पखेरू जानते हैं : वसंत सकरगाए





वसंत सकरगाए जीवन जगत की बेहद साधारण वस्तुओं में असाधारणता रोप देने वाले कवि हैं. अपने अलमस्त और लगभग लापरवाह स्वभाव के विपरीत कविताओं में वह बेहद सावधान हैं, लेकिन यह चालाक नहीं मासूम सावधानी है एक क़स्बाई व्यक्ति की जिससे गुज़रते हुए आप थोड़ा और सहज हो जाते हैं. कभी उनकी कविताओं पर विस्तार से लिखने का मन है.   



किताबघर से प्रकाशित उनका ताज़ा कविता संकलन "पखेरू जानते हैं" हाल ही में मिला था. अभी उसमें से ही कुछ कविताएँ 

उनका पहला संकलन यहाँ और यह संकलन यहाँ उपलब्ध है






जनेऊ

ब्राह्मण कुल में जन्मा और जनेऊ धारण नहीं किया
मेरा तो यह जीवन अकारथ गया
हाय! मैंने यह क्या किया

ऐसा नहीं कि मेरा ब्राह्मणत्व कभी जागा नहीं
और मैंने पहनी नहीं जनेऊ 
लेकिन जनेऊ को लेकर तजुर्बे मेरे कभी ठीक-ठाक नहीं रहे,
मसलन-
एक बार नर्मदा में तैरते समय 
मेरे हाथों में उलझ गया था जनेऊ
और मुझे डूब मरने से बचाने की
मानवीय भूल की थी कुछ लोगों ने

ऐसे ही कार का स्टेरिंग घुमाते समय एक मर्तबा
मेरा बायाँ हाथ फँस गया था जनेऊ में
कि सामने से आ रहे ट्रक के ड्रायवर ने
ठीक वक्त पर मोड़ दिया ट्रक दूसरी दिशा में
वो तो गनीमत थी कि बावजूद इसके
कि ट्रक का ड्रायवर मुसलमान था 
जबकि मेरी कार पर लिखा हुआ था जयश्री राम


और तो और मेरी एक प्रेमिका
रुठकर जो गई,फिर लौटी नहीं मेरे जीवन में
उसने जब फैलायी थीं बाँहें
जनेऊ में उलझा मेरा हाथ बना नहीं पाया बाँहें 

तब से जनेऊ टाँग आया था
हरसूद के पुश्तैनी घर की किसी खूँटी पर
हालाँकि घर के बड़े-बुजुर्गों ने नाक-भौं सिकुड़ते हुए
मशविरा दिया था कि जनेऊ जाकर सिरा दूँ
बाईस किलोमीटर दूर नर्मदा के बड़केश्वर घाट पे
पर मैंने सोचा क्यों जाना इतनी दूर
जबकि नर्मदा को खुद आना है 
सबका सबकुछ सिराने हरसूद

बहरहाल,जनेऊ को लेकर
मेरा ताजा अनुभव यह है चुनाव के ठीक पहले
कि तमाम किस्म की दीर्घ और लघु शंकाओं के मद्देनज़र
विकास-दर के ये तमाम आँकड़ें
नोटबंदी, रोजगार और किसानों के नृशंस हत्यारे
पता नहीं कैसे हो गए मैली गंगा में नहा कर पवित्र-पावन
कि एकाएक उछलाकर ऊपर लाए गए 
और जिनके कानों पर लेपटे जा रहा है कसकर जबरन जनेऊ
मुझे तो सचमुच बड़ी कोफ़्त हो रही है
ऐसे देशद्रोहियों पर
जो सबकुछ अनसुना कर सिर्फ हगने-मूतने के लिए
लपेट रहे हैं कान पर
जनेऊ।



लापता हो रहे हैं पते वाले पेड़

अब तो खैर,
घरों में होता नहीं पेड़ों का अतापता
लेकिन कभी पेड़ भी होते थे हमारे घर का पता

पूछने वाले को बताया जाता था-
वो देख रहे हो ना!जामन का दरख़्त
उसी के साये तले रहते हैं
मियाँ वजाहत

