स्मिता सिन्हा की कविताएँ
स्मिता सिन्हा की कवितायें अभी अभी प्रकाश में आई हैं। सुखद यह कि इनमें एक असमय प्रौढ़ता की जगह उम्मीदें जगाता कच्चापन है, एक बेचैनी जो विषयों के चयन से लेकर कविताओं के ट्रीटमेंट तक में झलकती है। वह प्रचलित विषयों से बाहर निकलने के लिए जूझती सी लगती हैं और अपनी एक भाषा हासिल करने के लिए भी। |
Willem-de-Kooning की पेंटिंग यहाँ से साभार |
अनामंत्रित
सुख के सघन रेशों से छनकर
बूँद बूँद इकट्ठा हुई स्मृतियों
को
धीमे से बहा आना
उस तरलता में
जो हमारा दुःख है
उतना मुश्किल नहीं होता
जितना मुश्किल होता है
व्यवस्थित करना
अपनी ऊसर चेतना और अशक्त धैर्य को
उस क्षितिज और आकाश के मध्य कहीं
मुश्किल होता है व्यवस्थित करना
अपनी आस्थाओं को
उन प्रार्थनाओं में
उसी ईश्वर के सापेक्ष
जो आज हमारे लिये
एक तर्क का विषय है
अपने दिन और रात को व्यवस्थित
करना
उतना मुश्किल नहीं होता
जितना मुश्किल होता है
अपनी आवाज़ और उदासी को
व्यवस्थित करना
व्यवस्थित करना अपनी नींद और
सपनों को
अपने चल चुके क़दमों को व्यवस्थित
करना
व्यवस्थित करना खुद को उस अज्ञात
में
जहाँ आज वह एक अनामंत्रित प्रवासी
थी
अट्टहास
वह एक अट्टहास है
उस भीड़ का
जहाँ उसके लिये
सिर्फ़ वितृष्णा होनी चाहिये
वह गिद्धों की गरदन
मरोड़कर बैठा है
बेखौफ
जबकि छिपकलियाँ
छटपटा रही हैं
उसकी मुट्ठियों में
उसने नोंचने शुरु कर दिये हैं
सारसों के पर
हाँ उनकी खरोंचें
अभी तुमपर बाकी हैं
तुम बस यूँ ही
खींसे निपोरकर
बैठे रहना चुपचाप
मुझे बड़ा ताज्जुब होता है तुमपर
तुम्हारी नज़रों के सामने
वह लगातार बोता जा रहा है
झूठ पर झूठ
और तुम बड़ी ही
तल्लीनता से चढ़ाये जा रहे हो
उसके झूठों पर
सच की कलई
अभी जबकि
तुम्हारा संघर्ष
सिर्फ़ तुम्हारे हिस्से की
अंधेरे के खिलाफ होना था
तुम व्यस्त हो
उसके दिये हुए
तमाम अंधेरों को समेटने में
मैं क्या जिरह करूँ तुमसे
कि सबकुछ
जानते समझते हुए भी
तुम रोज़ गढ़ रहे हो
उसके पक्ष में
नये नये धारदार तर्कों को
जबकि वो खुद ही
अपने विरुद्ध
एक सशक्त बयान है
विस्थापन
हम विस्थापित होते हैं हर रोज़
हम छोड़ देते हैं अपनी मिट्टी को
और भागते है ज़िंदगी के पीछे बेतहाशा
पर हमारी जड़ें दबी रह जाती हैं
वहीं कहीं उसी मिट्टी के
नीचे......
