नेपाली कविता : सरिता तिवारी की कविताएँ
नेपाली युवा कवयित्री सरिता तिवारी पेशे से शिक्षक और अधिवक्ता हैं और कविताओं के अलावा वहाँ के राष्ट्रीय दैनिक कान्तिपुर के लिए नियमित कॉलम लिखती हैं. प्रलेसं से जुडी सरिता जी के नेपाली में तीन कविता संकलन आ चुके हैं और अभी उनका एक संकलन हिन्दी में अनुदित होकर "सवालों का कारखाना" नाम से प्रकाशित हुआ है.
सरिता की कविताओं के विषयों का वैविध्य आश्वस्त करता है जहाँ भीतर-बाहर की उनकी यात्राएँ अपनी गहनता में देखी जा सकती हैं. सांस्कृतिक रूप से क़रीब होने के कारण उनकी कविताएँ हिन्दी के पाठक को अपने आसपास की ही लगेंगी. असुविधा में उनका स्वागत
सरिता की कविताओं के विषयों का वैविध्य आश्वस्त करता है जहाँ भीतर-बाहर की उनकी यात्राएँ अपनी गहनता में देखी जा सकती हैं. सांस्कृतिक रूप से क़रीब होने के कारण उनकी कविताएँ हिन्दी के पाठक को अपने आसपास की ही लगेंगी. असुविधा में उनका स्वागत
सबेरे
उठकर
खोलना
है घर का दरवाज़ा
साफ़
करना है कूड़ा-करकट और धूल
पोंछना
है फ़र्श
चमकती
हुई फ़र्श देखकर
मुस्कराना
है गृहिणी–मुस्कान
सँजोना
है बैठक
सँवारना
है शयनकक्ष
जैसेकि
जीतना है ओलम्पिक का स्वर्ण पदक
दौड़ना
है रसोईघर के भूगोल के ऊपर सुबह भर
चाय
चमेना
रसोई
भोजन
टिफिन
पानी
ख़त्म
होने के बाद यह सब आपाधापी
जैसेकि
कहीं अनन्त की उड़ान भरने की हों तैयारी
निकलना
है जीने के उपक्रम की
दैनिक
धावन मार्ग में
मानों
इन्तज़ार
करके बैठे हैं रास्ते के अग़ल-बग़ल
प्रकृति
की अशेष गीत गानेवाली चिडि़याँ
या
लालायित हैं आँखों से टकराने के लिए
हवा
के लय में नृत्य करने वाली तितलियाँ
लेते
हुए रास्ते की परिचित गन्ध
छिछोलते
हुए लोगों की भीड़
और
महसूस करते हुए हृदय में
चलते
रहने का आनन्द
पहुँचना
है कहीं, किसी नियमित गन्तव्य में
और
रखना है झोला
लौटना
है तेज रफ़्तार में
ठहरना
है आँगन के पृथ्वी पर
और
खोलना है दरवाज़ा
मेरे
इन्तज़ार में बैठे हुए हैं घर में
अनगिनत
बेफुर्सदी
कैलेण्ड़र
जैसा टँगा हुआ है
सुबह
शाम की निजी कार्यतालिका
और
उसी की महीन कोठरियों में
विभक्त
होना है प्रत्येक दिन स्वयं को तोड़कर
सिर्फ़
मैं जानती हूँ
मेरे
घर की दीवारों की लिपि
और
केवल मुझे ही है मालुम
कि
किस ओर है
मेरे
पसीने की स्याही से लिखा हुआ
गुमनाम
किताबख़ाना
जब
मस्त सो जाती है रात
थकान
से पस्त हो चुकी जान को
सौंपकर
सनातन बिस्तर के हवाले
