प्रेम लहरी : मिथक, इतिहास और किस्सागोई


प्रेमलहरी मुग़ल शहज़ादी और एक कवि के प्रेम का आख्यान है. आप इसे असफल प्रेम का आख्यान भी कह सकते हैं लेकिन प्रेम तो अपने होने में ही सफल हो जाता है. एक स्पर्श में, एक चुम्बन में, एक भाव में... उसकी असफलता और सफलता के पैमाने किसी खेल की जीत-हार से कैसे हो सकते हैं? त्रिलोक जी ने उस कथा को इतिहास और लोक स्मृति के सहारे जीवित कर एक बार और "सफल" कर दिया है. पढ़िए उसी से एक हिस्सा 


नीर-भरी दुःख की बदरी


अल्हड़ लौंगी ने जब जवानी की दहलीज़ पर पैर रखा तो उसके कदम भोग-विलास की महकती दुनिया की ओर मुड़ने के 
बजाय कल्पना और भावुकता के स्वछन्द आकाश की ओर बढ़ चले। वेदना के पंखों ने उसमें उड़ान की तरंग भरी और 
लौंगी उड़ चली बेलौस शायरी के खुले आसमान में।


राजसी दंभ की दुनिया से नीचे उतर लौंगी ने मामूली लोगों के सुख-दुःख और सरोकारों को अपनी कविता का विषय बनाया।
उन्हें और चटकार बनाने के लिए उसने कुदरत के कारनामों को अपनी कविता में रूपक की तरह प्रयोग किया। जानवरों की
जिंदगी की मिसाल देकर उनमे  मानवीय भावनाओं का रंग भरा।


वह अक्सर गाती गुनगुनाती रहती। आमों की अमराई उसे भातीमहुआ की बौराई उसे लुभाती। वह चाहती सारे बंधन तोड़ 
कर बाहर गलियों में भाग जाये। वहां कूदती-फुदकतीलोगों के छोटे-छोटे सरोकारों से वह जुड़ जाना चाहती। वह चाहती 
उनके सुख-दुःख उसके अपने हो जाये। महल के परकोटे पर खडी लौंगी दूर धूल में खेल रही बच्ची को देख कर रस्क से 
भर जाती। उस बच्ची जैसी आजादी उसे भी चाहिए। उसे भी अपनी अम्मा चाहिए चाहे वह वैसी ही हो तो क्या जैसी खेतों में
 काम कर रही उस बच्ची की मां। लेकिनअपनी सीमाओं और बंदिशों को सोच कर वह बिसुरने लगती :

                      

इत कैद हुयो मोरी रूह/ मन हुयो उस छोरी सौं,
जा दौर रही उन खेतन माँ/ जहाँ अम्मा वाकी मजूरी कर्यो

वेदना के गीत गाते-गाते लौंगी कल्पना की अदृश्य दुनिया में समाने लगती। उसे रहस्यमय संसार से अज्ञात प्रेमी का निमंत्रण
 सुनाई पड़ने लगता। कल्पना के मुक्त गगन में वह उड़ान भरती और गुनगुनाती :  

            

मैं उड़ोयोमैं चल्योमैं गयो अब आसमान के पार।
मोहें बुलाय रह्यो उहाँ मोरा साजन चमकदार।

फिर सोचने लगती कौन है मेरा साजनकौन है जो मुझे बुला रहा हैकाली कमली वाला है या नीली छतरी वाला?  


कौन है तूं जो मुझे बार-बार आवाज़ दे रह्यो बैठके ऊपर नीली छतरी पर।


फिर सोचती क्या वह वहां रहता है जहाँ मोरी अम्मा गयी। माँ वहां क्यों गयी हमको  छोड़करमैंने तो माँ को देखा तक नहीं,
फिर वह हमें क्यों छोड़ दीफिरवह अचानक गहन उदासी से भर जाती। वेदना जब और गाढ़ा होने लगती तो उसकी 
आँखों से झर-झर नीर बहने लगता और दर्द-भरे गीत फूट पड़ते :

                     

