शाहनाज़ इमरानी की कविताएँ
भोपाल के एक तरक्कीपसंद परिवार से तआल्लुक रखने वालीं शहनाज़ इमरानी की कविताएँ इधर पत्र पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर शाया हुई हैं. इस दौर में जिस तरह देश के तमाम हिस्सों में नई नई स्त्री रचनाकार परिदृश्य में आई हैं, शहनाज़ उसका हिस्सा भी हैं और अपनी संश्लिस्ट कहन और जीवनानुभवों से अर्जित काव्य चेतना के कारण अलग से पहचाने जा सकने वाली आवाज़ भी. असुविधा पर हम उनका एहतराम करते हैं.
एक ऊब
घर, इत्मीनान, नींद और ख़्वाब
सबके हिस्से में नहीं आते
सबके हिस्से में नहीं आते
जैसे खाने की अच्छी चीज़ें
सब को नसीब नहीं होतीं
जीवन के अर्थ खोलने के लिए
खुद पर चढ़ाई पर्तों को
उतारना होता है
खुद पर चढ़ाई पर्तों को
उतारना होता है
पैदा होते ही एक पर्त चढ़ाई गई थी
जो आसानी से नहीं उतरती है
पर्त-दर-पर्त पर्तों का यह खोल
उतरने में बहुत वक़्त लगता है
उतरने में बहुत वक़्त लगता है
बहुत कड़वा और कसेला सा एक तजुर्बा
यह ऊब बाहर से अंदर नहीं आती है
बल्कि अंदर से बाहर की तरफ़ गयी है
कुछ बचा जाने की ख्वाहिश के
टुकड़े
कुछ यूँ कि उसे ठीक करने की कोशिश
भी
बेमानी लगती है.
इसी अफरातफरी में इतना हो जाता है
तयशुदा रास्ते पर चलते रहना
मोहज़ब बने रहना बहुत मुश्किल है
उम्र के दूसरे सिरे पर भी बचपन हँसता है
गहरे जमीन में जाती जड़ें
पानी का कतरा खोज कर शाख़ पर
पहुँचाती हैं
शाख़ें अपनी खुशियाँ फूलों को
सौंपती हैं
फल सब कुछ खो देने के लिए पकता है
जैसे जैसे पेड़ की उम्र होती जाती
है
इंसानी झुर्रियों जैसी
पर्त-दर-पर्त
उसका बाहरी हिस्सा बनता जाता है
और फिर नाखूनों की तरह बेजान हो जाता है।
वो जो मर गया
सरों पर धूप है
वक़्त लिख रहा है इतिहास
कभी पसीने से तर
और कभी ख़ून से
हड्डियों पर चढ़ी खाल जैसी बीवी
आधे नंगे बच्चे और
दिन भर खाट पर पढ़ी खाँसती माँ को
भूख ग़रीबी और बीमारी से तंग आकर
वो गाँव में छोड़ कर
शहर की तरफ़ भाग आया था
दिन के कन्धे पर हाथ रख कर
उठे पाँव
भटकते -भटकते जब जड़ हो गए
रेलवे स्टेशन की एक और ज़िन्दगी
के साथ सांस लेने लगा
शहर में उसे जगह नहीं दी
और जंगल भी उससे छीन लिया
ग़रीबी रेखा को ऊपर-नीचे सरकाकर
उसे नाकार दिया गया
जगमगाता रौशनियों से भरा शहर
बाजारों में ईमान खरीदने वाली
दुकानें
मंदिरों कि घंटियों और मस्जिदों की अज़ानों
से जागने वाला यह शहर फिर सो जाता है
एक रोटी और घूँट भर पानी
कि माँग भी यहाँ जुर्म है
इस जुर्म कि सज़ा भी मिली
बंद आँखें अंदर तक धंसे गाल स्याह होंठ
खेत
में खड़े बिजूका की तरह जिस्म
और चिथड़ों से आती बदबू
शहीद होने के लिए सरहद पर मरना
ज़रूरी है
और हर धर्म के कुछ निशां होते हैं
यह जो मर गया है बगैर कोई पहचान
के
यह तो लावारिस मुर्दा घर में
जाएगा
आधा दिन तो गुज़र गया
मक्खियाँ और चीटियों के साथ
झाड़ू लगाने वाले ने लाश को
दीवार की तरफ खिसका दिया
एक धुंध में घिरने लगा था फिर शहर
और लोगों कि रफ़्तार तेज़ होने लगी
थी !
