लौट जाती है उधर को भी नजर क्‍या कीजे - कुमार अम्बुज

एडिनबर्ग वर्ड राइटर्स कांफ्रेंस, त्रिनिदाद में मुख्य वक्ता के तौर पर दिए गए ओलिव सीनियर के ने कहा था, “राजनीति! व्यग्रता इस पद के संकीर्ण उपयोग से पैदा होती है. हम अक्सर राजनीति को पार्टीगत राजनीति, चुनावी राजनीति, राजनैतिक नेतृत्व और इनसे जुड़े विवादों और टकरावों के रूप में समझाते हैं और इसीलिए बहुत से लोग यह कहते हुए इससे खुद को अलग करते हैं कि मेरा राजनीति से कोई लेना-देना नहीं. ... लेकिन राजनीति अपनी बेहद आरम्भिक परिभाषा में ही राज्य चलाने की कला से जुडी है...मैं कहना चाहती हूँ कि देश की वृहत्तर राजनीति पालने से लेकर कब्र तक अपरिहार्य रूप से हमारा सबकुछ निर्धारित करती है. रोटी की क़ीमत या बंदूकों की उपलब्धता राजनीति तय करती है और यह भी कि कोई समृद्ध जीवन जियेगा या फिर किसी रिफ्यूजी कैम्प में सड़ेगा...वृहत्तर राजनीति उस दुनिया को जिसमें हम पैदा होते हैं और हमारे दैनंदिन पर्यावरण को निर्धारित करती है और उस राजनीतिके लिए रास्ता बनाती है जो जीवन के हर क्षण में हमारे उन व्यक्तिगत निर्णयों में अन्तर्निहित है जिन्हें लेने के लिए हम अचेतन या सचेतन तौर पर लेने के लिए बाध्य होते हैं.” 

हाल में सदानीरा की वेबसाईट पर दो युवतर कवियों की गुदा केन्द्रित कविताओं को लेकर जो बहस शुरू हुई है उसे हलके फुल्के मज़ाकों में तब्दील करना बड़ी ग़लती होगी. वह हिन्दी में एक ऐसे चलन का शायद अब तक दिखा सबसे वीभत्स रूप है जो दुनियावी मुश्किलात को कविता-विषय बनाने की क़वायद को हेय मानता है. अक्सर प्रेम के नाम पर उथले और लिजलिजे भावों को जादूई से दिखने वाले वाक्यों और सूफियाना अंदाज़ के साथ चमकदार लेकिन अक्सर निरर्थक बिम्बों से आक्रान्त कर उसे कविता का विश्वस्तरीय प्रतिमान मानने का मुगालता पाले ऐसे कवि आपको सोशल मीडिया से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर तक आसानी से दिख जाएंगे. यह आश्चर्यजनक नहीं है कि गुदा केन्द्रित कविताओं के इन दोनों सर्जकों के संग्रह हिन्दी में कलावाद के प्रणेता अशोक वाजपेई के सौजन्य से प्रकाशित हो रहे हैं. हालाँकि यहाँ यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि अशोक जी की बुरी कविताएँ भी इन कथित कविताओं से बहुत बेहतर हैं. 



ऐसे में हिन्दी के प्रतिष्ठित और प्रतिबद्ध कवि कुमार अम्बुज  का यह आलेख इन कविताओं की आलोचना-भर्त्सना से आगे कविता के उद्देश्यों और संरचना पर एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी की तरह आया है, जिसे असुविधा पर प्रस्तुत करते हुए मैं एक स्वस्थ बहस की उम्मीद कर रहा हूँ.  

डेमियन हर्स्ट की पेंटिंग : Arse Hole
(डेमियन लिखते हैं - I aim to paint myself as limitless angular momentum in constant toilet flushing flux. My anal sphincter muscles loosen and expel hydrostatic equilibrium into the anus-sphere of existence and of course stick a dead fucking cow in there too.)