काहें को छोड़ी मोहें मैया मोरी/ काहें को गयो बहिश्त मैया मोरी।

लौंगी अपनी ही धुन में गुनगुनाती रहतीगाती रहती। कोई नयी तुकबंदी बैठते ही दौड़ पड़ती उसे कागज पर लिख लेने को 
और जल्दीजल्दी आड़ी-तिरछी लकीरों पर उन्हें घसीट डालती। ऐसा नहीं कि वह हमेशा तुकबंदी की ही कोशिश करती।
 भावनाओं का प्रबल प्रवाह उफनते ही वह शायरी और नस्र (गद्य) का फर्क भूल जाती और घायल हिरनी की तरह उसकी 
अभिव्यक्ति कुलाचें मारने लगती। फिर तो न भाषा की फ़िक्र और न उसके व्याकरण की चिंता। बस बहती रहती सघन वेदना 
की प्रगाढ़ धारा। 


लौंगी में सिर्फ भावुक कविता ही जन्म न ले रही थीबल्कि विद्रोह के स्वर भी उभर रहे थे।  एक बार शाही कुनबे में कुछ 
तनाजों के बाबत बात करने के लिए जहाँआरा रोशनआरा के महल गयी थी। साथ में लौंगी भी थी। दोनों बहनों के बीच 
बात चलते-चलते दाराशिकोह और औरंगजेब के बीच चल रहे अदावत पर जा पहुंची। जहाँआरा का कहना था कि दो भाइयों 
के बीच इस तरह की रंजिश वाजिब नहीं है और इसका दोष वह औरंगजेब के कट्टरपन पर डाल रही थी।


औरंगजेब की हमेशा तरफदारी करने वाली रोशनआरा इस बात से भड़क गयी। उसने औरंगजेब का बचाव करते हुए कहा कि
वह अपने दीन और ईमान पर कायम है जबकि दारा भाईजान अपना दीन भूल कर काफिरों के जाल में फंस गए हैं। उनका
मुंशी चन्दरभान बरहमन बहुत बदमाश है। बनारस का वह काफ़िर फ़क़ीर कबिन्दराचारज काफी दिनों तक भाईजान को 
बहकाए रखा। वह गया तो उस काफ़िर शायर जगरनाथ को भाईजान के पीछे लगा दिया। उस शातिर शायर ने तो भाईजान के 
साथ-साथ अब्बा हुजूर पर भी जादू चला रखा है। अब्बा हुजूर ने तो उसे शाही शायर का भी खिताब दे रखा है। सुनते हैं 
भाईजान उसको काफी अहमियत देते हैं और उसके साथ मिलकर हिन्दुओं की कोई मजहबी किताब का तर्जुमा कर रहे हैं।
 हमें तो डर है कि उसकी पैठ जनाने में न हो जाय और महल की कई खवातीन उसके जाल में फंस न जायं।


इसी बीचलौंगीजो दोनों बड़ी बहनों की बातचीत में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही थीउबकर गुसलखाने चली गयी।
 जिज्ञासावश वह गुसलखाने से लगे बगलवाले कमरे में झांकने लगी तो उसे लगा वहां कोई बैठा है। इत्मीनान करने के लिए 
जब वह उस कमरे में गयी तो देखा कि वहां एक गठीला मजबूत नौजवान है जो लौंगी को देखकर बेहद डर गया और 
हथेलियों से अपना मुंह छिपाने लगा। उस अजनबी मर्द को वहां देखकर लौंगी की चीख निकल गयी।


लौंगी की चीख सुनकर दोनों बड़ी बहनें दौड़ पड़ीं। तब तक लौंगी भागकर उनके पास पहुँच चुकी थी। उसने घबराये हुए स्वर
में कहा कि भीतर एक अजनबी मर्द बैठा है। रोशनआरा ने पहले तो उसे यह कहकर बहकाना चाहा कि उसे गलतफहमी हुई 
होगी। लेकिनजब लौंगी अपनी बात पर अड़ गयी तो रोशनआरा ने बेशर्मी से कहा कि तुम लोग भी उस मर्द से मजे ले लो 
और इस वाकये को भूल जाओ। जहाँआरा ने तो टका-सा जवाब देते हुए कहा कि तुम्हारा मर्द तुम्हे ही मुबारक हो। हमने 
अपना इंतजाम कर रखा है। ” लेकिनलौंगी बहुत नाराज हुई और लगभग चिल्लाते हुए बोली कि तुम को अगर मर्द रखने का 
इतना ही शौक है तो निकाह क्यों नहीं कर लेती?”


