अर्चना भैंसारे- कुछ कवितायें, आत्मकथ्य और एक नोट

हिंदी के लिए इस वर्ष का साहित्य अकादमी युवा सम्मान प्राप्त करने वाली कवयित्री अर्चना भैंसारे को इस सम्मान के लिए हार्दिक बधाई देते हुए आज असुविधा की यह पोस्ट उन पर केन्द्रित की गयी है. 

 आभासीय दुनिया में लोकप्रियता की जद्दोजहद के बीच, यह एक सहज काव्‍य यात्रा का ईनाम है

युवा कवियित्री अर्चना भैंसारे को साहित्‍यक एकादमी द्वारा मिले युवा पुरस्‍कार को लेकर उठ रहे विवाद के बीच अपनी बात रखी जाए, इसके पूर्व विजेन्द्र जी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका कृति ओर के जुलाई-सितंबर के 29वें अंक में पहली बार छपी अर्चना भैंसारे की 11 कविताओं के साथ उसके वक्‍तव्‍य को यहां रखना ज्‍यादा अच्‍छा होगा, ताकि अर्चना को अंजाना कहने वालों और उसकी कविताओं को साधारण कहकर नकारने वालों को अर्चना के जीवन और उसके सामाजिक परिवेश का एक संक्षिप्‍त परिचय मिल जाए। उसके बाद बात रखूंगा, फिलहाल यह बता दूं कि कृति ओर में पहली बार अर्चना की जो 11 कविताएं छपी थी उनमें, आदमी होने से पहले/फिलहाल/उस चादर के तार/सृजन के लिए/वे हत्‍यारे /मुबारक हो मेरे देश /मेरा देश /अनायास /कतार-दर-कतार /अभी से /इन दिनों, जैसी कविताएं रहीं।

आइए अब जरा उस कथन को पढते हैं, जो कविताओं से पूर्व अपनी सृजन यात्रा को लेकर अर्चना ने दिया है। 



मां अनपढ है और पिता कुछ पढे-लिखे। हम बहुत ही निम्‍नकोटि की जाति के हैं, एससी कहे जाने वाले। घर की हालत यूं थी कि छज्‍जे से पानी और रोशनी और हवा बेरोक-टोक आ सकते थे। अब जाकर थोडी छत ठीक हो पाई है, तो रहने लायक हो गया है मकान ।  मां की शादी नौ साल की उम्र में हुई और दो साल बाद गौना, तब से मां ने आज तक मायके की शक्‍ल नहीं देखी। मां की उदास सी आंखे आज भी मुझे अंदर से भय से थराथरा देती हैं, और मेरा छोटा सा मन रात-बे-रात मां के आसपास चला जाता है।  मुझे याद नहीं जब पहली बार लिखा था, तो घर वाले देख न ले, नहीं तो मार पडेगी, इस आशंका से फाड दी थी अपनी पहली रचना। बाद में इसी डर ने मुझे लडने की प्रेरणा दी। पांचवी में पढती थी तब पहली बार पिटी थी सिर्फ इसलिए कि मोहल्‍ले के एक लडके साथ अंटी कंचे खेल रही थी। फिर तो जरा-जरा सी बात पर नियम की तरह डांट-फटकार। मेरी आंखें मां की आंखों से मेल खाने लगी थीं। मैंने सोचा, अब जो लिखा जाएगा उसे नहीं फाडूंगी और तब मेरा डर ही मुझसे डरने लगा। देर-सबेर पास-पडोस की सहेलियां छूटती गईं और किताबें करीब आती गईं कि बोलती हैं वे।मां प्रेरणास्रोत है, जब भी कुछ लिखती हूं उसका चेहरा जरूर देखती हूं, पर मां आज भी उन आशाहीन आंखों से देखती है, और कहती है- क्‍यों लिखती है कविता/ वो तो आदमी का काम है/ तू तो रोटी बनाना सीख/ नहीं तो रात-दिन मेरी जैसी पिटती रहेगी।जिंदगी और किताबों ने लिखने के लिए अनेक विषय दिए तो लिख रही हूं। और लिखती रहूंगी।अर्चना भैंसारे



