सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है
देवयानी भारद्वाज को आप पहले भी असुविधा पर पढ़ चुके हैं. यह कविता उन्होंने कुछ दिन पहले भेजी थी. हाल ही में बीते दशहरे से इसका संबंध सहज ही देखा जा सकता है, लेकिन यह सिर्फ वहीँ तक सीमित नहीं बल्कि उससे कहीं आगे जाती हुई बड़े धैर्य के साथ इतिहास और वर्तमान में आवाजाही करते हुए लैंगिक भेदभावों की राजनीति की तलाश करती है.
चित्र यहाँ से साभार |
सड़क पर खड़े निरीह पुतले रावण के
कहते हैं पुकार पुकार
देखो,
बुराई का प्रतिमान नहीं हूँ मैं
सिर्फ कद बहुत बड़ा है मेरा
हम आर्यावर्त के लोग
सह नहीं पाते
जिन्हें हमने असुर माना
उनकी तरक्की और शिक्षा
उनके ऊँचे कद से डर जाते हैं
डर जाते हैं स्त्रियों के
अपनी कामनाओं को खुल कर कह देने से
स्त्री मुक्ति की बातें
हमें घर को तोड़ने वाली ही बातें लगती हैं
हम लक्ष्मण रेखाओं के दायरे में ही रखना चाहते हैं सीता को
और डरी सहमी सीता जब करती है पार लक्ष्मण रेखा
तो फँस ही जाती है किसी रावण के जाल में
लेकिन क्या रावण ने जाल में फँसाया था
या ले गया था उसे लक्षमण रेखा की कैद से निकाल
और कहा हो उसने
'' प्रणय निवेदन मेरा तुम करो या न करो स्वीकार
यह सिर्फ तुम्हारा है अधिकार
तुम यहाँ रहो प्रेयसी
अशोक वाटिका में
जहाँ तक पहुँच नहीं सकेगा
कोई भी सामंती संस्कार "
जो जेवर सीता ने राह में फेंके थे उतार उतार
क्या वह राम को राह दिखा रही थी
या फेंक रही थी उतार उतार
बरसों की घुटन और वे सारे प्रतिमान
जो कैद करते थे उसे
लक्ष्मण रेखा के दायरों में
जबकि राम कर रहे हों स्वर्ण मृग का शिकार
यह मुक्ति का जश्न था
या थी मदद की पुकार
इतिहास रचता ही रहा है
सत्ता के पक्ष का आख्यान
कौन जाने क्यों चली गयी थी तारा
छोड़ सुग्रीव को बाली के साथ
और किसने दिया मर्यादा पुरुषोत्तम को यह अधिकार
की भाइयों के झगड़े में
छिप कर करें वार
कब तक यूं ही ढोते रहेंगे हम
मिथकों के इकहरे पाठ
और दोहराते रहेंगे
बुराई पर अच्छाई की जीत का नाम
जबकि तथ्यों के बीच मची है कैसी चीख पुकार
'घर का भेदी लंका ढाए'
केकयी ने तो सिर्फ याद दिलाई थी रघुकुल की रीत
पर यह कैसी जकड़न थी
कि पादुका सिंहासन पर विराजती रहीं
जिसे सिखाया गया था सिर्फ चरणों को पूजना
और पितृसत्ता का अनुचर होना
उसने इस तरह जाया किया
एक स्त्री का संघर्ष
जीवन भर पटरानी कौशल्या के हुकुम बजाती केकयी ने
बेटे के लिए राज सिंहासन मांग कर पाला था एक ख्वाब
भूली नहीं होगी केकयी
बरसों के अनुभव ने छीन लिया होगा
अपने ही सुलगते सपनों को जीने का आत्मविश्वास
कुछ पुत्रमोह भी बाँध रहा होगा पाँव
आखिर दलित रानी की
और भी दलित दासी ने चला दाँव
और रघुकुल की रीत निभायी राम ने
जैसे आज भी निभाते हैं रघुकुल की रीत को कलयुगी राम
औरतें और दलित सब ही बनते हैं पञ्च और सरपंच
सिंहासन पर अब भी पादुकाएँ बिराजती हैं
जिस नव यौवना सीता को पाने चले गए थे राम
अपार जलधि के भी पार
वह प्रेम था या अहम पर खाई चोट की ललकार
आख्यान कहाँ बताते हैं पूरी बात
या रचते हैं रूपकों का ऐसा महाजाल
सीता स्वेच्छा से देती है अग्नि परीक्षा
और गर्भावस्था में कर दिया जाता है उसका परित्याग
न राम के पास था नैतिक साहस
और लक्ष्मण का भी था मुंह बंद
सत्ता की राजनीति में सीता
बार बार होती रही निर्वासित
और वाल्मीकि के आश्रम में पाती रही शरण
राम के अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े स्वतंत्र घूमते रहे
लव कुश लौट - लौट कर जाते हैं
अयोध्या के राज महल
सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है
टिप्पणियाँ
"सीता आज भी धरती के गर्भ में समा जाती है"
सशक्त और प्रभावशाली कविता !
यह सिर्फ तुम्हारा है अधिकार
तुम यहाँ रहो प्रेयसी
अशोक वाटिका में
जहाँ तक पहुँच नहीं सकेगा
कोई भी सामंती संस्कार " .............एक एक प्रश्न हथौड़ी की तरह चोट करते हैं। अद्भुत कविता। देवयानी जी का आभार। स्त्री स्वतंत्रता की राह आसान नहीं और मिथक तो खैर मिथक ही होते हैं।
सत्ता व संस्कृति की संरचना पुरुष-वर्चस्व वादी है ...जिसने अपने पास तमाम तरह से अपार शक्ति नियोजित कर रखी है ....वह उसमें परिवर्तन नहीं चाहती है ' सिंहासन पर अब भी पादुकाएँ बिराजती हैं को तोड़ने वाली ही बातें लगती हैं' ....स्त्री के स्वतंत्र होने की चेतना 'अपनी कामनाओं को खुल कर कह देने ...' स्त्री' मुक्ति की बातें '.....इस कविता का प्रभावी केंद्र है ..... लेकिन यह कविता सिर्फ स्त्री विमर्श में ही नहीं रह जाती है बल्कि जनता के विभिन्न हाशिये वाले हिस्से ...जो सत्ता की शक्ति द्वारा शोषित है ,दमित है .. उनका सत्ता सभी तरीकों व प्रलोभनों से दोहन करती है ..उसके खिलाफ प्रभावशाली आवाज़ बनकर उभरती है-.इस कविता के शक्ति
... आप सब को बधाई !
या रचते हैं रूपकों का ऐसा महाजाल
सीता स्वेच्छा से देती है अग्नि परीक्षा
और गर्भावस्था में कर दिया जाता है उसका परित्याग
न राम के पास था नैतिक साहस
और लक्ष्मण का भी था मुंह बंद
सत्ता की राजनीति में सीता
बार बार होती रही निर्वासित ---" देवयानी की यह कविता उस मिथकीय परिकल्पना और सामंती इतिहास की समीक्षा के बहाने कई जरूरी सवाल उठाती है और जरूरत पर बल देती है कि स्त्री के प्रति अब तक चली आई सोच और उसके प्रति बरताव पर समय रहते पुनर्विचार न करना प्रकारान्तर से उस निर्मम सचाई से मुंह मोड़े रहना है, जिसे अब किसी तरह न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता।