नवाबों के शहर में केदार जी और मैं - उमेश चौहान
दिल्ली से निकलने वाली पत्रिका 'कथा' में उमेश चौहान का यह स्मृति-आरेख प्रकाशित हुआ. वरिष्ठ कवि केदार नाथ सिंह की गहन आत्मीय छवियों से भरा-पूरा इस आलेख में उमेश जी की पुस्तक के विमोचन समारोह की रपट भी बड़े अनूठे ढंग से आई है.
- उमेश चौहान
लगभग
चौबीस घंटे के लखनऊ प्रवास के बाद वापसी के लिए घर से बाहर निकलते ही हमेशा की तरह
हमें विदा करने के लिए सोनू गेट की बगल में आ खड़ा हुआ था। लगभग तीन-चार साल का
प्यारा सा बच्चा। उसे देखते ही प्यार उमड़ता था। हर बार की तरह उसे सामने पाते ही
मेरा हाथ अपने आप जेब में चला गया और मैंने सौ रुपए का एक नोट निकालकर उसके हाथ
में थमाना चाहा कि अचानक केदारनाथ सिंह जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बोले, -“नहीं, यह मेरी तरफ से होगा।” उन्होंने अपने कुर्ते
की जेब से सौ का नोट निकालकर बड़े वात्सल्य के साथ सोनू को पकड़ाया। सोनू मंद-मंद
मुस्कराता हुआ उन्हें देख रहा था। केदार जी की आँखों में आनन्द तैर रहा था उस समय।
हम सब केदार जी के इस वात्सल्य-भाव से अभिभूत थे। यह हमारे लिए उनके विशाल
कवि-हृदय में छिपे हुए एक और विकार-केन्द्र के एकायक उद्घाटित होने जैसा था। मुझे
ध्यान आया कि जब आज सुबह-सुबह सोनू घर के भीतर डाइनिंग टेबिल की कुर्सी पर बैठा
बीकानेरी भुजिया खा रहा था, तब भी केदार जी उसे बड़ी प्यार भरी नज़रों से देखते रहे
थे। मैंने उस समय सोनू की दो प्यारी-सी तस्वीरें भी अपने कैमरे में कैद कर ली थीं
और सोचा था कि उन्हें प्रिंट कराकर केदार जी को भेंट करूँगा। सोनू मेरे घर की छत
पर बने कमरे में रहने वाले बिजली विभाग के जूनियर इंजीनियर सत्यनारायण का बेटा था।
पिछले करीब एक दशक से मेरे लखनऊ के मकान की देख-रेख सत्यनारायण के ही जिम्मे है। लगभग
दस वर्ष पहले जब वह तराई के जंगली इलाके के एक थारू आदिवासियों के एक गाँव से मेरे
विभाग में चपरासी के पद पर काम करने आया था तब उसके पास लखनऊ में रहने की कोई जगह
नहीं थी। मैंने यहीं उसके रहने का इंतज़ाम कर दिया था। तब से लेकर आज तक उसका
परिवार यहीं पर रहता रहा है और वह मेरे घर की देख-भाल भी करता रहता है। यहाँ रहकर
खूब तरक्की की है उसने और उसके परिवार ने, इसीलिए वह यह जगह छोड़ने की कभी सोचता भी
नहीं। केदार जी की लखनऊ से विदाई की इस बेला में सत्यनारायण का पूरा परिवार
आनन्द-विभोर होकर मेरे साथ गेट के पास आ जुटा था।
हिन्दी
के वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह जी के साथ लखनऊ की यात्रा करने का आनन्द तो दिल्ली से
चलने के
पहले से ही आने लगा था। जैसे ही केदार जी द्वारा लखनऊ में नियोजित मेरे नए
कविता-संग्रह ‘जनतंत्र का अभिमन्यु’ का
लोकार्पण करने की हामी भरी और उसकी तारीख़ पक्की की, कविमित्र मिथिलेश श्रीवास्तव
भी स्वतःस्फूर्त उत्साह के साथ उसमें सम्मिलित होने के लिए चलने को तैयार हो गए।
अगले ही दिन शिल्पायन प्रकाशन के ललित शर्मा ने भी पुष्टि कर दी कि वे भी लोकार्पण
के अवसर पर लखनऊ पहुँचेंगे। राजकमल प्रकाशन में कार्यरत मित्र सुशील सिद्धार्थ
पहले से ही वहाँ थे। मेरे लिए इतना सब काफी था। इधर मेरे और भी साथी तैयार थे। मैं
कहता ही रह गया कि उन्हें इस यात्रा में कष्ट होगा। रेल टिकट भी पता नहीं कन्फर्म
होगा या नहीं। पर उन्होंने खुद ही टिकट कराकर अपना जाना सुनिश्चित कर लिया। मैंने
भी सोचा कि चलो ये सब मित्र वहाँ पहुँचेंगे तो केदार जी को बोरियत नहीं होगी,
क्योंकि यदि मैं कार्यक्रम की तैयारियों के चक्कर में कुछ व्यस्त भी हो गया तो ये
लोग वहाँ के प्रवास में उनका साथ देंगे। तब तक मुझे यह अंदाजा नहीं था कि केदार जी
लखनऊ जा रहे हैं तो उनसे मिलने वाराणसी, गोरखपुर, देवरिया, बाराबंकी, कानपुर आदि
अनेक जगहों से उनके मित्रगण आएँगे ही आएँगे और उन्हें बोरियत होने का कोई सवाल ही
नहीं था। बल्कि सभी मुलाकातियों के लिए समय का समायोजन करने के लिए ही बाद में वापसी
की यात्रा का कार्यक्रम अगले दिन सुबह के बजाय दोपहर के बाद रखना पड़ा। एक मित्र की
उसी रात की वापसी की रेल-यात्रा के अलावा बाकी का पूरा कार्यक्रम सुनियोजित था ताकि
किसी को कहीं कोई परेशानी न हो।
यह तो
दिल्ली से चलने के पहले ही तय हो गया था कि केदार जी लखनऊ में मेरे खाली पड़े घर
में ही रुकेंगे। जब उन्होंने मुझे यह बताया कि उनसे मिलने दो लोग बाहर से आएँगे,
जिन्हें उनके साथ ही रुकना होगा तो मैंने कहा कि वे भी घर पर ही रुक जाएँगे। रुकने
के लिए मेरा घर सबसे उपयुक्त स्थान था, क्योंकि लोकार्पण का कार्यक्रम गोमतीनगर
स्थित उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के सभागार में था और किसी भी गेस्ट हाउस की
तुलना में मेरा घर वहाँ से पास में ही था। बाद में केदार जी से बातचीत में पता चला
कि घर पर रुकने वाले मेहमानों में देवरिया के सुप्रसिद्ध गीतकार गिरिधर करुण जी तथा
गोरखपुर निवासी केदार जी के पुराने मित्र स्वर्गीय श्री हरिहर सिंह जी के बेटे
अजीत सिंह होंगे। चूँकि घर बंद पड़ा रहता है इसलिए एकबारगी तो यह संकोच हुआ कि पता
नहीं उसकी हालत इन मेहमानों को टिकाने लायक होगी या नहीं। लेकिन फिर सोचा कि देखा
जाएगा, घर पर जैसे चाहेंगे वैसे उठने-बैठने की सुविधा तो होगी। वहाँ पहुँचकर
बिस्तर वगैरह ठीक-ठाक करके उन्हें किसी तरह वहीं सुलाने की व्यवस्था कर ली जाएगी। चिन्ता
बस एक ही बात की थी कि जाड़े के दिन होने की वजह से जरूरत भर की कंबल या रजाइयाँ
वहाँ न मिलीं तो क्या होगा! घर लम्बे समय तक बंद पड़े रहने के कारण यह ध्यान नहीं
रहता था कि वहाँ कौन सा सामान है, कौन सा नहीं और कौन सा सामान कहाँ रखा है। ललित
शर्मा व डॉ. अनुज
रात की ट्रेन से दिल्ली से चलकर सुबह ही लखनऊ पहुँच गए थे। मिथिलेश श्रीवास्तव जी
को दोपहर को पहुँचना था। उनके लिए गेस्ट हाउस में कमरे आरक्षित थे इसलिए चिन्ता
नहीं थी। दोपहर होते-होते हम भी वहाँ पहुँच गए क्योंकि कार्यक्रम अपरान्ह तीन बजे
से था।
घर
पहुँचकर मुझे लगा कि केदार जी अपने अतिथियों के रुकने की व्यवस्था को लेकर थोड़ा
चिन्तित थे। उनकी चिन्ता देखकर मुझे अच्छा भी लगा, क्योंकि अपने से ज्यादा मित्रों
या मेहमानों की चिन्ता होना व्यक्ति के एक दुर्लभ सद्गुण को दरशाता है, जो उनमें
परिलक्षित हो रहा था। मैंने केदार जी को सीधे ड्राइंग रूम में बिठाकर उन्हें चाय
पिलवाने की व्यवस्था की। साथ ही साथ मैंने घर के दोनों कमरे साफ करवाए, बिस्तर
ठीक-ठाक किए तथा आलमारियाँ खोल-खालकर खोज-बीन की तो जरूरत भर के कंबल व रजाइयाँ भी
वहाँ मिल गए। सब कुछ व्यवस्थित हो जाने तक केदार जी चाय-पान कर चुके थे। इसी बीच
मेरी पुस्तक के प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ के साथ मिलकर लखनऊ में लोकार्पण-कार्यक्रम
का आयोजन कर रही संस्था ‘माध्यम’ के मुख्य
संयोजक व मेरे मित्र अनूप श्रीवास्तव जी आकर केदार जी से मिल चुके थे। कुछ समय के
अंतराल से कार्यक्रम की आयोजन-समिति के अध्यक्ष एवं मेरे बड़े भाई शीलेन्द्र चौहान
भी, जो स्वयं देश के एक जाने-माने नवगीतकार हैं, केदार जी से मिलने आए। यह
शीलेन्द्र भैया की आयोजन-क्षमता एवं लखनऊ के साहित्यिक जगत में उनकी पैठ का ही
परिणाम था कि मुझे कार्यक्रम के आयोजन के संबन्ध में कभी कुछ सोचने की जरूरत ही
नहीं थी और यह सुनिश्चित था कि वहाँ वह बृहत सभागार आस-पास के जिलों के मेरे
साहित्यिक व पारिवारिक मित्रों तथा लखनऊ के शहरी व मेरे गाँव के आस-पास के ग्रामीण
क्षेत्र के साहित्य-प्रेमियों से भरा होगा। अब केदार जी को प्रतीक्षा थी अपने
मेहमानों के पहुँचने की। उन्हें इस बात की भी चिन्ता थी कि लखनऊ पहुँचकर भी अब तक
ललित शर्मा वहाँ क्यों नहीं पहुँचे। मैंने फोन किया तो पता चला कि ललित तो
सुबह-सुबह ही नहा-धोकर शहर में अपना प्रकाशक-धर्म निभाने निकल गए थे। उस समय वे
दूर कहीं चारबाग की तरफ थे। खैर, मेरा फोन मिलते ही वे घर की तरफ पलटे। तभी गिरिधर
करुण जी व अजीत सिंह भी वहाँ आ पहुँचे।
गिरिधर
जी के वहाँ पहुँचते ही घर का माहौल ही बदल गया। अकाल का सारस (‘अकाल में सारस’
केदार जी की मशहूर कविता है) जैसे एकाएक सावन की रिम-झिम में मदमस्त हो गया हो!