डूबती-उतरती हूँ अवचेतन
लार
और वीर्य के अवचेतन समुद्र मे
और
किनारे में निकलकर
दुहराती
हूँ मन ही मन
गन्दगी
और पानी की
दुःख
और निर्वाण की
यात्रा
और गन्तव्य की
जीवन-भर की अकथ्य कथा
और
याद करती हूँ सोने से पहले हरेक रात
गृहस्थी
की अज्ञात प्रोफ़ाइल में सिकुड़ कर
बडी
घुटन के साथ साँस ले रही
कदाचित
पूर्ण न हो पायी कविताको।
पेट
अब
सबसे बड़ी बात है
पेट
तुम्हारे
दिए हुए विचार
एक
सांस में पीने के बाद पानी जैसा
सोचा
था
तृप्त
होगा पेट
विचार
का समुद्र लेकर चलने के बावजूद भी
ख़ाली
होने के बाद पेट
मिला
है भूख के उत्कर्ष में
नया
बोधिसत्व
बड़ी
बात मालूम होने के लिए
चाहिए
बड़ी ही त्रासदी
तुम्हारे
बनाये हुए मोक्ष के कुण्ड के ऊपर
जैसे
ही निकली हुई है लावा
नज़दीक
ही खड़ा किया हुआ
सपनों
का पिरामिड
अस्थिपंजर
के साथ ही
धूसरित
है ज़मीन में
एक
हाथ में पासपोर्ट
और
दूसरे हाथ में प्रवेशाज्ञा लेकर
उड़
रहा हूँ आकाशमार्ग में
और
सोच रहा हूँ
क्या
था मेरा जीवन का खोज?
क्या
था मेरा विचार?
क्या
था मैं?
अब
एक ही सत्य मिला है
विचारों
के भीड़ में
सबसे
निर्मम विचार है
पेट
प्रिय सुप्रीमो!
प्रिय
कामरेड,
क्या
सोच रहे हो तुम
क्या
ख़त्म हो गया युद्ध का मौसम?
मैं
तो अभी तक युद्धरत हूँ
जीवन
के कठोर सुरंग युद्ध में
अभी
तो मैंने
छोड़ा
नहीं है हथियार।
क्या
तुमने मेरा आविष्कार किया?
निकलकर
किसी आदिम गुफा से
पत्थरों
को रगड़कर जलायी आग
जंगलों
को साफ कर खडी की घर
चरागाहको
किया समतल और बना ली खेत
पसीना
और ख़ून का वीज बोकर खिलायी सभ्यता
चलती
रही कभी ख़त्म न होने वाली प्रेम की अनादि राह पर
आकण्ठ
डूबती हुई पार कि पृथ्वी के सभी सीमसार
और
भागती रही रास्ता ढुँढ़ने के लिए
घने
वर्षा-बन में अकेली–अकेली
महोदय
क्या
तुमने मुझे आविष्कार किया है
?
क्या
तुमने सिखाया है चिडि़यों को उड़ना?
फूलों
को खिलना?
नदियों
को बहना या हवा को सिसकारना?
चिडि़या
हूँ उड़ती हुई फैल रही हूँ
फूल
हूँ नित्य खिल रही हूँ
नदी
हूँ बह रही हूँ
और
हवा हूँ
गति
का गीत गा रही हूँ।
चलते
चलते कालान्तर यात्रा
अभी
अड़ा रही हूँ विश्राम स्थल में पैर
क्या
मेरे पैरों को तुमने आविष्कार किया
?
खोलते
ही धरती में
धूप
से सान लगाकर
उज्ज्वल
बनाया आँखों को
और
बनायी आँखें होने लायक
खोदा
छाती में
हज़ार
सपने इधर–उधर करनेवाला
दुर्गम
रेशम मार्ग
और
लिखा माथे पर भाग्य का अन्तिम फ़ैसला
क्या
तुमने बनाए मेरी आँखें और मेरे हाथ?
