मनोरमा की कविताएँ
मनोरमा की ये कविताएँ काफ़ी पहले मुझे मिली थीं. फिर अपना आलस्य, लापरवाही. तो क्षमायाचना के साथ आज पोस्ट कर रहा हूँ.
इन कविताओं के शीर्षक नहीं हैं. मैंने अपनी ओर कोई शीर्षक देना उचित भी नहीं समझा. इन्हें पढ़ते हुए आप उस चिंतन प्रक्रिया से गुज़रते हैं जिनसे ये कविताएँ निसृत हुई हैं. इनमें जीवन की बहुत मामूली लगने वाली चीज़ें हैं लेकिन उनका बहुत महीन आबजर्वेशन है. प्रेम उनका मुहाविरा है और इसी मुहाविरे के इर्द गिर्द एक स्त्री के जीवन की विडंबनायें हैं, स्मृतियाँ और खुशियां. असुविधा पर उनका स्वागत.
(1)
ईश्वर कितना होता है कितना नहीं होता
पर क्यों अच्छा लगता है,
घर में इबादत की एक जगह होना
बातें पूरी हो तब भी, बातें नहीं हों तब भी
रहनी चाहिए हाशिये की जगहें भी
अपने लिए सटीक शब्द अक्सर पास नहीं होते
इसलिए लिखते -लिखने छोड़ देना चाहिए, कुछ जगहें खाली
नींद ,ख्वाब और हक़ीक़त एक सीधी रेखा में रहते हैं
छूट जाती हैं नींदे, ख्वाबों को पाने में
चलना, चलते रहना और कहीं नहीं पहुंचना शायद मंजिलों से ज्यादा सकून होता है
पहचानी बस्तियों में लौट जाने में
कुछ चीज़ें हममें, हमें बताये बिना हो जाती है इतनी बड़ी
कि छोटा होने लगता है वक़्त
आधी सदी इधर आधी सदी उधर
बीच में तुम्हारा -मेरा प्रेम पेंडुलम सा कोई
संतुलन बनाता मुख्तसर सा बेहिसाब लम्हा कोई !
(2)
जो पा लिया वो झूठ है
जो अब तक नहीं दिया वो प्रेम है
जो छू लिया वो हवा है
जो रह गया अनछुआ वो रूह है
जिसमें रखा तुमने वो दीवारें हैं
जहां मैं रहती हूँ वो घर हैं
जो कहते हो तुम वो शब्द है
जो सुनना होता है वो अर्थ है
छुटपन में सोचती थी
कैसी होती हैं औरतें
अब जानती हूँ क्या होती हैं वो
समंदर अपनी कोख में दबाए
बारिशों की दुआएं करती हैं वे!
(3)
उम्र बढ़ती है याददाश्त कम होती हैं
पर स्मृतियाँ सघन होती हैं
भूलती हूँ अब पानी आग पर रखकर
रख देती हूँ हेयर पिन यहाँ -वहाँ
पुरानी तस्वीरों के कुछ चेहरों
के नाम भी धुंधले से हो चले हैं
अक्सर अब चाभियां वक़्त पर
नहीं मिल पाती,
इतना सब याद न आना
कोई अच्छी बात तो नहीं
कोई अच्छी बात तो नहीं
पर नहीं होता वैसा तनाव
जैसा हुआ करता था
किसी जवाब का पांचवा पॉइंट
याद न आने पर
पर अज़ीब तो ये है
तमाम कोशिशों के बावज़ूद
वही रह जाता है याद
सच में जो भूल जाना ही चाहिए
यहाँ -वहाँ कहीं रख भी दूं तो
मिल ही जाता है रोज़
मिल ही जाता है रोज़
सिरहाने तले !
(4)
कोई नाम बजता है
संगीत की तरह
गुनगुनाया जाता है
गीत की तरह
छिपा दिया जाता है
तकिये के नीचे रखे
मनपसंद किताब के पन्नों में
और सजता है आत्मा पर सबसे कीमती ज़ेवर की तरह
पर , यह अज़ीब बात है ना
तमाम उम्र जिसे कहने सुनने की
भूख सबसे ज्यादा होती है
नहीं आता ज़बान पर
रहता है अक्सर वही नाम बेनाम !
(5)
कोई मौसम होता है खुद को खो देने का पर कशमकश रोज़ की होती है खुद को पाने की
संभलती हूँ मैं, पर आईना धुंधला होता है
यहाँ -वहाँ टोटल कर
करती हूँ कोशिश खुद को ढूंढने की
तुम्हारी बातों में
पर मेरी बातें , तुम्हारी बातें
अब एक सी नहीं होती !
पिछले मौसम से बचे रहे जो
झड़ने लगे हैं पेड़ों से पत्तें वो
होने लगी हैं फिर दोपहर में सड़कें खाली
और हवाएं उड़ाने लगी है
चेहरे से नमी
मौसम भी लकीर खींचते हैं
शायद खुशियों की उदासी की
करते रहते हैं एक को एक से
छोटी या बड़ी!
(6)
कहते कहते रुक जाता हूँ
बातों से कोई लकीर सा खींचता हूँ
तुम्हारे लिए और अपने लिए
जानता हूँ तुम्हें आदत है
मेरी बात मान लेने की
जबकि चाहता हूँ बाहर निकल आओ तुम लकीरों से
क्या ये पता होता है तुम्हे ?
कुछ बंधता हूँ ,कुछ बांधता हूँ
पर इस तरह बोझ बढ़ता सा लगता है
बात करता हूँ खाली होता हूँ
ज़ज्ब करता हूँ घुट जाता हूँ
बस इतना करता हूँ
जागती आँखों को बंद कर
अपने सोते सपनों को जगाता हूँ
खुली आंखों में अधूरा सा मैं /ख्वाबों में पूरा होता हूँ !
टिप्पणियाँ
बहुत दिन बाद सहज भाषा में इतनी अच्छी कविताएँ पढ़ने को मिली
चलना। चलते रहन और कहीं नहीं पहुंचना शायद ज़्यादा सकून होता है।
लिखती रहिये इतनी ही सुंदरता के साथ।