मुझे मरने को गौरैया सी मौत चाहिए : देवेश की कविताएँ
देवेश की ये कविताएँ पहल के ताज़ा अंक में आई हैं. हिंदी के अराजक समकालीन परिवेश में अपनी उम्र के कई
सेलीब्रेटेड कवियों के बरक्स देवेश लगभग बज़िद होकर अपने कवि होने को कविता के बाहर कोई ख़ास महत्त्व नहीं देते. आयोजनों और सूचियों से अनुपस्थिति आलोचकों और आयोजकों की ही नहीं जैसे उनका ख़ुद का चयन है. अपने विषय की तरह उसने अपने लिए भी परिधि ही चुनी है ताकि केंद्र की और अंगुलियाँ उठाने का अधिकार न छिन सके. विदर्भ के किसानों से लेकर कश्मीर की गलियों तक फैले उसके कविता संसार में मनुष्यता के प्रति एक समझौताहीन प्रतिबद्धता स्पष्ट है तो पंक्तियों के बीच पढ़ते आप संवेदना के उन स्रोतों की तलाश कर सकते हैं जो कवि को लिखने के लिए ज़रूरी ताक़त उपलब्ध कराती हैं.
मै घूम-घूम कर लाशें देखता हूँ
1
कौन-सा होता है वह क्षण जब तुम महसूस करते हो अपना इत्यादि होना?
वक़्त के किस पहर तुम्हारे पाँव कांपते हैं किसी आशंका से?
किस घड़ी में तुम तय करते हो अपने जीवन का अंत?
कब तुम्हारी रीढ़ में उठता है तेज़ दर्द?
ठीक उसी क्षण, वक़्त के उसी पहर-उसी घड़ी जन्मता है कुछ
मृत्यु जितना भव्य, मृत्यु जितना शांत
2
बच्ची सहेलियों के साथ बरामदे में खेलती है
घर के पिछवाड़े से भर लाती है पीने का पानी
झूला झूलती सुनाती है चुटकुला और खुद ही हंस पड़ती है
माँ और भाई के साथ जाती है मजदूरी पर
द्वार पर लगे तुलसी को पानी देती है
माँ से बाप के फांसी लगाने की वजह पूछती है और फिर सोने के लिए सहेली के घर चली जाती है
बाप उसे रोज़ 2 रूपये देता था टॉफ़ी खाने को
बाप अब उसे डराता है.
3
हाथ रखता हूँ अपने कान पर
ठीक तभी कोई पटक देता है सामने रौशनी को, जिसकी परछाई के पीछे छिपने की कोशिश के बीच
अचानक फूटता है पानी का सोता, लाल, रक्त-रंजित
पाँव बचाते आगे बढ़ता हूँ
किसी कुँए से रस्सी खींचती मिल जाती हैं कुछ औरतें
जिनके पति मुँह-अँधेरे कूद गए थे कुँए में
मैं फुसफुसाता हूँ
‘जहाँ से कोई आवाज़ नहीं आती
घर होता है वही शोर का’
4
मैं घूम-घूम कर लाशें देखता हूँ
लाश के घरवालों से पूछता हूँ तरह-तरह के सवाल
ढूंढता हूँ वजहें, परखता हूँ स्थितियां, कुँए पर बैठ बीड़ी पीता हूँ
ब्रह्मभोज की पूरियाँ जीमता हूँ
शाम को लौटता हूँ डेरे पर
आँखों के बिना.
हत्यारा कौन-से रंग का है?
1
जिन हाथों में होना था हल
उन हाथों में है रस्सी
जिन हाथों में होना था चाकू
उन हाथों में है कलम
किसी का मरा मुंह देख कर समझ पाया
काग़ज़ पर कविता ही नहीं लिखी जाती!
फल ही नहीं लटकते पेड़ पर बस!
‘किसान होने की इच्छा पालने वाले शख़्स की नियति में है कवि की मौत मरना’
2
भूख की उम्र हो चली है
हत्यायें तो सदाबहार हैं
भूख बूढ़ी है
हत्याओं को तो प्राप्त है अमरत्व
जिसकी मौत हुई पानी की टंकी में डूबकर उसके फेंफड़ों में पानी का एक कतरा नहीं
जिसकी मौत हुई फांसी लगाकर उसके गरदन पर रस्सी का कोई निशान नहीं
मरा कौन और मारा किसने?