बहरहाल, यह तमाम बातें किसी विवाद पर अपना तर्क रखने के लिए नहीं और न ही किसी विचार के रूप में लिखी जा रही है, बल्‍कि अर्चना को जानने और समझने के रूप में रखी जा रही है। मैं अर्चना के शहर हरदा का ही रहने वाला हूं और तब से उसे जानता हूं, जब से इस संग्रह की एक-एक कविता वह लिख रही हैयानी की पिछले दस से बारह सालों से। उससे हमेशा मुलाकात होती है और उसे इस पुरस्‍कार मिलने की घोषणा होने से पहले इस बार भी हुई, ठीक वैसी ही जैसे हर महीने तीन महीनें में हो जाती है। बहुत सारी बातों और कुशलक्षेम पूछने के बाद जब बात लिखने- पढने की होती है, तो वह उन्‍मुक्‍त हंसी-हंसकर कहती है, “बस भैया अपन तो वही किताब लेकर बैठे हैं, बाकी कुछ नया नहीं, यही जीवन है।“ इधर, नया कुछ लिखने-पढने का पूछने पर वह फिर हंसती है और इतना ही कहती है कि “यार कुछ भी पढना-लिखना नहीं चल रहा, मन बन नहीं रहा, बस अभी तो पीएचडी चल रही है, उसी में घिस रहे हैं

वैसे आज पुरस्‍कार के लिए कविताओं को लिखने वालों के बीच उसकी कविताओं के बारे में एक बात और बता दूं कि किताब में लिखी कविताओं के अलावा और कविताएं उसके पास है भी नहीं, न ही उसने लिखी है और यह भी हो सकता है कि वह न भी लिखे, क्‍योंकि जितनी बार मुलाकात हुई है, नया न तो उसने सुनाया है और न ही बताया है।

अर्चना का पढना-लिखना क्‍यों नहीं चल रहा, तो इसके कुछ दूसरे कारण हैं, जो व्‍यक्‍तिगत हैं और उसके जीवन संघर्ष के हैं। जीवन कितना जटिल रहा है वह उसके पुराने कथन से पता चलता है, और अभी पिछले कुछ सालों से रोजी-रोटी की चिंता में उलझा हुआ है जो कभी बाहर आते दिखा ही नहीं। फिर एक कस्‍बे में लडकी होना किसी मुसीबत से कम नहीं, इसमें फिर कुछ दूसरे पारिवारिक कारण भी हैं, जो यहां बताना की आवश्‍यकता नहीं, पर हां, इस बार मुलाकात के दौरान थोडी खुशी हुई थी कि उसकी पिछले महीने संविदा नियुक्‍ति में सरकारी नौकरी लगी है, वह भी पांच घंटे के बस के सफर पर स्‍थित सिहोर जिले के एक गांव में, जहां वह सुबह साढे सात जाती है और रात को आठ बजे घर पहुंचती है।

अब बात उन लोगों के लिए जो फेसबुक, वेबसाइट्स और पोर्टल सहित ब्‍लॉगों पर लगातार यह कह रहे हैं कि अर्चना का कभी नाम नहीं सुना, न तो इंटरनेट पर कहीं उसके ज्‍यादा फोटो हैं, और न ही उसका कोई मेल आईडी है और न ही उसका मोबाईल नंबर लोगों के पास है, वह बहुत ज्‍यादा ही अननोन है शायद यह उसकी योजना का हिस्‍सा है कि वह लाइट में आना नहीं चाहती। तो, आपको इसके लिए यहां यह कहना चाहूंगा कि देश में आभासीय दुनिया में ज्‍यादातर साहित्‍य रचने वाले वालों के बीच यथार्थ आज भी कई हजारों कस्‍बों में बिना मोबाइल रखने वालों, इंटरनेट पर चेहरा न दिखाने वालों और तकनीक से बिल्‍कुल दूर रहकर देश की धडकन में नहीं बल्‍कि साइकिल के पैरों में अपना आवागमन जीने वाले लोगों की संख्‍या लाखों नहीं, करोडो में है और उसमें से एक अर्चना भी है, जो वाकई में अपनी सहजता के साथ ही जी रही है। इतनी की अब तो वह बारिश, पानी, अंधड और नदी नालों से पूर मध्‍यप्रदेश में नई नौकरी की जद्दोजहद के बीच यह भी भूल गई है कि उसे साहित्‍य एकादमी की ओर से कोई पुरस्‍कार की घोषणा हुई है। हां, उसकी गमक मन में प्रसन्‍नता के रूप में वैसी ही है जैसे कि बच्‍चे को प्रोत्‍साहित करने के लिए स्‍कलों में पुरस्‍कार मिलने पर होती है, किंतु बस की यातनादायक पांच घंटे की यात्रा उसे भी भुला देती है। उसे पता ही नहीं है कि उसे क्‍या हासिल हुआ है। जैसा कि अविनाश मिश्रजी ने बुद्धु बक्‍सा में कहा कि सहजता उसकी कविताओं में मिलती है, तो कहता होगा कि यही उसके जीवन में भी है, आचरण में भी है और व्‍यक्‍तित्‍व में भी है। औसत दर्जे की नहीं बल्‍कि स्‍तरीय और सरल है।  

लिहाजा ऐसे में उसके लिए किसी भारत-भवन या दिल्‍ली से तार जोडने की कोशिश करने वालों को एक बात और बताना चाहूंगा कि जो लडकी अपने अब तक के जीवन में भोपाल और इंदौर जैसे शहर केवल एक या दो बार गई हो और वह भी पिछले एक से दो सालों में, तो वह क्‍या साहित्‍य और दिल्‍ली के गणित को समझेगीऔर कौन से संबंधों के तारों का जाल बिछाएगी?
अर्चना फेसबुक पर बहुत ही दबे हुए एक कोने में मिल भी जाएगी तो जनाब वह वहां गलती से पहुंच भर गई थी। महीनों पहले उसे भेजी गई रिक्‍वेस्‍ट का अब भी अता-पता नहीं है। खैर, यह तो उसकी टाइम लाइन का हाल देखकर ही पता चल जाएगा।

फिलहाल बताना चाहूंगा कि उसने जो कुछ लिखा है, वह पुरस्‍कार के लिए तो कतई नहीं था, लिखने के लिए लिखा था, और सहज रूप में उसे पुरस्‍कार भी मिल गया. वह वाकई में सहज है, इंटरनेट पर मेल आईडी नहीं है, कभी ब्‍लॉक हुआ था, तो आज बता रही थी, यार वो हैंग हो गया, मैं हंसा और कहा भी कि मैं बना दूंगा, कोई बात नहीं.

अब पुरस्‍कार मिला है तो फेसबुक पर बकौल अशोक कुमार पांडेय जी  “जूरी के सदस्य अगर सहजता के आधार पर अर्चना की कविताओं को पुरस्‍कार योग्‍य मानते हैं, तो यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार भी तो है। सदा षडयंत्र की थियरीज की खोज, किसी लाबीइंग की तलाश की जगह, इसे उनके अपने जेनुइन फैसले की तरह क्‍यों नहीं ले सकतेया हम मान चुके हैं कि हमारे मानक ही इकलौते मानक हैं, सर्वश्रेष्‍ठ हैं, स्‍वयंसिद्ध हैं और इसके विपरित विचार रखने वाला कोई व्‍यक्‍ति कमतर है।"

  • सारंग उपाध्‍याय 



और कुछ कवितायें 

बूढी उदास औरतें
वे जो खारिज कर दी गईं हैं
रसोई, ऊसारी, आंगन और चौपालों से
मिल जाया करती थीं,
सुबह-शाम कभी भी
एक दूसरे को घेरे
हंसी-मजाक करतीं
या करती मोल भाव चूडियों का
आते-जाते रोक लेती किसी फेरी वाले को
खरीद लेती पुरानी चप्‍पल या कि
ठीकरों के बदले नये बर्तन,

अपने पेट से बांधे परिवार की भूख
झुकी रहती खेतों के सीनों में
लकडी के गठ्ठरों में लादे रहती परंपराओं के सूत्र
फिर भी अजनाल के घाट पहुंचती रही झुंडों में
हर डुबकी के साथ उतारती गई
शेष पापों का ऋण
तमाम रिश्‍तों को निभाती नम्र ही बनीं रही
अंतत:
बाहर से साफ सुथरी दिखने वाली औरतें
लिपटी रहती
किसी न किसी मलिन चादर के तार से
वे अब मिल जाया करतीं हैं कभी-कभार
बिखरी सी यहां वहां
मन ही मन ऊंगलियों पर गिनती है
जाने क्‍या

लौट जाना चाहती है
शायद वे उन्‍हीं झुंडों की ओर
जहां खुद ही मरहम होतीं
अपने घावों पर
वे खारिज कर दी गई हैं,
समूल जीवन से
कुछ बूढी उदास औरतें.