अंगों या अंग-विशेष पर कविता लिखना एक सजग चुनाव है। उचित है और इस पर कोई आपत्ति नहीं।

जैसे फैज़ अहमद फैज़ की प्रसिद्ध नज्‍़म 'मुझसे पहली सी मोहब्‍बत मिरी महबूब न माँग' में प्रेमिका की दिलकश सूरत के अलावा उसकी आँखों के बारे में भी एक उतनी ही ख्‍यात पंक्ति आती है- ''तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्‍खा क्‍या है''। लेकिन तत्‍काल, वहीं, उसी जगह, शायर फैज़ और उनकी नज्‍़म बताती है कि दुनिया में ऐसा और क्‍या है जिसके सामने ये हुस्‍न और उसके अंग-प्रत्‍यंग न केवल अप्रासंगिक और हीन हैं बल्कि दिलकश भी नहीं रह जाते। ऐतिहासिक क्रूरताओं, अमानवीयताओं, शोषण और खून में, पीब में नहाई हुई समानांतर दुनिया हमारे बगलगीर है, जो कहीं अधिक बड़ी हक़ीक़त है। नासूर है, चुनौती है, हस्‍तक्षेप के लिए प्राथमिकता है और इस दुनिया की बदसूरती ख़त्म किए बिना निजी राहतें भी मुमकिन नहीं। 'लौट जाती है उधर को भी नज़र क्‍या कीजे'। यह नज़र व्‍यापक है, जीवन की तमाम विद्रूपताओं, दुश्‍वारियों की तरफ लौटती है। इसलिए यह और इसी तरह की अनेक कविताएँ अविस्‍मरणीय, बड़ी और महत्‍वपूर्ण कविताओं की तरह सलामत रहती हैं।

मुश्किल तब होती है जब आप अंग विशेष पर लिखते हुए उसमें क़ैद हो जाएँ, मोहित होकर गिर पड़ें, उसे अपना हृदय दे दें, वहीं निवास करने लगें और उसी सिलसिले में मुग्ध बने रहें। या इधर-उधर के संदर्भ लाएँ भी तो इसलिए कि अपनी संकुचित दृष्टि की पुष्टि कर लें या गुदारूपी मन में पड़े काँटे निकालने लगें। इसलिए ये कविताएँ महज, 'तेरी गुदा के सिवा दुनिया में रक्‍खा क्‍या है' को ही ध्‍वनित, प्रतिबिंबित और चित्रित करती हैं। अपनी या प्रेमिका की गुदा-पीड़ा, उसकी शुचिता, उसके महत्‍व और उसके ही खंडन-विखंडन से बाहर नहीं आतीं। जैसे एक कैमरा है जिसका लेंस गुदाक्षेत्र पर जूम कर दिया गया है, बाकी जो कुछ यदि है भी तो वह आऊट ऑव फोकस है। इसकी नज़र वहाँ से कहीं लौटती नहीं, लगभग स्थिर बनी रहती है। ये आत्‍मगुदाकेंद्रित हैं।


गुदा की यह व्‍यक्तिगत ख़ुशी, समझ, कठिनाई और पीड़ा यदि सार्वजनिक पीड़ा, तकलीफ, संत्रास या मुश्किल की तरफ 'संकेंद्रित यात्रा' करती तो शायद कुछ बात बन सकती थी। कोई निजी अनुभव, वेदना या खुशी सर्जना, कला या रचनात्‍मकता में मूल्‍यवान ही तब होती है जब वह एक सार्वजनिक अनुभव, व्‍यथा या प्रसन्‍नता में संप्रेषित और विन्‍यस्‍त हो जाए। तब निश्चित ही गुदाकथा में उसे सहलाए जाने, कामवासनासंतुष्टिक्रम में उसे भी पूर्तिकारक, स्‍फूर्तिदायक मानने, नंपुसक उँगली प्रविष्‍ट करने, उसके रक्तिम होने, हृदय, सुख या प्रेम का पर्याय बनाने की जगह उसमें अधिक प्रासंगिक संदर्भ, घटनाएँ, व्‍यथाएँ और नृशंसताएँ दर्ज़ होतीं।