पुराने मित्र के साथ केदार जी की जो चुहलबाजियाँ भोजपुरी में शुरू हुईं, वे अगले
दिन गिरिधर जी के वहाँ से जाने तक किसी भी वक्त थमी नहीं। धीरे-धीरे जमावड़ा बढ़ रहा
था। ललित तथा अनुज भी आ गए थे। साहित्यकार अनिल त्रिपाठी तथा कवि मित्र सर्वेन्द्र
विक्रम सिंह भी वहाँ आ जुटे। घर पर कोई रहता नहीं था सो खाना बाहर से ही आया। बात-चीत करते-करते ही हम सबने खाना खाया। मदद
के लिए मित्र अरुण भदौरिया तथा घरेलू सहायक श्याम सिंह व सत्यनारायण मौजूद ही थे। हम
लोग भोजन आदि से निबटे ही थे कि दिल्ली से कविमित्र मिथिलेश श्रीवास्तव भी आ
पहुँचे। रोटियाँ भले ही ठंडी पड़ चुकी थीं लेकिन मिथिलेश जी ने गर्मजोशी से उनका
स्वागत किया। चूँकि कार्यक्रम का दूल्हा वे लोग मुझे ही मान रहे थे, सो ढाई बजे के
करीब मुझे कार्यक्रम-स्थल की ओर रवाना कर दिया गया। केदार जी को साथ लाने के लिए
शेष लोग वहाँ थे ही। कार्यक्रम की अध्यक्षता करने के लिए सुप्रसिद्ध व्यंग-लेखक व
उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान के पूर्व अध्यक्ष श्री गोपाल चतुर्वेदी तथा उसमें भाषण
देने के लिए आमंत्रित वरिष्ठ कवि श्री नरेश सक्सेना, कथाकार एवं ‘तद्भव’ पत्रिका के संपादक श्री अखिलेश एवं उत्तर
प्रदेश हिन्दी संस्थान के निदेशक एवं लेखक श्री सुधाकर अदीब भी वहाँ समय से ही
पहुँच गए। श्रोताओं के बीच ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों से पधारे तमाम
साहित्य-प्रेमी इष्ट-मित्रों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश शासन के प्रमुख सचिव डॉ
हरशरण दास व विशेष सचिव श्री विशाल चौहान जैसे भारतीय प्रशासनिक सेवा के मित्रों
को भी पाकर मन प्रसन्न हो गया। इसी बीच केदार जी भी पूरी मित्र-मंडली के साथ वहाँ
आ पहुँचे। अब सभागार कार्यक्रम के संचालक श्री आलोक शुक्ला जी के जिम्मे था।
कार्यक्रम
के आयोजक कई बार अतिथियों को सांसत में डाल देते हैं। परम्पराओं के निर्वाह के
चक्कर में कुछ ऐसा ही यहाँ भी हुआ। पहले दीप-प्रज्ज्वलन, फिर देवी सरस्वती की
प्रतिमा का माल्यार्पण। रही-सही कसर अतिथियों के सम्मान में उनके माथे पर लाल टीका
लगाकर पूरी कर दी गई। अब वामपंथी विचारधारा वाले अतिथियों को इस सबमें कोई रुचि तो
थी नहीं। लेकिन मरता क्या न करता। भरी महफिल में कोई असहज स्थिति भी तो नहीं पैदा
की जा सकती थी। संकोच से भरकर केदार जी, नरेश जी व अखिलेश आदि ने वे सभी
औपचारिकताएँ निभाईं जो आयोजकों ने उनसे चाहीं। केदार जी का सम्मान करने के बाद शीघ्र
ही कविता-संग्रह का लोकार्पण भी संपन्न हो गया। सभी के वापस सीटों पर बैठते ही मुझे
लगा कि केदार जी माथे के टीके को लेकर कुछ असहज हो रहे थे। मैं उठकर उनके पास गया
तो वे बोले कि यह एलर्जी पैदा कर देता है। मैं समझ गया। मैंने अपने रूमाल से उसे
साफ कर दिया। अब टीका नहीं दिख रहा था और वे सहज हो चुके थे। मैंने सोचा कि उनकी
त्वचा में तो टीके का द्रव्य प्रविष्ट हो ही चुका होगा। अब एलर्जी होगी तो देखा
जाएगा। खैर, उन्हें एलर्जी जैसा कुछ नहीं हुआ तो राहत मिली। मैं उन अतिथियों की
सहृदयता का कायल भी हुआ, जिन्होंने बिना कोई उफ किए अपनी अतिथीय मर्यादा का
निर्वाह किया। मुझे यह आशंका भी हुई कि आयोजकों की परम्परा का निर्वाह करने की इस
ललक के चलते कहीं उस कार्यक्रम के वामपंथी अतिथिगण मुझे वाकई में एक
प्रतिक्रियावादी कवि न करार दे दें, क्योंकि इस शब्द के हिन्दी-आलोचना के क्षेत्र
में प्रचलित अर्थ को न जानने की अज्ञानतावश मैंने अपने कविता-संग्रह की भूमिका में
खुद ही इस बात की मुनादी कर दी थी कि मेरी अधिकांश रचनाएँ प्रतिक्रियावादी हैं।
मैं सोचने लगा कि क्या समारोह के भाषणों में मेरे इस कथन के बारे में भी कोई बात
उठेगी, क्योंकि इससे पहले व्यक्तिगत बातचीत में वामपंथी विचारधारा के कुछ आलोचक
मित्र मेरे इस कथन पर टिप्पणी कर चुके थे।
यह बात
सभी को स्पष्ट पता थी कि आलोचना-शास्त्र के प्रचलित मुहावरों अथवा शब्दावली से
अनभिज्ञ होने के कारण ही मैंने अपनी पुस्तक के प्राक्कथन में अपनी अधिकांश रचनाओं
के प्रतिक्रियावादी होने की बात कही है। क्योंकि उस कथन के आगे मैंने वहीं पर यह
भी कहा है कि मेरी कविताएँ प्रतिक्रियावादी इसलिए हैं कि क्योंकि उनमें आस-पास
घटित होती घटनाओं के प्रति मेरे मन में उठने वाली प्रतिक्रियाएँ हैं। कविता-संग्रह
के लोकार्पण तथा मेरे कविता-पाठ के बाद जब अतिथियों के बोलने का सिलसिला प्रारंभ
हुआ तो अखिलेश एवं केदार जी ने इस बारे में जमकर चर्चा की। लेकिन मेरी आशंका के
विपरीत उन्होंने मेरी अज्ञानता में भी आशा की एक नई किरण देखी। उन्होंने मेरी
रचनाओं के प्रतिक्रियावादी होने की बात की नए तरह से विवेचना करते हुए, मुझे कटघरे
में खड़ा करने के बजाय, मेरे उक्त कथन के कुछ नए अर्थ तलाशे। अखिलेश ने अपने भाषण
में मेरी कविताओं के प्रतिक्रियावादी होने के बारे में कुछ इस प्रकार कहा, - “उमेश चौहान ने एक जगह अपनी भूमिका में लिखा है कि उनकी कविताएँ
प्रतिक्रियावादी हैं। कोई मार्क्सवादी आलोचक जब भी इन पंक्तियों को पढ़ेगा तो अगर
वह इसे मार्क्सवाद के अपने मुहावरे में देखेगा, तो कहेगा कि चूँकि ये कविताएँ
प्रतिक्रियावादी हैं, इसलिए ये गड़बड़ कविताएँ हैं। प्रतिक्रिया का अर्थ इन कविताओं में,
जो मार्क्सवाद का प्रतिक्रियावाद है, उसके विरुद्ध है। प्रतिक्रिया का अर्थ यहाँ
इस संग्रह में यह है कि जो हमारे समाज में विकृति है, जो हमारे समाज में गलत हो
रहा है, उस पर एक हस्तक्षेप, उस पर एक प्रतिक्रिया। यहाँ प्रतिरोध है। ये प्रतिरोध
करती हुई कविताएँ हैं। इनमें इस प्रतिरोध की रेंज भी आप देख सकते है। यह जो हमारी
आधुनिकता है, इसमें ऐसा नहीं है कि रोजमर्रा की हर बात में प्रतिरोध की मुद्रा
अपनाई जाती हो। यहाँ आधुनिक विचार हैं। खास तौर पर तीसरी दुनिया, उसमें भी भारत और
फिर भारत के जो पिछड़े इलाके हैं, उनको आप देखिए तो जो हमारे लोकतंत्र के अपने
अन्तर्विरोध हैं, वे इन कविताओं में हैं। दूसरी तरफ प्रकृति के लगातार दोहन से जो
एक आधुनिकता का मॉडल तैयार किया जा रहा है, उसका प्रतिरोध इन कविताओं में बार-बार
किया गया है। उमेश प्रगति के विरोधी नहीं हैं, क्योंकि ‘गाँव’ शीर्षक कविता में उन्होंने बताया है कि एक पुल बन जाने से शहर वाले किस
प्रकार से गाँव से जुड़ने लगे हैं। लेकिन यह जो अंधाधुंध विकास है, जिसकी मार
किसानों, आदिवासियों और ऐसे तमाम लोगों पर पड़ रही है, इसको उन्होंने प्रश्नांकित
किया है। वे इसकी व्याख्या करते हुए कैसे राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय यथार्थ तक
पहुँच जाते हैं, आप इसको सुनामी से जुड़ी उनकी कविता ‘महानाश
के कगार पर’ में देख सकते हैं। कैसे साम्राज्यवादी ताकतें
तीसरी दुनिया के विकास पर असर डालती हैं! सुनामी में बचा हुआ एक बच्चा कैसे देखता
है यह सब! यह एक बड़ी भावुक-सी कविता भी हो सकती थी। पूरी गुंजाइश थी इस बात की,
