मृत्युंजय की कविताएँ
हिन्दी कविता की
दुनिया का तो नहीं पता लेकिन आलोचना की दुनिया 'प्रतिबद्ध'
और 'कलावाद' की एक अबूझ
बायनरी और दोनों ही पदों की एक भ्रष्ट समझ से बनती है अक्सर. कला की उपस्थिति को
कलावाद मान लेने का एक असर यह हुआ कि कुछ कवि और अधिक कला की खोल में छिपते चले गए
और कुछ कवि कलाहीनता को बैज की तरह सजाये दूसरों को सर्टिफिकेट बाँटते रहे.
लेकिन कवि वही
सफल हुए कविता कर पाने में जिन्होंने न इनकी सुनी न उनकी और कविता को
साधते रहे, प्रतिबद्धता को माजते रहे. मृत्युंजय इसी अर्थ में सफल कवि हैं वरना तो
अभी तक उनके नाम कोई ढंग का संकलन भी नहीं. एक जो आया था वह कहीं उपलब्ध नहीं,
दूसरा जो आना है उसमें कवि की अरुचि अद्भुत.
बार-बार के विनय और अंततः धमकी के बाद
मिली इन कविताओं को धीरज से पढ़िए. शान्ति से. फेसबुक बंद करके थोड़ी देर. ख़ुद को
खाली करके. ख़ुद को भरके. ये आसान लगने वाली लाइनें आसान नहीं -
सोच रहा हूँ कवि
हूँ तो दुनिया से ही ले लूँ छुटकारा/ सोच रहा हूँ कवि हूँ तो इस दुनिया से क्या ही
छुटकारा/ सोच रहा हूँ कवि हूँ तो इस
दुनिया में ही है छुटकारा
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Gerhard Richter की पेंटिंग "Fieldnotes" |
बेनिशान
क:
गर्द
कलेजे में भरती सी उठती सी थमती सी
नुचे
परिंदों की जुबान पर गिरती सी जमती सी
भूरी
सी गाढ़ी सी सूखी गति में थिरती सी
दिल
के दाग बढ़ाती जैसे दिल को ढँकती सी
का:
रात
आँख में थी बिहाग की सर्द लहर हाँ
खुभ
जाए नीले काँटे का बर्क जहर हाँ
हाँ
ऐसे में पानी के ही सपने आए जादू
जाने
कितने जुग के भूले अपने आए जादू
जादू
गिरकर टूटा पत्थर से फैला मुरझाया जी
बिखरा
था जो गुमा यहीं पर था मेरा सरमाया जी
जी इस
खोने से चाहू हूँ बचा रहे खो जाय नहीं
बेचैनी
की झील नहाए सुन्न महल में जाय नहीं
नहीं
रात को रोको आशिक रहो नहीं हाँ
नहीं
कुफ्र की बात पियारे करो नहीं हाँ
कि:
अपनी
ही राह चले जाते हों गोया
छुड़ाके
बाँह कहीं जाते हों गोया
गोया
सियाहियों में गिरे हों खयाल की
ख्वाब
महबूब बने जाते हों गोया
की:
आसमान
में याद का दरख्त उलटा खड़ा था
कत्थई
रंग डूबती थी घास वस्ल का किस्सा पड़ा था
थम
गयी करुणा ठिठककर रास्ता पिंजर मढ़ा था
वह
हरफ जो मिट गया किसने पढ़ा था
कु:
शीत
की अर्जियाँ मुकम्मल थीं शाम ढली
होंठ
पर भाप की पंखुड़ियों ने पर खोले
चाँदनी
चूम रही पृथ्वी की पेशानी
आग के
होने से हुई दुनिया इश्क हुआ
सोच
रहा हूँ
सोच
रहा हूँ
नीले
धौले फूल खिले हैं
बहुत
दिनों के बाद आज मन हल्का सा है, बाल खुले हैं,
पाल
खुले हैं इंतजार में खड़ी नाव के, समझो तो कितन
ही