रोशनआरा चिढ़ कर बोली क्या तुम जानती नहीं कि हम शादी नहीं कर सकतीफिर जानकर अनजान क्यों बनती हो
हम अपनी जिस्मानी भूख मिटाने कहाँ जायं?”


जहाँआरा गहरी साँस लेते हुए दुखी होकर बोली, “काश हम शाहजादियाँ न होतींबल्कि किसी गरीब मजदूर की बेटी होतीं तो
 हमारी भी शादी होतीहमारे भी बच्चे होते। 


उनकी बातों पर लौंगी बेहद खफा हो गयी और सारे अदब-लिहाज ताक पर रखते हुए हुए बोली, “तुम लोग बुजदिल हो। 
तुम किस बात की शाहजादी हो जब अपनी जिंदगी के अहम फैसले खुद न ले सकती?”


लौंगी को खुश करने और समझाने की गरज से जहाँआरा बड़ी नरमी से बोली, “मेरी प्यारी लौंगीतुम अभी इन बातों को नहीं
 समझती हो। 


जहाँआरा की इस बात पर लौंगी चिल्लाने ही वाली थी कि बीच में रोशनआरा बोल पड़ी, “क्या तुम ऐसी जरूरत पड़ने पर 
शादी करोगी?” 


हाँमैं जरूर करुँगी अगर हमें जरूरत महसूस हुई। हम जो भी करेंगे पूरी शिद्दत और इमानदारी से करेंगे,” लौंगी ने लगभग 
चीखते हुए कहा।


दोनों बड़ी बहनें लौंगी की बात और अंदाजे-बयाँ पर सकते में आ गयीं। लौंगी का यह रूप उनके लिए बिलकुल नया और 
अजनबी था। जिस लौंगी को वे सिर्फ अल्हड़ और शोख बच्ची समझती थीं उसके बगावती तेवर देखकर वे सहम गयीं।


अपनी बहनों को घबराता देख लौंगी ने अपना रुख कुछ नरम किया और माहौल को हल्का करते हुए बोली, “मैं किसी 
जिस्मानी जरूरत के खिलाफ नहीं हूँलेकिन ऐसी जरूरत को छुप-छुप कर चोरी से पूरा किया जाय इसकी मैं हिमायती नहीं।
 मेरी नजर में यह गुनाह है। यह क्या बात हुई कि मर्द कई-कई शादियाँ करें और हम एक भी न करें?”


बात को वहीँ दबा देने की गरज से जहाँआरा लौंगी को लेकर जल्दी से अपने महल लौट आयी। जहाँआरा को डर था कि 
लौंगी अपने आजाद ख्यालों से कोई हंगामा न खड़ा कर दे। वह खास तौर पर फिक्रमंद थी कि दाराशिकोह और औरंगजेब की
आपसी अदावत से शाही कुनबे में रार की नींव पहले ही पड़ चुकी थी। अब लौंगी की बदमगजी से खानदाने तैमूरिया की 
इज्ज़त धूल में न मिल जाय। लेकिनलौंगी बेफिक्र अपने वसूलों पर बदस्तूर कायम थी।
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त्रिलोक नाथ पाण्डेय 
सरकारी सेवा से रिटायर होने के बाद लेखन. इस उपन्यास के बाद कुछ और
किताबें जल्दी ही.

प्रेम लहरी अमेज़न पर उपलब्ध है. पाने के लिए यहाँ क्लिक करें
इसका अंश पाठ यहाँ सुनें. 



टिप्पणियाँ

दीपेन्द्र झा ने कहा…
अभी अमेज़न पर आर्डर किया है।जबसे जुड़ा हूँ तबसे आपके पोस्ट पढ़कर पुस्तक को लेकर मुझे कोई संदेह नहीं है। आश्वस्त हूँ के इस प्रेम कहानी के बहाने इतिहास के साथ तात्कालिक सामाजिक अवस्था और काशी के बारे में भी बहुत कुछ जानने समझने को मिलेगा।
कौशल लाल ने कहा…
अद्भुत ऐतिहासिक किस्सागोई, एक बार फिर से पढ़ रहा हूँ।इसपर प्रतिक्रिया में कई बार लिखना चाहता, लेकिन फिर पढ़ने में लग जाता।

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