हो पाता ऐसा

सोचती हूं आजकल
पिता का चेहरा उदासीन क्‍यों हैं?

मां की आंखें इतनी बोझिल
जबकि हजारों हजार रंग हैं दुनिया जहान में.

काश हो पाता ऐसा
सडकों पर खेलते बच्‍चों की हंसी
कूदकर आ जाती रोशनदान से
आंगन में बिखरे होते
चिडियों के पर
बाडे का जाम
उग आता, जाने पहचाने स्‍वाद के साथ
फेरी लगाता वही, दाढीवाला दाजी
चूडियां ले लो री की टेर लगाता
लौटता गली में
नेम धरम, तीज त्‍योहार, पुरानी चमक-गमक लिए
उतर आते
पिता के चेहरे और मां की आंखों में

सोचती हूं आजकल
अपने अपने भीतर जाने क्‍या बो रहे हैं दोनों
कि इतनी कांटेदार झाडियां उग आई है सपनों के भीतर

देखता है सपना
सपने में बुलाती है मां और दौड पडता है
हिरण शावक सा कुलांचे भरता
पिता से जिद करता है
हाट घूमने की.

और चल देता है आगे-आगे मटकता
सपने में चूमता है पत्‍नी का माथा
कांपते होठों से भरता है बांहों में
ठंडी सांसों के साथ
खिलाता है बेटी को जी भर
करता है लाड
गोद में उठा
सपने में ही बटोरता है खुशियां
सहेजता है सपने में सपना
हर बार युद्ध की घोषणा होने से पहले

वह देखता है सपना
घर में दाखिल होने का.

गहरी जडें लिए
तुम आंगन के बरगद हो पिता
जो धंसे रहे गहरी जडें लिए

जिसकी बलिष्‍ठ भुजाएं
उठा सके मेरे झुलों का बोझ
और थामे रखे
मजबूती से आंगन की मिट्टी
ताकि एक भी कण रिश्‍तों का
विषमता की बाढ में न बह पाए

उसकी आंखें निगरानी करे
ताकि ना आने पाए मेरे घर सर्द हवा
और बचा रहे मेरा खपरैल छाया घर
किसी धूप छांव से ।

तितलियां हैं यादें
फूल सी खिल जाती देह
तो फुदकने लगती यादें
बिछ जाता चेहरे पर बसंत
भर जाती मोहक गंध
छलक उठता राग रंग पोर-पोर से
तितलियां ही तो होती हैं यादें
प्रकृति के हजारों रूप
अपने पंखों में समेट कर
घूमती मन के ओर-छोर
हथेली पर उतरती धूप सी भर जाती
स्‍मृति की देह में

संचित करती जीवन का आनंद अपने भीतर
सुखद पलों का वंशानुकरण करतीं
दौडती फूल-फूल
यादें फुदकती हैं, महकती हैं, घूमती हैं, दौडती हैं
तितलियां हैं यादें.


घटने लगी है कहानी


माँ सुनाती है कहानी

जो सुन रखी थी उनने

अपनी माँ से
और उनकी माँ ने
अपनी माँ से



सोचती हूँ

मैं भी सुनाऊंगी कहानी
अपने बच्चों को
इस तरह
चलती रहेगी कहानी पीढ़ी-दर-पीढ़ी



पर देखती हूँ कि

घटने लगी है तुलसी-चौबारे की तरह कहानी
और उठने लगे हैं
आंगन से
कहानियाँ सुनते -सुनाते लोग