यह जानने के लिए कानून जानना ग़ैरज़रूरी है
3
धरती के कैनवास पर आसमान करता है पेंटिंग
बिना जल बिना कूची बिना रंग
पेंटिंग में हैं दरारें
पेड़, रस्सी, इंसान भी
कुंआ और साहूकार भी
दुनिया की सबसे महँगी पड़ती इन पेंटिंग्स को
कोई देखने भी नहीं आता….
एक सवाल पूछता हूँ..
पेंटर की औकात छोटी या पेंटिंग की?
4
यह जो आदमी है
जिसकी जीभ बाहर लटक रही है
लोहे का स्वाद चखा था इसने
जिसकी आँखें बाहर आने को परेशान हैं देखा था अँधेरे को
यह आदमी काला था
हत्यारा कौन से रंग का है?
5
मेरे पास घर है
घर में कुंआ नहीं है
घर से निकला
बाहर कुंए ही कुंए मिले
मुझे कोई दिलचस्पी नहीं अपने देश का पता ढूँढने में
कि देश कोई ज़मीन का टुकड़ा नहीं
कि मुझे इंसानों पर भरोसा है
कि अभी ‘भरोसा’ क़त्ल से बड़ा शब्द है!
कि अभी मुझे शब्दों पर भरोसा है!
ख़ैर..
एक ऊब जो शाया हर तरफ़,
एक मिजाज़ जो किसी मौज में न बहा,
एक तबीयत जो उदास ही रही फ़क़त.. ख़ैर
एक पेट जो कभी भरा नहीं,
एक नींद जो कभी आई नहीं,
एक सपना जिसकी किरचें धंस गईं आँखों में.. ख़ैर
एक कलम जो रक़म करे बस सच,
एक कागज़ जो गुदवाये मर्सिया,
एक ज़बान जिसमें कोई नुक्ता नहीं.. ख़ैर
एक बचपन जिसमें धब्बे के निशान भर,
एक होना जो माँ न हो सकने का होना,
एक प्रेम जिसकी सलीब तय मालूम.. ख़ैर
यूटोपिया
सबसे प्यारा है वह चाँद जो सारी रात बैठा करता है अँधेरे की रखवाली
सबसे प्यारी है वह बरसाती नदी जो दौड़ती है धरती के सूखे होंठों पर और बुझाती है वर्षों की प्यास
सबसे प्यारा वह घर है जिसमें दीवारें हैं न दरवाजे, खिड़कियाँ हैं बस
सबसे प्यारी वह लड़की है जिसके पाँव लहू से लिथड़े हैं पर गाती है आज़ादी के गीत
सबसे प्यारी है वह दुनिया जिसके भीतर रहते हैं अलग-अलग लोग ख़ुशी-ख़ुशी
यह उन दिनों की बात है
1
मुझे जोर से चीखना था
मैंने प्रेम लिखा
मुझे अपनी चोटें दिखानी थी
अपने ज़ख्म कुरेदने थे
अंधेरों के गीत गाने थे
मैंने प्रेम लिखा
मुझे पानी बनकर जलना था
रक्त बनकर बहना था
मौत के गले लगकर रोना था
और
मैंने प्रेम लिखा.
2
यह उन दिनों की बात है जब हवा में शवगंध थी और बचने की कवायद में हम अपने फेफड़ों को भर रहे थे बीडी के धुंए से
हमारी नालियां बजबजा रही थी स्वच्छता अभियान के पम्पलेटों से
हम जो खा रहे थे वह कचरा था
हम जो सुन रहे थे वह कचरा था
हमारी राष्ट्रीय भाषा गालियाँ थी
बिचौलिए थे हमारे पथप्रदर्शक
गर्व करने को हमारे पास लाशें थीं
लाशें ही कर रही थीं हमें शर्मसार
यह उन दिनों की बात है जब कोई भूखा रोटी खाने पर मार दिया जाता था
ठीक उन्हीं दिनों की..जब
मैंने प्रेम किया
और क़त्ल कर दिया गया.
