नींव,दीवार,छत थे पिता



पितृशोक के इस दौर में अग्रज कवि निरंजन श्रोत्रिय ने संवेदना सन्देश के साथ यह कविता भी भेजी थी. आज असुविधा पर यह आप सबके लिए...

पिता उन दिनों 


पिता उन दिनों
पिता जैसे नहीं हुआ करते थे
रौब और ख़ौफ से रिक्त पिता
बच्चे की तरह निश्चिन्त और खुश रहते

हम मस्ती में चढ़ जाते कंधें पर उनके
छूते निडरता से मूँछें उनकी
उन्हीं की छड़ी से उन्हें पीटने का अभिनय करते
चुपके से गुदगुदाकर पिता को
खोल देते खिलखिलाहट की टोंटी
नहा जाता घर

नींव,दीवार,छत थे पिता
घर थे पिता !

एक दिन अचानक लौटे पिता घर
अजनबी और डरावना चेहरा लिये
हम दुबक गये घर के कोनों में
छड़ी उठाकर घूरने लगे शून्य में
नींव,दीवार और छत डरने लगे
घर लौटे पिता से
डबडबाने लगा टेबल पर रखा चश्मा उनका
चुप्पी उनकी सीलन बन बैठ गई दीवारों में

उस दिन
शहर और दुनिया में
कुछ घटनाएं घटी थीं एक साथ

एक नाबालिग लड़की के साथ हुआ बलात्कार
दो बेटों ने बूढ़ी माँ के एवज में चुनी जायदाद
सोमालिया में पैंतालीस लाख बच्चे भूख से मरने को थे
और शकरू मियाँ का नौजवान बेटा घर ख़त छोड़ गया था !

                                                                 

टिप्पणियाँ

Arun sathi ने कहा…
साधू-साधू
आनंद ने कहा…
बहुत प्यारी कविता पढ़वाया भाई आपने ...श्रोतिय जी को बधाई !
अरुण अवध ने कहा…
कमाल की संवेदना है ! पिता के जरिये समय की भयावहता को बखूबी शब्द दिए गए है ! निरंजन जी को बधाई !
Unknown ने कहा…
बहुत दिनों बाद एक बेहद अच्छी कविता पढ़ने को मिली श्रोत्रिय जी को बधाई के साथ आपको धन्यवाद्
Onkar ने कहा…
बहुत प्रभावशाली रचना
अजेय ने कहा…
डर गया हूँ , माँ को तो खो दिया . कल पिता को भी खोना होगा . कैसे सह पाऊँगा ?
Umesh ने कहा…
पिता सचमुच एक छत की तरह होते हैं … हमेशा याद आते हैं … पितृ-ॠण से उॠण होना संभव ही नहीं होता … शोक-संतप्त अशोक भाई को पितृ-वियोग को सहने की शक्ति मिले। इतनी संवेदनापूर्ण कविता यहाँ उपलब्ध कराने के लिए निरंजन जी को हार्दिक आभार।

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