देवेन्द्र आर्य की ग़ज़लें
प्रतिष्ठित गीतकार, कवि और ग़ज़लगो देवेन्द्र जी किसी परिचय के मुहताज नहीं. धूप सिर चढ़ने लगी, सुबह भीगी रेत पर, ख़िलाफ़ ज़ुल्म के जैसे गीत संग्रहों और किताब के बाहर, ख़्वाब ख़्वाब ख़ामोशी, आग बीनती औरतें और उमस जैसे ग़ज़ल संग्रहों के माध्यम से उन्होंने पाठकों के बीच एक मुकम्मल पहचान बनाई है. छंद के पारम्परिक रूपों का निर्वाह करते हुए उन्होंने आम जन के सुख दुःख के प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत किये हैं. हमारे आग्रह पर गोरखपुर के हमारे अग्रज ने कुछ ग़ज़लें असुविधा के लिए उपलब्ध कराई, जिसके लिए हम उनके अत्यंत आभारी हैं.
(1)
लगा के सीने से दिल
की किताब भूल गया
वो खुद ही ढाल के पीना शराब भूल गया .
फलक के तारों में कुछ इस तरह से उलझा वह
कि दस्तरस में है एक माहताब भूल गया .
हरे हरे हैं अभी सुर्ख जिस्म के पत्ते
यह बात जिस्म का काला गुलाब भूल गया .
बस इतना याद है ग़ज़लें थीं आस -पास मेरे
मैं अपना दिल कहीं रख के ज़नाब भूल गया .
तुम्हीं को 'आर्या'
कैसे ' किताब के बाहर '
खामोशियाँ हैं मुखर ख्वाब ख्वाब, भूल गया .
नफ़स नफ़स था लड़ा ज़ुल्म के खिलाफ कभी
कदम कदम वही अब इंकलाब भूल गया .
हमारी मुल्क परस्ती सियासती है मियाँ
न भूल पाये हम 'अफ़ज़ल',
'कसाब' भूल गया .
(2)
कुछ मौसम की सोहबत है
कुछ पीने की आदत है.
तौबा की दीवारों पर
प्यास की एक पोख्ता छत है.
कुदरत है कुर्रान अगर
जीवन उसकी आयत है .
इस बडबोली दुनिया में
चुप्पी की भी कीमत है .
तुझ को दौलत मुझे ज़मीर
अपनी अपनी किस्मत है .
जिस्म को रूह समझ लेना
मज़हबियों की फ़ित्रत है.
कह दो इन बाज़ारों से
अपनी भी एक इज़्ज़त है.
जब से मैं गुमनाम हुआ
दिल को काफ़ी राहत है.
खुदा अगर शायर है तो
मेरी गज़ल इबादत है .
(3)
ज़रूरी था समय के सामने
टिकना ज़रूरी था
मगर हम क्या करें इसके
लिये बिकना ज़रूरी था .
यकीनन बात सेहतमन्द थी
इंसान के हक में
मगर उसका अभी कुछ देर
तक पकना ज़रूरी था.
अकीदे जिंदगी को मौत
में तबदील कर देते
हमारे ज़ेहन में शंकाओं
का उठना ज़रूरी था .
चलन से हो के बाहर आज
यह महसूस होता है
हमें बाज़ार के अनुसार
भी ढलना ज़रूरी था .
अंधेरे तो अंधेरे की
तरह दिखते ही हैं लकिन
उजालों को उजालों की
तरह दिखना ज़रूरी था .
(4)
खुद को लड्डू देशी घी
का
हमको भाषन गांधी जी का.
मन के काले रंग महल में
दरवाज़ा गोरी चमडी का .
मुर्दे सम्मानित होते
हैं
हाल अजब है इस बस्ती का
.
नमीं रेत के पास लौट गई
बदल गया है पता नदी का
.
पिंजरा भर आकाश के बदले
पायल , बिछुआ , कंगन ,टीका.
पांव से लछमन ने पहचाना
यह तो चेहरा है भाभी का
.
(5)
थी अगर यह बात सच तो भी
तुमने क्यों बेसाख़्ता कह दी.
झूठ के सिंदूरी जलसे में
बेवा जैसी बैठी सच्चाई .
खोके मस्ती अपना औघड़पन
राजधानी हो रही काशी .
आप तो अंकल जी थे मेरे
आप में क्यों वासना जागी?
साइकिल सा चल रहा यह देश
कैरियर में बांध के हाथी .
फैसला देने का था ज़िम्मा
हो गये क्यों आप फरियादी .
लग रहा बाकी है कुछ ग़ैरत
मिलते मिलते रह गई गद्दी .
(6)
तू जो चाहे तो फ़क़त लफ़्ज़ कहानी हो जाय
वरना इसरार भी एक तल्ख़ बयानी हो जाय .
वरना इसरार भी एक तल्ख़ बयानी हो जाय .
हो बुरा वक़्त तो दरिया कि रवानी खो जाय
वक़्त अच्छा हो तो चट्टान भी पानी हो जाय .
वक़्त अच्छा हो तो चट्टान भी पानी हो जाय .
नींद उसकी चुरा ले जाती है एक आहट भी
जिसका घर कच्चा हो और बेटी सयानी हो जाय .
जिसका घर कच्चा हो और बेटी सयानी हो जाय .
कल से चोखे पर ही गुजरेगी पता है हमको
आज पैसा है चलो दाल मखानी हो जाय .
आज पैसा है चलो दाल मखानी हो जाय .
जब हरेक मर्ज़ की इकलौती दवा है पूँजी
'इंडिया' नाम तेरा क्यों न 'अडानी' हो जाय .
'इंडिया' नाम तेरा क्यों न 'अडानी' हो जाय .
(7)
भीड़ को भीड़ मत समझ
राजा !
बज न जाये कहीं तेरा
बाजा .
मुल्क में पैदा कर के छोड़ेंगी
'भागवत' की कथाएं एक 'गाजा' .
'भागवत' की कथाएं एक 'गाजा' .
एक में हैं वज़ीरे आज़म खुद
दूसरे हाथ में तेरे ख्वाजा .
दूसरे हाथ में तेरे ख्वाजा .
लोक परलोक दोनो साध लिये
तुम तो निकले कमाल के राजा !
तुम तो निकले कमाल के राजा !
एक नई राह मुन्तज़िर
है तेरी
आजा, सपनों को तोड़ के आजा .
(8)
न हों गर जेब में पैसे तो ताकत भूल जाती है
हुनर मुह मोड लेता है , लियाकत भूल जाती है .
कि जब काशी को मगहर की विरासत भूल जाती है
तो दिल्ली को भी दिल्ली की सियासत भूल जाती है .
अंधेरे से उजाले की अदावत भूल जाती है
अगर खतरे में हो रोटी , बगावत भूल जाती है .
इन्हीं के हाथ की फसलें , इन्हीं के बेटे सीमा पर
इन्हीं गुमनाम लोगों की शहादत भूल जाती है .
गरीबी की बनिस्बत ख़ौफ़ खाता हूँ अमीरी से
कि दौलत सबसे पहले अपनी ग़ैरत भूल जाती है .
मुझे कुछ भी कहे कोई मगर जब मां को कहता है
मैं खो देता हूँ आपा और शराफ़त भूल जाती है .
परिंदे आके अक्सर बीट करते हैं कंगूरों पर
बुलंदी पर चढ़ा कर हमको शोहरत भूल जाती है .
उसे जब भी उठा लेते हैं अपनी गोद में अंकल
न जाने क्यों मेरी बच्ची शरारत भूल जाती है .
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