अपना
ही मेरुदण्ड और पसली निकालकर बनायी औजार
हर
बार
इन्सान
होकर जीने के लिए अन्तिम युद्ध सोचकर
लड़ती
रही युगभर केवल युद्ध
और
ढूँढ़ते हुए
युगों
से किसी ने छीन कर रखा हुआ
अपने
ही चेहरे का नक्शा
चलती
रही
सिने
में पागल आँधी लेकर
जैसे
कि,मिला हो कोलम्बस को कोई नया भूगोल
क्या
तुम्हे मिला था कहीं मेरा चेहरा?
यह
हवा किसकी है?
यह
मिट्टी और जल किसके हैं?
किसके
हैं इतिहास, धर्म और कला?
किसके
हैं विचार, शब्द और लय?
कौन
है सृष्टि का उत्तराधिकारी?
कौन
हूँ मैं?
केवल
तुम्हारी प्रदर्शनी में रखी हुई
निर्जीव, निर्विवेक,
निस्पृह गुडि़या?
सवालों
के अनन्त कीड़े चल रहे हैं मेरे जेहन में
मेरी
माँ के गर्भाशय और पिता की शुक्रकिट की धज्जियाँ उड़ाते हुए
मण्डी
में ढेर लगाया हुआ सब्जी जैसा
कौन
हो तुम मेरे अस्तित्व के ऊपर स्वामित्व का दावा करने वाले?
जन्मजात
मैं
लेकर आयी हूँ अपने साथ
एक
नैसर्गिक चेहरा
मैं
नहीं दूँगी किसी को
आविष्कार
का मोहर लगाकर
क्रूरतापूर्वक
अपने
अस्तित्व के ऊपर शासन करते रहना।
बाज़ार
के विरुद्ध
उसके
साथ चलने के लिए नहीं हैं पैर
बलात्
छीनकर
ले
गया वो मेरे पैर
और
उन्हीं के सहारे
चढ़
रहा है सुपर मार्केट की सीढि़याँ
चढ़
रहा है मल्टिनेशनल कम्पनी की लिफ्ट
और
लोगों की जान में फड़कते हुए
मार
रहा है सभ्यता की चेतना में छलाँगें
उसके
हाथ भी नहीं
मेरे
ही हाथों से खड़ा करता है कार्पोरेट बिल्डिंग
मेरे
ही हाथों से घुमाता है कीबोर्ड
मेरे
ही हाथ से जोड़ता है,
घटाता है और ठीक करता है हिसाब
और
रचता है मेरे ही हाथों से
कस्मेटिक
अर्थतन्त्र का
चक्कर
लगा–लगाकर ख़त्म न होने वाली भूलभुलैया
चेहरा
तो है ही नहीं उसका
इसीलिए
बनाया
है मेरे ही चेहरे का मुखौटा
वहीं
फिट किया है उसने
मेरे
ही नाप की कंचे जैसी आँखें
कंचे
की आँखों से
आदमी
आदमी नहीं दिखता है
दिखता
है केवल बाज़ारतन्त्र का गुलाम
उन
आँखों से देखने के बाद
एक
जैसा दिखता है गोबरैल और आदमी
गोबरैल
जो
आजन्म डूबकर रहता है आदिम नाली में
और
नाली को ही भाषा मानकर
नाली
को ही देश मानकर
उसी
की अखण्डता के नाम पर
बजाता
रहता है भक्ति संगीत
गाता
रहता है राष्ट्रीय गीत
इस
वक़्त
नहीं
हैं मेरे साथ कर्मशील हाथ
नहीं
हैं गतिशील पैर
बनाकर
नितान्त निरीह और अकेला
उसने
छोड़ दिया है मेरे पास केवल
मुख
और मलद्वार के बीच में
एक
अगस्ती पेट
खोपड़ी
खोलकर
मेरी
अन्तिम पूँजी निकालने से पहले
सोच
रहा हूँ
उसको
पराजित करने वाली
रॉकेट
लांचर जैसी
कविता
की भाषा
आपको
क्या लगता है दोस्तों
क्या
सम्भव है बाज़ार को भाषा से परास्त करना?