रस्ते बुला रहे हैं, हल्की गुनगुन धूप,
लड़कियां खेल रही हैं
शीत
रुई सी उनकी नाकों को सहलाती भुने हुए आलू की खुशबू
ताजे
गुड़ की गमक गाँव के सिर बैठी है, चमक रहीं बैलों की सींघें
काठचिरैया
बुला रही है, हरे-हरे गेहूं के
दानों दूध पड़ गया
मगन
भैंस सिर झुका नाद में खोज रही कुछ, छटक-मटक करता है पड़रू
सोच
रहा हूँ भली भली बातें दिमाग़ में आती जाएँ
थोड़ा
सा ही सही भेद जलकुंभी पानी दिख तो जाए
छिप
जाए वह गू जो पानी के ऊपर ही तैर रहा है
पर
ऐसा होगा कैसे यह सोच रहा हूँ
खुले
बाल जो धूल सने हैं, मन हल्का है आँख फेरकर
वही
नाव जो बीच थपेड़ों फेंक दी गयी
पाँवों
के छालों के नीचे रस्तों पर काँटे बिखरे हैं
हल्की
गुनगुन धूप कड़ी हो अभी नोंच लेगी शीतलता
घर
जाएँगी चूल्हे चौके यही लड़कियाँ शीत खरोंचेगी नाकों को
भुने
हुए आलू ही होंगे भोजन पूरा
ताज़े
गुड़ को टका मोल भी नहीं ख़रीदेगा कोई भी
सींघें
चमकाते पशुओं को भूसा चोकर-खरी मिलेगा नहीं
काठचिरैया
की बोली यों ज़हर लगेगी, हरे-हरे गेहूँ पाले
में झुरा जाएँगे, जल जाएँगे
मगन
भैंस के हौदे में पानी ही पानी, दूध नहीं पाने से पड़रू छटक मटक कर रह जाएगा
सोच
रहा हूँ कवि हूँ तो दुनिया से ही ले लूँ छुटकारा
सोच
रहा हूँ कवि हूँ तो इस दुनिया से क्या ही छुटकारा
सोच
रहा हूँ कवि हूँ तो इस दुनिया में ही है छुटकारा
विनय
पत्रिका
गोईयाँ, मुझ को मुझ से ही डर लागे
रफ़ू
करो तुम जली चदरिया मैं ने नोचे धागे
आत्मवंचना
सधी इस क़दर आत्मतोष में जागे
सुख
डबरा ले ले छपकोइया नेह नदी हम त्यागे
इतना
मिला संभाल न पाए अधम कृतघ्न अभागे
भाव-विचार
कठिन रस्ता है गोड़ धरत अपराधे
विनय
पत्रिका में भी मैं ने मैं ख़ातिर वर माँगे
विरह
हिंसा
के इतने गहरे घाव हुए टाँके नामुमकिन
जर्राह
हमारी आत्मा के ऊँघे से दिखते हैं
चहुँओर
शोर है चाकू के तीखेपन का, तेजी का
जम्हूरी
बूचड़खाने में सौ सपने बिकते हैं
शिशुओं
की नरम हथेली झुलस रही इस भगदड़ में
जीवन
के तार तने इतने अब टूट गए
इतिहास
समुन्दर लहराया नावें ग़ायब
जो
ताने बाने थे भविष्य के छूट गए
तब भी
धरती है घूम रही लेकर पवित्र इच्छाएँ
वह
दूर देखती दर्द सम्भाले जाती है
यह
दर्द ढलेगा चीरेंगे दुःख झूठ-पाट
इसलिए
विरह के गीत सुनाती जाती है
वाबस्ता
कोई
दिन क़ैस देखने आना
ये
दर्द गीत के भुतहे जनानाखाने के
मोड़कर
पैर पेट बीच किए जाने से
उसी
के बीच ख़्वाब क़ब्र में पैदा होगा
जहाँ
की यादें गड़ीं बींध रही हैं कंठ तलक
वहीं
पे पैर दिए जाता जा रहा है वह
निशानदेही
करूँ पीछे चलूँ ज़ख़्म सिलूँ
करूँ
तो क्या न करूँ क्या करूँ करूँ न करूँ
नींद
में दर्द के लच्छे अजनबी तैरें
उनके
ही फंदे बनें और काठ उनका ही
