स्टेशन नगरीय गढ़ों के गेट होते हैं और गाँवों के लिए दीवार - शेषनाथ पाण्डेय की दो कविताएँ


शेषनाथ भाई की इन कविताओं को पढ़ना मेरे लिए विस्मयकारी था. उनके कवि रूप से लगभग अपरिचय मेरे अज्ञान का ही द्योतक है लेकिन ऐसे समय में जब कला के नाम पर निरर्थक वाक्यों और अनर्थक बिम्बों को सजाकर पेश किया जा रहा हो और प्रेम योनि-गुदा के मूर्खतापूर्ण समीकरणों में हल किया जा रहो, ये कविताएँ सिर्फ़ आश्वस्त नहीं करतीं बल्कि पाठ और अर्थ की अन्विति का सुख भी देती हैं. इतिहास, लोक और जीवन के अनेक कोणों से मनुष्यता के स्रोत तलाशतीं इन कविताओं को असुविधा के लिए उपलब्ध कराने के लिए मैं उनका निजी रूप से आभारी हूँ.



अर्थाभास 

एक
यहाँ एक जंगल था जो अपनी आग के बिना ही जल गया
वहाँ एक नदी थी जो अपनी प्यास के बिना ही जल उठी        
अब कितना भुलाया जाएगा जंगल जलाने के गुनाह को
तुम कैसे उच्चारोगी मुझे जबकि मैंने तुम्हारी प्यास की परवाह नहीं की !  
दो
मुझे जहाँ प्यास लगी वह एक स्टेशन था
चाहे इसकी ज़मीन पर
मवेशियों के खुर के साथ टमटम और बैलगाड़ी के पहियों के निशान ही क्यों ना हो
चाहे इसके पुकार का नाम टेसन ही क्यों ना हो
स्टेशन नगरीय गढ़ों के गेट होते हैं और गाँवों के लिए दीवार
मैंने तुम्हारी तस्वीर देखी और प्यास की बात भूल गया
रेल की रफ़्तार से गति फूट रही थी और तुम्हारी तस्वीर से नदियाँ
लेकिन मेरे पास अख़बार था और मैंने देखा कि
महेश कांत और सरिता की लाश बहती हुई जा रही हैं
नहीं ! उनकी लाश बहुती हुई आ रही हैं मेरी तरफ
जबकि मैं चकबंदी के लिए कोई काम नहीं कर रहा था
जबकि उस समय तो  प्रेम भी नहीं कर रहा था
मैंने बस इतना भर सोचा
कि चकबंदी के लिए काम करना गुनाह है या प्रेम करते हुए काम करना 

तीन
जब प्रेम हुआ
मैं छींटदार कुर्ते में गया तुम्हारे शहर
कि कोई तो रंग भाएगा तुम्हें
तुम्हारे शहर में सुबह हुई और कम्पनी के सायरन बजे
तुम्हारे शहर में धूप खिली और दस बजा
दस बजा और मेरी नसें चटकने लगी 
चटकने की आवाज़ ज़्यादा सुनाई देती है आशांकाओं को
अब आशांकाएं बज रही थी और दिन उतर रहा था
दिन उतर रहा था ज्यों मेरी नसें छितरा रही थी और शाम हो गयी
मेरे कुर्ते के रंग मक़बरे के रंग से मिल गए
मिली हुई रात में मक़बरे के शिल्प से प्रेम अपना शिल्प गढ़ता रहा
और सुबह की गाड़ी इतनी भी सुबह नहीं थी कि मैं जल्दीबाजी में जूते ना पहनूं
मैंने हाथ में जूते लिए और तुम्हारे शहर में हुई दूसरी सुबह को मापते हुए रेल में सवार हुआ

चार 
आख़िर कोई क्यों सहेजना चाहता हैं अपने प्रेम को
यह देखते हुए भी कि सबसे शक्तिशाली होते हुए भी प्रकृत 
अपने हिमालय जैसे प्रेमी को नहीं बचा पा रही हैं
या फिर सर्वाइवल के घमासान में हमारे इतने चिथड़े उड़ गए हैं
कि हम हिमालय को देख रहे हैं प्रकृत को नहीं.