क्योंकि सुनामी में तमाम घर तबाह हो गए, तमाम लोग मर गए, पूरी सभ्यता नष्ट हो गई
और बस एक बच्चा बचा हुआ है तीन साल का। लेकिन यहाँ तीन साल का बच्चा जो बयान कर
रहा है, उसमें हमारी जो आधुनिक सभ्यता है, उस पर साम्राज्यवाद की पकड़ में कैसे एक
शिकंजा कसता जा रहा है, इसकी अभिव्यक्ति देखने लायक है।”
केदार
जी ने समारोह में बतौर मुख्य अतिथि बोलते हुए इस बारे में जारी संवाद को आगे बढ़ाया,
- “अखिलेश जब उमेश द्वारा अपनी कविताओं को प्रतिक्रियावादी बताए
जाने वाली बात का उल्लेख कर रहे थे तो मुझे ध्यान आ रहा था कि इस प्रकार के कथन के
लिए भी एक ऐसा ही आदमी चाहिए जो कहे कि हमें डर नहीं लगता। अपने आपको
प्रतिक्रियावादी कहना बड़े साहस का काम है। ऐसे समय में, जब प्रतिक्रियावाद एक
जार्गन बन चुका है, जिसको रिएक्शनरी कहते हैं, जो गतिशीलता या प्रगतिशीलता का
विरोधी हो, तब जिस अर्थ में उमेश ने उसका प्रयोग किया है, वह इस प्रचलित शब्द के
अर्थ को बदलते हुए किया है और वह एक तरह से ऐसा है कि उनकी हर कविता
प्रतिक्रियावादी होती है। किसी शब्द की कोई नई परिभाषा एक तरह के अन्तर्विरोध से
ही पैदा होती है। सही परिभाषा वही होती है जो किसी तरह से चीज को आपके सामने प्रकट
कर सके, प्रभाषित कर सके, आप तक पहुँचा सके या पूरी तरह समेट सके अपने आप में। जो
वास्तविकता न प्रकट करे वह परिभाषा नहीं होती। वह या तो एक अतिशयोक्ति होगी या
मात्र एक कथन भर रह जाएगी। छायावाद शब्द के प्रणेता रायगढ़ निवासी श्री मुकुटधर पांडे द्वारा लिखी गई कविता की एक
परिभाषा मैने पचास-साठ साल पहले एक पत्रिका में पढ़ी थी, ‘कविता
आसन्न जीवन की पुकार का जवाब है।’ यह पुरानी परिभाषा है। आज
भी मुझे याद रहती है। कविता के माध्यम से मैं आज भी आसन्न जीवन की पुकार का जवाब
ही तो दे रहा हूँ। उमेश ने अपनी कविताओं से इस अर्थ में प्रतिक्रिया शब्द को एक
नया अर्थ दिया है और जो लोग इस बारे में सोचेंगे, वे जरूर विचार करेंगे इस पर। वे
एक सरकारी कर्मचारी हैं, इस कारण से मैं उनकी कविताओं को आलोचनात्मक कविताएँ कहूँगा।
इनमें न सिर्फ राजनीति है, बल्कि समाज है, परिवेश है, बढ़ती हुई समस्याएँ हैं, सब
है। इन सब विषयों पर विचार व्यक्त करने के लिए कवि, जो एक सरकारी विभाग में काम
करता है, बड़े पद पर आसीन है, वह साहसपूर्वक ‘मुझे डर नहीं
लगता’ की श्रेणी में आते हुए कुछ कहना चाहता है। इसके लिए
बड़ा जिगरा चाहिए। उमेश इसका परिचय देते हैं। उन्होंने अपनी भूमिका में इसकी
व्याख्या भी की है, “एक सरकारी कर्मचारी होने के कारण,
अभिव्यक्ति के मामले में बराबर आचरण नियमावली से बँधे रहना पड़ता है। फिर भी मैं
अपने तरीके से व्यवस्था की हर बुराई की तीखी आलोचना करने से कभी नहीं चूकता। हाँ,
कोई राजनीतिक पक्ष कभी नहीं लेता। किसी वाद से जुड़ कर नहीं चलता। जो मनुष्य-संगत
है उसी के प्रति मेरा लगाव रहता है। जो कुछ अमानवीय है, उसे जड़ से उखाड़ फेंकने का
ही मन करता है। जब भी किसी बात के प्रति मन उद्वेलित होता है, तो सरकारी कर्मचारी
होने के नाते सड़क पर निकल कर जिन्दाबाद-मुर्दाबाद तो नहीं कर सकता, बस अपने मन के
उद्वेग को शांत करने के लिए अपनी प्रतिक्रिया को शब्दों में अभिव्यक्त कर देता
हूँ।” जो कुछ भी ये कविताएँ कहती है, वह बड़े शान से कहती हैं
और कई बार गहराई में जाकर कहती हैं। इन कविताओं के प्रतिक्रियावादी होने को उनके
इसी वक्तव्य के आलोक में देखा जाना चाहिए।”
अखिलेश
एक लम्बे अरसे से मेरी छंद-मुक्त कविताओं को सराहते रहे हैं। अस्तु उन्होंने अपने
भाषण में जहाँ एक तरफ मेरी अवधी व छंद-बद्ध कविताओं की तारी्फ़ की वहीं पर वे मेरी
छंदमुक्त कविताओं को तुलनात्मक रूप से बेहतर बताने से भी नहीं चूके, - “तीन तरह की कविताएँ इस संग्रह में हैं। एक तरफ तो जैसा मैंने कहा, ‘जनतंत्र का अभिमन्यु’ जैसी, सामाजिक विसंगतियों पर
आक्रमण करने वाली या उस पर दखल देने वाली कविताएँ हैं। दूसरी तरफ कुछ प्रेम की
कविताएँ हैं। तीसरी तरफ अनुभव-जन्य छंद में रची गई कविताएँ हैं। वे बचपन से छंद
में कविताएँ लिखते रहे हैं। चूँकि वे कविता के परिदृश्य के दबाव या तनाव से मुक्त
कवि रहे हैं, अतः उन्होंने छंद को केवल किसी फैशन में नहीं अपनाया होगा। लेकिन जो
उन्होंने जो कहा है, जो हस्तक्षेप किया है, जो प्रतिरोध दर्ज किया है, वह शायद
छंदों में उस तरह संभव ही नहीं था। सुनामी के प्रकरण में जिस तरह से आज एक
नवसाम्राज्यवाद तीसरी दुनिया के देशों में प्रकृति का दोहन कर रहा है और उसके कारण
कैसे हमारी सभ्यता विनाश के कगार पर पहुँच गई है, इसका चित्रण है। लोग समझ रहे हैं
कि सभ्यता को तरक्की के छोर पर पहुँचा रहे हैं, जबकि वे संभवतः उसे विनाश के कगार
पर पहुँचा रहे हैं। इसमें सुनामी में एक तीन साल का बच्चा बचा रह गया है। वहाँ से
लेकर, जिसे एक पूरी साम्राज्यवादी साजिश कह सकते हैं कि कैसे प्रगति के नाम पर
पर्यावरण तबाह किया जा रहा है, कैसे कचरा फेंका जा रहा है, वह सारी चीजें हैं। यह
छंद की संरचना में संभव ही नहीं था। मुझे लगता है, छंद से लेकर यहाँ तक का जो उमेश
का आगमन है, वह स्वाभाविक है।”
चूँकि
अखिलेश ने छंद-मुक्त कविताओं की प्रशंसा करके मेरी कविताओं के विमर्श को एक मोड़ दे
दिया था अतः अपने भाषण में नरेश सक्सेना जी इस पर टिप्पणी करने से कैसे चूकते।
उन्होंने छंद-मुक्त कविताओं की आलोचना करते हुए कविता के शिल्प तथा शैली पर विधिवत
टिप्पणी की, - “अखिलेश ने ऐसा कहा है कि छंद में सब कुछ
नहीं कहा जा सकता। देखा जाय तो सभी ने ऐसी ही एक धारणा बना ली और फिर लिखना शुरू
कर दिया एक पंक्ति बड़ी फिर एक पंक्ति छोटी, जिससे कविता का सिम्त गायब हो गया।
हमारे आलोचकों ने भी एक काम किया, इतना जोर दिया कथ्य पर कि शैली का कोई मतलब ही
नहीं रह गया। शैली का अर्थ रह गया बस छोटी-बड़ी लाइनें। कथ्य बहुत बड़ी चीज़ होती है
लेकिन सिर्फ कथ्य कविता नहीं होती। विज्ञान में तो सिवा कथ्य के कुछ होता ही नहीं।
वहाँ शैली-वैली नहीं चलती कि क्या खूब निबन्ध लिखा है आपने! क्या शुरुआत है! अरे,
क्या बताया है उसमें! वहाँ सिर्फ यही देखा जाता है कि कोई नई बात बताई है आपने या
नहीं। अगर एक बार कोई बात बता दी गई तो फिर दूसरा वैज्ञानिक यह नहीं कहेगा कि अब
मैं उसी बात को एक नई शैली में बताऊँगा। साहित्य में यह नहीं होता कि अगर
जैनेन्द्र जी ने अगर किसी बात को एक बार कह दिया है तो अब आप उसे मत बताइए, कृपा
करके कोई नई बात हो तभी बताइए। बताई गई बात को भी एक नए तरीके से बताने का काम
सिर्फ कला करती है। वह वही बात नई-नई शैली में कहती रहती है जो पहले कही जा चुकी
होती है।” आगे नरेश जी पूरी तरह छंद की प्राण-प्रतिष्ठा पर
उतर आए, - “जनतंत्र का अभिमन्यु’ में
बहुत सारी छंद-मुक्त कविताएँ हैं, बहुत सारी पंक्तियाँ हैं, बड़ा विस्तार है, जो
ध्यान आकर्षित करता है। पर्यावरण की इतनी सारी कविताएँ हैं। ऐसी कविताएँ तो बहुत
कम लिखी जाती हैं, जैसी उमेश ने लिखी हैं। तो वह अच्छा हुआ कि वे छंद छोड़ गए भाई!