कश्मीर पर कविता
एक शाएर दिल्ली में बैठा लिख रहा है कश्मीर पर कविता ..
सोचता हूँ,
कश्मीर में बैठा मुज़दिक हुसैन क्या कर रहा होगा इस वक़्त?
क्या वह दिल्ली पर कविता लिख रहा होगा?
या फिर चला रहा होगा पत्थर?
पेलेट गन से छलनी हो रहा होगा?
‘मैं उसे लिखता देखना चाहता हूँ’
क्या ऐसा हो पायेगा?
‘उसे कोई गोली पार नहीं करेगी’
दिला सकता है क्या कोई ये भरोसा मुझे?
‘उसके हाथ में कलम बरकरार रहेगी’
दिला सकता है क्या कोई ये भरोसा मुझे?
मुझे बाज सा जीवन नहीं चाहिए
बहुत दूर तक चलने के बाद ठहरता हूँ
खीझता हूँ कि मेरे पाँव निशान नहीं छोड़ते
खीझता हूँ कि मैं जूते नहीं पहनता
मुझे आगे निकल गए लोगों से जलन नहीं होती
मैं डरता हूँ थककर बैठ गए लोगों से
मैं बीड़ी के धुंए के साथ उड़ा देना चाहता हूँ अपनी इच्छाएँ
सोख लेना चाहता हूँ दुनिया भर की ज़लालत
मुझे थूकने के लिए आईने की तलाश है
मैं बींध दिया गया हूँ आरोपों से
मेरे पास सवाल हैं जवाबों के
मैं प्रेम में हूँ
मेरे पास तस्वीर नहीं है
मैं प्रेम में हूँ
मेरे पास पासपोर्ट नहीं है
गांधी को मेरी जेब के भीतर भी घुसकर मार दिया जाता है फिर-फिर
मैं गोडसे को फांसी नहीं देना चाहता मग़र
मेरे पास मेरी कलम है
मुझे लिखने को स्याही चाहिए
मुझे मरने को गौरैया सी मौत चाहिए
मुझे बाज सा जीवन नहीं चाहिए
मैं हिंदी का कवि हूँ
1
मुंह खोलता हूँ
लहूलुहान जीभ नीचे गिर जाती है
कितना क्रूर है ये ख़याल
कि
हँसता रहूँ और लिखा करूँ खिलखिलाती हुई कविता
2
फ़ोन पर कोई उछालता है मेरी तरफ़ यौमे-पैदाइश की मुबारक़बाद
लपकते-लपकते मेरे पाँव से कुचल जाती है किसी बच्चे की गर्दन
फ़ोन का कंडेंसर बकता है बतियाते रहो,
बहुत कोल्टन है तेरे पास!
उफ़.… मैं मर्सिया तक नहीं पढ़ पाता…
3
जिस वक़्त मुट्ठियाँ बंधी होनी थी
झुक रहे हैं मस्तक
देखता हूँ
फंदे में झूलता कवि बुदबुदाता है 'यह समर्पण ध्वनि है'** और दम तोड़ देता है..
उम्मीद की गर्दन तोड़ चुका है यथार्थ
हत्यारा मूत रहा है, चढ़ बैठा है सबके सर
4
मैं चुप रहा जब लोग काटे जा रहे थे
मैं चुप रहा जब आत्महत्याएँ हो रही थीं
मैं चुप रहा जब बलात्कार किया जा रहा था महिलाओं का
मैं चुप रहा, जब-जब जोर से चीखने की जरूरत थी..
मैं चुप था
मैं चुप हूँ
मैं चुप रहूँगा
मैं हिंदी का कवि हूँ..
5
एक स्त्री ने मांगी है हँसी
और
मैं हूँ कि रोता हूँ,
चाहता हूँ सब रोएँ
मिलकर सामूहिक रूदन करें
इतना कि हँसना भूल जाए दुनिया।।
बच्चों तक को मार देने वाली दुनिया हँसती हुई अच्छी नहीं दिखती
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