आदिवासी
इस
मिट्टी में गिरा हुआ आदिम बीज हूँ मैं
इसी
में उगा हुआ पौधा हुँ
यहीं
की हवा में साँस लेकर पला-बढ़ा
यहीं
के जल से तृप्त हुआ
यहीं
गड़ी हुई हैं मेरी जड़ें
इसी
के ऊपर फैली हुई हैं मेरी शाखाएँ
इसी
मिट्टी से बना हूँ मैं
इसी
में खड़ा वृक्ष हूँ
ऋतुओं
को बदलते
यहीं
गिरा हूँ और फिर उगा हूँ
सहता
रहा यहीं
सर्दी
की कठोर ठण्ड और वर्षा की अनवरत बारिश
इसी
धरती की शारदीय छटा में
मिलायी
अपनी यौवन की लाली
कालान्तर
से
वैसे
ही जी रहा हूँ यहाँ
पचाया
हवा और जल
हाथी
की सूण्ड में लपटते हुए
गैण्डे के पैर के
नीचे घिसटते हुए
बाघ–तेंदुएँ से लड़ते–लड़ते
रचा
हूँ इस श्रापित कालापानी में
सुनहरी
उपत्यका
यह
मिट्टी मेरी माँ है
इसी
का लिखा हुआ आख्यान हूँ मैं
ख़ाली
हैं ज़मींदार के बहिखाते के धुमिल पृष्ठ
वहाँ
नहीं मिलेगा कोई हिसाब
किस–किस महाराजा की
सवारी में
मैंने
जिगर के टूटने तक रास्ता खोदा
कितना
हल जोता चौधरी का खेत
कितने
दिन चलाया फावड़ा
एक
टुकड़ा लंगोट के सहारे
कितने
साल–महिने और दिन की शरम ढँका
लेकिन
रखा है मैंने एक–एक हिसाब
न
पटवारी को मालूम है
न
चौतरिया को मालूम है
लेकिन
मालूम है मुझे
कहाँ–कहाँ चुकाया मैंने
साँस
लेने का मूल्य
इस
मिट्टी के सिवाय मेरा कोई नहीं है सहोदर
कोई
रिश्तेदार, कोई प्रियजन
इस
मिट्टी के अलावा कोई नहीं है मेरा अपना
इसी
में दफनाए गए हैं
महामारी
में मरे हुए मेरे पुरखों के हस्तीहाड
मलेरिया
से निगले हुए मेरे दोस्तों की पसलियाँ
हैजा
से सफाया किये हुए मेरे बच्चों की मासूम कोमल खोपडि़याँ
मैं
उन्हीं अवशेषों का साक्षी होकर बैठा हूँ
भुलाए
बिना कोई हरफ़
मैं
उन्हीं त्रासदियों की कहानी कहने के लिए खड़ा हूँ।
विजेता
उगने
के लिए बाक़ी
जितनी
भी रोशनियाँ हैं
,तुम्हारी हैं
खुलने
के लिए बाक़ी आकाश
खिलने
के लिए बाक़ी फूल
और
चलने के लिए बाक़ी रास्ता
सभी
तुम्हारे हैं
तुम्हारे
ही हैं चाँद और सितारों के गीत
जादूई
उपत्यका, पहाड़ और समुद्र की कहानी
सहस्र
कल्पना और उनके हरेक पंख
तुम
जहाँ पर खड़े हो वह धरती तुम्हारी ही है
यह
आँधी और बौछार का संगीत तुम्हारा ही है
इस
आग के लपके में जल रहा
तप्त
विद्रोह भी तुम्हारा ही है
बढ़ने
के लिए जितना चाहिए आसमान वह तुम्हारा ही है
फैलने
के लिए जितना चाहिए क्षितिज वह तुम्हारा ही है
तुम्हारे
साथ ही सुरक्षित है नैसर्गिक
तुम्हारी
उड़ान
और