लेकिन किसने कहा कि हमने छंद छोड़ दिया? हम भी तो लिखते थे छंद में! लेकिन छंद को
छोड़ोगे तो तब जब पहले उसे ग्रहण करोगे! खाली हाथ क्या छोड़ोगे! पहले उसे हाथ में तो
लो! बिना हाथ में लिए ही छोड़ दिया! तो छोड़ा नहीं भैया, तुमसे छूट गया! तुमको तो
पता ही नहीं चला! हमारे एक आलोचक हैं जो बड़े-बड़े कवियों से कहते हैं कि एक अच्छा
दोहा तो लिखकर दिखा दो, बाकी कविताएँ तो समझ में नहीं आतीं कि वे कविताएँ हैं। यह
भी कोई मुक्ति है! अरे मुक्ति तो तभी होगी जब बंधन होगा! बिना बंधन के ही मुक्त हो
गए! यह कैसी मुक्ति हो गई है! यह झूठी मुक्ति है।”
नरेश जी ने कविता की शैली पर बात करते-करते कहन की रीति पर
भी उतर आए और प्रेम-कविताओं की उद्दामता को उदाहरण बनाकर उन्होंने अद्भुत रूप से
मीराँबाई और गालिब की तुलना कर डाली, - “गालिब ने प्रेम के बारे में कितना कहा है।
लेकिन मीराँबाई ने उन्हीं बातों को अपने ढंग से कहा था। अपने ढंग से कहते समय क्या
कहा था उन्होंने, ‘जल-जल भईं भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा
जा जोगी।’ अंग लगने की इच्छा है।
तड़प व बेचैनी ऐसी कि जा नहीं रही है। प्रियतम जोगी है। जोगी तो जोगी ही ठहरा, वह
तो अंग लगाएगा नहीं। उसकी तो आसक्ति ही समाप्त हो गई है न। लेकिन वह भस्म तो लगाता
है न। इसीलिए वे जलकर भस्म हो गई हैं। वे जली लकड़ियों की तरह विरह में राख हो गई
हैं और कह रही हैं कि जोगी, यह राख ही लगा ले अपने तन में। तर्क की संगति ने इसको
और बड़ा बना दिया। वे कहती हैं, ‘हम तो भस्म हो गए, अब तो लगा
लो!’ यह बात मीराँ ने जिस तरह से कही, गालिब वैसे कह ही नहीं
सकते थे। उनके लिए यह असंभव था। ऐसे मीराँ ही कह सकती थीं। योगी ही भस्म लगा सकता
था और वे ही उसके लिए विरह में भस्म हो सकती थीं। ऐसी बात कविता में पैदा होने से
ही बड़ी बात बनती है।”
केदार जी के छंद-प्रेम के बारे में सभी जानते हैं। वे
आधुनिक हिन्दी के शीर्षस्थ कवि हैं और उन्होंने तमाम गीत भी लिखे हैं। गीत और
गीतकार उन्हें आज भी प्रिय हैं। वे अन्य बड़े कवियों तथा आलोचकों की तरह छंदमय
कविता को तथा गीतकारों को खारिज नहीं करते। गिरिधर करुण जी से उनकी दोस्ती का मर्म
भी यही है। वे गिरिद्गर जी के देवरिया से पहुँचने के पहले ही मुझसे कई बार उनके
गीतों की प्रशंसा कर चुके थे। हिन्दी के जाने-माने गीतकार तथा लखनऊ के हमारे
पारिवारिक मित्र डॉ. सुरेश
केदार जी से मिलने मेरे घर आए तो वे उनसे बड़े प्रेम से मिले तथा उनके तीन गीत सुने
बिना उन्हें छोड़ा नहीं। डॉ. सुरेश
ने उन्हें अपने सर्वाधिक लोकप्रिय गीत ‘सैकड़ों सुइयाँ चुभाता है समय’, ‘सोने के दिन, चाँदी के दिन’
तथा ‘इस नगर हैं, उस नगर हैं’ सुनाए।
लखनऊ प्रवास के दौरान ही नहीं, दिल्ली लौटने के बाद भी केदार जी मुझसे डॉ सुरेश के
गीतों का जिक्र करना नहीं भूले। तो जब ऐसे छंद-प्रेमी केदार जी को वहाँ
लोकार्पण-समारोह में बोलना था तब वे मेरी छंदकारी पर न बोलते यह असंभव था। वे
गंभीरता से बोले, - “उमेश ने छंद में भी बहुत अच्छी कविताएँ
लिखी हैं। छंद का विद्यार्थी मैं भी रहा हूँ और अभी भी छंद का मोह या आकर्षण या
उसकी ताकत मुझे आकृष्ट करती है। छंद में बड़ी से बड़ी बातें कही गई हैं। जिसमें
तुलसीदास या वाल्मीकि लिख सकते हैं और बड़ी से बड़ी बात कह सकते हैं, उस छंद को एकदम
नकार देना वैसे ही है, जैसे कि आदमी एक पैर पर चलने की कोशिश करे। मेरा मानना है
कि कविता को छंद और बेछंद दोनों का इस्तेमाल करना चाहिए। कहीं न कहीं उमेश चौहान
भी इसके कायल लगते हैं। वे छंद का भी इस्तेमाल करते हैं और छंदहीनता का भी उपयोग
करते हैं। वे दोनों में ही अपनी शक्तियों का परिचय देते हैं। जब वे आल्हा पढ़ रहे
थे तो उसमें जो ताकत दिखाई पड़ रही थी, वह जिस तरह से संप्रेषित हो रहा था, वह
अद्भुत था। यह सोचना पड़ता है कि आल्हा और हिन्दी का क्या संबन्ध है। बहुत कम ही
ध्यान जाता है ऐसी बातों पर हमारा। हमारी खड़ी बोली का जो सबसे प्रसिद्ध काव्य है – ‘कामायिनी’, उसका पहला छंद, ‘हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह’
आल्हा छंद ही है। यह आल्हा छंद कितना लोकप्रिय है और कितनी ज्यादा गहराई तक पैठा
हुआ है, इस पर हम ज्यादा गौर भी नहीं करते। ‘झांसी की रानी’ को छोड़ दीजिए, वह तो है ही, कभी निराला की प्रसिद्ध कविता ‘यमुना’ की तरफ ध्यान दीजिए, वह पूरी कविता आल्हा छंद
में है। इसमें वे यमुना के तट का वर्णन करते हैं। आल्हा छंद में हिन्दी में अनेक
कवियों ने लगातार कविताएँ लिखी हैं। हिन्दी का यह अपना मौलिक छंद बहुत ही प्यारा
छंद है। इस छंद को पुनर्जीवित किया है उमेश चौहान ने। यह उनका अवदान है, जिसको
हिन्दी याद रखेगी। दिलचस्प बात यह है कि
आल्हा अवधी और खड़ी बोली दोनों में लिखा है उन्होंने। खड़ी बोली को आल्हा के छंद में
ढालने की चेष्टा की है उन्होंने। मेरे ख्याल में यह बड़ी गौरतलब बात है जिस पर
ध्यान दिया जाएगा और आगे भी चर्चा होगी। जब दिल्ली की गोष्ठी में पहली बार उमेश ने
अपना आल्हा पढ़ा था तो वह एक ऐसा दृश्य था जो दिल्ली में इससे पहले देखा नहीं गया
था। स्तब्ध रह गए थे सारे श्रोता।”
जब छंद
पर इतनी बातें वहाँ हो रही थीं तो मेरी अवधी कविताओं की चर्चा भी होनी ही थी। बात
की शुरुआत तो अखिलेश ने अपने भाषण में यह कहकर ही कर दी थी, - “उमेश चौहान की जो अवधी की कविताएँ हैं, ऐसा नहीं है कि वे बड़ी गीतात्मक
हों या उसमें बड़ी निजी बातें कही गई हों। उनमें भी हमारे वक़्त जो एक तनाव है, उसे
बाकायदे गुथ्थमगुथ्था किया गया है, उससे बाकायदा मुठभेड़ की गई है। लेकिन जहाँ उमेश
की छंद-मुक्त कविताओं में एक सीधी चोट है, एक आर-पार है, एक आमना-सामना है, वहीं
उनकी अवधी की कविताओं में एक दिलचस्प व्यंग्यात्मकता है।” जब
बारी नरेश सक्सेना जी की आई तो उन्होंने मेरी अवधी कविता ‘जमीन
हमरी लै लेउ’ की आत्मा को टटोलते हुए कहा, - “इस कविता में ऐसा क्या है जो हमें बरबस अपनी ओर खींचता है, ‘बुझे दिया कै बाती लेउ/ पुरिखन कै थाती लेउ/ फारि कै हमरी छाती लेउ।’ इसको तो खड़ी बोली में कहने में कोई दिक्कत नहीं होती, ‘ले लो, पुरखों की थाती ले लो, सारी ठकुरसुहाती ले लो, फाड़ कर हमारी छाती
ले लो।’ ये लो, हो गई कविता! इसमें क्या दिक्कत थी? लेकिन ‘फारि कै हमरी छाती लेउ’ का प्रभाव ही कुछ अलग है।
क्योंकि जब हम खड़ी बोली बोलते हैं तो उसमें कितना झूठ बोलते हैं! अवधी में इतना
झूठ नहीं बोला जाता। इसीलिए यह हमको प्रिय लगती है, आत्मीय लगती है। लगता है कि
देखो, सच्ची बात कह रहा है! बात सीधे दिल में लगती है। कैसे कह रहा है, छाती चीरकर
ले लो! क्यों छाती चीरकर ले लो? क्योंकि छाती में ही बसी है यह धरती, यह पुरखों की
थाती। इसे छाती फाड़कर नहीं लोगे तो यह नहीं मिलेगी। तुम ले नहीं पाओगे इसे। यह जो
बारीकी आती है, यह अनायास आ जाती है। यह चालाकी से नहीं आती। यह परम्परा में निहित
है। ‘फारि कै हमरी छाती लेउ’ कहने पर
दिल फट जाता है। पढ़ते-पढ़ते रोमांच हो जाता है, ‘ले लो’ नहीं, ‘लै लेउ’, ‘लै ही लेउ’, ‘फारि कै हमरी
छाती लेउ’ कहने पर।”
केदार
जी मूलतः भोजपुरी क्षेत्र के बलिया जिले से आते हैं और वे भोजपुरी बोली के अनन्य
प्रेमी हैं। मैंने देख
ही रखा था कि जब से गिरिधर जी लखनऊ पहुँचे थे वे उनसे
लगातार भोजपुरी में गपियाए जा रहे थे। पुरानी बातें, देवरिया-गोरखपुर की बातें,
भोजपुरी लोकगीतों की बातें आदि-आदि। अपने भाषण में मेरी अवधी कविताओं पर टिप्पणी
भी उन्होंने भोजपुरी से जोड़कर ही की, - “भोजपुरी के एक बड़े लोक-कलाकार हुए हैं,
भिखारी ठाकुर। एक बार नई कविता पर एक गोष्ठी हो रही थी बिहार में कहीं पर। संयोग
से मैं भी उसमें था। बहुत से नामी-गरामी लोग बैठे हुए थे वहाँ। राजकमल चौधरी सहित सारे लोग थे। सामने श्रोताओं में एक वृद्धजन बैठे हुए थे। वे
भिखारी ठाकुर थे। उस समय तक नाच-गाना छोड़ चुके थे वे। जीवन से लगभग विरक्त। पता