जब कभी

और जब कभी
मैली हो जाती रुह



तब याद आती

तुम्हारे मन में बहते
मीठे झरने की



कि जिसमें डूबकर

साफ़ करती हूँ आत्मा अपनी।

टिप्पणियाँ

बहुत सुंदर कविताऎं जैसे कहीं कुछ छू रही हों !
विवाद उठानेवालों को आत्मकथ्य, कविताएं और फिर सारंग की टिप्पणी पढनी चाहिए. हाशिए पर अटकी जिंदगी जीनेवाली सहज-सरल-सी युवती की संवेदना को पकड़ पाने और फिर उसकी प्रशंसा करने की पूर्व शर्त है कि आप भूल जाएं कि उसे अभी साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है. शहराती कवि-कथाकारों को साहित्य की मुख्यधारा अपने इर्द-गिर्द ही समझना बंद कर देना चाहिए.
मैं पढ़कर लौट आया हूं। इस पूरी सामाजिक पृष्‍ठभूमि को देखते हुए कहूंगा कि अर्चना भैंसारे संघर्ष से गुज़री हैं, पर इन कविताओं में वह तपिश कम दिखी है। इतनी लो प्रोफाइल लेखिका का दिल्‍ली स्थित एक घोर व्‍यावसायिक प्रकाशन से संग्रह आना उनके प्रोफाइल को उतना लो नहीं रहने देता। पर ये कविताएं अच्‍छी लग रही हैं। कुछ चित्र हैं जीवन के और संघर्षों के। अधिकतर उदास, लड़ने वाले नहीं। इस तरह की सामाजिक आर्थिक पृष्‍ठभूमि से आने वाले लेखकों में एक तीखा वैचारिक रुझान भी दिखना चाहिए, जो यहां उतना नहीं दिख रहा है। साफ कर दूं कि अब मैं यह सब बातें किसी पुरस्‍कार की पृष्‍ठभूमि में नहीं, सिर्फ और सिर्फ इन कविताओं की पृष्‍ठभूमि कह रहा हूं। अर्चना जी की ये कविताएं अपने समाज से आप प्रमाणित हैं, इन्‍हें इस बिन्‍दु पर किसी प्रमाण की आवश्‍यकता नहीं। अर्चना जी के संघर्षपूर्ण जीवन को सल्‍यूट करता हूं और यह अपेक्षा भी कि आगे वे अपनी कविताओं इन संघर्षों का अधिक तपा हुआ रूप लाएंगी।
मनोज कुमार ने कहा…
मन को छूती कविताएं।
Anavrit ने कहा…
बिना किसी पुरस्कार की आकांक्षा के लिखी गई सरल सहज कविताए मन को हिलोरती है आभार सह बधाई ।
Unknown ने कहा…
अर्चना जैसी प्रतिभाएं भारतीय भाषाओं में बहुत हैं, लेकिन दुर्लभ ही उन्‍हें इस तरह सामने आने का अवसर मिल पाता है। अर्चना की इन कविताओं से पता चलता है कि उनकी काव्‍य चिंताएं हिंदी के कथित मुख्‍यधारा वाले काव्‍य-संसार से कितनी अलग होते हुए भी उनसे गहरी वाबस्‍ता हैं। हम हिंदी के कथित मुख्‍यधारा के लोग कम ही उन स्‍वरों को पहचान पाते हैं... पहले कविता कोश सम्‍मान में पूनम तुषामड़, फिर भारतभूषण में अनुज लुगुन और अब साहित्‍य अकादमी हिंदी युवा पुरस्‍कार में अर्चना की आमद इक्‍कीसवीं सदी के साहित्‍य का सही रास्‍ता निर्धारित करेगी। शायद इसी तरह हिंदी साहित्‍य कथित मेरिटोरियस प्रतिभा के संजाल से मुक्‍त हो सकेगा।
उज्जवल भट्टाचार्य ने कहा…
अद्भुत कवितायें, एक अलग सा स्वाद. ये कवितायें अपनी एक दुनिया रचती हैं, जहां क़दम रखने में थोड़ा संकोच होता है. साथ ही झकझोर देने वाली और शायद उम्मीद जगाने वाली ज़िंदगी. मुझे यह मानने में दिक्कत हो रही है कि वह और कविताएं नहीं लिखेगी...

कविताओं के बारे में अलग-अलग राय तो हो ही सकती है. लेकिन मुझे अच्छा लगता है जब साहित्य में अनुभवों की बहुलता की गुंजाइश दिखती है. हम बहुत ज़्यादा लकीर के फकीर होते जा रहे हैं.

अर्चना की कविताओं के मुहावरे कुछ सहमते हुए साहित्य के जगत में आते हैं, लेकिन उनमें एक नम्र आत्मविश्वास छिपा हुआ है.