फ़कत इसलिए होती थीं गलतफ़हमियाँ
डालचंद के लगा अमरुद का पेड़
छोड़कर अपनी जड़े अपना व़जूद
आकर छा जाता था पड़ोसी रामरतन के घर
और आनेवाला शख़्स ठीकठाक शिनाख़्त किए बगैर
धड़धड़ाता घुस आता था
डालचंद के बजाए रामरतन के घर
होते-होते दाख़िल-हाज़िर
चमेली और हरसिंगार की बारिश से तरबतर
खुश्बू और पुलक रंगों से भीग जाता था उसका मन

अब तो खैर,
अदद के दायरों में हैं हम और पते हमारे घर के
पेड़ भी कहाँ बख्शे गए हैं घने जंगलों के
उनके तन भी लिख दी जाती है जात की अदद
यानि नाम नहीं, शहर में जरूरी होता है घर का नम्बर
जंगल महकमे के रिकॉर्ड में पेड़ गिनतियों में हैं दर्ज़
कि आसान हो मृत-पेड़ की पहचान
जैसे ज़रूरी होता है निधन की दुःखद सूचना के साथ
कि नहीं रहे अमुक-अमुक नम्बर वाले फलाँ-फलाँ साहब

अब तो खैर ऐसा होता नहीं,
कहीं बीचोंबीच लगे नीम जामुन या पीपल के पास
हम जाते थे रास्ता बनाकर बाअदब़
उसी के ईर्दगिर्द धीरे-धीरे फूटते थे चौरस्ते
किसी रस्ते पर होता था हमारा घर
और घर में जैसे कोई बुजुर्ग
ऐसा होता था कोई घना शजर

कभी यूँ भी होता था हमारे घर का पता।


इन दिनों में
               
इन दो दिनों,बहुत सताती रही तुम्हारी याद
बहुत याद आयी तुम इन दो दिनों में

इन दो दिनों,बहुत तेज रही शीतलहर
ठिठुरती रही धरती 
उदिग्न हुआ ऊष्मित सूर्य 
लाँघी नहीं किंतु कोहरे की झिलमिल मर्यादा-
'प्रेम कितना भी अंतरंग हो,सार्वजनिक न हो
टूटे न कोई वर्जना, तो शाश्वत है प्रेम'
तुम जैसा चाहती थीं,सब वैसा यथावत रहा

आदी से अब तक खुलते रहे स्मृतियों के पृष्ठ 
मैं डूबकर पढ़ता रहा शब्द-शब्द
बिल्कुल ताजा मिले प्रेम के अर्थ-कलाप
हालाँकि इन दो दिनों
शुभप्रभात-शुभरात्रि
इतना भर रहा हमारा संवाद

मुझे रहा इतना तक याद
तुम्हें पसंद नहीं पहले से काटकर रखा हुआ सलाद,
फ्रीज में रखे हुए हैं ज्यों-के-त्यों
ककड़ी,मूली,प्याज,गाजर,टमाटर और शलजम
तुम बिन यूँ भी मेरा खाना रसहीन रहा,
हालाँकि मन-ही-मन फूली नहीं समाओगी
पाकर मेरा बढ़ा हुआ यह प्यार
मगर इतराकर,
मुँह बिचकाकर
कहोगी मुझे चिढ़ाने के लिए-
ऊँ हूँ...शायद!

                                     



चिड़िया भी होता है कविता का नाम

यूँ ही नहीं टूटती कविता की लय
कोई छंद नहीं बिखरता अकारण

रागरागिनी गानेवाली चिड़िया को
नहीं मिली होगी रियाज़ भर छाँव
इतने सूख गए पोखर और ताल
कि कर न सके गला साफ़
तब कोई चिड़िया आकर बैठती है 
किसी कवि की खिड़की पर-

और कवि को पता न हो
कि चिड़िया की यह मर्मांत चहचहाहट
लगता हुआ नारा है उसकी खिड़की पर
ये धरना,ये प्रदर्शन
कि वो लिखवाना चाहती है
एक विज्ञप्ति किलप-क्लांत
कमरे में घिन्नाते पंखे के
इस शोषण के खिलाफ,
कि क्यों खींची जा रही है उसके हिस्से की
सारी हवा,नमी सारी, सारी शीतलता

शोर करते तेज रफ़्तार पंखे ने
अनसुनी की होगी हर बात
तब उसे लगा,पहुँचाने अपनी आवाज
जाना चाहिए और पास