नहीं कहाँ से उनको पता चला कि कुछ हो रहा है, सुनने आ गए थे। उनको पकड़कर मंच पर
लाया गया। मैं कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहा था सो राजकमल से मैंने कहा कि भाई,
माइक इनको दे दो! अब नई कविता नहीं चलेगी। जब भिखारी ठाकुर को माइक दे दिया गया तो
उसके बात सारी नई कविताएँ धरी की धरी रह गईं। वे भोजपुरी में संवाद कर रहे थे, “देखिए, मै तो ठहरा जाति का नाई, दाढ़ी-मूँछ बनाने वाला। लेकिन जब मैंने
नाचना-गाना शुरू किया तो मेरे साथ एक घटना हुई और मैंने एक कविता लिखी।” उन्होंने उस कविता की एक प्यार भरी छोटी-सी लाइन सुनाई। उस लाइन में शब्द
आते थे ‘छुरा छूटल’। उनका मतलब था कि
उन्होंने नाचना-गाना शुरू किया और उनका उनका छुरा छूट गया। कितनी संवेदना भरी थी
उनकी छुरा छूट जाने का वर्णन करने वाली उन पंक्तियों में। कला और छुरा दोनों साथ
में नहीं रह सकते। वे इस पर देर तक बोलते रहे थे भोजपुरी में और लोग मंत्र-मुग्ध
से सुनते रहे थे। भिखारी ने उस दिन बिहार की गोष्ठी में जो प्रभाव डाला था, लगभग
उसी तरह का प्रभाव था जब उमेश चौहान ने दिल्ली में आल्हा पढ़ा था। मुझे लगता है कि
हमारा समय, खास तौर से आज का समय, भाषाओं के जागरण का समय है। वह बोलियाँ जो सोई
हुई थीं, दबी हुई थीं, उनमें जाग्रति आई हुई है।” श्रोताओं
के बीच बैठे रहे ललित शर्मा ने मुझे बाद में बताया कि जब केदार जी ऐसा बोल रहे थे
तो पीछे से कुछ श्रोताओं ने टिप्पणी की थी, “पता नहीं ऐसे समारोहों
में लोग क्या-क्या बोलने लगते हैं, यह हुई न कोई पते की बात।” तो इन पते की बातों को अगले दिन अखबारों की सुर्खियाँ बनना ही था।
उन्होंने छापा, - ‘वर्तमान समय लोक भाषाओं के जागरण का है :
केदारनाथ’ (राष्ट्रीय सहारा), ‘छंद
बिना कवि और कविता एक पैर का घोड़ा’ (अमर उजाला), आदि-आदि।
अपनी
मातृ-बोली में रचना करने का जो आनन्द होता है, जो आत्म-तुष्टि होती है, उसका जिक्र
भी केदार जी ने अपने भाषण में एक पुराना वाकया सुनाकर किया, - “काफी पहले जब फैज़ अहमद फैज़ अंतिम बार दिल्ली आए थे तो उनको मैं जवाहर लाल
नेहरू विश्वविद्यालय में ले गया था। रास्ते में बातचीत के सिलसिले में उन्होंने
कहा, “मेरी गजलों व नज़्मों के बारे
में चारों तरफ बातें हो रही हैं, लेकिन देखो, इस शब्द को जो छिपा है मन में! एक कसक
है मेरे दिल में, और यह कसक यह है कि मैंने उर्दू में तो इतना
लिखा है, लोग तारीफ भी करते हैं, लेकिन मेरी जो ठेठ पश्चिमी पंजाबी है, वह पंजाबी जो
मेरी माँ बोलती है, अब मैं उसमें कुछ लिखना चाहता हूँ।” ‘वह बोली जो मेरी माँ बोलती
थी’ कहने में बड़ी कसक थी। यह प्रत्यावर्तन की, लौटकर अपनी भाषा के मूल में जाने की,
जड़ों में जाने की जो कसक होती है, वह बड़ी अजीब होती है। मैंने कई जगह कलाकारों को कुछ
विदेशी लेखकों के बारे में ऐसा ही कहते हुए सुना है। अफ्रीका के कई ऐसे बड़े लेखक हैं,
जो अंग्रेज़ी में लिखने के साथ-साथ, अपनी बोली, जिसकी अभी तक ठीक से लिपि भी नहीं बनी
है, में भी लिखते हैं। नागार्जुन और राजकमल दोनों इसी प्रकार के द्विभाषी कवि थे और
खड़ी बोली तथा अपनी मातृ बोली दोनों में लगातार लिखते थे। हालाँकि हिन्दी में पिछले
बीस-पचीस वर्षों में पहली बार इस प्रवृत्ति को सक्षम मन से साधा है उमेश चौहान ने और
उनके इस पक्ष पर लोगों द्वारा ध्यान दिया जाना चाहिए।”
केदार जी ने लखनऊ पहुँचने के पहले ही मुझसे कहा था कि इस
संग्रह में एक बहुत ही अलग तरह की कविता है - ‘मच्छरों के
बीच’, उस पर वे जरूर बोलेंगे। मैं सोचता ही रह गया कि उस पर
वे क्या बोलेंगे, क्योंकि उसे तो एक हल्की-फुल्की कविता मानकर पहले तो मैं इस
संग्रह में ही नहीं रखना चाहता था। लेकिन जब एक दिन पटना की एक पत्रिका में भेजने
के लिए दूरदर्शन के डॉ अमरनाथ ‘अमर’ ने
मेरी कुछ कविताओं को उलट-पलट कर इस कविता को छाँटा तो मुझे लगा कि हो सकता है
दूसरों की नज़र में इस कविता में कोई विशेष बात हो और मैंने उसे संग्रह में रख लिया
था। खैर, उस कविता पर बोलते-बोलते केदार जी ने अपने भाषण में कुछ बड़े ही रोचक
प्रसंग जोड़े, - “उमेश की एक कविता है, ‘मच्छरों के बीच’। क्या मच्छर पर भी कोई
कविता हो सकती है? मच्छर भी कोई विषय हो सकता है? मुझे यह विषय अपने आप में बहुत दिलचस्प
लगा। इसे पढ़कर मुझे एक वाकया याद आ गया। शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय बंगाली भाषा के महान
कथाकार थे। एक दिन उनके पास एक डाकिया आया। उसने कहा, “इस पते पर एक चिट्ठी आई है श्री
मच्छर के नाम से। पता नहीं किसकी है!” शरदचन्द्र जी ने चिट्ठी देखी तो बोले, “अरे,
यह तो मेरी चिट्ठी है।” डाकिया बोला, “आप शरदचन्द्र चट्टोपाध्याय हैं, आप मच्छर कैसे
हो सकते हैं?” वे कहने लगे, “देखो भैया, मज़ाक किया है। उपाधि सहित मेरा पहला नाम लिखते
हैं, ‘श्रीमत शरद’। इसे एक में मिला देने पर बन गया ‘श्रीमच्छरद’।”
यह तो मज़ाक की बात थी। मच्छर पर मेरी भी दो कविताएँ हैं।
“जब मैं
उमेश की ‘मच्छरों के बीच’ कविता पढ़ रहा था, तो मुझे एक और प्रसंग याद आया। मच्छरों
पर एक कविता दुनिया के मशहूर नाटककार और महाकवि ब्रेख्त ने भी लिखी है। यहाँ मच्छर
एक समस्या थे। हुआ यह कि एक बार स्टेम्पोल के मजदूरों ने लेनिन डे मनाने का फैसला किया।
आयोजन के लिए एक बैठक हुई, जिसमें विचार-विमर्श किया गया कि लेनिन की जयंती पारंपरिक
रूप से न मनाकर कुछ नए तरीके से मनाई जाय, कुछ विशिष्ट किया जाय। कई सारे प्रस्ताव
आए – लेनिन की एक बहुत अच्छी प्रतिमा लगाई जाय, फलां धातु की हो, ऐसी हो, वैसी हो,
अच्छी-अच्छी कविताएँ लिखी जाएँ, आदि-आदि। तभी एक मजदूर ने उठकर प्रस्ताव रखा कि लेनिन
मजदूरों, दुःखी व दलित लोगों के जननायक थे, अतः अच्छा यही होगा कि उस दिन लोगों के
भले का कुछ काम किया जाय। इलाके में मच्छर बहुत हो गए हैं, इसलिए मच्छरों को मारने
की दवा का छिड़काव किया जाय ताकि मजदूरों को उनसे मुक्ति मिले और उन्हें मलेरिया न हो।
अंत में लेनिन की प्रतिमा वगैरह लगाने के विचारों को छोड़कर मच्छरों को मारने की दवा
मँगाई गई और पूरे इलाके में उसका छिड़काव किया गया। यह ब्रेख्त
की एक विशिष्ट कविता थी। उसमें तो मच्छरों को मारने की बात थी। लेकिन उमेश क्या करते
हैं? वह ब्रेख्त का समय था। आज पर्यावरण के साथ दोस्ती का समय है। उमेश इसमें किस तरह
की सलाह देते हैं? वे स्टेशन की बेंच पर बैठकर कविता लिख रहे हैं। उनको मच्छर काट रहे
हैं। ऐसे में वे जो सलाह देते हैं वह दिलचस्प है, - ‘ऐसे में
लिखी जाने वाली कविता/ या तो मच्छरों के अनियन्त्रित रक्त-शोषण से जुड़ी हुई होगी/ या फिर इस बात से कि इन मच्छरों से मुक्ति कैसे पाई जाय/ या फिर इस यथार्थ से जुड़ी होगी कि/ मच्छर अगर
हैं तो नोचेंगे ही/
फिर क्यों न इन मच्छरों की प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर/ एक ही समय पर/ समान रुचि से/ अपनी
देह को नोचवाते हुए तथा दूसरों की देह के रक्त को चूसते हुए/ जीने का कोई तरीका सीखा जाय?’ मुझे यहाँ एक जबर्दस्त ह्यूमर
भी दिखता है। इस तरह का खास गहरा व्यंग्य उनकी दूसरी अनेक कविताओं में भी है। ये बहुत प्रयासपूर्वक लिखी गई कविताएँ नहीं हैं।”
कविमित्र मिथिलेश श्रीवास्तव ने तो दिल्ली में कविता को
लोकप्रिय बनाने की इन दिनों एक मुहिम ही छेड़ रखी है। ‘कैम्पस में कविता’, ‘डायलॉग’, ‘घर-घर कविता, ‘लिखावट का
कविता-पाठ’ आदि अनेक कार्यक्रमों के माध्यम वे तमाम अपरिचित
एवं नवोदित चेहरों को सामने ला रहे हैं। उनका लखनऊ के कार्यक्रम में आना लखनवी
साहित्य-प्रेमियों को बहुत ही अच्छा लगा। उन्होंने अपने भाषण में मेरी कविताओं के
तमाम अंश उद्धृत करते हुए कुछ गंभीर टिप्पणियाँ की, - “अपनी ‘शब्द’ शीर्षक कविता में उमेश चौहान कहते हैं, - ‘शब्दों का क्या/ शब्द तो पत्थरों की तरह बेजान हो चले हैं आजकल/ उनका तो
इस्तेमाल किया जा रहा है बस/ गाहे-बगाहे किसी न किसी का माथा