एक बात और कहना चाहूंगा : किसी कवि के बारे में अगर कहा जाय कि उसमें संभावना है, तो उसका छिपा हुआ अर्थ यही माना जाता है कि उपलब्धि नहीं है. यह कतई मेरा आशय नहीं है, जब मैं अर्चना में संभावना की बात करता हूं. मेरा आशय यह है कि उसमें अपनी पृष्ठभूमि, अपने परिवेश और अपने औरत होने की स्थिति के प्रतिनिधित्व की संभावना है.

ऐसे कवि को पुरस्कृत करना युवा सम्मान का मकसद होना चाहिये.
तीन पुरस्कृत कवि -पूनम तुशामड़, अनुज लुगुन और अर्चना भैंसारे- और कई अपुरस्कृत कवि जैसे उज्ज्वला ज्योति तिग्गा , शुभम श्री , फरीद खान फरीद , उस्मान और मृत्युंजय को मिला कर हिन्दी कविता की वह नयी पौध बनती है , जिसके लिए कविता साहित्यिक हस्तक्षेप से ज़्यादा सामाजिक हस्तक्षेप है .जाहिर है , यह कोई मुकम्मल सूची नहीं है , नए नाम लगातार जुड रहे हैं .ये वे कवितायें हैं जो आठवें -नवें दशक की समकालीन कविता के मुहावरे और दायरे से अलग हैं . यह अलगाव उनका चुनाव नहीं , अवस्थिति है . हिन्दी कविता का सिर्फ प्रोफाइल नहीं , पूरा पैराडाइम बदल रहा है . हो सकता है एक ऐसी कविता सामने आये , जो न इस मुहावरे की हो न उस मुहावरे की , बल्कि मुहावरा बनाने से इंकार करती हो . नहीं भी हो सकता है . लेकिन यह उथल-पुथल , टूट-फूट और नवोन्मेष का समय है .
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
अजंता देव ने कहा…
अर्चना की कविताओं में नया कोई स्वर नहीं मिला .नया मुहावरा भी नहीं .जितनी कवितायेँ यहाँ पढीं उसमे शिल्प तो दिखा मगर कहन के तेवर नहीं दिखे.कुल मिला कर साधारण कवितायेँ हैं
गिरिराज किराडू ने कहा…
इस कवि का भाषा के साथ एक ऑर्गेनिक सम्बन्ध है जो बहुत सारे मिडिएशन के बिना है. यह कवि के अपने स्पर्श से रौशन भाषा है जैसे आखिरी कविता में रूह का मैली होना और किसी के मन के मीठे झरने की याद आना.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज शुक्रवार (30-08-2013) को राज कोई खुला या खुली बात की : चर्चा मंच 1353में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अर्चना के आत्मकथ्य में कहीं अधिक कविता है उनकी कविताओं से. यही उनकी कविता की विशेषता होनी चाहिए। डर जब डर जाए, आगे का रास्ता खुलता है शायद। अर्चना पर अभी खूब चर्चाएँ होंगी, उनकी कविताओं से अधिक. उनको इसके लिए तैयार रहना होगा।
दीपिका रानी ने कहा…
अर्चना जी ने संघर्ष किया या नहीं, या उनकी सामाजिक स्थिति क्या है, उससे निरपेक्ष होकर देखे जाने पर भी ये कविताएं कहीं से औसत नहीं हैं। शायद ऐसी कविताओं को महान समझने का रिवाज़ है, जो बस शब्द जाल में उलझाती हो और आधी सिर के ऊपर से गुज़र जाए, कुछ-कुछ माडर्न आर्ट की तरह। फिर वैसे ही कवि उसकी वाह-वाह करेंगे और कहेंगे कि क्या कवि है। कविताओं की पहली शर्त ही वह सहजता है जो अर्चना जी की कविताओं में है और भावभूमि पर भी वे सपाट नहीं, गहरे अर्थ लिए हुए हैं। मिट्टी की, रिश्तों की, आस-पास के माहौल की गंध है उसमें। फिर आलोचकों को श्रेष्‍ठ कविता के रूप में क्या चाहिए? मंगल ग्रह पर लिखी गई कविता?
मुझे लगता है फेसबुक पर जिन लोगों ने अर्चना जी को लक्ष्य करके बहस का बखेड़ा किया था, उनके लिए इससे माकूल जवाब और कुछ नहीं हो सकता | पुरस्कार की खबर मिलते ही बेचैन होकर मैंने उनकी कविताएं जहां भी मिली, पढ़ी, उनके बारे में जिन लोगों ने जो भी कमेन्ट लिखा, उसे भी पढ़ा और तब से डर रहा था कि पुरस्कार-विवाद की आड़ में इस युवा कवि को अलग-थलग नहीं कर दिया जाय,चिंता अशोक भाई के वाल पर भी जाहिर की | यहाँ जिन कविताओं को हम पढ़ रहें है, वे अपने आप में मुकम्मल है, पुरस्कार के मापदंड मैं नहीं जानता, पर मानवीय संवेदनाओं की ईमानदार उद्गार है इन कविताओं में,जीवन की तीक्ष्ण चुभन से निकली आह की तरह....अपनी पृष्ठभूमि की सही पहचान, पैरों के नीचे जमीन और आँखों में आसामान, सब अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर अवस्थित है इन कविताओं में| ये कविताएं अगर साधारण है तो हमें दोबारा सोचने की जरूरत भी है ...खोई हुई कविता को वापस पाने की उम्मीद लिए खुशी मनाने का अवसर भी है| अर्चनाजी को हार्दिक बधाई!!! असुविधा का लाख-लाख शुक्रिया |
mannkikavitaayein ने कहा…
सोचती हूं आजकल
अपने अपने भीतर जाने क्‍या बो रहे हैं दोनों
कि इतनी कांटेदार झाडियां उग आई है सपनों के भीतर...