लेकिन इस त्रासद सच से अंजान
कि आदमी ने कर लिए इतने बटन ईज़ाद
कि दुनिया की किसी भी हवा पर
उसी का हक सारा,सारा हिसाब-किताब

एक चिड़िया जो आयी
तेज रफ्तार पंखे की चपेट में
सुनी नहीं गई जिसकी अंतिम चीख़-पुकार
कवि की चलती हुई कलम को छूते हुए
गिरी काग़ज़ पर लहूलुहान

यह निखालिस मौत नहीं एक चिड़िया की
टूटना है कविता की लय का 
बिखरना है किसी  छंद का।





किताबें कभी दबकर नहीं मरतीं

तनी हुईं इन अकड़बाज दीवारों को
जन्मजात गलतफ़मी यह होती है
कि इनके मुकाबिल कोई औकात नहीं होती किताबों की

ज़मीन में गहरी पैठ के बावजूद
बार-बार हिलडुलती हैं और डराती हैं लोगों को
बड़ी उलजुलूल दलीलें होती हैं दीवारों के पास-
कि जिन्दगी की बुनियाद मजबूत करनेवाली किताबें
कभी खड़ी नहीं हो पाती अपने बूते पर,
तितर-बितर टेबल पर
मुर्दा पड़ी रहती हैं आलमारियों में सालोंसाल,
पसंद न आने पर चलती ट्रेन से
फैंक दी जाती हैं खिड़की से बाहर
किसी ज़ख्मी परिंदे की मानिंद
फड़फड़ाती मिलती हैं रेल की पटरियों के आसपास,
रद्दी के मोल मिलती हैं हाथठेलों पर,
फुटपाथ पर धूल फाँकती हैं सेकेंडहेंड किताबें,
ज्यादा दमखम नहीं होता किताबों में,फिर
ताकत ही कितनी लगती है इन्हें चिथड़ा-चिथड़ा करने में

उधर एक ईंट तो हिलाकर तो देखिए हम दीवारों की
कत्लेआम हो जाता है समूची सभ्यता का
पसीने छूट जाते हैं सियासतों के
दीवारें कभी प्रतिबंधित नहीं होती
किसी किताब की तरह

दीवारों की बेतुका इन दलीलों को जब
कहीं तब्बजो नहीं मिलती
तब हाथों में हाथ लिए
दीवारें अक्सर ढह जाती हैं किताबों पर
लेकिन किताबें हैं कि दबकर नहीं मरतीं कभी

होता हैं बल्कि यूँ
कि दीवार ढहने के दौरान कुछ लोग जो होते हैं
किताबों के सर-ब-सद्अ में 
खून से लथपथ होने के बावजूद
किताबों को बाख़ैरियत निकाल लेते हैं मलवे से बाहर
और अकड़ खड़ी फिर किसी दीवार पर
लिख देते हैं किताबों की कुछ जरुरी नसीहतें!





पखेरु जानते हैं

               (एक)

भाँप लेते हैं मरणासन्न स्थिति को
पता चलता है उन्हें ही सबसे पहले
आम हो या खास,सारे जतन बेकार
अब ज़िंदगी नहीं होगी माफ़

परिजनों की चीख़-पुकार ह्रदय-विदारक प्रलाप
ताप महसूसते हैं फट पड़ने का सबसे पहले 
इसीलिए आते हैं अपनी भाषायी संवेदनाएँ लिए
और हम,उन्हें नज़र अंदाज़ कर देते हैं

घर की मुंडेर, अस्पताल की खिड़कियों पर बैठे बेचैन
फँख फड़फड़ाते बार-बार
झाँकते हैं पल-पल हर जायज़े के भीतर तक
यहाँ तक की इस बदहवास 
परकतर सड़क-यातायात से होते हुए दो-चार
बचते-बचाते हर चोट-चपेट से
आकर बैठते हैं घड़ी-दो-घड़ी
हताहत देह के आसपास