तब बवासीर (अर्श), भगंदर, अतिसार, गुदा-फुंसी-फिस्‍टुला, मिर्च लगना, पाद-प्रकार, अपान वायु की गंध और ध्‍वनि जैसी असीम कष्‍टकारक चीजों और तकलीफों पर भी निगाह जाती। पूरे देश में असहाय, वंचित, शोषित और अल्‍पसंख्‍यक के साथ ही नहीं, उनके पक्ष में आवाज़ उठानेवालों के साथ भी जो जबरन गुदा-मैथुन सत्‍ता-शक्ति-संरचनाओं के द्वारा किया जा रहा है, उस तरफ भी ध्‍यान जाता। मनुष्‍य की सम्‍मानित ग्रीवा को झुकाने के लिए ऐतिहासिक और परंपरागत तरीकों से भी थानों में, जेलों में, यातनागृहों और तमाम आश्रमों में गुदा के साथ जो क्रूरता और पाश्‍विकता बरती जाती है, वह भी उनकी नज़र में होता। जहाँ डंडों से भी चुन्‍नटें तोड़ दी जाती हैं और जीवन भर आदमी शर्म के भार से लँगड़ाकर चलता है। बच्‍चों के साथ अप्राकृतिक कृत्‍यों के संबंध में, उनकी मानसिक समस्‍याओं के बारे में भी कुछ विचार होता। बशर्ते कविताओं की नीयत मनुष्‍य की वास्‍तविक तकलीफों से वाबस्ता होती।

यदि ये केवल आत्‍मचरित, कल्‍पनाओं और इच्‍्छाओं में स्‍खलित न होतीं, (जिसमें कहीं एक प्राण निकलने का एक मिथकीय पुट भी है) तो 'गे' या एलजीबीटी सम्बन्धी मानवीय स्‍वतंत्रता, जीवन-प्रणाली चयन, लोकतांत्रिकता आदि पर विमर्श के लिए कुछ जगह हो सकती थी। जैसा कि बीट आंदोलन ने किया और गिंसबर्ग एवं अन्‍य बीटनिक लेखकों से प्रेरित रचनाएँ दुनिया भर में लिखी गईं। वे एक जरूरी लड़ाई और तर्क की तरह पेश हुईं। बीट कविता से तुलना करना भी इनका अनावश्‍यक मान बढ़ाना है। यहाँ नाराज, व्‍यथित, क्रांतिकारी पाठ भी नहीं है। यहाँ अकविता के मानमर्दन और लिंग की सात-आठ इंची ऊँचाइयों से‍ गिरकर पाँच-छह इंच की गहराइयों में गिरकर डूब जाने की कहानी याद दिलाने की जरूरत नहीं लेकिन यह याद कर लेना उचित होगा कि कभी भी 'अपवित्रता मंडित' विषयों का चुनाव कर लेने भर से कोई मुद्दा निकलकर नहीं आ सकता, जब तक कि लिखने का कोई साफ या धुँधला सा ही सही उद्देश्‍य सामने न हो और एक विस्‍तारित दृष्टि उसे संचालित न कर रही हो। लोर्का के बहाने भी और अन्‍य कविताओं में अनेक कुंठाएँ दर्ज हैं। लगता है कि ये कुंठाएँ अभी तक मन में नहीं, गुदा में रहती आईं और विषय पाकर बाहर पल्‍लवित हो गर्इं। इसलिए ये महज गुदाकुंठित हैं।

हद यह है कि ये कविताएँ गुदा के बारे में भी हमें ऐसा कुछ नहीं बतातीं कि हमारी अपनी व्‍यक्तिगत जानकारी, संवेदना या मार्मिकता में कुछ इजाफा करें अथवा हमें किसी उच्‍चतर समझ के समक्ष खड़ा कर दें। काव्‍य-कला की तरह भी कोई पंक्ति भी नहीं रोकती-टोकती। ये चौंकाऊ, आनंदित लेकिन विफल कविताएँ हैं। ये अराजक, हिपस्‍टर या ठेस पहुँचानेवाली कविताएँ भी नहीं हैं। इनमें बस एक साहस का दंभ जरूर झलकता है कि लो, गुदा पर लिख दिया। मगर इस दंभ के प्रसंग में ध्‍यातव्‍य रहे कि इस तरह की 'एनल पोएट्री' का भंडार संसार भर में है। जरा गूगल तो कीजिए । गुदा-मैथुन और होमोसेक्‍सुएलिटी पर भी बेहतर उत्‍तेजक, आत्‍मीय-अनात्‍मीय, मादक, लपलपानेवाला, व्‍यर्थ, प्रलापी और मूर्छित करनेवाला वर्णन वहाँ उपलब्‍ध है । कही जगह तो मार्मिक भी ।