अति सुन्दर. अर्चना को इन कविताओं और पुरस्कार दोनों के लिए बधाई.
mannkikavitaayein ने कहा…
सोचती हूं आजकल
अपने अपने भीतर जाने क्‍या बो रहे हैं दोनों
कि इतनी कांटेदार झाडियां उग आई है सपनों के भीतर...

अति सुन्दर. अर्चना को इन कविताओं और पुरस्कार दोनों के लिए बधाई.
Mahesh Chandra Punetha ने कहा…
साधारणता के अपने खतरे हैं इसलिए साधारणता में कविता को पकड़ने के लिए धैर्य की आवश्यकता होती है . यदि ऐसा नहीं किया गया तो अनेक बड़े कवियों की वे कवितायेँ जो ऊपर से साधारण लगती हैं ;ख़ारिज हो जाएँगी .ये कवितायेँ पाठक से धैर्य की मांग करती हैं . कविता के बने -बनाये प्रतिमानों से बाहर निकलकर इन कविताओं को देखना होगा . कोई जरूरी है कि साहित्य के मठों में बैठे मठाधीश आलोचकों के मानकों से ही कविता को आँका जाय .
Kavita Vachaknavee ने कहा…
अर्चना को खूब सारी बधाई। किसी के जीवन के अ-सरल होने की व्यथा यदि जगजाहिर न हो, तो भी कविताओं या लेखन का महत्व कम नहीं होता, जरूरी नहीं कि हर कोई अपने जीवन की विसंगतियों व त्रासदियों को जग जाहिर करता फिरे। ऐसा करके लेखन के महत्व को रेखांकित करना मानो अप्रूवल की अर्जी लगाने जैसा है। कविताएँ अच्छी हैं, तो बस अच्छी हैं। उनके अच्छा होने के लिए इन उजड्ड तथाकथित आलोचकों या पाठकों की
सहानुभूति या संवेदना अर्जित करने की कोई आवश्यकता नहीं... किसी के भी प्रसंग में कदापि नहीं; वरना यहाँ अपने असली नकली अभावों व त्रासदियों का पेट-उघाड़ तमाशा दिखाने की होड़ मच जाएगी।
रही रो कर विलाप करने वालों की बात तो यह 80-90 प्रतिशत सच है कि आज हिन्दी का हर पुरस्कार जुगाड़ से मिलता है किन्तु बचे 10-20 प्रतिशत वालों को भी जुगाड़ समझ कर गरियाने वालों की अक्ल पर तरस आता है। उनके विलाप और तथाकथित तर्क वितर्क की परवाह नहीं करनी चाहिए और उन्हें निकाल बाहर फेंकना चाहिए। सच को झूठ कहने या समझने से सच झूठ नहीं हो जाता है। जो लोग दिन रात स्वयं जुगाड़ में ही लगे रहते हैं तब भी अर्जित नहीं कर पाते हैं, वे यही समझते हैं कि जिसे कुछ मिला है वह भी दिन रात उन से भी बड़ा जुगाड़ करने से ही मिला होगा। दूसरों को भी अपने जैसा ही समझना उनकी बुद्धि, समझ व व्यक्तित्व की सीमा है और हीनभावना भी। इसलिए यदि कोई पुरसकार जुगाड़ से नहीं लिया गया तो उसकी परवाह क्या करनी। खैर।
आशा है इस पुरस्कार के बाद अर्चना अपने काव्य लेखन के प्रति और समय,समर्पण व उत्साह के साथ जुटेगी। पुनः बधाई।
Tushar Dhawal Singh ने कहा…