तुम्हारे प्रिय सपने
जैसे
घास, पेड़ और जंगल
जैसे
हवा, पानी और बादल
उतने
ही स्वतन्त्र हो तुम
इस
मिट्टी के ऊपर खड़ा होने के लिए
और
अपनी राह बनाकर चलने के लिए
तुम्हारे
साथ
जो
पल रहा है विचार और संकल्प
वह
केवल तुम्हारा है
मनुष्य
के दुःख और दासता के बारे में
उनके
मोक्ष और मुक्ति के बारे में
जो
हैं सवाल तुम्हारे पास
तुम्हारा
ही है
उनका
जवाब ढूँढ़ने वाला प्रयत्न
कुछ
भी नहीं है दुनिया में
मन
से बड़ा औ स्वप्न से आगे
कोई
छीन नहीं पायेगा तुमसे
कोई
लूट नहीं पायेगा
केवल
तुम्हारे हैं
तुम्हारे
द्वारा तय किये गये लक्ष्य
और
जब तक बाकी है
इन्सान
होकर जि़न्दा रहने का लक्ष्य
होंगे
तुम सदा
विजेता।
हूबहू
पुराना
जैसा
हूबहू
वैसा
ही दिखता है
गणतन्त्र
का नया शासक
वैसे
ही मुस्कराता है कुटिल मुस्कान
वैसे
ही करता है अभिनय
वही
तरिक़े से
उसी
शैली में
देता
है मूँछ पर ताव
और
बोलता है झूठ
ठीक
वैसा ही है उसका मिजाज़
वैसी
ही है मुख–मुद्रा
वैसा
ही है भाव-मण्डल चेहरे में
जात्रा
में, मेले में
ठीक
वैसे ही निकलती है उसकी सवारी
छोटा
आयतन का सड़क का घनत्व
सिकुड़ता
है एकाएक फ़ुटपाथ में
वैसे
ही निस्पृह खड़ा होता है आम आदमी
और
निर्विघ्न सम्पन्न होती है
‘राजकीय’ सवारी!
कैसे
हो सकता है गणतन्त्र में भी
हूबहू
वैसा ही सब?
दुविधा
में है सड़क पर चल रहा आदमी
और
याद कर रहा है
बख्तरबन्द
गाड़ी के पहरे को चुनौती देकर
चौक
में
किसी
महाराजा के पुतले को तोड़ा हुआ दिन।
जब
मैं पागल होती हूँ
जब
मैं पागल होती हूँ
भागते
हैं मुझ से सभी भय
युद्ध
में निकला हुआ सिपाही जैसा
मालूम
है मुझे ऐसा वक़्त
मरने
और जीने की आधी–आधी सम्भावना
नहीं
रहता है कुछ भी याद
लोगों
की उपेक्षा
खदेड़ा
गया आवारा कुत्ता जैसा
मुझे
खदेडता हुआ समाज
तख्ता
से लटकाकर
फाँसी
की रस्सी खींचने के लिए तैयार
जल्लाद
जैसा राज्य
अभी–अभी बोली सिखता
हुआ बच्चे कि तरह
मेरे
प्रत्येक शब्द में होते हैं
बहुसंख्यक
लोगों की समझ न आनेवाली
लेकिन
मेरी समझ की सच
हाँ
ऐसे
पगलाने की पराकाष्ठा में
लिख
रही होती हूँ
कविता
मेरे
सकुशल साथियो!
इस
दुनिया में पागल होने से सुन्दर चीज़
और
क्या हो सकती है?
बिजय बिस्वाल की पेंटिंग काठमांडू ब्राउन यहाँ से साभार |
काठमांडू
मानों
कबाड़ख़ाना
है यह शहर
और
सारी नगर की सुन्दरता का निर्विकल्प ठेका लेकर
रंगों
के डिब्बों के साथ खड़ी हैं
कैटरीना
कैफ़!