जिस्म
के बोझ से गर्दन खिंची हो दम रुक जाए
आँख
कोरों से निकल ने निकलने वाली हो
रीढ़
के जोड़ टूटते हों बबल-रैप नुमा
ग़ज़ब
सी रात है कि आफ़ताब जलते हैं
धधकती
माटी का है आधा हाथ उट्ठा हुआ
दुखों
के बौर बांधे दिल सहमा टूट गया
एक ब
एक ख़ाक हुआ शाम है कि भोर हुई
याँ
अधटूटे
आईने की किरचें बिखरी हैं
सहमी-सहमी
पृथ्वी डर से काँप रही है
भाप
उठ रही है अंतर के अतल कुंड से
हँसते
हैं डर, हर टुकड़े में अलग-अलग
हो
पिंडलियों
में दफ्न दर्द बढ़ता जाता है
उबल
रही है त्वचा भाप से उघड़ रही है
और
हवाओं में चिथड़े हैं हर शोख़ी के
सांस-सांस
भीतर जाती है दुनिया थोड़ी
काट-काट
लाती है बाकी खालिस जीवन
और
ख़ुदकुशी के रस्ते पर सधे कदम से
जाता
जाता जाता जाता है पागलपन
मेरे
मुतरिब छू ले मुझको नजरों भर कर
इस
मुरदों के टीले में ही घर है मेरा
ख़ाक
जबीं पर निशानात होंगे लहरों के
सूना
सुर्ख रास्ता ऐसे खो जाएगा
ठिठुर
कर कांपती है रात
बबूल-फूलों
पर नींद से उलझते हैं जुगुनू
कटे
नाखून सा कोरदार है द्वितीया का चाँद
फन
काढ़े चौकन्ना-सा सन्नाटा है
हवाओं
के घोड़े पिछले पैरों पर स्तब्ध खड़े हैं
टूटी
धुरी वाला समय का रथ रुक गया है
कलाई
के इंतजार में ठहरा हुआ है पल
संभावना
के प्रेत उलटे पैर स्थिर हैं
रोशन
अंधेरों में गूंजी चीख भरी चुप लाओ
आओ
दिल में खंजर मारो जल्दी कदम बढ़ाओ
स्याह
सुबह की थकी हवा में दर्द पिरोओ जाओ
स्वादहीन
जीभों की खातिर थोड़ा नमक मंगाओ
रंग
गंध सब गायब सूनापन लहराया
फिर
से वही लबादा मैंने खोया पाया
जिसके
भीतर हवा बंद है दिल जख्मी है
देखो
मेरा कातिल मुझको यां ले आया
मौत
की गंध भाँप मुर्गे पंजों से जाली जकड़ लेते हैं
चींटियाँ
जहरीली गंध सूंघ कुनबे को खबरदार करती नया रास्ता बना लेती हैं
क्रूरता
भरी नजरों को सेकेंड के सौवें हिस्से में भांप जाती हैं स्त्रियाँ
मवेशियों
की पीठ पर बैठी चिड़िया कीचड़ लिपटी पूंछ से बचाव में थोड़ा-थोड़ा उड़ जाती है
स्पर्श
में भरे अपमान को सबसे बेहतर समझते हैं बच्चे
सीने
में सरिया लेकर भी सुअर भागती है कोसों
ततैया
का जहर निकालकर उड़ा देते हैं छोकरे
मृतात्माओं
का बोझ कंधे पर लाद इंसाफ के लिए लड़ते हैं लोग
सीखने
को कितना कुछ है इस कठिन समय में।
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आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 15 जून 2019 को साझा की गई है......... "साप्ताहिक मुखरित मौन" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 15 जून 2019 को साझा की गई है......... "साप्ताहिक मुखरित मौन" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!