फोड़ने के लिए’। यही सच है हमारे समय का। हम एक कठोर,
असहिष्णु, हृदयहीन दुनिया के निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं और शब्द सरीखे मानवीय भावों
के वाहक उपादान को पत्थर में तब्दील कर रहे हैं तथा उन्हें एक-दूसरे पर फेंक रहे
हैं। शब्द की घटती हुई विश्वसनीयता को पुनर्स्थापित करने की चाहत उमेश चौहान को
हमारे सामने एक सच्चे व संघर्षशील कवि-व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करती है।
उमेश चौहान में सरोकारों की साफ, शीतल, दर्शनीय नदी बहती है। वे इन्सान के भीतर
अनेक संकल्पों की इच्छा जगाते हैं और उससे अनछुई ऊँचाइयों तक पहूँचने का आह्वान
करते हैं। उसे निरन्तर संघर्ष करते रहने की प्रेरणा देते हैं। उनकी मौन शीर्षक
कविता पढ़ते हुए मुझे रघुबीर सहाय के ‘हँसो, हँसो, जल्दी हँसो’ की कविताएँ याद आने लगती हैं। ‘बचे रहना है तो शर्म
में शामिल हो जाओ’ जैसा व्यंग्य उनकी इन कविताओं में मिलता
है। इस संग्रह में इस तरह की तमाम कविताएँ हैं जो हमारे सामने अनसाइनिंग इंडिया की
तस्वीरें पेश करती हैं, उसकी हकीकतें बयान करती हैं और आपसे इस बात का आह्वान भी
करती हैं कि आप इन सच्चाइयों से रूबरू हों तथा एक आंदोलन, जो परिवर्तन की आकांक्षा
से भरा हो, उसमें शामिल हों।
अखिलेश ने भी अपने भाषण में मेरी कविताओं के बारे में कुछ
अन्य महत्वपूर्ण विचार रखे, - “जब हम लोग किसी भी पुस्तक का पाठ करते हैं
तो जो सबसे पहला विचार जो मन में आता है, वह होता है कि किस जगह से वह रचनाकार
दुनिया को देख रहा है या दुनिया को रचने की कोशिश कर रहा है। समग्र पर जो दृष्टि
है, उस पर उसकी क्या जगह बनती है। उमेश चौहान की कविताओं को पढ़ने में मुझे जो बात
लगी वह यह है कि ये कविताएँ किसी पुरस्कार के लिए या तमगे के लिए जगह बनाने के
दबाव से मुक्त हैं। समकालीन कविता के बारे में एक प्रश्न अक्सर किया जाता है कि
उसमें बार-बार एक तरह की एकरूपता देखी जाती है। लगभग ऐसी स्थिति कि अगर नाम हटा
दें तो लगेगा कि केदार जी बैठे हैं। क्योंकि उनकी परम्परा में बहुत सारी कविताएँ
लिखी गई हैं। जब से केदार जी का ‘जमीन पक रही है’ संग्रह आया, उसके बाद से लेकर अद्यतन जो दृश्य है, उसमें बहुत सारी
कविताओं में जो अनुगूँजें दिखाई पड़ती हैं, उनसे ऐसा लगता है कि जैसे कवियों का भी
अपना एक व्याकरण होता है। यानी वह जो परम्परा से प्राप्त एक संरचना है कविता की,
उसे आत्मसात कर लिया गया है। परम्परा में एक सुविधा होती है। उसका एक दबाव भी होता
है। उमेश की कविताओं को पढ़ते समय मुझे सबसे पहले यही बात लगती है कि इनकी कविताओं
पर कविता होने का कोई दबाव नहीं है। ये किसी परम्परा में शामिल होने या किसी से
संस्तुति पाने या किसी समुदाय में अपनी पैठ बनाने के आतंक से मुक्त कविताएँ हैं।
और क्यों मुक्त हैं, इसकी तलाश करते हुए मैंने देखा है कि ये कविताएँ कविता होने,
एक कला होने से पहले सामाजिक हस्तक्षेप की तरफदार हैं।”
“उमेश चौहान की कविताओं में जो पहली अभिरुचि या जो बुनियादी सरोकार दिखाई
पड़ता है, वह यह है कि हमारे समय का कथित या तथाकथित, जो भी कहिये, यह जो जनतंत्र है,
इसकी दुरभिसंधि में, इसके चक्रव्यूह में या इसके शिकंजे में जो एक साधारण आदमी की चीखें
हैं या उसकी परख है, उसको आवाज़ देना है। यही उनकी कविताओं का संकल्प है। यह इतना उदात्त
संकल्प है कि बहुत बार उनकी कविताएँ मुख्यधारा में प्रवाह नहीं
करती। सोचना पड़ता है कि आखिर क्या इससे कहीं कोई जोखिम तो पैदा नहीं हो रहा? कविता
का अपना बना-बनाया एक रटन-सा या एक संरूप-सा जो परिदृश्य है, उससे अलग तो नहीं हो रहीं
ये कविताएँ? मैं कहता हूँ कि यह अलग होना ही सकारात्मक है, महत्वपूर्ण
है। चूँकि ये कविताएँ एक अपने अलग तरह के मुहावरे में, अपने अलग व्याकरण में, अपने
अलग ढंग से लिखी जा रही हैं, अतः मैं कहूँगा कि ये कविताएँ स्वतःस्फूर्तित हैं और अपने
भीतर की बेचैनी से रची गई हैं। मुझे लगता है कि इन कविताओं की संरचना के स्रोत समकालीन
कविता के दिशांतरों में नहीं हैं। तो फिर कहाँ हैं? मुझे लगता है कि इन्हें इन कविताओं
के भीतर ही खोजा जाना चाहिए। वे एक प्रशासनिक अधिकारी हैं। सत्ता में हैं, लेकिन उसके केन्द्र में नहीं हैं। उनमें सत्ता का अहंकार नहीं है।
बल्कि वे उसके खिलाफ हैं। न केवल उनकी कविताएँ सत्य का प्रतिख्यान करती हैं, बल्कि
उनके खुद के मिज़ाज में भी सत्य का प्रतिख्यान है। उनमें सामाजिक
विसंगतियों, समस्याओं व घटित हो रही घटनाओं के पूर्वावलोकन एवं पुनरावलोकन की ऐसी अचूक
पकड़ है कि मैंने देखा है कि बहुत सारे पत्रकार भी उनसे कई बातों की व्याख्या के बारे
में पूछते रहते हैं, बात करते रहते हैं। वे एक तरफ तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं
पर अपनी अचूक पकड़ रखते हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने गाँव-देश से
भी गहराई से जुड़े रहते हैं। यह जो विस्तार है, उसमें एक तरफ
सत्ता-केन्द्र की असलियत, जिसे जनतंत्र कहते हैं, उसकी विसंगतियों की विरूपता और
कुरूपता को जानना तथा दूसरी तरफ अपनी मिट्टी से जुड़े रहना शामिल है। इसमें एक तरफ
उच्चता है तथा उच्च वर्ग का कविता-सम्पन्न समुदाय है, दूसरी तरफ एक मामूली आदमी का
अपना समुदाय है। इन दोनों के यथार्थ का मिलाप आप इस किताब में देख सकते हैं। एक
बात मैं पुनः कहना चाहूँगा कि एक तरफ ये कविताएँ संरचना या शिल्प के आतंक से मुक्त
कविताएँ हैं वहीं दूसरी तरफ ये कविताएँ अपने समय की जो बड़ी समस्याएँ हैं उनसे सीधे
जुड़ी हुई हैं। जैसा कि इन कविताओं में कई जगह आया है, उमेश विचारधारा के दबाव को
स्वीकार नहीं करते। मेरे ख्याल से ये कविताएँ किसी विचारधारा में शामिल भी नहीं
होती।”
नरेश
सक्सेना जी ने मेरे संग्रह में शामिल कविता ‘मैं चोर नहीं’ को
पिछले वर्ष अपने द्वारा संपादित ‘रचना समय’ के कविता-विशेषांक में स्थान दिया था। उन्होंने लोकार्पण-समारोह के अपने
भाषण में भी इस कविता पर विशेष रूप से टिप्पणी की और उसी में अपनी इधर हाल की एक काफी
चर्चित कविता ‘आधा चाँद माँगता है पूरी रात’ के प्राण-तत्व भी जोड़ दिए, - “बात करने के लिए उमेश
चौहान के संग्रह में बहुत सी कविताएँ हैं। ‘मैं चोर नहीं’ कविता में लोग अपनी माँ की अरथी सजा रहे हैं। चिता में लकड़ियाँ लगा रहे
हैं। तभी एक बुढ़िया चुप-चाप बीच-बीच में से एक-एक लकड़ी उठाकर ले जाती दिखती है।
लगता है कि वह उन्हें चुरा रही है और कहीं ले जाकर बेच देगी। वे उसे पकड़ लेते हैं।
वह उन्हें खींचकर ले जाती है और एक गठरी खोलकर दिखाती है। उसमें एक छोटी सी बच्ची
की लाश है। इस जगह पर आ करके यह कविता तो हिला देती है। उसके पास बच्ची की लाश
जलाने के लिए लकड़ियाँ भी नहीं हैं। और वह बच्ची मरी कैसे? क्योंकि इलाज़ नहीं हो
पाया। और वह बीमार क्यों हुई? क्योंकि दिमागी बुखार एक महामारी की तरह फैला हुआ है
उसके गाँव में। भोजन भी नहीं था शायद उनके पास। आज आज़ादी के पैंसठ वर्ष बाद भी देश
में पचास प्रतिशत से अधिक बच्चे कुपोषित हैं। क्या यही कुपोषित बच्चे इस देश का
भविष्य हैं? शर्म नहीं आती हमें ऐसा कहते हुए ऐसा कहते या विज्ञापित करते हुए। ये
कुपोषित बच्चे मानसिक रूप से विकलांग हो जाते हैं। इनमें से हर साल बीस लाख बच्चे
बिना भोजन के मर जाते हैं। जो मरते नहीं, वे विकलांगता के साथ बड़े होते हैं। क्या
इसका जश्न मनाया जा सकता है कि अगर बीस लाख मरते हैं तो बीस लाख बच भी तो जाते
हैं? उमेश की इस कविता में या ऐसी ही अन्य कई कविताओं में आप इन चिन्ताओं को देख
सकते हैं।” अपनी ‘आधा चाँद माँगता है
पूरी रात’ शीर्षक कविता में नरेश सक्सेना जी ने आर्थिक एवं
सामाजिक विषमता की शिकार एवं अभावग्रस्त आधी से ज्यादा दुनिया की दशा का दिल को छू
लेने वाला वर्णन किया है, - ‘आधी पृथ्वी की पूरी रात/ आधी
पृथ्वी के हिस्से में आता है/ पूरा सूर्य/ आधे से अधिक/ बहुत अधिक मेरी दुनिया के