ये
सफ़ेद–सफ़ेद सरकारी मकान
इतने
बड़े–बड़े अड्डे
उत्पादन
करते हैं
दुनिया
में कहीं न बिकने वाले फ़ालतू विचार
और
वही विचार के कूड़ा-करकट के ऊपर खड़ा है
शहर
का वास्तुशास्त्र
इस
शहर में
पैदा
नहीं हुई
कोई
नयी चीज़
कोई
सुन्दर चीज़
श्री 3 जंगबहादुर राणा1
द्वारा जारी
मुलुकी
ऐन2 का दफ़ा रट–रट के तैयार हुआ
तोता
है प्रशासक
मास्टर
की गर्दन और सहपाठी का खप्पर कुचलकर
राजनीति
का रोमांच सीखा हुआ
गुण्डों
का सरदार है नेता
सत्ता
का अवशिष्ट इन्तज़ार करके
हरदम
द्वार के बाहर बैठा हुआ
श्री
हीन है पत्रकार
दण्डवत
मुद्रा में झुकते–झुकते
खड़ा
होना ही भूल चुका
चमचा है लेखक
इनमें
से किसी के पास नहीं है
शहर
के लिए
मौलिक
सौन्दर्यबोध
आसमानी
पुल की दीवारों मे
में
स्निकर्स
चॉकलेट के विज्ञापन लटकाकर
कहाँ
हो सकती है अनुभूति स्वादिष्ट?
जब
इन्हीं विज्ञापनों को देखकर शुरू होने लगती है उल्टियाँ
बदलता
है तब स्वाद का भी मनोविज्ञान
किसने
बनाया इस शहर को
ऐसा
बेरंग, सुगन्धहीन?
कोई
तो बता दो
कहाँ
छिपकर बैठा है
यह
अभागा शहर का
निजी
रंग और सुगन्ध?
एक
से एक हेरिटेज
एक
से एक हिडेन ट्रेजर
सब
केवल
क्यूरियो3 की दुकानों में
सजाकर
रखे हुए
प्राणहीन
मूर्ति जैसे लगते हैं
मानों
दूसरे
किसी मुल्क का शहर
अपनी
उतरन मुस्कान लेकर
कृपापूर्वक
खड़ा है इस शहर में
और
अपूर्व सौन्दर्य की दूत जैसी
रास्ते, चौरस्ते में
बस
स्टॉप में
चौबीसों
घण्टे जागे रहती है
कैटरीना
कैफ़!
नज़दीक
ही
इनामेंल
उतरे हुए अक्षरों में लिखा हुआ है
–
‘मेरो पौरख, मेरो गौरव, मेरो काठमांडू।’
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जंगबहादूर
राणा1 – नेपाल के प्रथम
राणा प्रधानमन्त्री जिन्होंने कुख्यात कोत पर्व (वि.सं 1903 तदनुसार सन् 1846) में
शाही षड्यन्त्र की एक गोटी के रूप में नेपाल के दरबार में प्रवेश किया और चालाकीपूर्वक
104 वर्षीय राणा-शासन की नींव रखी। इन्होंने अपने
आपको श्री 3 महाराज की पदवी दिलवाकर लगभग सभी राजकीय शक्ति हथिया
ली थीं और तत्कालीन राजा को नाममात्र का बना दिया था। इनके बाद इनके भाई और उनके बेटे
लगातार देश के प्रधानमन्त्री हुए। इस काल को नेपाल का अन्धकार युग कहा जाता है
-अनुवादक
मुलुकी
ऐन2 – नेपाल की प्रथम
लिखित संहिता। यह मनुवादी आचार पद्धति और कट्टर वर्ण-व्यवस्था
का हूबहू अनुसरण थी।
क्यूरियो3 – किसी देश की
पहचान दिखानेवाली मूर्ति, मुद्रा, कपड़ा
या सांस्कृतिक महत्व की वस्तु-बिक्री करने की दूकान।
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संपर्क : tiwarisarita36@gmail.com
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टिप्पणियाँ
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'