इन कविताओं से तो गुदा या उसका प्रसन्नमनमर्दन करने के पक्ष में भी कोई वातावरण नहीं बनेगा क्‍योंकि यह तो व्‍यक्तिगत पसंद, प्रकृति और आकांक्षा का मामला है। और गुदा के बहाने मनुष्य की अस्मिता को कुचलने, कलंकित बनाने, शोषण करने, स्‍वाभिमान को चोट पहुँचाने और यातना देने के विषय में तो ये बेचारी कविताएँ निर्दोष हैं, मासूम हैं और चुप हैं। ये ख़ुशनसीब कविताएँ कुछ नहीं जानतीं ।

दरअसल, खाए-पिए-अघाए मध्‍यवर्ग में भी मोटे तौर पर दो वर्ग लंबे समय से सक्रिय हैं ।

एक वह, जो प्रस्‍तुत समाज संरचना में अपने को हमेशा अनुत्‍तरदायी मानते हैं। अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सिर्फ अपनी निजी योग्‍यता की तरह देखते हैं, उसमें समाज की भूमिका निरस्‍त करते हैं। जो आत्‍मानुरागी हैं, दुनिया को अपनी ख़ुशी और संतुष्‍ट दुनिया के सुरक्षित टापू से निहारते हैं। उनके लिए उनका व्‍यक्तिगत बहुत महत्‍वपूर्ण और विशेष होता है। उनकी राजनीति यथास्थितिवादी होती है। वह किसी भी संघर्ष को, विमर्श को अपने आत्‍मसुख में सीमित और स्‍खलित कर देता है। दूसरा वह, जो इस भली-बुरी दुनिया की संरचना में अपने को शामिल पाता है, जो कुछ ग़लत है उसके लिए एक अपराध-बोध और सहभागिता का भाव लगातार उसके मन में वि़द्यमान रहता है। वह ख़ुद को दोषमुक्‍त नहीं करता और सोचता है कि दुनिया में जो कुछ बदतरी है, उसे दूर करने में वह अपनी भूमिका, मध्‍यवर्गीय सुविधाभोगी होने के बावजूद, निबाह सकता है, भले ही किंचित । वह यह भी जानता है कि उसके निर्माण में पूरे समाज का योगदान है। और वह राजनीति को सतर्क निगाह से, पक्षधरता के साथ देखने में समर्थ होता है।

इन दो मध्‍यवर्गों से ही अधिसंख्‍य रचनाकार, कलाकार और सर्जक आते हैं। उनकी रचनाओं से, उनके विषयों, ख़ासतौर पर उनके टेक्‍स्‍ट से और निर्वहन-वर्णन की प्राथमिकताओं से, दुनिया को देखने की निगाह से उनके ''मध्‍यवर्गीय वर्ग विशेष'' के सूत्र आसानी से पहचाने जा सकते हैं। जाहिर है कि ये ऐसे मध्‍यवर्ग की कविताएँ हैं जिसमें कोई समाजिक गिल्‍ट नहीं है। वह चेतना ही नहीं है। ऐसे लोग अन्‍यथा भी उत्‍तरदायित्‍व और सामाजिक बोध और प्रतिबद्धता से उपजी रचनाशीलता का उपहास करते रहे हैं। संवेदनहीनता, वाक् चातुर्यशिल्‍प और कला के लिए कला, इनके लिए रचनाशीलता का एक वरेण्‍य मानक है। इनमें ''असीमित महत्‍वाकांक्षा और सीमित जवाबदारी'' की प्रेरणा व्‍याप्‍त है। यहाँ इन कविताओं में इनकी यह वर्गीय पहचान सहज है। इस समय के फासिज्‍मग्रस्‍त भारत में गुदा वर्ष की जगह, बकौल ओम निश्‍चल, गदा वर्ष की ही महती ज़रूरत है। यदि किसानों की बात करें तो मृदा वर्ष का प्रस्‍ताव भी अनुचित न होगा। गुदा वर्ष तो सिर्फ उसी वर्ग के लिए सुखकारी और अभीष्‍ट है जिसकी पहचान यहाँ की गई है।