अर्चना, आपकी कविता मुझे बहुत पसंद आई, खास तौर से पहली. बिल्कुल भीतर तक एक नरम सहजता से उतर गई और वहीं रह गई ! आपसे कुछ कहने का मन हो रहा है. यह कविता में और जीवन में हुए अपने अनुभवों के आधार पर ही कहूँगा.
विवादों का काम ही है होना, उन्हें होने दीजिये, उनसे विचलित नहीं होना है. आप अपना काम ईमानदारी से करती रहिये. एक बार कविता पूर्ण हुई तो वह अपने कवि से मुक्त हो जाती है और पब्लिक प्रॉपर्टी हो जाती है. उस कविता के साथ जिसे जो मर्ज़ी, सलूक करे. मुक्त हो जाने के बाद उस कविता से अपेक्षा आसक्ति है जो कई तरह की कुण्ठाओं को जन्म देती है जिससे कवि कर्म प्रभावित होता है. यह इत्तेफाक़ नहीं है कि हमारे यहाँ इतनी बनावटी कवितायें नज़र आती रहती हैं.
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आपकी कविता अस्तित्व की जिस बिंदु से उगती है वह शुद्ध सम्वेदन बिंदु है. आप एक सहज कवियित्री हैं और आपकी आंतरिक सहजता और निर्मल सादगी आपके मनोभावों और शब्द शिल्प को आकार देती हैं. यह, मेरी नज़र में एक शुभ संकेत है. पर यहीं पर एक कॉशन भी है. प्रायः अपनी सादगी और सहजता की पहचान और उसकी प्रशंसा उसी सादगी और सहजता के सहज भाव को मलिन करने लगती है. अंतस निर्मल रहे तो हृदय प्रबल रूप से आयेगा और यही आपकी कविता की असली ताक़त है. आप अधिक ताप वाली कविता लिखें या भीने सुकून की, फर्क नहीं पड़ता. वही लिखिये जो भीतर से आता हो !
आपको ढेरों बधाइयाँ और शुभकामनायें .

अशोक जी ,कविताओं के बारे में लोग कफी कुछ कह चुके हैं मैं तो बस इतना कहूँगी कि यह प्रस्तुति पाठकों की एक उपलब्धि है । अर्चना जी को असीम शुभकामनाएं बधाई ।
vijay kumar sappatti ने कहा…
मेरा सलाम , इस लड़की को .
जो उसने लिखा , वो गहरे अंतस को कही छु गया है .. एक एक शब्द एक एक कविता , जैसे आपसे संवाद कर रही हो ...
लोगो का क्या है जी , लोग तो कहते ही रहते है.. खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे..
पुरुष्कार ने अर्चना को चुना है . और यही एक सत्य है .
'अर्चना' जी को असुविधा पर पढ़ना अच्छा लगा | उन्हें बधाई | यह संग्रह कैसे मिलेगा , काश....! यह जानकारी भी मिल जाती |
Onkar ने कहा…
कमाल की कविताएँ हैं. कविताओं के पहले आपने भी बहुत सटीक लिखा है
rafat ने कहा…
चुभ कर आपके भीतर उतरती कविताएं ...गहरा कलाम एक बानगी यह साबित करती है ... इतनी कांटेदार झाडियां उग आई है सपनों के भीतर..वाह
मंगलवार 10/09/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी एक नज़र देखें
धन्यवाद .... आभार ....
विभूति" ने कहा…
behtreen post...bhaavpurn rachnaaye....

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