पांच

हिमालय अभी जितना दूर है मगध से
उतना ही दूर आम्रपाली के समय भी था 
जब आम्रपाली जा रही थी सन्यास की तरफ
उस दिन कुछ कलाकारों ने भी सन्यास लिया होगा ?
या सभी के सभी ज्ञान के सौदों में 
श्लोकों के सहारे अपनी मूर्तियों के लिए स्लोगन गढ़ते रहे
कितने योद्धाओं ने अपने कंधें से उतारें होंगे तरकश
या सभी के सभी तलवारें खिंच कर निकल गए होंगे किसी दूसरी आम्रपाली के लिए
या सभी ने मान लिया था कि राजा ही कर सकता था आम्रपाली से प्रेम
या सच में मगध और वैशाली में कोई और प्रेमी नहीं था आम्रपाली का
या सच में मुक्ति के समांनातर कला खडी नहीं हो सकती थी
जबकि उसके नृत्य से साम्राज्यों की हवाओं में ऐंठन होने लगती थी
मिट्टी पसीज कर जल हो जाना चाहती थी और वृक्ष पाषाण  
फिर इतनी राजी ख़ुशी कैसे बना दी गयी आम्रपाली की मूर्ति
जबकि वहां एक नरसंहार हुआ था.

छह

मैंने नहीं देखा था इतिहास के युद्धों को
मुझे नरसंहारों के बीच पैदा किया गया था
मुझे बहुत सारी शक्तियां अपनी तरफ खींच रही थी
दिशाओं से घंटे घड़ियालों और शंखों की आवाज़ आ रही थी
उन शक्तियों से अघाए -दंभ में डूबे लोग
मेरा आवाहन कर रहे थे
और मैं था कि ईश्वर से इतना डरता था
इतना कि कविताओं में भी उसकी शिकायत नहीं करता
कई बार ईश्वर के डर से लिखता कवितायेँ
और ईश्वर के डर से ही करता प्रेम

सात

प्रेमी इतने ख़तरनाक क्यों होते हैं कि मंत्री – मसीहा मंत्री
पहले अपने दुश्मनों को नहीं अपने बेटियों के प्रेमियों को मारते हैं
बाज़दफा वे मिला लेते हैं हाथ अपने दुश्मनों से
दुश्मनों के हाथों विदा करते हैं अपनी बेटियों को 
मैं नहीं जानता था इसका उत्तर
इसलिए मैं नहीं चाहता था किसी नाग यज्ञ में शामिल हो कर ख़ुद को होम करूं
मैं नहीं चाहता था अपना छोटा रूप धर किसी राजा की हत्या करूं
और बहने दूँ कलयुग का अमोघ बहाव
मैं शास्त्री पुल पार कर के
कीडगंज से झूँसी पहुँच जाना चाहता था तुम्हारे पास
तुम्हारे सोत से फूटती हुई नदी नहान के लिए
लेकिन मेरी नींद के सामने हादसों को फूलों से ढँक दिया गया था
इसलिए मैं हादसों को नहीं शक्तियों को देखता
वो न जाने कौन सी शक्तियां थी
जो बार बार मेरे आड़े आ जाती और पुल पार करने नहीं देती
जबकि इस पार से मैं तुम्हारे हिलते हुए झुमके को देखता और उसी में खो जाता    

आठ

वासवदत्ता ने कब खोया होगा अपना होना
जब उदयन हार चुका था वत्स राज्य उसके प्रेम में डूब कर
जब मंत्री यौगंधारायण राजभक्ति के लिए
वासव के साथ बना रहा था कौशाम्बी पर फिर से वत्स का पताका फहराने की रणनीति
और रणनीति ऐसी कि वासव ही भरेगी पदाम्वती के मन में अपने प्रेमी के लिए प्रेम   
तब राज्य बचाने के लिए वासव के मन में यह ख़याल आया होगा
कि उदयन की कोई ग़लती नहीं
कि उसका शत्रु आरूणि ही सम्राज्य के नशे में रौंद रहा है राज्य और उसका प्रेम
तब वासव ने अवन्तिका के वेश में
मगध की पद्मावती को बताया होगा कि इतना प्रेम करता है उदयन
इतना प्रेम कि राज्य हार जाता है
फिर तुम कैसे बनोगी चक्रवर्ती राजा की पत्नी
कि तुम्हारे हाथों की लकीरें झूठी है,
झूठा है ज्योतिष और सम्राज्य का सारा ज्ञान
मिथ्या है उदयन के सामने चक्रवर्ती की संकल्पना
जबकि वह अपनी म्यान से तलवार खींचता है
तो सबसे पहले उससे अपनी वीणा के तारों पर एक धुन खींच देना चाहता है
या वासव उस यक़ीन को देखना चाहती थी
कि जब उदयन के हाथों में पद्मावती  का हाथ हो और कौशाम्बी पर वत्स राज्य की पताका
तब समुद्रगृह की कराह में वासव वासव की पुकार शामिल है कि नहीं ?
या वासव का होना अब इतना ही रह गया
कि उदयन के स्वप्न टूटने से पहले अपने होने का आभास दे सके

नौ
अब कितना आभास कराओगी तुम मुझमें अपने होने का
जबकि इतने सारे स्वप्न इतने सारे स्वप्नदर्शी
इतनी सारी मूर्तियाँ और उतने ही मूर्ति भजंक
कितना जलाओगी अपने आप को अपने जल के खिलाफ़
जबकि मैं तुम्हारी श्वेत श्याम मूर्ति में सदियों से अटका हुआ हूँ
सदियों से मेरे छत के ऊपर आई हुई बारिश अटकी हुई है
यह तस्वीरों वाला कमरा है इस कमरे में कोई तस्वीर नहीं है तुम्हारी
उस कमरे में कितनी सारी तस्वीरें हैं इतनी तस्वीरों में मैं कहीं नहीं हूँ !