याद आ सकता है कि अंगों पर कविता लेखन में, हाथों पर बहुत ज्‍यादा पंक्तियाँ लिखी गईं है। क्‍योंकि हाथों के माध्‍यम से दुनिया की तामीर होती रही है। इसलिए हाथ इसके हक़दार हैं कि उन पर केंद्रित रचनाएँ बार-बार लिखी जाएँ । खेद है कि गुदा से दुनिया का निर्माण नहीं होता है। और यदि गुदा-मंथन से दुनिया में बदलाव और निर्माण संभव हो तो लानत है ऐसी दुनिया पर। फिर भी कुछ हैं जो इसी तरह संसार में अपनी जगह बनाने की कोशिश करते रहे हैं। फिलहाल सदानीरा डॉट कॉम ने ऐसा स्‍पेस बनाया है तो इसकी महत्‍वाकांक्षा, रुझान और उड़ान को समझने की कोशिश की जाना ठीक होगा। विषय की नवीनता के प्रति आग्रह को इरादे और आशयों से अलग करके नहीं देखा जा सकता। आपका चुनाव क्‍या  है, क्‍यों है, वह क्‍या बखान करता है, ये सब एक साथ ही महत्‍वपूर्ण और विचारणीय होंगे।

यदि गुदा-मैथुन को काव्‍य-विषय बनाना हो तो वह कैसा हो सकता है, इसका एक अन्‍यथा उदाहरण मुख मैथुन के प्रस्‍ताव-प्रसंग से, जो विष्‍णु खरे की कविता में है, याद आता है, जब एक किन्‍नर अपनी मज़बूरी में, भूख और जीवनयापन की विवशता में एक ग्राहक आदमी से कहता है- साहब बीस रुपये लगेंगे, मुँह से ही कर देंगे। तब एक पूरे समाज की विडंबना, देशकाल की यातना वज्र की तरह छाती पर गिरती है। इसीसे वह कविता बनती है। और जहाँ ऐसा नहीं होता है तब वह किसी ब्‍ल्‍यू या उत्‍तेजक फिल्‍म की स्क्रिप्‍ट का हिस्‍सा होने या सनसनी प्रक्षेपित करने के लिए अभिशप्‍त है। अभी मराठी और अन्‍य भारतीय भाषाओं की बात छोड़े देते हैं कि वहाँ 'गुदा' और उसके पर्यायवाची शब्‍द कितनी सार्थकता, विडंबना, क्रोध और अन्‍याय को प्रकट करते हैं।  

इन कविताओं और कवियों को समाज में प्रचलित गुदाज्ञान की भी सीमित जानकारी प्रतीत होती है। तब संभवत: तत्‍सम को छोड़कर सर्वस्‍वीकृत और सर्वाधिक प्रचलित देसज में बात जरूरी होगी लेकिन उस पर चर्चा करना यहाँ अभी अपेक्षित नहीं और न फिलहाल कोई आकांक्षा है। यदि कवि या रचनाकार में प्रतिभा है भी तो उसके साथ वह कहाँ की यात्रा करना चाहता है, यह उसकी रचना से मालूम होता ही रहेगा।




टिप्पणियाँ

vibhu ने कहा…
वर्जित, त्याज्य, गुप्त, उपेक्षित और भूले हुए विषय- क्षेत्रों में पूर्वापूर्व सृजनाकांक्षा में मुक्तिकामी कला एवं वैचारिकी तथा अभिसमय के वांछित विमर्श के प्रति व्याघाती .........गुदाग्रही कविताएं!.... लगता है किसी नये रीति शास्त्र की प्रस्थापना करके रहेंगी।
batkahi ने कहा…
गैर जरूरी ढंग से उठाए जा रहे कुत्सित मुद्दे पर एक जरुरी व सार्थक टिप्पणी ...... यादवेन्द्र
batkahi ने कहा…
गैर जरूरी ढंग से उठाए जा रहे कुत्सित मुद्दे पर एक जरुरी व सार्थक टिप्पणी ...... यादवेन्द्र
अरुण अवध ने कहा…
कुमार अम्बुज से पूरी सहमति के साथ इस मूल्यवान टिप्पणी के लिए ब्लॉग को बधाई देता हूँ।

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