करोड़ों-करोड़ लोग/ आधे वस्त्रों से ढाँकते हुए पूरा तन/ आधी चादर में फैलाते पूरे
पाँव/ आधे भोजन से खींचते पूरी ताक़त/ आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन/ आधे इलाज की
देते पूरी फीस/ पूरी मृत्यु/ पाते आधी उम्र में।’ विषमता की त्रासदी को
बड़े ही प्रभावशाली ढंग से सामने रखा है उन्होंने इस कविता में। वास्तव में आधी
उम्र में ही पूरी मृत्यु पाते हुए आधे से ज्यादा सर्वहारा इनसानों से भरी यह धरती ‘पूर्णस्य पूर्णमिदं’ गाते रहने के बावजूद भी कितनी अधूरी
है।
केदार
जी ने भी अपने भाषण की समाप्ति की ओर बढ़ते हुए मेरी कविताओं के बारे में समग्रता
से अपना दृष्टिकोण कुछ इस प्रकार से दर्ज कराया, - “यह बहुत प्रयासपूर्वक लिखी
गई कविताएँ नहीं हैं। ये स्वचालित एवं स्वतःस्फूर्त कविताएँ हैं। इनमें एक वाचिकता
है। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि ये बोलती हुई कविताएँ हैं। बोलीं गईं पहले, लिखी गईं
बाद में। यह उमेश की प्रतिक्रियाएँ हैं और इनके बारे में बहुत सी बातें कही जा सकती
हैं।” कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे गोपाल चतुर्वेदी जी ने अंत में
मुझे अपना संदेश देते हुए कहा, - “मैं उमेश चौहान से आग्रह
करूँगा कि वे एक बौद्धिक एवं जागरूक इन्सान होने के नाते इसी तरह से मानवीय
सरोकारों की कविताएँ लिखते रहें। कोई इनको प्रतिक्रियात्मक कविताएँ माने तो मानता
रहे। इन कविताओं में सिर्फ आम आदमी की आवाज़ है जो एक लम्बे समय से आज तक कुचली जाती
रही है। केदार जी ने छंद की ताकत के बारे में कहा हैं। मुझे लगता है कि ‘जनतंत्र का अभिमन्यु’ की कविताएँ अन्तर्विरोध की
ताकत की कविताएँ हैं। इन कविताओं में एक ऐसी अन्तर्लय है जो जीवन से जुड़ी है।”
कार्यक्रम
के बाद हम घर लौटे, फिर थोड़ी ही देर में गोपाल चतुर्वेदी जी के घर की ओर प्रस्थान
कर गए। वहाँ थोड़ी देर पुरानी यादों को ताजा
करने के उपरान्त हम बाहर निकले और फिर डिनर करके ही घर वापस
लौटे। उस दिन शहर में कहीं जाकर कुछ देखने का समय ही नहीं बचा था। रात को लौटकर जब केदार जी और गिरिधर जी अपनी गप-शप में
मस्त हो गए तो मैंने चुपचाप ड्राइंग रूम में एक फोल्डिंग खाट लगाई और उस पर अपना
बिस्तर जमा लिया। केदार जी ने शाम को ही मुझसे दो-तीन बार पूछा था कि मैं कहाँ
सोऊँगा, क्योंकि उन्हें पता था कि मैंने दोनों ही बेडरूम मेहमानों के सोने के लिए
निर्धारित कर रखे थे। उस समय मैंने उन्हें यह कहकर टाल दिया था कि मैं ऊपर के किसी
कमरे में जाकर सो जाऊँगा। मैंने उन्हें बता रखा था कि मेरे घर के प्रथम तल भी दो कमरे हैं। लेकिन वे कमरे फर्निश्ड
नहीं थे। अतः मैंने ऊपर जाने के बजाय मन ही मन में यही सोचा था कि नीचे ड्राइंग
रूम में ही फोल्डिंग खाट डाल लेना ठीक रहेगा। इससे मैं मेहमानों का ख्याल भी रख
सकता था। मुझे पता था कि केदार जी देखेंगे तो उन्हें अच्छा नहीं लगेगा। सो मैं खाट
लगाते ही बीच का पर्दा खींच, ड्राइंग रूम की बत्ती बुझाकर, वहाँ अँधेरा कर लेट गया
ताकि उन्हें लगे कि मैं सो गया हूँ। सोने का समय भी हो ही गया था। सोचा था कि सुबह
जल्दी उठकर फोल्डिंग खाट वगैरह समेटकर लैपटॉप पर कुछ काम कर लूँगा। इस प्रकार
उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि मैं कहाँ सोया था।
रात के करीब तीन बजे ही नींद खुल गई। पहले तो लगा कि
फोल्डिंग खाट पर सोने के कारण ही नींद जल्दी खुल गई होगी। लेकिन तभी लगा कि शायद
ऐसा नहीं है। देखा कि गिरिधर जी के कमरे की लाईट जल रही है और भीतर से कुछ आवाज़ भी
आ रही है। मैं उठकर बैठ गया। फिर धीरे से टॉयलेट गया। तभी यह अहसास हुआ कि वह आवाज़
कुछ और नहीं, गिरिधर जी के गुनगुनाने की आवाज़ थी। वे शायद कोई भजन गुनगुना रहे थे।
या फिर शायद किसी गीत का रियाज़ कर रहे थे। मैंने ड्राईंग रूम की लाईट जला ली और
लैपटॉप खोलकर उसमें पिछले दिन के कार्यक्रम में खींचे गए फोटो देखने लगा। सोचा
लोकार्पण की एक फोटो छाँटकर सुबह होने के पहले ही फेसबुक पर लगा दूँगा। तब तक गिरिधर
जी कमरे से निकलकर टॉयलेट में घुस चुके थे। वहाँ से लगातार नल से पानी गिरने तथा
बाल्टी आदि भरने की आवाज़ें आती रहीं, जिससे लग रहा था कि वे नहा रहे हैं। मैंने
सोचा कि शायद किसी असुविधा के कारण वे ठीक सो नहीं पाए होंगे और इसीलिए उन्होंने
जल्दी उठकर प्रातःक्रिया व स्नान आदि करने का फैसला किया होगा। खैर, मैं लैपटॉप पर
अपना समय काटने लगा, क्योंकि अब मुझे फिर से नींद नहीं आनी थी। लगभग चार बजे
नहा-धोकर गिरिधर जी बाहर निकले और फिर थोड़ी ही देर में वे केदार जी के कमरे के
दरवाज़े पर पहुँचकर उसे थपथपाने लगे। लेकिन कई बार थपथपाने के बाद भी केदार जी ने
दरवाज़ा नहीं खोला। शायद वे गहरी नींद में थे। जब मैंने यह देखा, तो मैं उठकर उधर
गया और गिरिधर जी को आग्रहपूर्वक ड्राईंग रूम में बुला लाया। उनके बताने पर ही
मुझे पता चला कि यह नियमित रूप से उनके उठने का समय था। हम दोनों घंटे-डेढ़ घंटे
गीत-साहित्य, नव-गीतों के विकास तथा गीतकारों के बारे में बातें करते रहे। इसी बीच
सत्यनारायण ने आकर हमें चाय भी पिला दी।
बात-चीत
के इस सिलसिले में गिरिधर जी ने केदार जी से जुड़ा हुआ एक बड़ा ही रोचक प्रसंग
सुनाया। हुआ यूँ कि देवरिया के रसूलपुर कस्बे में गिरिधर जी का सम्मिलित परिवार एक
छोटे से मकान में रहता है, जिसमे एक ही टॉयलेट था। तभी केदार जी ने उन्हें सूचित
किया कि वे एक कार्यक्रम के सिलसिले में गोरखपुर आ रहे हैं तथा उनसे मिलने रसूलपुर
भी आएँगे और एक रात वहीं रुकेंगे। दस-पन्द्रह दिन का समय बाकी था सो गिरिधर जी ने
तय किया कि केदार जी के आने पर एक टॉयलेट से काम तो चलना नहीं, अतः उनके आने से
पहले ही घर के बाहर सटी हुई जमीन पर एक नया टॉयलेट बनवा दिया जाय। बस फिर क्या था
आनन-फानन में मिस्त्री बुलवाया गया। वेस्टर्न कमोड लाया गया। सोक पिट बना और फिर
एक सप्ताह में ही टॉयलेट का निर्माण पूरा करा लिया गया। इस काम के हो जाते ही इसकी
सूचना केदार जी को भी दे दी गई। अब गिरिधर जी को बेसब्री से अपने मित्र के आने की
प्रतीक्षा थी। केदार जी गोरखपुर आए और वहीं से उन्होंने गिरिधर जी को फोन करके
वहाँ आने का आग्रह किया। गिरिधर जी ने कहा कि हम लोग तो तरह-तरह के पकवान बनाकर
आपके रसूलपुर आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अभी-अभी बनाया गया टॉयलेट भी आपके
इंतजार में है। अतः आपको यहाँ जरूर आना चाहिए। केदार जी बोले कि उसी टॉयलेट की वजह
से तो वे वहाँ नहीं आ रहे। अगर वे आए तो उसमें जाना ही पड़ेगा, और जब वे उसमें
जाएँगे तो कहा जाएगा कि केदार जी ने उसका उद्घाटन किया। अखबारों में भी खबर छाप दी
जाएगी कि केदारनाथ सिंह ने रसूलपुर में गिरिधर करुण के घर पर नवनिर्मित टॉयलेट का
उद्घाटन किया। भले ही उन्होंने यह बात मज़ाक के तौर पर कही हो लेकिन वे नया टॉयलेट
बनवाने के कारण ही वहाँ नहीं आए। गिरिधर जी द्वारा सुबह-सुबह सुनाया गया यह वाकया
वाकई मज़ेदार था। सुबह के लगभग साढ़े पाँच बजे केदार जी भी अपने कमरे से उठकर बाहर आ
गए। शायद हम लोगों की बात-चीत ने उन्हें डिस्टर्ब किया होगा। लेकिन वे चिर-परिचित
मुस्कराहट के साथ ड्राईंग रूम में घुसे और गिरिधर जी से भोजपुरी में कुशल पूछी।
तभी अजीत सिंह भी उठ गए। चाय का एक दौर फिर से चला। अब प्रातःकालीन महफ़िल जम चुकी
थी। केदार जी ने आग्रह किया तो गिरिधर जी ने सूरदास के एक पद का सस्वर गायन किया।
फिर अपना एक गीत भी तरन्नुम में सुनाया। उनकी धीर-गंभीर संगीतमय आवाज़ देर तक हमारे
मन में गूँजती रही।
चाय की
चुस्कियों के बीच चली गप-शप के बाद हम सब नहा-धोकर फारिग हो गए। नौ बजे तक
नाश्ता-पानी भी निबट चुका था। गिरिधर जी का मन हुआ कि थोड़ा बाहर निकलकर मोहल्ले
में घूमा जाय। जब केदार जी भी चलने को तैयार हो गए तो मैंने प्रस्तावित किया कि
