जनता को बर्ख़ास्त कर दिया गया है - कृष्णकांत की कविताएँ
कृष्णकांत एकदम युवा पीढ़ी के कवि हैं, प्रतिबद्धता के एक अप्रचलित पद में बदलते जाने के दौर में कविताई से समझौते की कीमत पर भी प्रतिबद्ध और जनपक्षधर बने रहने की जिद के साथ. उनके यहाँ यह जिद एक मुश्किल स्वप्न के साथ संभव होती है और भाषा तथा शिल्प का इस्तेमाल एक तीख़ी धार वाले हथियार की तरह होता है. वह अनिवार्य रूप से राजनीतिक कवि हैं और जिस दौर में मनुष्य का जीवन तथा राजनीति सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं, उसमें संघर्ष की मशाल जलाने का ज़रूरी काम करते हुए उनकी सक्रियता हम जैसों को आश्वस्त करती है.
पेंटिंग गूगल से साभार |
दंगा और विस्थापन
आज मुझे फिर लूटा गया
मारा गया,
पीटा गया
कूंचा गया,
घसीटा गया
और ताक़तवरों की भीड़ ने
सरकारी वाहन में भरकर
बारी—बारी किया बलात्कार
आज मैं फिर अपने भीतर ही
विस्थापित हो गया
कोई सुनेगा चीत्कार?
सच—सच कहिए न सरकार!
कि आपको हमारे इंसान होने से गिला
है
आपके साथ सैनिक बूटों की ताक़त है
हमारे साथ दर—ब—दर होने का सिलसिला है
आइए! एक धर्मनिरपेक्ष भाषण और
दीजिए
हमारी छाती पर स्टेज सजा है
और मैं कटी बाजू में माइक थामे
खड़ा हूं
आपके सिपाहियों ने
एक शिविर से दूसरे शिविर ला पटका
है
मैं जमती नब्ज़ के साथ
अगले आदेश तक यहीं पड़ा हूं
आप लोकतंत्र के राजा हैं
आज़ाद भारत के 'नरसंहार नायक' से
गलबहियां कीजिए
ख़ून की होली खेलिए
सत्ता सुख भोगिए
मासूमों की मौत का उत्सव मनाइए
अश्लीलता का भव्य तांडव रचाइए
सिने तारिकाओं के ठुमके पर
करोड़ों रुपये लुटाइए
बूटों से कुचली गई अपनी हथेलियों
से
मैं तालियां भी बजाऊँगा
अपना नंगा सर भूल जाऊँगा
अपनी टोपी आपके सर पर देखकर
मुस्कराउंगा
मेरे भीतर के हाहाकार,
कांपते तंबुओं के पीछे दफ्न
मेरे बच्चों की चीत्कार
आप इसे अपनी जय—जयकार कहिएगा
मैं दर्द से बिलबिला कर दोहरा हो जाऊँगा
आप उसे सूर्य नमस्कार कहिएगा
इस बिसूरते समय में
आज के बिसूरते समय में
ग़लत को ग़लत कहने से बड़ा
कोई और गुनाह नहीं है
कट्टरता का हर विरोधी या तो
रामनामी दुकान चलाने वाला बनिया
है
या फिर शातिर ख़रीदार
है
यदि कोई इन दोनों में नहीं है तो
वह तीसरा रास्ता चुनता है,
जो कि अंतत:
उसी मंडी तक पहुंचाता है
दो आदमियों के बीच में
एक आदमख़ोर देवालय खड़ा है
उनके पीछे ज़हर बुझे दिमाग़ छुपे
हैं
आंखों के ठीक सामने नेज़े तने हैं
आदमीयत यहां कतई वर्जनीय है
सत्ता आदमी का ख़ून पीकर फलाहारी बन
जाती है
आदमी की ज़बान के ठीक बगल
एक चमचमाता गड़ासा है
बोलना देशद्रोह से ज़रा भी कम
नहीं है
समाजवाद मस्जिद के पीछे से
गोलीबारी करता है
धर्मनिरपेक्षता नमाजी टोपी पहनती
है
लोकतंत्र ने कमंडल में विषधर छुपा
रखा है
गांधीवाद का नया संस्करण बाज़ार
में उतारा गया है
जो बारूदों की राजनीति करता है
सबसे दोषी तो वह आदमी है
जो मुआ ज़िंदा रहने की अनीति करता
है
बस्ती की औरतें बिलखती हैं
बच्चे चीखते हैं
चारों तरफ इतना शोर है
कि बच्चों की चीख़ें गुम हो गई
हैं
मैं उस भेड़िए को खोज निकालूंगा
जिसने बस्ती को तब्दील कर दिया है
श्मशान में
तख़्ता पलट
जब किसी सुबह सोकर उठो
और सूरज को चोर के मुआफ़िक
मुंह चुराते पाओ
तो शक करो
कि कहीं कोई साज़िश ज़रूर हुई है
डटकर खड़े हो जाओ
और घूरकर पूछो
क्यों बे! क्या छुपा रहा है?