हम विस्थापित होते हैं हर रोज़
अपने सपनों में ,अपनी स्मृतियों में ,
अपनी सांसों और सिलवटों में ,
भाषा ,शब्दों और विचारों में ,
हम विस्थापित होते हैं
हर नये रिश्ते में ,
अपनी रुह तक में भी
हम खुद में ही खुद को छोड़कर
बढ़ते जाते हैं आगे
और पीछे छूटती जाती हैं
जाने कितनी विस्थापित परछाइयां
विस्थापन लगातार बेदखल करता जाता
है
हमारी तमाम पुरानी चाहनाओं को
उस एक अप्राप्य की चाह में
विस्थापन किस्तों में ख़त्म करता
है हमें
और हमारे मिटते ही
अवतरित होता है एक नया कालखंड
अपने होने वाले विस्थापन के
कई नई वजहों के साथ
विस्थापन ही रचता है
चीखती ,चिल्लाती , झकझोरती सी
उन आवाजों को
जो सच सच कह जाती हैं
कि हर विस्थापन का अंत
वापसी तो बिल्कुल नहीं होता
चीखो , बस चीखो
चीखो
कि हर कोई चीख रहा है
चीखो
कि मौन मर रहा है
चीखो
कि अब कोई और विकल्प नहीं
चीखो
कि अब चीख ही मुखरित है यहाँ
चीखो
कि सब बहरे हैं
चीखो
कि चीखना ही सही है
चीखो
बस चीखो
लेकिन कुछ ऐसे
कि तुम्हारी चीख ही
हो अंतिम
इतने शोर में
कोई अर्थ नहीं
तो हर बात का कोई अर्थ हो
ज़रुरी तो नहीं
जैसे कोई अर्थ नहीं
बोगनवीलिया के उस वृक्ष पर
पसरे उजाड़ से सन्नाटे का
लहरों के बार - बार आकर
पत्थरों से टकराने का
कोई अर्थ नहीं
आज भोर के अंतिम पहर में
देखे गये मेरे उस स्वप्न का
हर रोज़ उतरती मेरी आँखों में
उस उदास सी शाम का
कोई अर्थ नहीं
बेतकल्लुफी वाली उस साझी हँसी का
जबकि हम हँस सकते हैं
एकाकी हँसी कई कई बार
हम ध्वस्त करते जाते हैं
एक दूसरे की मान्यताओं को ,
याचनाओं को ,
तर्कों को
जबकि हम खुद घिरे होते हैं
बौध्दिक शून्यता की परिधि के भीतर
और फ़िर ढूंढ़ते हैं
एक दूसरे के लिये अपने होने का
अर्थ
बस इसी तरह
कोई अर्थ नहीं था
हमारे पास होने का
दूर जाने का
तुमने जहाँ से शुरु की थी
बस वहीं ख़त्म होती थी मेरी
यात्रा
हमारे बीच देह भर का फासला था
मौन गीत
उस विहंगम काली रात में
जब सन्नाटे गा रहे थे मौन गीत
वे शिल्पी सिर झुकाए बैठे थे
कर रहे थे आंकलन
खोये पाये का
कुछ चिंता ग्रस्त से
ओह ! ये कैसे हो गया ?
सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना
इतनी कलुषित,इतनी मलिन
वे कर रहे थे गणना
उस नक्षत्रमंडल का
जिसके दूषित काल में
इनकी परिकल्पना की गयी
कोस रहे थे उस मातृगर्भ को
जिसकी मिट्टी से इन्हें गढ़ा गया
और एक एक कर वे तोड़ने लगे
अपने उन अप्रतिम कृतियों को
कि वे प्रश्नचिह्न बन चुकी हैं अब
इनके अस्तित्व पर
कि उनका ख़त्म होना ही
बचा सकता है अब इनका वजूद
वे बन चुकी है विद्रोही
बदजुबान हो चुकी हैं वो
आ खड़ी होती हैं अक्सर
अपने धारदार तर्कों के साथ
और
दूर कोहरे में लिपटी
वे अनबुझ आकृतियाँ
जिन्हें कभी रचा गया था
पुरुषों के लिये
खड़ी थीं आज निर्लिप्त ,मौन
देख रही थीं कहीं दूर
ज़िंदगी के धुंध के परे
उस चमकीले रास्ते को
जो कर रही थी आलिंगन
क्षितिज पर उग रहे
एक नये सूरज को
तुम्हारे वक़्त की औरतें
(एक)
तुम्हारे वक़्त की औरतें
नहीं होतीं
बारिश ,बसंत ,हवा या धूप
वो तो होती हैं
तुम्हारे विस्तीर्ण
साम्राज्य का
सबसे अभिशप्त त्याज्य कोना
तुम्हारे वक़्त की औरतें
नहीं होतीं
किसी मधुर प्रेम कहानी की नायिका
सी
सभी सोलह कलाओं में प्रवीण
अपने सभी किरदारों में पारंगत
वो तो होतीं हैं
अमावस्या की काली गहराती रात
जिसमें उतरता है
उनके देह का रेशा रेशा
तुम्हारे वक़्त की औरतें
क्रूर भी होतीं हैं
और बेचारी भी
पर माहिर नहीं होतीं
स्वांग रचने में
कि वे अंत तक नहीं समझना चाहतीं
कि वे बस एक मोहरा भर हैं इस खेल
में
तुम्हारे वक़्त की औरतें
होतीं हैं
एकांत का एक उन्मत विलाप
जो सहज स्वीकार कर लेती हैं
तुम्हारे प्रेम में मिलने वाली
अपनी सम्भावित हार
(दो)
तुम्हारे वक़्त की औरतें
अपने मुश्किल समय की
सबसे आसान शै होती हैं
जो बड़ी ख़ामोशी से जानती हैं
जिंदा रहना
उन्हें मालूम है
एक एक सांसों की कीमत
कि लम्बे समय से
सांसों को साधे
देखती रही हैं
अप्रत्याशित से बीतते सच को
तुम्हारे वक़्त की औरतें
नहीं चाहती
प्रश्न वृत्तों की परिधि में
उलझना
बीत चुके दिनों का हिसाब रखना
उन्हें कोई पूर्वाग्रह नहीं
कि वे बखूबी जानती हैं
प्रेम दुनिया का
सबसे खुबसूरत खैरात है
तुम्हारे वक़्त की औरतें
छूटती चली जाती हैं
धुँध ,
धूँये , धूल और शोर में
अपने ही विरुद्ध खड़ा करती हैं
अपनी ही इकाई
कि अब ज़रुरी हो चला है
भ्रम का विलय
कल मैं तुम्हारे वक़्त की
एक औरत से मिली
बातों बातों में
आंसू झरने लगे उसकी आँखों से
मैंने उसे न रोका ,
न टोका
संयत होकर उसने कहा मुझसे
खुशकिस्मत हो
अपने वक़्त में हो
मैं चुपचाप मुस्कुराती रही
मैं महसूस कर रही थी
अपने कंठ में अटके हुए
आँसूओं का वेग
इंतज़ार
मैंने इंतज़ार को
एक गाढ़े एकांत में देखा
और देखा
एक निचाट सूनापन
बढ़ती हुई व्याकुलतायें
मैंने इंतज़ार को
सभी दिशाओं में देखा
और देखा
सफ़र में उठते
थकते से क़दम
मैंने इंतज़ार को
अनंत में देखा
और देखा
सिकुड़ता हुआ
स्व का विस्तार
मैंने इंतज़ार को
आँखों में देखा
और देखा
चटखता सा स्वप्न
मैंने इंतज़ार को
ताखे पर जलते
उस दीये की लौ में भी देखा
और देखा
उस देहरी पर रखा
एक अकेला मन
मैंने इंतज़ार के सापेक्ष
कई कई अंतहीन इंतज़ार को देखा
मैंने इंतज़ार को हमेशा
इंतज़ार में ही देखा
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अर्थशास्त्र से परास्नातक और पत्रकारिता की डिग्री हासिल करने वाली स्मिता पत्रकारिता और शिक्षण का अनुभव रखती हैं। उनसे smita_anup@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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