पैदल टहलने के बजाय गाड़ी से चला जाय और थोड़ा लंबा चक्कर लगाकर लखनऊ के बदलते चेहरे
का कुछ जायज़ा लिया जाय। बस हम तीनों ही निकल पड़े। पहले हम अंबेडकर स्मारक के ऊपर
गोमती नदी के तट पर बने बंधे वाली सड़क पर पहुँचे। वहाँ से स्तूपनुमा अबेडकर स्मारक
तथा उसी से सटकर निर्मित दो पंक्तियों में खड़े पत्थर के एक सौ आठ हाथियों वाले शोध
संस्थान के परिसर का विहंगम दृश्य दिखता है। हमने बंधे के किनारे-किनारे टहलकर
उसका नज़ारा लिया। तट-बंध की सड़क के बीचो-बीच में स्थापित बुद्ध की संगमरमर की बनी
चतुर्मुखी प्रतिमा का दृश्य भी काफी आकर्षक था। उसके बाद हम सामाजिक परिवर्तन-स्थल
की तरफ आए। वहाँ हमने पुल के एक तरफ स्थापित कांसीराम जी व मायावती की प्रतिमाओं
का अवलोकन किया। फिर पुल के दूसरी तरफ स्थापित डॉ. अंबेडकर व
रमाबाई जी की प्रतिमाओं को भी देखा। हमने सभी जगह फोटो भी खींचे और फिर हम वहाँ से
चल पड़े। अब बारी थी हजरतगंज बाज़ार के बदले हुए स्वरूप को देखने की। राज्य की पिछली
सरकार ने हजरतगंज का पुनरुद्धार कराते हुए उसको अंग्रेज़ों के जमाने के पुराने
स्वरूप में लाने का कार्य कराया था। उसके तहत वहाँ से अवैध कब्ज़े हटाकर भवनों के
प्राचीन स्वरूप को संरक्षित किया गया। इसी के साथ-साथ दूकानों व व्यावसायिक
प्रतिष्ठानों के सारे बोर्ड सफेद पट्टी पर काले अक्षरों में लिखकर एक ही शैली में
लगवाए गए। इससे बाज़ार का स्वरूप काफी बदला-बदला सा लगता है। सुबह के वक्त गंजिंग
करने का लुत्फ़ तो उठाया नहीं जा सकता था, सो हम वहाँ से गुजरते हुए राणा प्रताप
मार्ग की तरफ मुड़ गए और फिर छतरमंजिल तथा मोतीमहल पर गाड़ी से ही एक निगाह डालते
हुए हम लोहिया पार्क पहुँचे।
लोहिया
पार्क समाजवादी पार्टी की सरकार द्वारा अंबेडकर स्मारक की प्रतिस्पर्धा में बनवाया
गया पार्क है, जिसके भीतर डॉ. राम मनोहर लोहिया जी का स्मारक है तथा एक
घड़ी वाला स्तम्भ भी है। हमने पार्क के भीतर जाकर स्मारक का जायज़ा लिया। पार्क में
उस समय सन्नाटा था। इक्का-दुक्का जोड़ों के अलावा उस समय वहाँ केवल माली व अन्य
कर्मचारी ही थे। सुबह टहलने के लिए आने वाले लोगों का हुज़ूम वहाँ से जा चुका था।
घड़ी वाले स्तम्भ के पास सफाई चल रही थी। वहाँ के सफाई कर्मचारियों की सुपरवाइजर एक
महिला थी। स्तम्भ की घड़ी न जाने कब से निश्चल पड़ी थी। मैंने उस महिला से पूछा, - “यह घड़ी चलती क्यों नहीं? क्या इसकी मरम्मत का जिम्मा तुम्हारा नहीं है?” उसने कहा, - “नहीं, इसकी मरम्मत मेरे जिम्मे नहीं।
इसके बारे में तो विकास प्राधिकरण वाले ही कुछ बता सकते हैं।” गिरिधर जी ने कहा, “यही तो समस्या है इस देश की। बन
तो बहुत कुछ जाता है पर सही-सलामत नहीं रहता।” हम थोड़ी दूर
तक टहलते हुए लोहिया पार्क की एक वीथिका से गुजरे। गिरिधर जी ने कहा, - “बड़ी शांति है यहाँ।” केदार जी ने हँसकर पूछा, - “किधर है शांति?” उनकी बात में छिपे विनोद को समझते
ही हम सब ठठाकर हँस पड़े। तभी गिरिधर जी ने भोजपुरी में कोई पंक्ति गुनगुनाई। केदार
जी उसके रस में डूब गए। फिर हम शादी के मौकों पर गाए जाने वाले गालियों से सराबोर
उन लोक-गीतों की बातें करने लगे, जिन्हें लड़की के परिवार की औरतें बारातियों के
द्वार-चार के समय अथवा उन्हें खाना खिलाने के वक्त सुना-सुनाकर पूरे वर-पक्ष को
शर्मशार कर देती हैं। बात-चीत के बीच मैंने इन गउनइयों की उत्पत्ति के बारे में
अपने विचार रखे। मेरा मानना है कि इस परम्परा का जन्म इसलिए हुआ होगा क्योंकि
हमारे यहाँ पारम्परिक रूप से लड़के वाले अपने को लड़की वालों से श्रेष्ठ मानते हैं
तथा उन पर अपना रोब झाड़ते हैं। इसीलिए शादी के वक्त वधू-पक्ष की औरतों द्वारा
वर-पक्ष के पुरुषों व स्त्रियों को इन गउनइयों के माध्यम से शर्मशार करने की यह
रस्म बनी ताकि वर-पक्ष को यह अहसास
दिलाया जा सके कि वे श्रेष्ठ नहीं हैं, बराबर के ही हैं और अपने भीतर फालतू का कोई
अहंभाव न पालें। हम इसी प्रकार की रोचक बातें करते हुए घर वापस आ गए।
केदार
जी के लखनऊ-प्रवास का शेष कार्यक्रम पहले से ही निर्धारित था। गिरिधर जी तथा अजीत
सिंह को दोपहर के पहले ही डॉ सुरेश के साथ किसी अन्य कार्यक्रम में भाग लेने हेतु
चले जाना था। इसी बीच केदार जी से मिलने के लिए बाराबंकी तथा कानपुर से कुछ अन्य
लोगों को आना था। उसके बाद हमें भोजन आदि से निबटकर लगभग ढाई बजे रेलवे स्टेशन के
लिए प्रस्थान करना था। सब वैसे ही होता चला गया और हम तीन बजे चारबाग स्टेशन
पहुँचकर दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सवार हो चुके थे। हम का मतलब, केदार जी, ललित
शर्मा, मिथिलेश श्रीवास्तव तथा मैं।इस प्रकार हमारी यह लखनऊ यात्रा समाप्त होने जा
रही थी। मुझे दिल्ली पहुँचने के पहले से ही लगने लगा था कि यह सुखद यात्रा एक
लम्बे समय तक याद रहेगी। दिल्ली पहुँचकर अगले ही दिन केदार जी से फोन पर कुछ यूँ
बात हुई, -
“आपका लखनऊ चलना और मेरे घर पर रुकना मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात थी। यह
यात्रा मुझे लम्बे समय तक याद रहेगी।”
“मेरे लिए भी यह एक यादगार यात्रा रहेगी। मुझे लखनऊ का बदला हुआ स्वरूप भी
बहुत अच्छा लगा। इस परिवर्तन के लिए लोग लम्बे समय तक मायावती को याद रखेंगे।”
“हाँ, यह तो है, लोग यही कहते हैं कि मायावती ने लखनऊ का चेहरा बदल दिया।
भले ही इन सब निर्माण कार्यों के पीछे उनके कुछ निहित स्वार्थ भी रहे हों।”
“तो क्या हुआ? स्वार्थवश
ही तो ताजमहल भी बनवाया
गया था!”
लगा सही ही कहा है केदार जी ने। स्वार्थवश ही तो ताजमहल बनवाया
होगा बादशाह शाहजहाँ ने, जिसे आज दुनिया देखने जाती है। लगा स्वार्थवश ही तो मैं भी
ले गया था केदार जी को लखनऊ, लेकिन वहाँ उनके द्वारा कही गई बातों को लखनऊ वाले लम्बे
समय तक याद रखेंगे । एक तरह से देखा जाय तो यह तो है ही कि दुनिया का हर बड़ा काम किसी
न किसी स्वार्थवश ही होता आया है। तो क्या साहित्य-सृजन भी यूँ ही स्वार्थवश हो जाता
है? क्या स्वार्थवश ही लोग कुछ का कुछ बोल जाते हैं या लिख देते हैं? बस इसी बात पर
आकर मुझे कुछ संदेह पैदा होता है कि शायद साहित्य-सृजन एक ऐसी चीज़ है जो स्वैच्छिक
क्रियाओं की तरह अपने आप होती है, आत्मा की अनुभूति पर और उसकी आवाज़ पर होती है, केवल
स्वार्थवश नहीं हो सकती। लेकिन तभी ध्यान आता है रंजीत वर्मा के अभी हाल ही में राष्ट्रीय
सहारा अखबार में छपे ‘कविता का महाजन वर्ग’ लेख का, जिसमें उन्होंने लिखा है, - ‘चाहे वह भारतीय प्रशासनिक सेवा का कोई अधिकारी हो या किसी थाने का दारोगा। कानून
साथ दे न दे, अपनी अकड़ में सब पर अपनी पकड़ बनाये रहते हैं। आज इसी जमात से बड़ी संख्या
में लोग कविता में आ गये हैं। वैसे तो पता नहीं ये कब से आते रहे हैं, लेकिन इनके आने
को पहली बार चिन्हित किया गया अस्सी के दशक में। यानी इनका बड़ी संख्या में आना समय
के ठीक उस बिंदु पर हुआ जब रचना और विचार को एक-दूसरे से अलग होते हम देखते हैं।’ इसे
पढ़कर लगा कि कवि होने के अलावा एक प्रशासनिक अधिकारी भी होने के नाते कहीं स्वार्थवश
मैं कोई बेवकूफी तो नहीं कर रहा हूँ। लेकिन फिर लगा कि पता नहीं रंजीत वर्मा ने किसको
कितना पढ़ा हो, या किसको कितना सुना हो, या फिर पता नहीं किस स्वार्थवश उन्होंने ऐसा
कहा हो। उन्हें जो कहना है, कहने दीजिए और आप अपने रास्ते पर आगे बढ़िये और जो कुछ लखनऊ
में कहा-सुना गया उसे भी लोगों को पढ़ने दीजिए। सो केदारनाथ सिंह जी के साथ की
गई लखनऊ-यात्रा की याद में शब्दों से रचा गया यह ताजमहल यहाँ इस स्वार्थवश आपके सामने प्रस्तुत है कि शायद इससे हिन्दी-कविता की आज
की दशा और आगे की दिशा के बारे में आपको कुछ मार्गदर्शन मिल सके।
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टिप्पणियाँ
बधाई असुविधा को और धन्यवाद उमेश जी को...
... प्रांजल धर
बधाई असुविधा को और धन्यवाद उमेश जी को...
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