मेरा शहर
शहर में भीड़ है
शहर में शोर है
शहर को खूबसूरत बनाया जा रहा है
सरों पर धूप है
खुरदरी,
पथरीली,नुकीली,
बदहवास,हताश
परछाइयाँ.....
बदहवास,हताश
परछाइयाँ.....
तमाम जुर्म ,क़त्ल,खुदकशी
सवाल लगा रहे हैं ठहाके
क़ानून उड़ने लगा है वर्कों से
घुल रही हैं कड़वाहट हवाओं में
एक बेआवाज़ गाली जुबां पर है
मर चुकी संवेदनाओं के साथ जी रहा
है शहर
अब बहुत तेज़ भाग रहा है मेंरा
शहर !
इस कमरे की अकेली खिड़की
तुमसे मिल कर लगा
तुम तो वही हो ना
मैं अपने ख्यालों में अक्सर
तुम से मिलती रही हूँ
एक ख़्याल की तरह तुम हो भी
और नहीं भी
और नहीं भी
तुमसे बातें यूं की जैसे
सदियों से जानती हूँ तुम्हे
बिछड़ना न हो जैसे कभी तुमसे
शायद तुम्हें पता न हो
इस कमरे की अकेली
खिड़की तुम हो
मेरी हर सांस लेती है
हवायें तुमसे !
अब डर लगता है
जायज़ या नाजायज़ हालात
समय की पैदाइश हैं
ग़ायब हो चुके पार्क में
वो झूले याद आते है
तेज़ झूले का डर
छिपकलियों और कॉकरोचों से डर
परीक्षा में फ़ैल होने का डर
भूत,
चुड़ैलों का डर
डर भी कितने छोटे होते थे
शरारत और डांटों के बीच
डर अँधेरे के साथ ही रोज़ रात आता
डराता और सुबह होते चला जाता
साल-दर साल मेरे साथ-साथ
डर भी बड़े हुए
में तो एक हूँ यह अनन्त हुए
अब डर लगता है
लोगों की चालाक मुस्कानों से
दोस्ती में छुपी चालों से
शतरंज की बिसातों से
नफरतों से चाहतों से
आतंक,
विस्फोट, और इंसानी जिस्मों के टुकड़ों से
दंगाइयों से,
आग से, लाठीचार्ज से
पुलिस,
नेताओं, चुनाव और फसाद से
मस्जिद में अल्लाहो अकबर और
मंदिर में हर हर महादेव के नारों से
भीड़ में और बस में पास बैठे
अजनबी के स्पर्श से
अजनबी के स्पर्श से
रास्ता चलते हुए
जिस्म का जायज़ा लेती नज़रों से
जिस्म का जायज़ा लेती नज़रों से
खुद के नारी होने से।
टिप्पणियाँ
प्रशंसा के लिए।
शाहनाज़ इमरानी
शहनाज़ इमरानी जी की कविताएं पहली बार 'असुविधा' में ही पढ़ी थी। टिप्पणी भी लिखी थी। पर तब पोस्ट नहीं की थी। फिर तो समय के प्रवाह में टिप्पणी भी विस्मृत हुई। आज जब अशोक जी की पोस्ट से जाना की शहनाज़ जी को
"कृति ओर" सम्मान दिए जाने की घोषणा हुई है तब फिर अपनी टिप्पणी को ढूँढा और नीचे पेस्ट की। प्रभावित करने वाली कविताएं है उनकी और सरोकार है उनमें जो अर्थकर भी है… तभी तो उस वक़्त मन ही मन सोचा था की उनकी कविताएं कभी तो पुरस्कृत होगी ही…
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शहनाज़ इमरानी जी की सभी कविताएं हमारे समय की पदचाप सी है ! अपने आसपास को इतना क़रीब से देखना और महसूस कर सही शब्दों में समेटना…अभिव्यक्त करना, सजग संवेदनशीलता का ही परिचायक है । अन्य
किसी की आँखों तक,कानों तक, संवेदनों तक जो न पहुंचे वह इन कविताओं द्वारा सम्प्रेषित किया है शहनाज़ जी ने । हम मजबूर हैं या हमारा समय खराब है या हमारे संवेदनहीन
शातिर रहनुमा… ? इन कविताओं द्वारा हमारे समय का हमारे लोगों का भीतरी दर्द भी उजागर होता है।
कविताओं में दर्द है, हमारा समय है और एक आर्द्रता है जो अपनी मुखरता के साथ है । उनकी कविताओं के बिंब और शब्द हमारे आसपास के ही है जो उनकी कविताओं को कविता
बनाते हैं ।
बधाई।