अगर तो भी न बोले
तो लोगों को बताओ
कि गांव वालों! होशियार हो जाओ
तुम पाओगे—
चौकीदार किसी लूटेरे की शह पर
मोहल्ले के सारे कुत्ते भेड़ियों
को दे आया है
गांव का प्रधान सबसे महंगी कार
लाया है
और अपने बंगले में चैन से सो रहा
है
क्षेत्र का विधायक आज लौटा है
देह की भव्य मंडी में सबसे महंगी
बोली लगाकर
जल, जंगल, ज़मीन सब सिमट गया है
उसके के गोदाम में
और बढ़ो! तफ्तीश करो
तुम पाओगे—
वज़ीरे—आला ने बनियों, दलालों और राहज़नों से
जनता के ख़िलाफ़ गठबंधन कर लिया
है
मुल्क़ के सारे महाजन
बादशाह बनाना चाहते हैं
एक ऐसे कसाई को,
जिसने बूचड़खाने में
जानवरों की जगह इंसानों की बलि दी
है
भय से मची चीख़—पुकार पर
नाउन टोला से लेकर दिल्ली तक,
गुहार पर
जनता को बर्ख़ास्त कर दिया गया है
जनता के बर्ख़ास्त होने की सूरत
मुल्क़ के श्मशान हो जाने की सूरत
है
आइए दो मिनट का मौन रखें
फिर उठें और एक ईमानदार युद्ध का
सपना बुनें
. आपकी लोकतांत्रिकता को नमन!
मैं जानता हूं महोदय!
आप लोकतंत्र के झंडाबरदार हैं
इसलिए मुझे हैरानी नहीं होती,
जब आप
खड़े हो जाते हैं एक दुर्दांत
अपराधी के साथ
क़रीब—क़रीब क़सीदे पढ़ते हुए
इस तर्क के साथ कि उसके 'अवदान' देखने चाहिए
मुझे हैरानी नहीं होती,
जब आप
इतने लोकतांत्रिक हो जाते हैं
कि लोकतंत्र की उज्जर चादर से
ढंक देते हैं सारे कृत्य—कुकृत्य
और घोर अमानवीय अपराध
लोकतंत्र एक सुंदर शब्द है
जिसके आवरण में
छुप सकती हैं तमाम हत्याएं
तमाम ज़ुल्म,
अपराध—कथाएं
तमाम संगठित अपराध
आप जीवन के अधिकार का तर्क देकर
कुकृत्यों को भी ढंक सकते हैं
सत्तानशीनों के तलवे चाट सकते हैं
धनपशुओं का चालीसा लिख सकते हैं
बस्ती के लुटेरों की
परिक्रमा कर सकते हैं
आप उसे भी भारत रत्न दे सकते हैं
आप तर्क देंगे ऐसे कि जैसे
लोकतंत्र में जघन्य अपराध ही
मूलअधिकार हैं.
साहित्यसम्राट!
आपकी लोकतांत्रिकता को नमन!
--------------------
--------------------
कृष्णकांत की कुछ और कविताएँ यहाँ क्लिक करके पढ़ी जा सकती हैं.
टिप्पणियाँ
--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (05-05-2014) को "मुजरिम हैं पेट के" (चर्चा मंच-1603) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बेबाकी और ईमानदारी से आपने देश की सीमाओं के भीतर चल रहे सत्ता के खूनी खेल को अपने शब्दों में उकेरा है ,आपके शब्द जीवन ख़त्म होने तक बने रहेंगे।
सादर,
प्रांजल धर
सादर,
प्रांजल धर
लोकतंत्र एक सुन्दर शब्द है … मुल्क के सारे महाजन बादशाह बनना चाहते हैं ………सत्ता आदमी का खून पीकर फलाहारी बन जाती हैं ………
छोटी से छोटी पंक्तियों में भी हमारे समय का बीभत्स सत्य बोल रहा है...........
कृष्णकांत जी की कविताओं से सामना करने के लिए असुविधा को साधुवाद!
लोकतंत्र एक सुन्दर शब्द है … मुल्क के सारे महाजन बादशाह बनना चाहते हैं ………सत्ता आदमी का खून पीकर फलाहारी बन जाती हैं ………
छोटी से छोटी पंक्तियों में भी हमारे समय का बीभत्स सत्य बोल रहा है...........
कृष्णकांत जी की कविताओं से सामना करने के लिए असुविधा को साधुवाद!
धन्यवाद !
कृष्ण कान्त जी,
ढेर सारी बधाइयाँ…!
व हार्दिक शुभकामनाऐं…!!
सादर,
श्याम नन्दन पान्डेय
नयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)