यूँ ही नहीं तकते शून्य में आकाश

जैसे ही शुरु होता है हमारा रोना-धोना सिर-पिटना
वे आसमान में भरते हैं लम्बी उड़ान
कि तन के पिंजरे से अभी-अभी आज़ाद
आख़िरी तड़प के बाद संगी साथी की देख पहली स्वतंत्र मुस्कान
खुलते ही परवाज़;खुलती हैं कितनी ही बातें कितने ही सवाल;
कि थकी देह के भीतर क्यूँ है संतापों का इतना विस्तृत संसार
क्या पिंजरे के भीतर से भी,दिखता है वैसा ही
बाहर का यह जंजाल
कैसे जिरता होगा दाना-पानी
पिंजरे पड़े-पड़े
बिना उड़ान
उड़कर पँख चार साथ-साथ
साझा करते हैं दिल का हर हाल
पखेरु
प्राण-पखेरु से

       (दो)

हमारी अनिवार्यताएँ जब करने लगती हैं आनाकानी
होने लगते हैं धीरे-धीरे आत्मीय से औपचारिक
ह़द दर्जा चालक और इतने कपटी
कि सामान्य भावदशा पर पहले से तय हमारा मोबाइल
एकाएक बदल जाता है शांत या कंपन की मनोदशा में
और जताते हुए कि आ रही है किसी की बहुत ज़रूरी पुकार
करते हुए झूठमूठ बातचीत का बहाना
खिसकने लगते हैं धीमे से शवयात्रा को छोड़
गमज़दा भीड़ से दूर
तब वे ही होते हैं हमारे-अपनों के सच्चे हमराह
दूर तक जाते हैं विदा करने
पखेरु जानते हैं-
जातीय धर्म निभाना

               (3)

(एक संदर्भ:भोपाल गैस कांड)

काल से काली,ज़हर से ज़हरीली
भोपाल ठिठुरा इतना उस रात
साँसें जहाँ,जम गई थीं जहाँ की तहाँ
पिंजरों में बंद रह गए थे फड़फड़ाकर तौता-मैना
दिन की पाली से लौटे थके-माँदे
ज़्यादातर पँछी-पखेरु तो खैर
फड़फड़ा भी नहीं पाये थे
खुद को आख़िरी बार
इतने तंग थे उनके तिनकों के आशियाने

जो थे बेघर-बार और लटके पड़े थे टहनियों पे
टपककर छटपटा रहे थे सड़कों पर
लोगों के संग-साथ
तड़प रहे थे दरअसल
पखेरुओं के भी प्राण-पखेरु
पखेरुओं के लिए
उस रात

उधर, रात पाली में कर्त्तव्य पर तैनात,चिमगादड़
करते-करते प्राण पखेरुओं को अतिरिक्त समय तक विदा
लौटे इतनी देर से कि
आँखें चौंधियाने लगी थीं काले सूरज की मनहूस रौशनी में
एक तो गहरी थकान जिस पर हड़बड़ी वापसी की
कई तो उलझकर रह गए थे बिजली के तारों में
आते-आते कमला पार्क स्थित
पेड़ों पर अपने मुकाम

पता नहीं हुई कि नहीं
जामा मस्जिद में अज़ान
आरती बड़वाले महादेव मंदिर में
हमीदिया रोड के गुरुद्वारे में अरदास
पर इनमें शामिल नहीं रहा होगा
कबूतरों की गुटरगूं का संगीत
अगली सुबह

हालाँकि हर बात को हूबहू पकड़ने में माहिर
ज्यों की त्यों आवाज़ निकालने के उस्ताद
कुछ उल्लुओं की यह दलील
कतराती रही उत्तरदायित्व की कसौटी पर
भला हम कहाँ भर पाते हैं आसमान में लम्बी उड़ान
बहुत हुआ तो हो लिए
इस शाख से उस शाख
और लोग हैं कि हमारी विवशताओं को
समझने-समझाने के बजाए
ले जाते हैं कहाँ से कहाँ...
जहाँ-तहाँ।
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 2 फरवरी, 1960 (वसंत पंचमी) को हरसूद, जो अब जलमग्न हो चुका है, जिला खंडवा मध्य प्रदेश में जन्म

इसके पहले एक कविता संग्रह 'निगहबानी में फूल' वर्ष 2011 में प्रकाशित

 मध्य प्रदेश साहित्य सम्मेलन का वागीश्वरी सम्मान और मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का दुष्यंत कुमार सम्मान
बाल कविता ‘धूप की संदूक' केरल राज्य के माध्यमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल





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