"
कैसे...?
‘नहीं’ कैसे दुनिया का सबसे कमीना शब्द है। खासतौर पर स्त्री संदर्भों में, जहां ‘नहीं’ कहने का हक तक नहीं दिया गया, उसके "नहीं" को भी "हां" के रूप में देखा गया और पुरुष-स्वामित्व स्वतः "हां" के कुचक्र में स्त्री को खत्म मानता रहा है, वहां ‘नहीं’ कहना कैसे दुनिया का सबसे कमीना शब्द है? और अगर पुरुष "नहीं" कहता है तब तो उसे अपने "नहीं" के लिए एक अतिरिक्त ताकत के बतौर देखा जाना चाहिए।
प्यार करके तकलीफ होना लाजिमी है। यह स्वाभाविक है। लेकिन जब कोई आधे घंटे तक फ्रेंच किस करने के बाद "ब्रेकअप" करने की घोषणा करता है, तो खूब रो लीजिए, सीना भी छलनी हो जाने दीजिए, लेकिन उसकी घोषणा को उसके मुंह पर मारने की हिम्मत भी करिए। खासतौर पर तब, जब जान दे देने की "रिवायत" को खारिज कर चुकी हैं। बल्कि तब तो और भी...। फिर उसके "नहीं" को "हां" में बदलने के लिए "प्लीज" की गुहार क्यों?
आदतें बदलना खुद को बदल देना ही होता है। यह खुद-ब-खुद होता है, हम चाहें, न चाहें। वहां "व्यवस्था" को जोर नहीं चलता। कई चीजें "प्राकृतिक अनुकूलन के सिद्धांत" के हिसाब से भी होती हैं। और जब सेक्स नहीं कर पाने का अफसोस परेशान कर सकता है, और अपने इस अधिकार को लेकर कोई शुबहा नहीं है तो उसे आधे घंटे तक फ्रेंच किस करके "ब्रेकअप" की घोषणा करने वाला कुछ भी करके छीन नहीं सकता। स्त्री के लिए यह रास्ता ज्यादा आसान है। हां, भरोसे के लायक पुरुष नहीं हैं इस दुनिया में!
सेक्स अपने भीतर प्रयोग और खोज का विषय है। सेक्स केवल एक शक्ल में आदिम स्थितियों में था। सेक्स जरूरत है, अनिवार्यता नहीं, अपराध नहीं। प्यारे होठों, प्यारे डिंपल और प्यारी हर मुस्कराहट के पीछे सेक्स की इच्छा चुपके-से हिलोरें मारती रहती हैं और उस इच्छा में प्यारे होठों, प्यारे डिंपल और प्यारे मुस्कराहट आखिरकार डूब जाते हैं, एक याद की तरह...। उससे उपजी बेचैनी के जन्म का सिरा ढूंढ़ना बहुत मुश्किल नहीं है। विद्रोह की भाषा में बतियाने वाले इससे हिचकते भी नहीं हैं। और यह उसी भावुकतावाद का एक आडंबर है कि जिसे पैदा नहीं कर पाने का अफसोस है, उसी को कभी खुश नहीं रह पाने का शाप भी। जनाब असली दुनिया मैगजीनों में नहीं, उसके बाहर है जहां रिलेशनशिप.. अंडरस्टैंडिंग.. ईगो.. स्पेस.. की परीक्षा होती है। इसे पढ़ के नहीं, जी कर ही महसूस किया जा सकता है, उससे ताकत ली जा सकती है।
और जब आधे घंटे तक फ्रेंच किस करने के बाद "ब्रेकअप" थोपा जाए तो जहां दुगने उत्साह के साथ दोगुनी मात्रा में वैसा ही "ब्रेकअप" वापस करने की जरूरत है, वहां "ब्रेकअप" शब्द "नहीं" से भी "कमीना" कैसे हो गया? क्या यह वापसी है, वापस लौटना है? क्या "संवेदना" के इसी हथियार से मानव-अधिकारों के दमन की "व्यवस्था" नहीं की गई है? और यह किससे छिपा हुआ है कि किनके मानव-अधिकारों का हनन हुआ है या उनकी न्यूनतम जरूरतों तक को अधिकारों में शुमार नहीं किया गया है? और जब वही आधे घंटे तक फ्रेंच किस करने के बाद "ब्रेकअप" बोलता है तो उसके "नहीं" को "हां" में बदलने की जिद क्यों? ऐसे आंसू मध्यकाल की नायिका की आंखों में भी क्या शोभा देते हैं?
यह तो अपनी ईमानदारी है कि किसी को गले लगाने के पहले फ्लैट की किस्त और इंश्योरेंस पॉलिसी नहीं जोड़ी और अपना साइकोएनालिसिस नहीं किया। (तमाम साइकोएनालिसिस धरे के धरे रह जाते हैं, जब प्यार हमला करता है) और जंगलियों की तरह प्यार करना भी एक ईमानदार ताकत ही है। लेकिन इसके बावजूद अगर कोई हजारों की कमियों का इल्जाम दे रहा है और "ब्रेकअप" थोप रहा है, वह अगर एक बार भी "ब्रेकअप" थोपे तो पहली और आखिरी बार उसका "ब्रेकअप" सूद सहित वापस करिए, जितनी बार वह "ब्रेकअप" थोप रहा है, उतनी बार उसके बदले "आइ लव यू" वापस कर किसका भला किया जा रहा है? कब तक इस "ब्रेक अप" का मतलब नहीं समझ आएगा?
पर एक बात मेरी समझ में नहीं आता..कुछ हटके, कुछ अलग दिखने और करने की चाह यदि अधोगामी हो, तो भी उसे इतना मान और महत्त्व मिलना चाहिए क्या...?
मोहन वर्मा
अभिधा में व्यक्त होता है प्यार
रात में चढ़ता है
सुबह उतर जाता है बुखार |
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