दस 

कहीं नहीं होने की बेचैनियाँ भी किनारा चाहती होंगी 
लेकिन उन्हें इम्तिहानों से गुज़ार दिया जाता है
यह जानते हुए भी कि वे कभी कोई इम्तिहान पार नहीं पा सकती
यह जानते हुए भी कि मैंने तुम्हारी प्यास की परवाह नहीं की
मैं फिर से शास्त्री पूल पार कर के तुम्हारें पास पहुँच जाना चाहता हूँ
यह बताने के लिए कि तुम्हारे झुमके किसी राजा के छत्र से ज़्यादा गर्वीले हैं
कि उस झुमके से अपनी ज़िंदगी का पूर्वानुमान लगाता हूँ
कि जब वे फँसते हैं तुम्हारे केस में इतिहास कलाओं के प्रेम में सुलझ जाता है
कि जब वे डोलते हैं कथाओं के किरदार ज़मीन पर उतरने लगते हैं
कि वे इसी बात पर तो झूलते हैं कि उन शक्तियों में तुम्हारा स्वर नहीं है.


तुम्हारे आते आते 

तुम्हारे आते आते
इस तरह होती है सुबह कि मैं हड़बड़ाते हुए पूछता हूँ
यह कौन सा शहर है
कौन बैठा है मेरे सिरहाने
मेरे पायताने कौन है लेटा हुआ

तुम्हारे आते आते
इतनी तेज हो जाती है धूप
कि वक़्त पिघल के चढ़ता उतरता है ख़ून के साथ
तब मैं तुम्हारे आने के अंदेशे में लिखता हूँ तुम्हें चिट्ठियाँ
उनके  मिलने के अंदेशे में चला जाता है चिट्ठियों का जमाना

हो जाती है रात तुम्हारे आते आते
रास्ते के हरे हरे वे पेड़
जिन से लिपट कर मैंने आदमी की केंचुली उतारी थी 
और पाया कि तुम्हारा धड़ पेड़ का धड़ है
जिससे लिपट कर रोने से सदियों के दुःख बहने लगते हैं हवाओं के साथ

तुम्हारे आते आते वे पेड़ 
निरूदेश्य खड़े खम्भों में बदल जाते है
उन खम्भों पर चढ़कर स्याह और मलीन आत्माएं
सियार कुत्ते उल्लुओं और टिटहरी से
अलगाती हैं अपनी आवाज़ें
और दम भरती है तुम्हारे आने की सत का

तुम्हारे आते आते
मैं नई पुरानी कविताओं पर निरर्थक लिखकर
रिसाइकिल बिन में डालता रहता हूँ
और समकाल का कोई प्रेम लौव की तरह कांपता रह जाता है ऊंगलियों में
लौव के बुझने और उँगलियों के काँपते रह जाने के बीच 
एक दिन क्रैस हो जाता है मेरा लैपटॉप


तुम्हारे आते आते
कोई निशान नहीं बचता मेरे इन्तजार का
और नहीं मिलता कोइ निशान तुम्हारे आने का
मैं तुम्हारी मद्धम आवाज़ का कोई सिरा पकड़े 
चला आता हूँ चौराहे पर
यहाँ के शोर से फिसलता है वह सिरा
और मैं दिशाओं का ज्ञान भूल जाता हूँ

तुम्हारे आते आते बन जाता है एक शून्य
मैं इस नष्ट हो जाने से मिले शून्य को फोड़ता हूँ
तो सार्थकता के लिए अभ्यासरत निरर्थकताएं मिलती हैं टूटी हुई
मैं कड़ियों को जोड़ता हुआ माइल स्टोन को 
एक लूट चुके राही की तरह हैरत से देखता हूँ
और तुम्हारे आने की हसरत से बेचैन होकर
तुम्हें खोजने निकल जाता हूँ.


संपर्क : मोबाइल - 9594282918 ई मेल :sheshmumbai@gmail.com
**


टिप्पणियाँ

https://bulletinofblog.blogspot.com/2018/08/blog-post_14.html

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अलविदा मेराज फैज़ाबादी! - कुलदीप अंजुम

पाब्लो नेरुदा की छह कविताएं (अनुवाद- संदीप कुमार )

मृगतृष्णा की पाँच कविताएँ